हिन्दी का प्रकाशन जगत वह जगह है
जहां खाद-पानी से पौधे नहीं गमले फलते फूलते हैं । इसलिए पौधों के लिए जरूरी है कि
वे अपनी खुराक हवा से प्राप्त करें,
यदि वे वाकई पौधे हैं । वरना वे प्लास्टिक हो जाएँ, लगे कि
पौधे हैं, लगे कि हरे हैं, लगे कि लदे
हैं फूलों से भी, लगे कि सदाबहार हैं । साहित्य अब ड्राइंग
रूम में सजाने दिखाने की ‘चीज’ है ।
जैसे अक्सर रायबहादुरों की दीवारों पर
टंगी होती हैं बारहसिघों की गरदनें बंदूकों के साथ । लेकिन छोड़िए, अपन चलते हैं प्रकाशक के दफ्तर में ।
“पाण्डुलिपि बहुत अच्छी है आपकी ।“
प्रकाशक ने पन्ने पलटते हुए कहा तो भानु ‘भोले’ के अंदर लड़खड़ा रहा आत्मविश्वास अचनक सीधा खड़ा हो गया । बोले– जी, मुझे भरोसा था कि आपको पसंद आएगी ।
“टायपिंग अच्छी है, और कागज भी आपने अच्छा इस्तेमाल किया है ।“
“जी, आपका इतना बड़ा प्रकाशन है, इतना नाम है आपका तो
कागज बढ़िया लेना ही था । आप देखिये हर पन्ने पर गोल्डन बार्डर भी प्रिंट करवाया है
मैंने । ऐसी पाण्डुलिपि पहले कभी नहीं आई होगी आपके पास । “ भोले के आत्मविश्वास
ने सिर उठाया ।
“बार्डर तो बढ़िया है लेकिन .....
मैटर हल्का है । “
“मैटर !! आपका मतलब कविताओं से है
क्या ?!”
“अभी कवितायें कहाँ ..... सब मैटर
है । पाण्डुलिपि भर शब्द । मुश्किल है हमारे लिए । किसी और को दिखा लीजिये । “
“अरे सर ऐसा क्या !! किताबें तो
आपके प्रकाशन के नाम से बिकती हैं । लोग मान कर चलते हैं कि आपने छापी हैं तो
अच्छी ही होंगी । जहाँ दूसरी बीस किताबें सप्लाय करते हैं उन्हीं के बीच एक यह भी
निकाल जाएगी । फिर लागत तो मैं आपको दे ही रहा हूँ, चालीस हजार । अगर मैटर की दिक्कत आ रही हो तो पाँच और बढ़ा लीजिये पर छपना
तो आपको ही पड़ेगी । “ भानु ‘भोले’ व्यावहारिक
भाला फ़ैका ।
“ठीक है, पाँच और ले लूँगा । लेकिन मैटर की दिक्कत बड़ी है । लेन-देन हमारा आपस का
मामला है लेकिन पाठक के पास तो किताब जाती है । “
“पाठक हैं कहाँ अब, आप ही कहते हैं कि किताबें बिकती ही नहीं हैं । मुफ्त दे दो तो सजावट के
काम आती हैं । कवर बढ़िया होना चाहिए बस । “
“ऐसा नहीं होता है भानु भोले जी ।
थोक खरीदी में जाती हैं किताबें । अधिकारी एक दूसरे की टांग भी खींचते हैं । मैटर
ठीक नहीं हो तो कभी कभी पूरा लाट चेक हो जाता है । और बड़ी दिक्कत आपके लिए भी है ।
अक्सर लेखकों का मूल्यांकन उनके मरने के बाद होता है । शोकसभा में किसी ने कह दिया
कि किताबें तो सात हैं लेकिन लेखन कूड़ा है तो सोचिए क्या होगा । फोटो पर चढ़ी
मालाएँ फट्ट से सूख नहीं जाएंगी !? “
“ !!! ... आप कुछ तो कीजिये ना । “
“ कवितायें बनवाना पड़ेंगी । कुछ लोग
बनाते है, यू नो राजधानी में सब काम होता है । चार्ज लगेगा लेकिन मैटर ठीक हो जाएगा
। “
“तो क्या उसका नाम भी जाएगा किताब
पर !?”
“उसका नाम क्यों जाएगा !? जिल्द बनाने वाले का जाता हैं क्या ? दूसरे किसी
लेबर का जाता है क्या ? आप निश्चिंत रहिए । नाम सिर्फ आपका
जाएगा, पैसा तो आप दे रहे हैं । “
“फिर ठीक है । “
“कैश लाये है ना , जमा करवा दीजिये । और लोकार्पण की तैयारी कीजिये,
महीने भर में किताब मिल जाएगी । ... पाण्डुलिपि चाहें तो ले जाइए, अच्छी बनी है ।“
भानु ‘भोले’ ने पाण्डुलिपि रख ली,
सोचा अगली किताब बनवाने के काम आएगी ।
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