शहर
में बड़ा अस्पताल बना और लोग फटाफट बीमार रहने लगे । इससे ज्यादा अच्छे नागरिक किसी
दूसरी जगह देखने को भी नहीं मिलेंगे । ये लोग जानते हैं की बिना नागरिक सहयोग के
सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है । लोकतन्त्र की खूबसूरती यही है कि सरकार जनता के वोटों से बनती है । शुरू शुरू में
वोट गावदी किस्म का सस्ता वोट था, लेकिन
राजनीतिक दलों ने वोट कि कीमत लगा लगा कर उसे बाज़ार का महंगा आइटम बना दिया है ।
कभी अद्धे पौवे में बिकने वाले वोट अब जिंदगी भर का समान मुफ्त मांगने लगे हैं और मजे
की बात यह कि शरम भी नहीं आती है ।
ये
अस्पताल भी कभी दूसरी जगह के लिए बनना तय था जहाँ गरीबी बहुत है । सरकार को यह समझाने
में बड़ा वक्त लगा कि गरीबों का अस्पताल से क्या लेना देना है । उनका इलाज तो खुद
भगवान करते हैं । अस्पताल तो उन लोगों के काम का है जिनके पास खूब पैसे हैं । आप टीवी
देखिए, बीमा वाले चीख चीख कर बता रहे हैं कि अस्पतालों के खर्चे लाखों में होने
लगे हैं । यह एक तरह का अमानवीय कार्य हैं लेकिन लीगल है । अगर किसी को सर्दी
खांसी भी हो जाए तो लाख- पचास हजार से कम में ठीक नहीं होता है । शायद इसी को विकास
समझा / समझाया जा रहा है । इसलिए आप बीमा करवाइए, सरकार के हाथ
में कुछ नहीं है । महंगे इलाज के लिए महंगा बीमा आदमी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी
दिलाता है । बीमें की प्रीमियम इतनी अधिक होती है कि एक बार दे कर साल भर आपको
अमीर होने का अहसास होता है । इधर शहर भर के लोगों ने बीमा करवा कर सरकार की लाचारगी
को श्रद्धा सुमन अर्पित किए । बिजनेस सेक्टर में इसे बीमा कंपनी और बीमा एजेन्टों
की भारी सफलता बताया जा रहा है ।
लोग
साल भर प्रीमियम भरें और बदले में अस्पताल जाने को न मिले तो फायदा क्या !! आदमी
अमीर होता है बेवकूफ नहीं । स्कूटर का भी बीमा करवाता है तो खुद ठोक के मुआवजा वसूलता
है । बीमा करने के बाद अस्पताल चिकित्सा केंद्र से आगे की चीज हो जाता है । सीजन भर
की भागदौड़ और हायबाप के बाद आखिर हर घोड़े को अस्तबल होना चार छः दिन के लिए । ऐसे में
अस्पताल दूसरे शहर में हो तो बड़ी दिक्कत होती है । बीमार अकेला महसूस करता है ।
लोग आ नहीं पाते हैं मुँह दिखाने और मिलने के लिए । सोचिए कोई पैसे वाला बीमार पड़ा
हो, अस्पताल में भर्ती हो और उसकी तबीयत पूछने वाले आ नहीं पाएँ तो क्या
फायदा ऐसी व्यवस्था से !! अस्पताल शहर में ही हो तो नाते रिश्तेदार अपना फर्ज पूरा
कर लें । पास पड़ौसी, पार्षद-विधायक तबीयत पूछ लें तो बीमा और
बीमारी सार्थक है वरना क्या धरा है संसार में ! लोकल अस्पताल में लोकल मरीज हो तो
लोकल लीडर मिल लें और अखबार के लोकल पेज में खबर छप जाए तो लगे कि दुनियादारी सफल है । कभी कभी फूल लेते-देते फोटू भी आ जाती है तो समझो कि लोकतन्त्र की सांस चलती
है इस तरह के माहौल से । अस्पताल असल में एक पूरे सिस्टम को भी जिंदा रखने के काम
आता है । रहा सवाल गरीब गुरबों का तो भईया उनके लिए ओपीडी चालू रखो और गोली पुड़िया
देते रहो । आखिर वोटों का भी जिंदा रहना जरूरी है । सिस्टम में गरीब की भूमिका वही
होती है जो खेत में खाद की होती है ।
पिछले
साल अस्पताल का उदघाटन ज़ोरशोर से हुआ था । मंत्री जी ने साफ साफ कहा था कि अब शहर
के नागरिकों की ज़िम्मेदारी है कि वे अस्पताल का भरपूर लाभ लें । सरकार केवल
अस्पताल का खर्चा उठा सकती है लेकिन बाकी लाभ उठाना जनता और बीमा कंपनियों के हाथ
में है । लोगों को पीठ में खुजली भी हो और अगर उसने बीमा करा रखा हो तो उसे भी फ़ार्मेलिटी
पूरी करके बकायदा अस्पताल में आ जाना चाहिए । अगर अस्पताल खाली रहा तो वह बीमार हो
जाएगा । मंत्री ने इशारों में बात समझा कर सहयोग किया । तभी से शहर के नागरिकों ने
तय कर लिया कि वो ऐसा नहीं होने देंगे ।
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बीमार व्यवस्था को बहुत असरदार व्यंग्य इंजेक्शन दिया आपने धोड़े की नीडल से ... मज़ा आ गया सर !
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