दिन
मंदी के हैं और हरगोविंद को दुकान पर बैठे अपने तमाम दोस्तों की याद आ रही है ।
मंदी का यह बड़ा फायदा है, वरना दिन अच्छे हों
तो लोग भगवान को भी याद नहीं करते हैं । कवि भी कह गए हैं –“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय” । यही वजह है कि जब कोई दरवाजे पर आता है या फोन पर, तो मन में पहला सवाल यही उठता है कि ‘कुछ काम होगा
वरना बिना मतलब के कौन किसे याद करता है !’ बाज़ार में भी जब
कामकाज ज्यादा होता है उस समय को सीजन कहते हैं । सीजन में कारोबारी इतने व्यस्त होते
हैं कि लघुशंका रोके गल्ले पर बैठे रहते हैं । ऐसे में उन्हें कोई याद आ जाए यह
संभव नहीं है । लेकिन इन दिनों मंदी है और कारोबारी खूब पानी पी रहे हैं और बिना
इमरजेंसी के लघुशंका भी जा रहे हैं । यू नो, टाइमपास । काटे
नहीं कटते ये दिन ये रात .... । बाज़ार में ठंडापन इतना है कि लगता है कि सेमी
कर्फ़्यू लगा हुआ है । अव्वल तो लोग आते ही नहीं, जो आते भी
हैं तो लगता है परिक्रमा लगाते निकल जाते हैं । पोपली जेबें विधवा सी हो चली हैं ।
कभी लदी फँदी और भरी मांग वाली थीं अब भजन गा रही हैं – ‘क्या
ले कर आया बंदे, क्या ले कर जाएगा ;
खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा’ ।
कल
हरगोविंद ने अपना पुराना रेडियो निकल लिया । सोचा खाली बैठ कर सड़क टूँगने से अच्छा
है कि विविध भारती पर साठ-सत्तर के दशक वाले गाने ही सुने जाएँ । पुरानी यादें
उछलने कूदने लगेंगी तो दर्द पता नहीं चलेगा । मंदी का भी एक दर्द ही है । हालाँकि फेसबुक
और वाट्स एप के जमाने में रेडियो से चिपकाना आउट डेटेड है । लेकिन ठीक है, पीत्ज़ा बर्गर के जमाने में लोग गुझिया गुलगुले भी तो खाते ही हैं । दुकान
में तीन नौकर थे, दो को हटा दिया है । एक बचा है वह भी अब मालिक
के साथ फ्री बैठा रेडियो सुनता रहता है । हरगोविंद को यही नहीं सुहाता है । मंदी
हुई तो क्या हुआ मालिक मालिक है, नौकर नौकर है । उन्हे
बेइज्जती सी महसूस होती है । लगता है जैसे दोनों एक ही कप से चाय पी रहे हों ।
मालिक नौकर एक ही जाजम पर बैठ कर उमराव जान का मुजरा सुने यह तो करीब करीब लानत
जैसी बात है । लेकिन मंदी हैं भाई । मंदी में चौतरफा गिरावट दर्ज की जा रही है तो
मालिक कौन चमेली का तेल डाल रहे हैं ! नौकर को तो फिर भी खाली बैठने के पैसे मिल
रहे हैं, फालतू तो हरगोविंद है । यहाँ तक तो ठीक था, नौकर गाना सुनते हुए पैर हिलाता है । हरगोविंद को कतई अच्छा नहीं लगता है
। एक दो दिन से वह सिर भी हिलाने लगा है । गुस्सा तो इतना आ रहा है कि नौकरी से
निकाल दें । लेकिन मजबूरी है, कमबख्त को रुपए उधर दे रखे हैं
जो तनखा से कटते हैं हर महीने ।
दूसरे
दिन हरगोविंद रेडियो घर ले गए और कान में ईयर फोन लगा कर सेलफोन से गाने सुनने लगे
। उन्हें देख कर नौकर ने भी अपना फोन निकाला और कान में बट्टे ठूंस लिए ।
हरगोविंद
को यह भी पसंद नहीं आ रहा है ।
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सही कहा सर जी आपने , सचमुच धंधे की तो वाट लगी है और हरगोविंद जैसे प्राणी हर मार्केट में उपलब्ध हैं।
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