सेवानिवृत्ति
के बाद इधर बहुत से स्थगित काम हाथ में लेने का चलन है । मेरे मित्र मिसिर बाबू के
सामने ऐसी ही कुछ स्थिति थी । सो उन्होने अपना लेखकीय उपनाम ‘कपोल’ रखा और रोजाना आठ-दस कवितायें लिखने लगे ।
जल्द ही उनकी कविताएँ कोरोना वाइरस की तरह फैली और लोग संक्रमित होने लगे ।
सेवानिवृत्त कहाँ नहीं हैं, आजकल तो कुछ ज्यादा ही हो गए हैं
। जो भी चपेट में आता गया वह भी लिखने लगा । पीड़ितों के घर वाले शिकायत करते कि “प्लीज, कपोल जी को किसी और काम में व्यस्त कीजिए, वरना
......” । लेकिन ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया । कपोल जी को विश्वास हो चला कि
उनके शब्दों में गजब की ताकत है । वाइरस हों या बेक्टेरिया या फिर कविता ही हो, देश और दुनिया को हिला सकते हैं । वे कहते कि एक दिन कपोल-काव्य संसार
में उथल पुथल मचा देगा । माहौल देख कर उन्होने घोषणा की कि वे जल्द ही खंड काव्य लिखने जा रहे
हैं । खबर मिलते ही पड़ौसी चौबे जी ने लोगों को सूचित किया कि उनका ट्रांसफर हो गया है
और वे तत्काल शहर छोड़ कर जा रहे हैं । वे चले भी गए । पीछे चर्चा है कि उन्होने
रिश्वत दे कर अपना ट्रांसफर किसी सेफ जगह करवाया है ।
कपोल
जी की चर्चा और आतंक देख कर तमाम सेवानिवृतियों ने कलम उठा ली । कुटीर उद्योग की
तरह कविता-उद्योग घर घर में दनादन शुरू हो गया । कपोल दूसरे ... तीसरे ... चौथे ....
पांचवे .... सीना तान कर पल्लवित होने लगे । लेकिन जैसा कि नियम है एक कपोल दूसरे की
नहीं सुनता है इसलिए कविता के मार्केट में सुनने वालों का अकाल पड़ गया । सबको अपना अपना नया शिकार
ढूँढना पड़ा । कविगण अपने दूधवाले, सब्जी वाले, फेरी वालों को पकड़ पकड़ कर सुनाने लगे । कई घरों में महरी यानी काम वाली
बाइयों ने माइग्रेन की तकलीफ के कारण काम छोड़ दिया । बहुएँ अपने मायके फोन करने लगीं कि भैया आ कर ले जाओ हमें कुछ
दिनों के लिए, वरना हमारा मरा मुंह देखोगे ।
नगरनिगम
की एक बैठक हाल ही में हुई है । सातवें वेतन मान के लिए फिर से मांग उठी है लेकिन
बजट नहीं है । किसी ने सुझाव दिया है कि सफाई कर का दायरा बढ़ाया जाए और कविता
फैलाने वालों को भी दंडित करने की व्यवस्था हो । पता चला है कि कुछ लोग बहला फुसला कर, चाकलेट-कुल्फी का लालच दे कर कपोल-कृत्य करते हैं । शहर बदनाम हो रहा है , व्यवस्था को इसका
संज्ञान लेना चाहिए । कोई रंगे हाथो पकड़ा जाए तो उस पर लोक आस्था के अनुरूप
कार्रवाई होना चाहिए । यदि प्रशासन सुस्त रहा तो आशंका है कि मौब-लीचिंग की घटनाएँ
होने लगेंगी । हमें याद रखना चाहिए कि कानून अपना काम नहीं करेगा तो प्रगतिशील समाज खुद
कानून की भूमिका में आ जाता है । सब जानते हैं कि कानून अंधा होता है लेकिन उसके
कान होते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि
वो हर समय हर कहीं हर किसी की कविता सुनता रहेगा ।
इधर
कपोल कर्मियों को जब पता चला तो उन्होने अपना एक संगठन बनाने का ऐलान कर दिया ।
जल्द ही वे कविता लिखने और सुनाने को मौलिक अधिकारों में स्पष्ट रूप से शामिल करने
के लिए धारना देने की योजना बना रहे हैं । जैसे ही शाहीन बाग वाले जगह खाली करेंगे
कपोल कर्मी वहाँ जा कर बैठ जाएंगे ।
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वाह वाह वाह ...क्या ही चिकोटियाँ काटी हैं सर , पर निवेदन है कि मेरी नई छोटी सी ( सिर्फ 999 पंक्तियों की) कविता सुनेंगे क्या !!!
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