“तुम्हें
पता है दिल्ली कहाँ है ?” अचानक छोटूजी ने
बड़कूजी से पूछा ।
“
पता है । दिल्ली दिल्ली में ही होगी और कहाँ जाएगी !!”
“मेरा
मतलब है कि हम लोग दिल्ली जा रहे हैं तो हमें ठीक से पता होना चाहिए कि दिल्ली
कहाँ है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी दिशा गलत तो नहीं है । “
“दिशा
विशा की चिंता छोड़ो । बस इतना याद रखो कि हमारी दिशा सुनिश्चित है । ... मात्र
दिल्ली के लिए हम अपनी दिशा नहीं बदल सकते हैं ।“
“मैंने
तो समान्य सी बात पूछी है । दिल्ली
पहुँचने के लिए हमें दिल्ली की दिशा में ही तो चलना होगा ! वरना पहुंचेंगे कैसे ?!”
“नेतृत्व
बड़ी चीज होती है । नेतृत्व पर भरोसा रखो । जरूरत पड़ी तो वे हमारी दिशा में कई दिल्लियां
बनाते चलेंगे । हमें केवल चलने और चलते रहने के निर्देश हैं । इसलिए चलते चलो, चलते चलो ।“ बड़कूजी ने अपना अनुभव रखा ।
“फिर
भी मैं सोचता हूँ कि एक बार किसी से दिल्ली का पता पूछ लेने में कोई हर्ज नहीं है
।“
“तुम
सोचते हो ! ... अभी तक !! ... इसका मतलब यह है कि तुम्हारा संस्कार नहीं हुआ ठीक से । सोचना बंद करो तुरंत ... वरना थर्ड डिग्री संस्कार के लिए तैयार रहो ...
और हाँ एक बात साफ समझ लो, हमारी दिल्ली
इतिहास में है । हमें इतिहास में जाना पड़ेगा । मानो कि इतिहास ही हमारी दिशा है ।“
“कुछ
समझा नहीं ! हमें इतिहास में क्यों जाना पड़ेगा बड़कूजी !!?”
“क्योंकि
हम इतिहास में नहीं हैं और लोग बार बार हमें इतिहास में ढूंढते हैं । आधुनिक
शिक्षा ने लोगों की समझ और सोच को विकृत कर रखा है । जो इतिहास में नहीं हैं
उन्हें वर्तमान में भी नकार रहे हैं । ऐसे लोगों को गोली मार कर हे-राम कर देना
चाहिए । “
“लेकिन
जब हम इतिहास में हैं ही नहीं तो इतिहास में जाएंगे कैसे ?!!”
“इतिहास
बदल कर । हमें इतिहास बदलना होगा और अपने लिए जगह बनानी होगी । याद रखो, जगह बनाने से ही बनती है । नेतृत्व पर विश्वास रखो और तुम बस चलते रहो ।“
“मैं
चल तो रहा हूँ बड़कूजी । लेकिन पथ समझ में नहीं आ रहा है ..।“
“समझने
की कोशिश करोगे तो चलोगे कैसे !! ... लक्ष्य चलने से मिलता है, समझने के प्रयास से केवल भ्रम पैदा होता है । ... चलो कि जैसे बैल चलते
हैं गाड़ी में ।“
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नासमझों पर करारा व्यंग्य
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