ऊपर वाला
जब देता है तो आपकी रजा नहीं लेता है । जैसे कि बुढ़ापा । हालांकि जब पैदा हुए थे तभी तय था कि एक दिन आएगा आने वाला
। एक शायर ने लिखा है - “सफर पीछे की जानिब है,
कदम आगे हैं मेरे। मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवां होने की खातिर” । लेकिन वो जवानी
क्या जिसमें कुछ याद रहे और वो बुढ़ापा क्या जो कुछ भूल जाए । जी हाँ, बूढ़ा अक्सर टहलता हुआ अपनी पैदाइश तक पहुँच जाता है । लेकिन इस चक्कर में
आदमी बर्तन से ठीकरा हो जाता है और उसे पता नहीं चलता ।
हमारे सिंह
साहेब की गाड़ी अच्छी चल रही थी । लेकिन इन दिनों वे मुश्किल महसूस कर रहे हैं ।
बुढ़ापे के शुरुवाती दिनों में कवितायें लिखीं जिन्हें कुछ लोगों ने लिहाज में सुन
भी ली । बुढ़ापे में साहित्य सेवा का जोशोजुनून था, रोज एक दर्जन कवितायें खेप सी उतारने लगीं । लेकिन धीरे धीरे सुनने वाले
नदारद होने हुए । पड़ौसी दूर हुए, मोहल्ले वाले कतराने लगे, रिशतेदारों ने आना छोड़ दिया यहाँ तक की घर वाले दायें बाएँ होने लगे । अधूरा
कवि वियोगी हो कर बीमार रहने लगा । किसी ने सुझाया कि कविगोष्ठियों में जाओ । गए
भी । लेकिन पहले से सुनाने वालों की लंबी लाइन थी । भाँप गए कि नए कि दाल गलने की
संभावना नहीं के बराबर है । पहली बार उन्होने निराशा के साथ प्रार्थना की –“ तेरी
दुनिया में दिल लगता नहीं वापस बुला ले.... मैं सजादे में पड़ा हूँ मुझको ऐ मालिक
उठा ले “ ।
उधर कोने
वाले वर्मा जी तीन दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुए थे, खबर आई है कि आज फ्री हो गए और परसों उठवाना भी है । बेनर्जी बाबू का भी
ऐसा ही हुआ था, सात दिन भर्ती रह कर उन्हें मुक्ति मिली थी आराम से ।
बहुत सोच कर
सिंह साहेब ने बेटे से कहा मुझे अस्पताल में भर्ती करवा दो । बेटे को अस्पताल के
बिल का पता था, बोला – अभी नहीं । अभी आप ठीक
हैं । लेकिन सिंह साहेब सोच रहे हैं कि अगले हफ्ते उठावना हो जाए तो अच्छा है, अभी मौसम साफ है, काफी लोग आ जाएंगे । बोले – “एक
बार भर्ती करवा के देख लो बेटा । क्या पता प्रभु ने अपना एयर पोर्ट अस्पताल में बना
रखा हो और उनका विमान वहीं से सवारी ले कर जाता हो ।“
बेटे को मुद्दे पर आना पड़ा, - “पापा जी अस्पताल वाले इलाज से पहले कई तरह की जाँच करवाते है ।“
सिंह बोले
- “करवाएँगे तो सही । उन्हें देखना तो पड़ेगा कि मुक्ति की नस कौन सी है । गला तो
दबाएँगे नहीं । वो तो घर पर भी दबाया जा सकता है लेकिन पुलिस का चक्कर हो जाता है
।“
“ पापाजी
आपको दिक्कत क्या है आखिर !?” बेटे ने पूछा ।
“कोई सुनता
नहीं है मेरी । मैं अकेले बैठा रहता हूँ । समझ में नहीं आता कि घर में रह रहा हूँ
या संडास में !! “ सिंह साहेब ने दुखड़ा बताया ।
बेटा बोला –
“परेशान तो होगे ही, कविता जो लिखने लगे
हो । लिखने कि बजाए आपको सुनने का धंधा चालू करना था । लिखने वाले हर घर में दो-दो
तीन-तीन हैं लेकिन शहर में सुनने वाले
कितने हैं ! उँगलियों पर गिने जा सकते हैं । लोग उन पर मक्खियों की तरह भिनभिनाते
रहते हैं । पेट पूजा करवाते हैं सो अलग । जिंदगी का असली मजा कविता सुनने में है ।
सुनने वाला कवियों का समधी होता है । “
जल्द ही
सिंह साहेब के मजे हो गए । निशुल्क बंद करके सशुल्क सुनने लगे हैं । हफ्ते भर की
वेटिंग है । अब पीले पत्ते ब्रेक डांस कर रहे हैं ।
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बहुत मजेदार रचना लेकिन उतनी ही खरी भी। बधाई सर।
जवाब देंहटाएंबहुत मजेदार लेकिन उतनी ही सटीक।
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