बुधवार, 27 अप्रैल 2022

देहला पकड़


 

आदमी अपनी वाली पे आ जाये कि लिखना है तो कुछ भी लिख सकता है . फुरसत का तो पूछो मत ; अब दिनों, हप्तों, महीनों, वर्षों की होने लगी है . आप ही सोचिये कितनी ही बेरोजगारी क्यों न हो आखिर कोई कब तक दहला पकड़ खेल कर टाइम पास पर सकता है ! लेकिन सिर्फ यही एक वजह नहीं है कि हर कोई लेखक हुआ पड़ा है . हर घर में बेरोजगार है जो ग्रेजुएट या इससे भी ऊपर तक पढ़ा है . कुछ ने बहकावे में आ कर चाय की दुकान तक लगा डाली लेकिन दुर्भाग्य, नाले से पर्याप्त गैस नहीं मिली . पांच छह सालों में बेरोजगारों की भीड़ इतनी बढ़ गयी है कि कोई भक्त सरकार यदि इन्हें गैस चेंबर में भर कर मोक्ष प्रदान करना चाहे तो गैस ही कम पड़ जाये . दुविधा और भी है आदमी पूरा मरा हो तो तकनीकी रूप से उसका वोट दो-चार चुनाव तक मेनेज हो सकता है . लेकिन अधमरे बेरोजगार से वोट लेना भी महंगा पड़ता है, नाशुक्रे रुपये ज्यादा मांगते हैं या फिर नोटा का भाटा मार देते हैं . इन्हें डंडे भी मारो तो कमबख्त नौकरी मांगते जोंक की तरह चिपक जाते हैं . वो तो अच्छा है बीच बीच में रैली-उद्योग, दंगा-उद्योग, सभा-उद्योग में बेरोजगारों की जरुरत निकल आती है और हजार पांच सौ उनके हाथ में आ जाते हैं वरना बीडी सिगरेट के डोडे पीने वाले हाथ कब पत्थर उठा लें कहा नहीं जा सकता है .

इधर साक्षर कालोनी से चार पांच साप्ताहिक पाक्षिक अख़बार निकल रहे हैं जो राष्ट्रीय स्तर के हैं ऐसा उनका दावा है . अख़बार अपना हो तो बाहर का साक्षर संपादक रखने की जरुरत नहीं पड़ती है . योग्यता का कोई सवाल ऐसी स्थिति में पैदा ही नहीं होता है . कुछ ने तो अपनी संगिनी को संपादक की कुर्सी पर बैठा लिया है . जब पार्षद-पति / सरपंच पति हो सकता है तो संपादक-पति क्यों नहीं ? एक राज्य में तो अपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री तक बना लिया गया था . और लोकतंत्र की जय हो कि वह पांच वर्ष राज भी कर गयी ! साक्षर कालोनी के इन राष्ट्रीय अख़बारों का च्यवनप्राश सरकारी विज्ञापन  हैं . मिल जाएँ तो पूरा अख़बार विज्ञापनों से भर दें . लेकिन थोडा बहुत दूसरा भी छापना पड़ता है . अच्छा ये है कि लिख्खाड अपनी रचनाएँ ले कर लम्बी लम्बी लाइन लगाये खड़े होते हैं . जीतनी जगह बचती है उस हिसाब से हांका लगा दिया जाता है . ‘चलो पांच सौ शब्द वाले आ जाओ’ . और एक झुण्ड आ जाता है . तीन सौ, दो सौ वाले भी बुला लिए जाते हैं . कभी कभी तो सौ वाले छः सात ले कर गरीबों के साथ न्याय करने का अवसर मिल जाता है . हजार पंद्रह सौ शब्द वालों को अब कोई नहीं पूछता है और गलती से भी कोई पारिश्रमिक मांग ले तो उसे बलात्कारी की तरह देखा जाता है .

खैर, साक्षर कालोनी की बात चल रही थी सो वहीं पर आते हैं . तमाम खाली हाथ इतने खाली हैं कि फ्री के स्लो-वाईफाई के बावजूद खाली ही रहते हैं . पहले दो जीबी डाटा फ्री देने वालों ने जबसे खुद हाथ पसारना शुरू कर दिया है यार लोग साहित्य का दहला-पकड़ खेलते हैं . अच्छी बात यह है कि एक दो रचना से मजे में आठ दस लोग खेल लेते हैं . किसी ने कविता, कहानी सुनाई तो कुछ आह और कुछ वाह भी ठोंकते हैं . हिसाब हर बात का होता है, नंबर सबका आता है . साहित्य का स्टार्ट-अप है जिसमें हर हाथ और मुँह के लिए काम है . नियमानुसार तारीफें ‘फटाफट-लोन’  हैं, मौके पर उसकी किस्तें जमा करना होती हैं .  कुछ की रचनाएँ कालोनी के राष्ट्रीय अख़बारों में छपते ही उस दिन का वह राष्ट्रीय कवि हो लेता है . सुख एक अनुभूति है जो निजी होती है . इसे आप नहीं समझोगे .

 पिछले दिनों तय हुआ कि शीघ्र ही ‘दहला-पकड़ साहित्य सम्मान’ शुरू किया जायेगा . पकड़ी जाने वाली विभूति को फूल माला, प्रशस्ति-पत्र, और ‘दहला-अलंकरण’ मोमेंटो वगैरह दिया जायेगा .  कुछ पैसा प्रायोजकों से और कुछ सम्मान प्रेमियों से एडवांस लिया जायेगा .  हाल या परिसर मालिकों को अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बना कर उन्हें कार्यक्रम के दौरान पांच बार ‘महान हिंदी सेवी’ या ‘महान साहित्य सेवी’ संबोधित किया जायेगा . स्व-लेखन/प्रकाशन की अनिवार्यता से ‘पकड़-सम्मान’ मुक्त रखा जायेगा ताकि साहित्य की ओर अधिकारी, नेता, व्यापारी, उद्योगपति आदि आकर्षित हों . बेरोजगारी की आपदा में अवसरों का सृजन कोई बुरी बात नहीं है . पहले रूपरेखा तय हो जाये फिर दहला पकड़ते हैं . आयोजन समिति के ‘विवेक’ पर सारी बातें छोड़ी जाएँगी . जहाँ विवेक नहीं होगा वहाँ बहुमत से निर्णय लिए जायेंगे . पकड़ प्रतिभाओं की बुकिंग चालू रहेगी . शीघ्रता करें, निराशा से बचें .

 

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