कुछ
देर खामोश रहे वे, लगा जैसे कुछ सोच रहे हों . सोचता हुआ आदमी अक्सर ख़ामोशी
अख्तियार कर लेता है . अपने यहाँ वोटिंग के एक डेढ़ दिन पहले प्रचार बंद कर दिया
जाता है ताकि वोटर सोच ले अच्छी तरह से . चुनाव के बाद रोना धोना जनता के लिए
अलाउड नहीं है . अपना गेंदालाल याद है ? जिसने पिछले साल आत्महत्या कर ली थी . सात
दिन पहले से खामोश चल रहा था . कभी कुँवे की मुंडेर पर बैठे नीचे झाँकता था तो कभी
इमली के पेड़ पर ऊपर ताकता था . चुनाव हो या आत्महत्या, ऐसे मामलों में निर्णय लेना
कठिन काम होता है . चुनाव आयोग भी चाहता है कि निर्णय बड़ा है तो लोगों को कुछ घंटे
सोचने का मौका मिलना चाहिए . लेकिन किसी के चाहने भर से क्या होता है भले ही वह
कोई आयोग फायोग ही क्यों न हो ! सभाएं और भोंगे बंद हो जाते हैं लेकिन टीवी चालू
रहता है . और आप जानते ही हैं टीवी अपने आगे किसी को सोचने कहाँ देता है . एंकर का
जलवा इतना कि वह चुनाव आयोग के सर पर भी चीखती रहती है . नतीजा यह कि न वोटर सोच
पाता है न ही आयोग . लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट यह है कि जनता को कोई भी सोचने नहीं देता है .
राजनीति का मन्त्र है कि ‘न सोचो और न सोचने दो’ . इन सब बातों को ध्यान में रखते
हुए मैंने तय किया वे सोच रहे हैं तो सोच लेने दो अच्छी तरह से . अपन डिस्टर्ब मत
करो .
पर्याप्त
आकाश ताक लेने के बाद उन्होंने नजरें इनायत की . लगा जैसे कोई बड़ा फार्मूला बरामद
कर लिया हो . बोले – “ देखिये आपके विचारों में काफी खुरदुरापन है, जब भी बोलते हो
तो लगता है रेगमाल चला रहे हो, जब लिखते हो तो लगता है कांटे बो रहे हो . इन
हरकतों से आदमी केक्टस का खूँट लगने लगता है . क्या तुम्हें नहीं लगता है कि अपनी
छबि सुधारो ? कवितायें लिखो, ललित निबंध लिख डालो, कितना बड़ा नीला आकाश है सर पर
उसे देखो, पहाड़, पंछी, फूल, नदियाँ क्या
नहीं है तुम्हारे सामने !? इन पर कलम चलाओ और साहित्य की दुनिया में फेयर एंड
लावली हो जाओ . ... और याद रखो, ‘अच्छा’ लिखोगे तो पुरस्कार भी मिलेगा .”
“पुरस्कार
!! ... पुरस्कार मिलेगा !?”
“अगर
सरकार की, सरकार के महकमों की टांग खींचोगे तो कैसे मिलेगा ? गबन-घोटालों,
भ्रष्टाचार को खींच खींच कर सामने रखोगे तो पुरस्कार देने वाले खुश होंगे क्या ?
वे लोग तुम्हारी तरह अमानुष नहीं इन्सान हैं और इस ‘व्यापक’ व्यवस्था का हिस्सा
हैं . और जानते हो पुरस्कार कहाँ से आता है ?
इसी व्यवस्था से . इसमें एक हाथ दूसरे हाथ की मदद करता है . ध्यान रखो तुम
दूसरा हाथ हो . ... अब बताओ, क्या विचार
है ?” उन्होंने पूछा .
“सर
आपकी बात सही है लेकिन सारे लोग बसंत और सरसों पर कूदने लगेंगे तो कम्पीटीशन बहुत
बढ़ जायेगा . रचनाकारों में भी वर्ण, जाति और गोत्र बन जायेंगे . बन क्या जायेंगे,
पहले से ही बने हुए हैं, और विकृत हो जायेंगे .”
“फिर
तो तुम शूद्र कहलाओगे . शूद्र भले ही साहित्य वाला हो उसे आदर का स्थान नहीं मिल
सकता है . तुमने सुना ही होगा कि शूद्र कितना ही विद्वान् क्यों न हो वह कदापि
पूज्य नहीं है . मुंह से भले ही कोई नहीं बोले पर मानते सब हैं . क्या तुम्हें
नहीं लगता कि अपने लिखे से तुम साहित्य में शूद्र हो ? ऐसा लिखों कि ‘पूज्य’
श्रेणी के मने जाओ .” उन्होंने पूरी आँखों से घूरते हुए पूछा .
“शूद्र
नहीं क्षत्रीय . साहित्य में हम क्षत्रीय हैं . हमारे पुरखों ने बताया है, बकायदे
लिखा है कि हम लोग क्षत्रीय हैं .” हमने
कहा .
उन्होंने
पुनः विचार मुद्रा धारण की . लगा कि कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हैं . होठों पर
दो तीन बार हाथ मरने के बाद बोले – “आरती और प्रशस्ति गाने वाले, चाटुकार और
चम्मच, दुमदार लेखक क्षत्रीय कैसे हो सकते हैं !! लेखक में क्षत्रीय के गुण भी तो होना
चाहिए. स्वयं को क्षत्रीय कहने से कोई क्षत्रीय नहीं हो जाता है . जब तक दुनिया
उसे क्षत्रीय नहीं मान ले वह क्षत्रीय नहीं है . यों तो गली गली में होर्डिंग्स
लगे होते हैं कि फलांचंद जन जन के प्यारे, लाडले हैं और युवा ह्रदय सम्राट भी हैं
. तो क्या वे हैं !? दो कौड़ियाँ चीख चीख कर भी कहें कि वे स्वर्ण मुद्राएँ हैं तो
क्या लोग मान लेंगे ?”
“
आप क्या चाहते हैं ? विसंगतियां दिखें तो क्या डिस्कवरी चेनल खोल कर बैठ जाऊं ?
... और यह जानने में दिलचस्पी लूं कि चिम्पाजी में कितना आदमी है और आदमी में कितना
लंगूर बचा है ! और फिर इस पर एक कविता लिखूं !”
इस
बार वे जरा आहत हुए . बोले – छोडो सब बैटन को . आप रोज रात को सोने से पहले नाभी
में गाय का घी लगाया करो.
“
किसकी नाभी में ?!” मैंने पूछा .
“अपनी
नाभी में और किसकी ! वैज्ञानिकों का मानना है कि नाभी में गाय का घी लगाने से
विचारों में चिकनापन आ जाता है .”
“विचार
तो दिमान में आते हैं ! सिर में लगाऊँ क्या ? ... गाय का घी .”
“सिर
पर गाय का गोबर लगाना फायदेकारक होता है . ये कर सको तो बहुत अच्छा है . तुम्हारे
लेखन में पवित्रता भी आ जाएगी .लेकिन चिकने विचार तो फिर भी चाहिए .”
“लेकिन
नाभी में घी !!”
“देखो
ऐसा है कि नाभी का सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से होता है . चिकनाई लेखक के विचारों में
होना चाहिए, इससे फिसलन अच्छी रहती है . आज के जमाने में फिसलता हुआ आदमी तेजी से
आगे बढ़ता है . खुरदुरे और सूखे विचार जलाऊ लकड़ी की तरह होते हैं . इनसे थोड़ा भी
जूझो तो घर्षण होता है . घर्षण गर्मी पैदा करता है . और अंत में आदमी, बिना पाठकों
तक पहुंचे अंत को प्राप्त हो जाता है . .... अब बताओ, क्या सोचते हो ?”
“बताना
क्या है ... जैसा आप कहें .”
“तो
... चिकने बनो, चिकना सोचो, चिकना बोलो, चिकना लिखो ... और चक में रहो .”
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