मंगलवार, 9 जुलाई 2019

उत्तरगीता



युद्ध में भारी पराजय के बाद राजा को वैराग्य हो गया । उसे लगा कि संसार मिथ्या है । उसके मन में तरह तरह के सवाल आ रहे थे । जैसे कि मैं लड़ा ही क्यों !? अगर राजा की नियति लड़ना है तो राजा हुआ ही क्यों ! यदि राजकुल में पैदा होना इसका कारण है तो उफ़्फ़, इस वक्त मुझसे बड़ा अभागा कौन ! उसे दुख इस बात का है कि अभी भी शेष रह गए सूरमा अस्तबल में अपने घोड़ों कि खुर्रा मालिश में क्यों व्यस्त हैं ! राजा को अब समझ में आय कि वह अकेला युद्ध लड़ रहा था । पराजय के बाद पता नहीं क्यों उसे इस विचार से राहत मिली । किताबों में अकेले लड़ने वालों को बड़े सम्मान से याद किया जाता है, भले ही वो पराजित हुए हों । उसे दरबारी कवि की याद आ गई । काश कि इस मौके पर वह कुछ लिखता जिसे सुन सुना कर वे सहानुभूति जुटा पाते । जैसे – “लेकर कारवां चला था जनिबे मंजिल मगर, लोग छुटते चले गए, अकेला मैं रह गया । “  उसके मन ने कहा युद्ध से पहले अर्जुन को बहकने वाले की तरह काश कोई आ जाए ।
रात गहरा गई थी, टीवी का सारा ब्रेकिंग टूट कर बिखर चुका था । राजा दफ्तर में अपनी बहुत बड़ी सी पीएम नुमा कुर्सी पर निढाल पड़ा था । उसका मन हो रहा था कि काश वह कुछ देर के लिए अचेत हो जाए ताकि इसी बहाने कुछ सो ले । लेकिन जब ऊपर वाले ने मनोकामना पूरी नहीं करने की ठान रखी हो तो कोई क्या कर सकता है । अचानक राजा को लगा कि यह पराजय ईश्वर की है ! ईश्वर लोकतन्त्र का रक्षक भले ही न हो भक्तों का रक्षक तो है ही । जरा सा विवेक पैदा कर देते लोगों में तो बहत्तर हजार किसने बाप के थे ! लेकिन ईश्वर भी क्या करता । दूघ के जलों को छाछ पर भरोसा नहीं हुआ । सामने सोफ़े पर नब्बे बरस के स्पाइडर मेन ऊँघते ऊँघते अधलेटायमन हो चले थे । राजा की दादी ने इन्हें अपनी अलमारी में जगह दी थी, पापा ने पढ़ा और अब वही पुरानी कमिक्स उसके माथे पड़ी है । कई बार सोचा रद्दी में निकाल दें लेकिन कार्यालय पुराना और बड़ा है । जगह कि कोई कमी नहीं है इसलिए पटक रखा है कि कभी भांजा भांजी के काम आ सकते हैं ।
रौशनदान विहीन दफ्तर में आकाश दृश्यमान नहीं था इसलिए पाँच एसी में से किसी एक से आवाज आई – “राजन , पराजय एक भ्रम है , मूल बात है युद्ध लड़ना । लड़ना तुम्हारा कर्तव्य था जो तुमने पूरा किया । तुम इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते थे । ....”
“अरे प्रभु तुम !! ... ये क्या सुना रहे हो मुझे ! “
“हे वीर, ये उत्तरगीता है । पराजय के बाद इसका श्रवण वैराग्य को सरल बनाता है । तुम पद छोड़ रहे हो ना ?”
“ हे मधुसूदन, पराजय की ज़िम्मेदारी मेरी है लेकिन नहीं भी है । मैं पद छोड़ रहा हूँ लेकिन नहीं भी छोड़ रहा हूँ । अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं है पर रखना तो पड़ेगा । जो कर्मठ हैं उनकी जरूरत है लेकिन उन्हें बुलाऊँगा नहीं । मैं पद उसको देना चाहता हूँ जो सदा पद में शोभित रहे । “
“ हे बाहुबली, तुम राजनीति में पारंगत हो । शिखंडी की ओट से अर्जुन ने गंगापुत्र भीष्म को मारा था । तुम्हारा प्रयास अच्छा है । सफलता कितनी मिलेगी, यह समय बताएगा । “
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