पुराने चावल
कहाते रहे तो पन्नों में बासमती दर्ज हो गए . सम्हाल ठीक से नहीं हुई तो इल्लियाँ
पड़ गयीं और कब बास मरने लगे पता ही नहीं चला . राष्ट्रीय पार्टी का ठप्पा होने के कारण
उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है . विपक्ष में हैं और उनके रहते जनता दुखी न हो यह डूब मरने की बात है . इतिहासकार
लिखेंगे पार्टी इसलिए डूब गई कि वो जनता को दुख का अहसास नहीं करा सकी ! हालाँकि उनके
पास पीढ़ियों का अनुभव है कि दुःख में से सुख कैसे निकला जाता है . कहा जाता है कि डर
के आगे जीत है . इसका राजनितिक मतलब है जो डराने में सफल हो जाता है वही जीतता है .
विडम्बना ये है कि डरा वही सकता है जो खुद डरा हुआ नहीं हो . महापुरुष गब्बर सिंग प्रवचन
दे गए हैं कि जो डर गया वो मर गया . लेकिन इससे डर ही बढ़ता है निडरता नहीं आती .
उस पर एक एक करके जय और वीरू पाला बदलते जाएँ तो सीने का नाप बदल जाता है, इधर भी
और उधर भी . दाढ़ी बढ़ाने से आत्मविश्वास बढ़ता है लेकिन सुना है कम्बख्त गर्लफ्रेंड
नहीं मानती . जिन्हें पहाड़ जैसा कुछ चढ़ना है उन्हें किसी भी तरह की यानी पार्ट
टाइम या फुल टाइम गर्लफ्रेंड से दूर ही रहना चाहिए . अनुभवी बताते हैं कि उसका
रिचार्ज करवाते करवाते अच्छा भला आदमी पचास का हो जाता है . कोई शायर कह गए हैं कि
“खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए; रहा दिल में हमारे ये रंज-ओ–अमल, न इधर के हुए न
उधर के हुए ” . लेकिन अनुभव जलेबी है उज्जैनी
मावे की, खाए बगैर कोई मानता भी नहीं है . गुरु कहते हैं कि राजनीति भरवाँ बैंगन
नहीं हैं दादी के हाथ के, कि आए बैठे और मजे ले के डबल सटका गये . इतना आसन भी नहीं है कि जनता से सीधे पूछ
लें कि भईया दुखी होने का क्या लोगे !
आजकल लोग सयाने हो गए हैं, ज्यादा कुरेदो तो शेरवानी और लाल गुलाब दिखाने
लगते हैं .
इधर जानता अपने
को सुखी महसूस करने पर अमादा है . औंधा लटका के कोई खाल भी खिंच ले तो थेंक्यू
कहने पर उतारू . पता चलता है हर आदमी जबरा फिलासफर है . मानता है सोचो तो संसार
में दुःख ही दुःख है नहीं सोचो तो सुख ही सुख . सारी दिक्कत सोचने की वजह से है .
सोचने का सम्बन्ध ज्ञान से है और ज्ञान दुकान पर मिलता है . दुकान का नाम टीवी और
इंटरनेट है . ये सुख करता दुःख हरता हैं . राजनीतिशास्त्र में लिखा है कि इन्हें नेवेद्य लगाओ तो प्रसन्न होते हैं या
फिर इनकी नाक दबाओ तो मुंह खुलते हैं . राजनीति नकार को स्वीकार में बदलने की कला
है . सो पूरी टीम को व्यवहारिक होना चाहिए . नाच मेरी टीवी-बुलबुल तुझे पैसा
मिलेगा . जिसे लोग चैनल समझते हैं वो दरअसल चीयर गर्ल है . उधर बल्लेबाज झूम के
शाट लगाते हैं इधर गर्ल्स चेयर से उछल उछल जाती हैं . दर्शकगणों आप सोचो मत, कोई पूछे तो बताओ कि मजे में हो .
यह समझ लो कि खुश रहना ही देशप्रेम है . टीवी वालों का क्या है ... रस्सी, डमरू और
डंडा सरकारी; नाचे कूदे बंदरिया, खीर खाए मदारी . तो सब लोग बजाओ ताली, जो न बजाए
उसको मारे घरवाली.
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