जो लोग अपने घर-परिवार का भार उठाने में असफल हो जाते हैं वे प्रायः देश
का भार उठाते देखे जाते हैं . चूँकि पढ़े लिखे प्रजातंत्र की रक्षा के प्रति उदासीन
होते हैं और अक्सर वोट भी डालने नहीं जाते हैं . ऐसे में प्रजातंत्र की रक्षा का
यह दायित्व अपढ़, कुपढ़ और अंधभक्तों की झोली में चला जाता है . ये वो लोग हैं जो
अपने को प्रजा समझते, मानते और गर्व करते हैं . प्रजातंत्र के हक़ में यह जरूरी है
कि मानने वाले मजबूत और संतुष्ट हों . प्राण जाये पर वचन न जाये टाईप . शिक्षितों
और समझदारों के भरोसे आप विकास जैसा कोई काम नहीं कर सकते हैं . विकास के लिए एक
खास किस्म का विश्वास होना चाहिए . जानकर कहते हैं कि शिक्षा बाल की खाल निकलने का
औजार है . सबसे पहले तो ये लोग प्रजातंत्र को लोकतंत्र कह कर राज करने का सारा मजा
किरकिरा कर देते हैं . जैसे कोई सर का कोहिनूर-ताज उतर कर टोपी पहना दे . अगर किसी
राज्य में जनसेवक अपने को राजा या महाराजा मानता है तो लोग अपने को प्रजा मान कर प्रापर
बेलेंस कर सकते हैं . उन्हें करना ही चाहिए क्योंकि कोई भी व्यवस्था संतुलन से
चलती है . लेकिन जब भी विश्वास करने का मौका आता है शिक्षित लोग आँखे बंद नहीं
करते हैं, जैसे कि बाकी देशभक्त कर लेते
हैं . और जब आँख खोलते हैं तो संदेह और अविश्वास की दीवार खड़ी कर लेते हैं ! इसलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बहुत
जरुरत है . जब तक इनमें व्यावहारिक ज्ञान नहीं होगा ये न अपना भला कर सकते हैं न
देश का . शिक्षा ऐसी होना चाहिए कि आदमी शिक्षित हो कर निकले पर शिक्षितों जैसा व्यवहार
न करे . समझदार हो पर ज्यादा समझदार न बने . जब भी देखे अच्छा देखे, राजनीति के
फटे में नजर डालना और उसके बाद हाय हाय करना उसका काम नहीं है . इसे शासकीय काम
में दखलंदाजी या देशद्रोह भी माना जा सकता है . चाहे कोई कितना भी शिक्षित या
समझदार क्यों न हो कानून से ऊपर नहीं है, सिवाय सरकार के .देखिये लाइफ जो है दो तरह की होती है . एक होती है भगवान की दी हुई
भूख,प्यास, निद्रा, मैथुन वाली बेसिक लाइफ और दूसरी होती है सभ्य समाज की प्रेक्टिकल
लाइफ . यह बात गंवार से गंवार आदमी जानता
है कि प्रेक्टिकल लाइफ से ही व्यक्ति अच्छा और सफल नागरिक बनता है . शिक्षित आदमी
अड़ियल किस्म का होता है इसलिए बेसिक लाइफ जीता है . पढ़े हैं सो बार बार संविधान की
तरफ दौड़ते हैं . उसमें लिखा है कि देश सेक्युलर है तो सेक्युलर की रट लगाये रहेंगे
. चाहे आधा दर्जन आदमी भी सेक्युलर नहीं मिलें पूरे देश में . अरे भई जनता धर्मों
में बंटी है, धर्मों को ले कर अड़ जाती है, चुनाव, वोट, मंत्रिमंडल सब जाति-धर्म के
हिसाब से होता है . इस पर प्रेक्टिकल नजरिया ये है कि हम सेक्युलर नहीं हैं लेकिन प्रजातंत्र
में किताबों में लिखा हुआ अच्छा लगता है इसलिए हैं भी . तो भईया पढ़ो लिखो, कोई हरज
नहीं हैं, बस आँखें बंद और कान खुले रखो, सवाल मत करो, जेब कटे या गरदन अपना फरज
समझो . जियो तो भक्ति, मरो तो मुक्ति .
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