आत्मनिर्भरता
की ओर बढ़ रहे लाल कवि ने चौथी रोटी बेली, वह भी मुक्त छंद
बनी। गोल रोटी बेलना कविता लिखने से ज्यादा कठिन काम है ऐसा कवि को लगने लगा है। उसे
अब निराश हो जाना चाहिए था। लेकिन आदत से लाचार वह अपनी रोटी-रचना से अंदर ही अंदर
मुदित है। तवे पर पड़ी पहले वाली रोटी अभी सिंकी नहीं थी इसलिए रुक कर प्रतीक्षा
करना आवश्यक हो गया था। जब भी प्रतीक्षा का अवसर आता है लाल कवि को कड़क काली चाय
लगती है। चाय नहीं हो तो वह घड़ी देखता है। बार-बार घड़ी देखना प्रतीक्षा को सरल करने
का भौतिक उपक्रम है। इस वक्त चाय संभव नहीं थी। उसने टेबल पर पड़ी घड़ी उठाकर अपनी कलाई में
बांध ली और टाइम देखा। बार-बार घड़ी देखने के बावजूद समय साठ सेकंड प्रति मिनट की
दर से ही कटता है। ऐसे में लाल कवि को नीले आसमान की तरफ देखना अच्छा लगता है।
आकाश अनंत है और उसे निहारने से प्रतीक्षा में एक क्लासिक-पुट आ जाता है। बेरोजगारी
और मुफलिसी के दिन हैं । कमाऊ होता तो इस वक्त सुंदरियाँ उसे देखकर कह उठती है – ‘अहा...
कवि निहार रहा आकाश! क्यों बैठा मालिन मुख निराश!’ यहाँ दिक्कत यह है की रसोई
घर से आसमान नहीं दिखता है। इसलिए लाल कवि लाचार ने छत को निशाने पर लिया। छत पर
एक छिपकली चिपकी थी। भावुक लाल कवि की दृष्टि उसे पर टिक गई। कुछ ही देर हुई थी कि
कवि को लगा कि छिपकली मुस्कुरा रही है। फाकामस्ती के चलते बहुत समय से लाल कवि को
किसी ने मुस्कुरा कर नहीं देखा था। कालेज के दिनों की पिंक छतरी वाली लड़की याद आ
गई । एक रिपिट टेलिकास्ट सा हुआ । शरमा कर कवि ने नजरें नीचे की। तवे पर पड़ी रोटी
अभी भी सिंकी नहीं थी।
लाल कवि भयंकर
संवेदनशील है । शोषण अन्याय व अत्याचार के खिलाफ ठोक कर कविता लिखते हैं। लोग
मानते हैं कि उनकी कविताएँ कविता नहीं धधकते हुए अंगारे हैं। लेकिन विडंबना यह है
कि हर बार अंगारे ‘हलवा-सेरेमनी’ के काम आ जाते हैं। बाहर इनका कोई असर नहीं होता
है । अब देखिए, खुद उनकी रोटी अभी तक
सिंकी नहीं है। पेट में एक अलग तरह की आग है जो धीरे-धीरे बढ़ रही है। सुना है
दिल्ली मुंबई जैसे नगरों में दस पंद्रह रुपयों में भरपेट खाया जा सकता है। हालाँकि
आजकल लेखकों और कवियों को पारिश्रमिक देने का चलन समाप्त हो गया है किन्तु उसे ‘भूत-लेखन’
से कुछ मिल जाता है। दिल्ली में अगर तीस चालीस रुपयों में दो वक्त का खाना मिल जाए
तो लाल कवि क्रांति कर सकता है। उसे अब समझ में आया कि अर्बन-नक्सल का खतरा होने
के बावजूद कवि लेखक अपना गाँव-गली छोड़कर दिल्ली क्यों भागे चले आते हैं। पापी पेट
भर जाए तो ‘गालिब कौन जाए दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’। लाल कवि के दिमाग में अब चालीस
रुपये और दो वक्त का खाना पकने लगा था।
उसने नज़रें उठा कर देखा छिपकली अभी भी मुस्कुरा रही थी। मूड अच्छा था, कवि ने शिष्टाचारवश मुस्कुरा कर उत्तर दे दिया। छिपकली फौरन शरमा का
ट्यूबलाइट की पट्टी के पीछे छुप गई। तवे पर पड़ी रोटी अभी भी सिंकी नहीं थी।
कवि सोच रहा था कि किसी
तरह दिल्ली पहुँच जाए तो फिर घर बसाने के बारे में भी सोचा जा सकता है। एक ‘भूत-लेखन’
से दो लोग हफ्ता भर आराम से खाएंगे और मजा करेंगे। अचानक उसे एक भूत-विचार भी आया
की नौकरी वाली पत्नी मिल जाए तो दिल्ली फतेह हुई समझो। खुश मन के साथ कवि ने तवे
के नीचे देखा, बर्नर पर आग नहीं थी। उसे ध्यान
आया कि गैस खत्म हुए हफ्ता भर हो गया है। गुस्से में उसने बेली हुई रोटियों को मसक
कर लौंदा बना दिया। उसकी नजर फिर दीवार पर गई, छिपकली जुबान
निकाल कर मानो चिढ़ा रही थी। एक आग सी भड़की अंदर । गुस्से में लाल कवि ने कागज कलम
उठाया ।
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