शनिवार, 17 अगस्त 2024

मेरे महबूब किसी और जगह मिलकर मुझसे




 




                    दंत चिकित्सक के क्लीनिक का वह वेटिंग रूम... अहा!! वह भी क्या हसीन दिन थे जब दाँत में दर्द हुआ था। एक एक दर्द सात-आठ दिनों की सीटींग लेता है । इतने दिन काफी होते हैं एक रिश्ता कायम हो जाने के लिए । यही वजह है कि दाँत में जरा सा भी दर्द होता है न जाने क्या-क्या याद आने लगता है। कहते हैं दूसरों के दुख को देखो तो अपना दुख कम हो जाता है। यही बात दाँतों के दर्द पर भी लागू होती है। उम्र के इस मुकाम पर हर साल-छः महीने में कोई ना कोई मौजूदा दाँत तलाक-तलाक बोलने पर आमादा हो जाता है। और आप चाहो ना चाहो आपको पहुँचना ही पड़ता है ‘दंत-काजी’ के पास। वहाँ सामने एक पारदर्शी बरनी रखी रहती थी जिसमें तमाम दाँत भरे हुए थे । दाँतों का यह मार्गदर्शक मंडल बिना बोले बहुत कुछ बोलता रहता था, जिसे यहाँ बैठा हर व्यक्ति बिना रेडियो के सुनता था। मजरूह के शब्दों में - रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से प्यारों कि तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह। कोई समझे तो जानेगा कि निकले पड़े हुए बेचारे दाँतों का भी दर्द कम नहीं

      उन्हीं दिनों की बात है, क्लिनिक के वेटिंग रूम में लगातार कुछ दिनों बैठना पड़ा था । सामने गाल पर हाथ रखे बैठी एक सत्तर-इकहत्तर वर्षीय सुंदर महिला रेखा और उमराव जान की याद दिला रही थी । आपको लग सकता है कि कुछ ज्यादा हो गया। लेकिन मरद जात के बारे कुछ कहना कठिन है । रेखा दिमाग में हो तो लोग दिल हथेली पर रख कर चलते हैं । और फिर कहने वाले का गए हैं की उम्र मात्र एक नंबर है और सुंदरता देखने वाले की निगाह में होती है। ये दोनों बातें प्रेम के पक्ष को मजबूती देने वाली हैं । और आपको बता दें कि जिंदादिल हमेशा चुनौती लेने के लिए तत्पर रहते हैं। भले ही दो इंस्टेंट लगे हों, मौका आ जाए तो किसी भी जीत के लिए दिल हारने से पीछे नहीं हटते हैं । लोक-शिक्षक कह गए हैं जब आप किसी को मुस्करा कर देखते हैं तो बदले में आपको भी मुस्कराहट मिलती है । मेरा अनुभव है कि यह बात सही है । जिस वक्त यह सब चल रहा था कमबख्त दाँत का दर्द बिना बताए कहाँ गया कुछ पता नहीं चला । शगुन अच्छा था । अंदर बैठे ग़ालिब बोल पड़े - ' उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है'। जल्द ही यह नामाकूल सवाल भी उठा कि जब सब अच्छा है तो मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ । लेकिन तुरंत समझ भी आ गया कि मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ । सालभर  हो गया इस बात को । शरीर लिए घूम रहा हूँ आत्मा वहीं है । दिल क्लीनिक के वेटिंग रूम में रखे रजिस्टर पर पेपर-वेट सा पड़ा है और तीसरी कुर्सी पर दर्द लिए मैं भी । हाल यह है कि दर्द ही नहीं हो रहा है । दिल पुकारे आ-रे आ-रे । दाँत का दर्द अब बड़ी मन्नतों के बाद भी नहीं हो रहा है। देने वाला भी बड़ा तंगदिल है, मांगो तब नहीं देता।
                      आप अगर लोकमतवादी हैं तो इस मुकाम पर मुझे गलत कह सकते हैं। दाँत को उखड़वाना और प्रेम की जुगाड़ करना दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। आदमी या तो आह कर सकता है या अहा कर सकता है। दोनों अलग-अलग उम्र के मसले हैं। बात आपकी ठीक है लेकिन ऐसे हजारों हुए हैं जिन्होंने प्रेम के चक्कर में अपने दाँत दाँव पर लगाये हैं। भले ही उन्होंने डेंटिस्ट की सेवाएँ नहीं ली हों और यह काम जनसेवा के माध्यम से हुआ हो। शायद आपको पता नहीं है कि साठ के बाद का प्रेम ऑर्गेनिक-लव होता है यानी जैविक-प्रेम। इस तरह का प्रेम च्यवनप्राश कि तरह स्वास्थ्यवर्धक और प्राकृतिक होता है। वृद्धों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कल्चरल पुलिस को चाहिए कि जैविक-प्रेम को बढ़ावा दे । वानप्रस्थि लोग संसार में लगें, प्रेम करें, सक्रिय रहें इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं उन पर गौर किया जा सकता है । जिन्होंने नोटशीट लिखते जीवन होम किया हो उनके लिए प्रेम पत्र लिखने का क्रैश कोर्स चलाया जा सकता है। हालाँकि लंबा कुछ लिखना नहीं है , आजकल तो व्हाट्सएप कबूतर है। आखिर सबका साथ सबका विकास कुछ मायने तो रखे। प्रेम के धागे कच्चे जरूर होते हैं लेकिन इनमें जंजीर से ज्यादा मजबूती होती है। यम के दूतों को भी दो-चार बार खाली हाथ लौटना पड़ सकता है । याद है गुलेरी की कहानी ' उसने कहा था'! लहना सिंह ने पूछा 'तेरी कुड़मई हो गई?' और उत्तर में एक छोटा सा 'धत्त ' सुन कर पूरा जीवन हार गया था। प्रेम हर हाल में प्रेम ही होता है, उसके लिए बूढ़ा-जवान, अमीर-गरीब, दंतवान-दंतहीन कुछ नहीं होता। ढूँढोगे तो पोपले प्रेमी भी रजाइयों में दुबके मिल जाएंगे ।
                     तो भाई आप समझ गए होंगे कि जो पुराना है वही सच्चा और खरा है। बात की गंभीरता को समझिए, इसके संरक्षण की जरूरत है। इधर नई पौध का प्रेम देखिए, पेस्टिसाइड्स और रासायनिक उर्वरकों से लबरेज मिलेगा । नया प्रेम अब इवेंट मैनेजमेंट के दायरे में आ गया है। लोग बहुत नाप तौल के, सोच विचार कर प्रेम का इंतजाम करते हैं। इसमें ब्रेकअप के कुछ बहुत जरूरी मुकाम भी होते हैं। जब तक साल में दो-चार ब्रेकअप मुकम्मल ना हो जाएँ कोई प्रेम-प्लेयर परफेक्ट नहीं होता है। सब तरफ प्लास्टिक प्रेम का बोलबाला है। खटाखट यूस एण्ड फटाफट थ्रो। पर्यावरण वाले भी समझा रहे हैं कि हर तरह के प्लास्टिक से बचो और अपने जीवन को सुरक्षित रखो। लेकिन सुनता कौन है। इश्क बाजार में है और मुरीद बेपरवाह । लूटपाट सी मची हुई है केम्पसों में । नौजवान फिशिंग के लिए निकलते हैं । एक फँसी तो डिनर का इंतजाम हुआ । अब तो प्रेम जहाँ बहुत जरूरी है वहाँ भी नहीं बचा है। एक फोन के लिए बरसों इंतजार करते माँ सोफे पर पड़ी पड़ी कंकाल हो गई। बेटे को दो बरस बाद खबर लगी, वह भी पुलिस के फोन से।  
                      कहते हैं जोड़ियाँ ऊपर वाला बनाता है। चलो मान लिया। लेकिन गलतियाँ किससे नहीं होती। ईश्वर कोई एक काम लिए थोड़ी बैठा है। हजार काम होते हैं औंधी सृष्टि को सीधा चलाने में। खुशकिस्मती देखिये, बावजूद इसके ऊपर वाले ने हमारा ध्यान रखा। मैं दाँतों की बात कर रहा हूँ। अब तक छः से अधिक दाँतों का इलाज हम साथ-साथ करवा चुके हैं जी । समय ने इस दौरान हमारे बीच अपने किस्म की 'दंत-कथा' विकसित कर दी है। सुख के साथी भले ही नहीं हो सके हों दर्द का साथी तो बना ही दिया ऊपर वाले ने । थैंक यू गॉड । इतना बीजी रहने के बाद भी सुन ही लेता है गरीबों की ।

 एक दिन अनायास ही उससे कहा - यह दाँत का दर्द भी कितना अजीब है, कुछ दिनों तक ना हो तो क्लिनिक की याद सताने लगती है।
"तुम्हें भी ऐसा लगता है क्या !?"
" हाँ सचमुच। "
" दाँत है तब तक तो अच्छा है, डेंचर लग जाएंगे तो दिक्कत होगी। " उसने कहा।
                   मैं चौंक गया । सच कहूँ तो मुझे इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी। धुँवा  सा उठा, महक फैली, लगा अगरबत्तियाँ जल रही हैं कहीं। पुराने चावल जरा सा फूँक दो तो महकने लगते हैं। लेकिन डर लगता है पुराने होने पर। जवानी की बात और थी । अब किसी को प्रेम करो तो रसीद तैयार करने लगता है जमाना। रसीद नहीं समझे? पानी में डूब रहा हो या प्रेम में, लोग रील बनाने लगते हैं । वह सभ्यताएँ और हैं जहाँ अस्सी बरस के लोग प्रेम कर सकते हैं और शादी भी।
" कितने दाँत बचे हैं तुम्हारे? " मैंने पूछा।
" इक्कीस,... अभी तो बहुत है। "
" मतलब ग्यारह निकल गए!!"
" अभी तो काफी हैं । " उसने अर्थपूर्ण जवाब दिया।
                   मन हुआ की कह दूँ बहुत ज्यादा कीमत चुकाना पड़ रही है हमें प्रेम की । साहिर का एक शेर है ना - ' मेरे महबूब किसी और जगह मिलकर मुझसे, बज्म ए शाही मैं गरीबों का गुजर क्या मानी'

बात समझते हुए उसने पूछा – मंदिर नहीं जाते हो क्या ?

“नहीं । आदत में नहीं है ।“

 “आया करो । प्रेम का अठारह परसेंट जीएसटी चढ़ाना पड़ता है भगवान को । बाकी तो अपना रहेगा ।“

“आइडिया बुरा नहीं है । दाँतों के साथ भी और दाँतों के बाद भी ।“

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