सोमवार, 5 जनवरी 2015

बाजार में नंगे

           
                 
बाजार अकच्छ ( नंगे ) संस्कृति के प्रभाव में है। बेटों को बाप समझा रहे हैं कि जिसने की शरम उसके फूटे करम। अकच्छ इकोनाॅमिक्स का बाजार पर कब्जा है। कहते हैं कि नंगों से भगवान भी डरते हैं, शायद इसीलिए वे बाजार से दूर रहते हैं। संसार में सब कुछ भगवान के भरोसे है। सिर्फ बाजार ही बेशरमी के भरोसे है। नंगापन जहां भी होता  है वहां अपने आप एक बाजार तैयार हो जाता है। आकाश  में कोई दर्जी नहीं है इसलिए स्टार नंगे  होते हैं। बाजार अगर कोई नंगा है तो समझिये कि वह स्टार है। स्टार बनने के लिए हर कोई उतावला है। बस एक मौका चाहिए, जाहिर है कि मौकों की अपनी कीमत है। आज नंगे हो कर  चुकाइये कल नंगई से ही वसूलिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोने का मंत्र बाजार ने ही दिया है। नंगई  से ही कीमत तय हो रही है। मुनाफा बाजार की जान है। बाजार रक्तबीज की तरह है, जिस भी जमीन को छूता है वहां एक नया बाजार खड़ा हो जाता है। किसी जमाने में बाजारों का मुकाम शहर होते थे अब गांव गांव खरीद फरोक्त हो रही है। रामनामी औढे बाबा इठ्यान्नू-निन्यानू-सौ जप रहे हैं । पिछली पीढ़ी ने जिस घरती को माता कहा, बाजार के कारण अगली पीढ़ी को उसके ‘रेट’ बताना पड़ रहे हैं। हर नजर सौदों की संभावना से भरी लगती है। ईश्वर  ने केवल मनुष्य को मुस्कान दी है लेकिन बाजार ने मुस्कराने के अर्थ बदल दिए हैं। पहले जिन होठों पर प्रेम की चहल कदमी होती थी अब वहां बाजार की छम्मकछल्लो ठुमक रही है। आदमी का हर अंदाज सौदा है और कोई सौदा सच्चा सौदा नहीं है। किसी जमाने में बाजार जरूरतों की पूर्ति किया करते थे, अब वे जरूरतें पैदा करते हैं। एक शायर ने कहा है कि बाजार से गुजर रहा हूं पर खरीदार नहीं हूं। बाजार ने ऐसे लोगों के लिए ही अब सीसी-कैमरे लगवा रखे हैं। 
                   बाजार में हर चीज बिकती है, नंगे  न बिकने वाली चीजों को भी बेचने का हुनर जानते हैं। कूड़ा-कचरा तक बेचा जा सकता है, खरीददार हर समय पैदा किए जा सकते हैं। सुनार का कचरा बाकायदे अच्छे भाव में बिकता है। उसके यहां झाडू लगाने वाला उस कचरे से सोना-चांदी निकालता है। एक कवि के यहां काम करने वाली महरी को कवि के कचरे का "अकच्छ ग्राहक" मिल गया। आज वह ग्राहक महाकवि है हालाॅकि कवि अभी अख्यात ही हैं। कुछ लोग मिट्टी उठाते हैं और सोना बना लेते हैं। बाजार  इसी को टेलेन्ट कहता है। 
                      जिनके पास भेड़-बकरियों का झुण्ड होता है वे खेत में एक रात झुण्ड को ठहराने की खासी कीमत लेते हैं। क्योंकि रातभर की मेंगनियां और पेशाब खेत की उपज बढ़ा देती हैं। अगर हमें मालूम पड़ जाएं कि हमारा एक एक अंग बाजार की मूल्य सूचि में शामिल है तो शायद  हम घर के बजाए लाॅकर में रहना पसंद करें। जिस तरह बाजार किसान की इज्जत नहीं करता है लेकिन अनाज से पैसा कमाता है उसी तरह रचनाओं से कमाने वाले प्रकाशक वगैरह लेखक की इज्जत नहीं करते हैं। साहित्य का क्षेत्र भी "अकच्छ बाजार" से अछूता नहीं है। कहानी, उपन्यास, नज्म, गजल सब लिखा लिखाया मिल सकता है। खरीदिये, छपवाइये और फटाफट साहित्य के ‘बड़े मिंया’ हो जाइये। कुछ ‘खां-साहबों’ के बाड़े में लिखने वाले गाय-भैंसों जैसे स्थाई रूप से पलते और ‘दूध’ देते हैं। अक्सर प्रसिद्ध गीतों के बारे में मालूम होता है कि कोई अनाम गीतकार का लिखा हुआ है जो दो-चार सौ रुपयों में नामचीन कलमकार ले गए थे। लेकिन नंगों का  बाजार बकरा बेचने के बाद उसकी खाल देख कर रोने की इजाजत किसी को नहीं देता है। आज नगद गिनो और कल दूसरा गीत लिखकर लाओ, वरना अपना सायकिल रिक्षा चलाओ। अकच्छ बाजार में जेबकटाई भी खूब होती है। एक लेखिका ने मुस्करा कर अपना उपन्यास अधोवृद्ध रचनाकार को सुधारने के लिए दिया। वे अपनी बकरी को उनसे ऊंट बनवा कर ले गईं, और अब बाकायदा ऊंट उनका है। अधोवृद्ध कुछ दिन चीखे चिल्लाए फिर खांसी की दवा खरीदने लगे। कहीं खबर छपी थी कि पीएचडी लिखने वालों का ‘मार्केट’ खूब फलफूल रहा है। क्यों न हो, बाजार ज्ञान का नहीं डिग्री का होता है। और जिसका बाजार होता है वही बड़ा होता है, और जायज भी। पैसा मिले तो कोई काम छोटा नहीं है, बशर्ते पुलिस वगैरह की पकड़ में न आएं।
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1 टिप्पणी:

  1. "बाजार में हर चीज बिकती है, नंगे न बिकने वाली चीजों को भी बेचने का हुनर जानते हैं "...वाह सर वाह!

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