सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पहले पन्ने पर जूता

                   
       सुबह अखबार हाथ में आते ही मैं चौंकता हूँ. ये क्या !!!  पहला पन्ना, सबसे उपर अखबार का नाम, उसके बाद पूरे पृष्ठ पर एक जूता, अर्थात एक इकलौते जूते का फोटो। चार पांच मिनिट जब उस पर से नजर नहीं हटी तो पत्नी ने ब्रेक लगाया -- " क्या देख रहे हो !? ..... चांदी का है .
मैनें कहा -- लगता तो चमड़े का है.!
" चमड़े का लग रहा है .... लेकिन चांदी का नहीं होता तो पहले पन्ने पर नहीं होता ." वे बोलीं .
                     जूता कितना ही क्यों न ‘चल’ जाए दो कालम, तीन कालम से ज्यादा जगह नहीं ले पाया आज तक। जो चीज घिसने-रगड़ने की है, फैकने-मारने की है, अगर विस्तार में जाया जाए तो खाने-खिलाने की भी कही जा सकती है, लेकिन उस पहले पन्ने के लायक तो कतई नहीं जिस पर कभी वायसराय फैले होते थे और आज  टोपियों , पगड़ियों की उम्मीद रहती है, लेकिन तरक्की देखिए आज श्रीमान जूता जी मौजूद हैं। गौर से देखा कहीं नीचे ‘शर्तें लागू’ की पंक्तियां भी होंगी, लेकिन नहीं थी। पूरे पृष्ठ पर वे अकेले पसरे थे, ऐसे जैसे खरीद ही लिया हो सब। मुखपृष्ठ पर बहुत बड़े या बहुत छोटे काम करने वाले छपा करते हैं। जी हां, मैं जानता हूं, आप भी जानते हैं कि यह विज्ञापन होगा, लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो नहीं जानते हैं। उनके लिए पहला पन्ना, पहला पन्ना है, बस। जूता पहले पन्ने पर कैसे आया यह सब नहीं जानते। उनके लिए पहला पन्ना समय की रसीद होती है। अगर सब भगवान भरोसे भी हो तो रसीद में जूता !! मैं एक बार और जूते को घूरता हूं, लगता है जैसे मुस्करा रहा है, मानो वह भी बैंकों का विलफुल डिफाल्टर है और किसी के पांव पहन कर विदेश  भाग जाना चाहता है। चलो ठीक है कि पहले पन्ने पर आने के बाद मुस्काना बनता है, लेकिन वह ‘जूता’ है यह भूल रहा है. उसका मुस्कराना मुझसे बर्दाश्त  नहीं होता है। पहला पन्ना मुझे लगातार तनाव दे रहा है।
                        जब तनाव होने लगे तो उठ कर 10-20 कदम चलना चाहिए, मुंह पर पानी के छींटे मार लो और भी अच्छा। चश्में  को पानी से धोया और अपनी बनियान से पोंछते हुए सुखाया। ठंडे दिमाग और साफ दृष्टि के साथ मैं पुनः पहले पन्ने पर हूं। देखा जूता वाकई सुन्दर है। सुन्दर हो तो उसकी कीमत हमारे यहां हजार गुना बढ़ जाती है। दूसरे पन्ने पर जूते की भारी कीमत का जिक्र था। याद आया कि मेरी शादी का सूट इससे चौथाई दाम पर तैयार हो गया था और मात्र उस सूट के कारण सासूजी इतनी आश्वस्त हुईं कि बिदाई के समय मात्र रस्म के लिए जरा सा  रोईं थीं। दूसरी पंक्ति में लिखा था कि इसका तला यानी जिसे हिन्दी में आजकल सोल कहा जाने लगा है, नरम और मजबूत है। जैसा कि विकास का मुलायम सपना और अतिक्रमण की मजबूत सफाई। पता नहीं अंदर से नरम और बाहर से कड़क सोल वाले जूते भागने वालों की जरूरत हैं या पकड़ने वालों की। 
                                      चुनाव भले ही मंहगा होता है किन्तु सरकार टोपी तो सस्ती पहनती है। आम जनता ज्यादातर टोपी ही देख पाती है। जूते तो उनकी धोती के नीचे छुपे रहते हैं। कभी दिखे भी तो भोलेजन ‘पादुका’ मान कर उस पर माथा रख देते हैं। जिस तरह कानून के हाथ लंबे होते हैं उसी तरह सरकार के कदम कठोर होते हैं। कठोर कदमों के लिए ऐसा जूता ही मुफीद होता है जो उपर से बाकायदा और सुन्दर दिखाई दे। मुझे विश्वास  हो चला है कि यह सरकार का जूता है। इसमें पांव डालते ही पहनने वाला दो इंच ऊँचा  हो जाता है। कुछ लोग इन्हें हर्बल जूता मान कर धन्य भी हो सकते हैं, मुझे कोई आपत्ती नहीं है। 
                           आप देखिए कि सरकार जब कुर्सी पर बैठती है, एक पांव के घुटने पर दूसरा पांव रखती है और जूता सज्जित पंजा हिलाती है तो एक मैसेज अपने आप जाता है देश  और दुनिया के सामने कि सरकार मजबूत है और अभी अभी किसी बाहरी राष्ट्र्पति के साथ चैट करके बैठी है। चाय अपनी जगह है, जूता अपनी जगह है। क्वालिटी दोनों की बढ़िया होना चाहिए। पहले पन्ने का जूता दरअसल किसी तोप की तरह होता है। उसमें बारूद और गोला हो के ना हो, वह हर हाल में तोप ही होता है। यहां यह खुलासा जरूरी है कि सरकार वही नहीं होती है जो कुर्सी पर बैठी होती है। असल सरकार वो होते हैं  जो कुर्सी की व्यवस्था को अपने हित में बनाए रखते हैं। यों समझिये कि कुर्सी पर ठाकुर के हाथ हैं और पीछे गब्बर के तलवार वाले हाथ। अगर ज्यादा उलझन हो रही है तो यह देख लीजिए कि पहले पन्ने वाला जूता किसके पैरों में है।
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