प्रेम जैसे
मामलों में स्मृतियों के द्वार तभी खुलते हैं जब संभावनाओं के दरवाजे बंद हो जाते हैं
। एक उम्र के बाद बारिश के साथ पुरानी प्रेमिकाओं को याद करने का मौसम शुरू हो जाता
है । मैं खिड़की के पास बैठा हूं और बाहर पानी के साथ यादें बरस रही हैं । मन गूंगे
का गुड हो चला है , किसी को बता
भी नहीं सकता कि किस चीज से भीग रहा हूं । बल्कि अभी कोई आ कर ताड़ ले तो छुपाना मुश्किल
। हवाएं चुगलखोर हैं वरना बरसात के मौसम को कौन अहमक बेईमान कह सकता है । जाने क्यों
गरमी या ठंड के मौसम में प्रेमिकाएं याद नहीं आतीं । ना सही गरमी में पर ठंड़ में तो
आ ही सकती हैं । एक बार तो स्मृति के प्रतीक स्वरूप उनके भेंटे स्वेटर में घुसने की
कोशिश की,
जो बड़े जतन से सम्हाल कर रखा हुआ था । पता चला कि स्वेटर के
साथ स्मृतियां भी टाइट हो गई हैं । दम घुटने लगा तो तौबा के साथ बाहर निकले और पूरी
ठंड़ वैधानिक स्वेटर में काटी । यों देखा जाए तो गरमी का मौसम इस काम के लिए मुफीद है
। उमस भरे दिनों में वैसे भी कुछ और करने का मन नहीं होता । फुरसत से उदास हो पंखे
के नीचे बैठो और याद करो मजे में । लेकिन ‘संविधाना’ अपनी सारी दफाओं के साथ इस उम्मीद से सामने होती हैं कि आप निठल्ले
न रहें,
बैठे-बैठे तसव्वुरे-जाना किए रहें । लेकिन पसीना बहुत आता है
कमबख्त,
कुछ गरमी से और उससे ज्यादा ‘दीदार-ए-हुस्न-ए-मौजूद’ से । ज्यादातर वक्त सुराही-लोटा
बजाते गुजर जाता है । लेकिन बारिश की उदासी मीठी होती है , जैसे हवाओं में आम की मीठी महक घुली हो ।
तजुर्बेकार
स्मृतिखोर बारिश के चलते खिड़की पर उदास बैठने
से पहले हाथ में एक मोटी किताब ले लेता है । मोटी किताब का ऐसा है कि वे पढ़ने के काम
कम ,
सिर छुपाने के काम ज्यादा आती हैं । हाथ में मोटी किताब हो तो
ज्यादातर मामलों में होता यह है कि लोग आपसे बात नहीं करते, पत्नी भी नहीं । गोया कि किताब न हो राकेट लांचर हो । कालेजों
में प्रोफेसरान मोटी किताब थामें निकल भर जाएं तो भीड़ रास्ता दे देती है । ये तजुर्बे
की बात है, चाहें तो इसे राज की बात
भी समझ सकते हैं । अक्सर मोर्चों से स्थूलांगिंनियां मोटी किताब देख कर सिकंदर की तरह
लौटती देखी गईं हैं ।
हां तो मैं
बारिश शुरू होते ही हाथ में मोटी किताब ले, बाकायदे क्लासिक उदासी के साथ खिड़की के किनारे बैठ जाता हूं
। अब आगे का काम मधुरा को करना था । ‘मधुरा’ ! समझ गए होंगे आप । वो जहां भी होगी, उसे अवश्य पता होगा कि बारिश का मौसम है और वादे के अनुसार खिड़की
पर उदास बैठा मैं उसे याद कर रहा हो सकता हूं । ठीक इसी वक्त आकाश में एक बदली एक्स्ट्रा आ जाती है और साफ दिखाई देता
है कि आंगन कुछ ज्यादा भींग रहा है । इसका मतलब कनेक्टिविटी बराबर है ! अब फालतू हिलना-डुलना
,
चकर-मकर होना रसभंग करना है । जैसे एक बार ट्रांजिस्टर बीबीसी पकड़ ले तो जरा सा हिलने खिसकने से आप विश्व
समाचारों से वंचित हो जाते हैं । बरसात में ऐसे ही यादों के सिगनल होते हैं, जरा एन्टिना हिला कि गए ।
‘‘ सुनो ..... क्या कर रहे हो ? ’’ इधर कान में शब्द चेंटे
उधर आकाश में बिजली कड़की ।
‘‘ किताब पढ़ रहा हूं ...... दिखता नहीं है क्या !?’’ जाने स्त्रियां पत्नी बनते ही थानेदार क्यों हो जाती हैं ।
‘‘ किताब ! .... हाथ में तो भगवत् गीता है ! ’’
‘‘ हां ! ..... तो ? ’’
‘‘ आपने उल्टी पकड़ी हुई है । ’’
‘‘ अं .... हां , पता है । मैं अभी सीधी करने ही वाला था कि बिजली कड़क गई । ’’
‘‘ झूठ ..... सच सच बताओ उसी कलमुंही को याद कर रहे थे या नहीं
?
’’
‘‘ नहीं ... मेरा मतलब है कि किस कलमुहीं को !!?’’
‘‘ तुम्हारे हाथ में गीता है , कसम खाओ कि जो कहोगे सच सच कहोगे । ’’
‘‘ इसमें कसम खाने वाली क्या बात है !?.... तुम भी बस ।’’
‘‘ ठीक कहते हो , रंगे हाथ पकड़े जाने पर कसम की क्या जरूरत है । ’’
‘‘ अब ऐसे बारिश के मौसम में कोई याद आ जाए तो गुनाह थोड़ी है ।
’’
‘‘ गुनाह नहीं है !? खाओ गीता की कसम । ’’
‘‘ हां गुनाह नहीं है , गीता की कसम । ’’
‘‘ तो ठीक है , थोड़ा उधर खसको, जगह दो । मुझे भी किसी की याद आ रही है । मेरा आंगन भी भीग रहा
है । कुछ देर मैं भी उदास हो लूं । ’’
आंगन लगातार
भीग रहा था, खिड़की उतनी ही खुली थी, भीतर दो उदास बैठे थे । लेकिन मेरी उदासी अब उतनी क्लासिक नहीं
थी ।
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