रविवार, 19 अगस्त 2018

लेखन के लोह पुरुष


जब वे कुछ नहीं लिखते थे तब भी बहुत कुछ थे. जब कुछ लिखने लगे तो माना कि वे बहुत कुछ से बहुत ऊपर हो गए हैं. अपने यहाँ लेखन में सेल्फ असेसमेंट ऐसा ही है, कई बार तो पहली कविता लिखते ही आदमी अपने को महाकवि मान लेता है. आप कहेंगे कि खुद के मानने से क्या होता है ! दुनिया माने तो कुछ बात है. तो भाई साब दूसरी सारी फील्ड में ऐसा होता होगा, इधर लेखन में आदमी सबसे पहले अपना लोहा खुद मानता है. इसको कान्फिडेंस भी कहते हैं. कान्फिडेंस का ऐसा है कि वो हर किसी को नहीं आता है. राजनीति को ही लीजिये,  कोई जबरदस्ती राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है पर जरुरी नहीं कि उसमें कान्फिडेंस भी आ जाये. लेकिन लेखन में ऐसा होता है, कई बार तो कहानी बाद में खत्म होती है कान्फिडेंस लपक के पहले आ जाता है. यही वजह है कि हर लेखक अपने को दूसरे से बड़ा मानता है.
अब बात उनकी,  शुरू से वे छोटी कहानियां लिखते रहे थे. लेकिन उन्हें लगा कि छोटी कहानियां लिखने वाले छोटे होते हैं. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे उपन्यास लिखेंगे और उपन्यास के आलावा कुछ नहीं लिखेंगे. रोज अंडा दे कर आमलेट बनवाना उन्हें पसंद नहीं हैं. अगर अंडे ही देना हैं तो डायनोसार के दें. डायनोसार का अंडा एक दर्जन मुर्गियों से भी बड़ा होता है और सही हाथों में पड़ जाये तो इतिहास में दर्ज हो जाता है.  फटाफट उनका एक उपन्यास मैदान में है. कुछ प्रतियों के साथ आज वे मित्रों के बीच मौजूद हैं. इस समय वे बहुत ऊँचाई पर हैं. कोई उनके बराबर नहीं है. लिहाजा प्रोटोकोल की मज़बूरी कहिये कि वे ही कार्यक्रम के अध्यक्ष हैं, वे ही मुख्य अतिथि और वे ही संचालक. संयोजक तो खैर दूसरा कैसे हो सकता था. संचालन करते हुए उन्होंने पहले अपने बारे में तबियत से बताया. फिर उपन्यास के बारे में कि यह सचमुच में महान  कृति है। मानवीय रिश्तों को लेकर विस्तार इतना है कि महाभारत से आगे का मामला है. अगर इसे आलोचक पढ़ लेंगे तो उनके पास कुछ कहने लिखने की समस्या हो जाएगी. कुछ नामी आलोचकों से बातचीत हुई है, लेकिन उन्होंने पढ़ने से पहले ही हथियार डाल दिए हैं. यह उपन्यास की सफलता है. साहित्य के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब आलोचक किताब देख कर ही नर्वस हो गए हैं. हिम्मत तो छापने वालों की भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब उन्हें भरपूर हौंसला दिया तो वे तैयार हुए. साहित्य के लिए लेखक को ही तन मन धन से आगे आना होता है. लेखक की निजी जिंदगी भी लेखन प्रक्रिया में होम हो जाती है. सबसे पहले पत्नी को पढ़वाया तो चौथाई उपन्यास पढ़ते वह बीमार हो गयी. ईलाज में बहुत पैसा लग रहा था, लेकिन उसका त्याग देखिये, बोली पैसा बर्बाद मत करो मुझे तो भगवान ठीक कर देंगे, तुम पहले अपना उपन्यास छपवा लो. किसी लेखक की पत्नी का इससे बड़ा त्याग क्या हो सकता है !! मित्रों, लेखक बनना बहुत कठिन है. कबीर वैधानिक चेतावनी दे गए थे कि “जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ”, लेकिन भईया हम तो फूंक बैठे, हमको तो कीड़ा काटा था, पर आप लोग ये गलती मत करना. जो आनंद पाठक बनने में है वो लेखक बनने में नहीं है. किताब खरीदो और टाइम पास करो मजे में, जो ज्ञान मिले उसको झाड़ो चार लोगों के बीच. इस बात पर विचार करो कि लेखक की बर्बादी के ढेर पर बैठ कर पाठक कितना ऊँचा उठ जाता है.
अंत में उन्होंने निराशा व्यक्त की कि कोई मित्र फूल माला ले कर नहीं आया. अगर उन्हें पता होता तो वे खुद लेते आते. आजकल तो जनसंपर्क के लिए जाते हैं तो बड़े बड़े नेता भी फूल माला का अपना इंतजाम करके निकलते हैं. इसमें शर्म कैसी ! जहाँ इतना खर्च किया वहां दस बीस रुपये और सही. हालाँकि कार्यक्रम को गरिमा प्रदान करना लेखक के मित्रों का काम है. लेकिन कोई बात नहीं महंगाई बहुत है, मुझे बुरा नहीं लगा है, आप लोग भी बुरा मत मानिये. लेखक को कई बार अपमान के घूंट पीना पड़ते हैं. यह एक तरह की अंगार- साधना है, अपने को जलाना पड़ता है.
तभी संकोच करता एक श्रोता उठा, बोला - “सर, मैं एक फूल माला लाया हूँ छोटी सी. यहाँ कोई नहीं लाया तो संकोचवश मैंने सोचा ……”
“अरे इतनी देर से क्यों छुपाये बैठे थे भाई !! आप तो सच्चे साहित्य प्रेमी निकले. लाओ मुझे दो, मैं ही पहन लेता हूँ. आपने इतना कष्ट किया, अब आपको और कष्ट देना  ठीक नहीं है.” कहते हुए उन्होंने फूल माला अपने गले में डाल ली. गदगद हो उन्होंने कहा किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लें, उपन्यास के बारे में.
समझदार श्रोताओं ने कहा - हम क्या पूछें, आप ही बताये तो बेहतर है.
जवाब में वे बोले- बहुत कठिन काम है लिखना. जान का खतरा होता है इसमें. आजकल लोग बर्दाश्त नहीं करते हैं, इसलिए बड़ा सोच सोच कर लिखाना पड़ता है. एक दिन में ढाई सौ शब्द लिखता हूँ. इस उपन्यास में चालीस हजार दो सौ पचास शब्द हैं और कीमत देखिये तीन सौ रुपये मात्र. एक रुपये में लगभग एक सौ पैंतीस शब्द !! आप लोग लिख कर बताइए एक सौ पैंतीस शब्द, भगवान याद आ जायेंगे. इससे सस्ता कुछ नहीं है आज की डेट में. मैं आप लोगों की सेवा के लिए लिख रहा हूँ. अभी मेरे पास लाईन लगी है उपन्यासों की. एक प्रकाशक के यहाँ पड़ा है, दूसरे की पाण्डुलिपि तैयार है, तीसरा लगभग पूरा हो चुका है, चौथे की रुपरेखा तैयार है और पांचवा दिमाग में आकर ले रहा है.
कक्ष में मरघटी सन्नाटा पसर गया. कुछ देर वे खामोश रहे, कोई नहीं बोला तो उन्होंने ही ताली बजा दी. लोग जैसे होश में आये और सबने उनकी तालियों में अपनी तालियाँ मिला दीं.
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