मंगलवार, 16 मई 2023

जीवन संध्या भोज


 

 

 

“अब क्या बतावें भाई साहब, रोने बैठते हैं तो समझ में नहीं आता कि सुरु किससे करें । कोई एक बात हो तो सलीके और संस्कार के साथ रो लेवें इन्सान । यहाँ तो बरात लगी पड़ी है ससुरी । लोग जिस तरह औंधी खोपड़ी से नाच रहे हैं ना वैसा तो आज तक देखा नहीं हमने । कहने को कह रहे हैं आगे बढ़ो,  दुनिया आगे बढ़ रही है, विकास हो रहा है ! फिर कहते हैं पीछे चलो बाप-दादा पुकार रहे हैं, पीछे सब अच्छा है !! अरे समझ में नहीं आता है कि आगा अच्छा है या पीछा !! जिसे देखो पगला रहा है  ... ना ना हम राजनीति की बात नहीं कर रहे है और न ही करेंगे । हमें क्या करना है, इस बुढ़ापे में तो सर पे जो भी खड़ा होता है यमराज ही दीखता है  । कुर्सी पे कोई सच्चा-साधु बैठे या लुच्चा –लबार हमें क्या । आज जिन्दा हैं तो यहाँ आपके लिए रम्मू काका हैं कल मर कर फिर पैदा हुए तो कौन जाने रहीम चाचा हो जाएँ । लोग तो कहते हैं लाखों योनियाँ हैं, आदमी कुत्ता बिल्ली भी हो सकता है । आदमी ही बनेंगे इसकी कोई गैरंटी है क्या ! इसलिए राजनीति की बातें करके हम काहे अपना और आपका कीमती समय बरबाद करें ! ... अब देखिये,  आप इतनी गौर से बात सुन रहे हैं तो किसलिए ! कोई डर है हमारा ? या कोई कर्जा लिए हो हमसे ? ... अरे भाई इंसानियत लिए हो इसलिए दुःख बाँट रहे हो हमारा । वरना ढूंढ लीजिये यहाँ से वहां तक कोई अपनी इच्छा से किसी की मन की बात सुनता है क्या ? बकवास सुनाने का समय ही नहीं है किसी के पास । घर में बूढ़े अपना पसेरी भर समय लिये बैठे हैं सारा सारा दिन कोई चुटकी भर बाँटने वाला नहीं मिलता । एक जमाना था जब मिलने वाले फूल लिए खड़े रहते थे । ... लेकिन छोड़िये पुरानी बातें ।  ... हाँ तो हम कह रहे थे आत्मा जो है सूखी जाती है । बच्चों को पढ़ाये लिखाये इसलिए थे कि इनकी जिंदगी बन जाएगी । ये इन्सान बन जायेंगे, कुछ हमारी भी सदगति हो जाएगी । अब जब धरम करम का समय आया तो फुग्गे उड़ गए आकाश में । दो लाइन का फादर्स-डे वेक्सिन ठोंक देते हैं, सोचते हैं साल भर बाप को औलादी बुखार नहीं चढ़ेगा । ... बताइए हम क्या करें ! ताली थाली बजा बजा कर बुढ़ापा-गो बुढ़ापा-गो करें  !? सब हो जायेगा इससे ! पिछले महीने बिसेसर बाबू गुजरे । बच्चे विदेश में, मजबूरी बनी रही, कोई नहीं आया । बूढ़े कन्धों ने उठाया, महरी के लडके ने आग दी ... पता नहीं ऊपर के लोक में किसी ने द्वार खोला या नहीं । न पूजा-पाठ, न तेरहवीं न नुक्ता-घाटा । सफल आदमी थे, लेकिन बड़े बेआबरू हो के तेरे कूचे से निकले । कोई इस तरह जाता है क्या !? ये कैसी दुनिया बना ली है हम लोगों ने ! ... देखो भाई, अगली पूरण मासी को हमारी कविता की किताब का जलसा रखा है । क्या कहते हैं लोकार्पण कार्यक्रम और ‘जीवन संध्या भोज’ भी है । भोजन प्रसादी का आयोजन है,  तो आना जरुर । ... सोच रहे होगे कि हमने कब लिखीं कवितायें ... तो ऐसा है कि कोई तो बहाना चाहिए बुलाने का । कहते कि अपना नुक्ता कर रहे हैं तो कौन आता । कभी कुछ पन्ने काले किये थे सो उन्हीं को छपा लिया । जरूर आइयेगा, नमस्कार ।“

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