सोमवार, 29 जुलाई 2024

आग जो लगाये न लगे, बुझाये न बुझे






                           आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे लाल कवि ने चौथी रोटी बेली, वह भी मुक्त छंद बनी। गोल रोटी बेलना कविता लिखने से ज्यादा कठिन काम है ऐसा कवि को लगने लगा है। उसे अब निराश हो जाना चाहिए था। लेकिन आदत से लाचार वह अपनी रोटी-रचना से अंदर ही अंदर मुदित है। तवे पर पड़ी पहले वाली रोटी अभी सिंकी नहीं थी इसलिए रुक कर प्रतीक्षा करना आवश्यक हो गया था। जब भी प्रतीक्षा का अवसर आता है लाल कवि को कड़क काली चाय लगती है। चाय नहीं हो तो वह घड़ी देखता है। बार-बार घड़ी देखना प्रतीक्षा को सरल करने का भौतिक उपक्रम है। इस वक्त चाय संभव नहीं थी।  उसने टेबल पर पड़ी घड़ी उठाकर अपनी कलाई में बांध ली और टाइम देखा। बार-बार घड़ी देखने के बावजूद समय साठ सेकंड प्रति मिनट की दर से ही कटता है। ऐसे में लाल कवि को नीले आसमान की तरफ देखना अच्छा लगता है। आकाश अनंत है और उसे निहारने से प्रतीक्षा में एक क्लासिक-पुट आ जाता है। बेरोजगारी और मुफलिसी के दिन हैं । कमाऊ होता तो इस वक्त सुंदरियाँ उसे देखकर कह उठती है – ‘अहा... कवि निहार रहा आकाश! क्यों बैठा मालिन मुख निराश!’ यहाँ दिक्कत यह है की रसोई घर से आसमान नहीं दिखता है। इसलिए लाल कवि लाचार ने छत को निशाने पर लिया। छत पर एक छिपकली चिपकी थी। भावुक लाल कवि की दृष्टि उसे पर टिक गई। कुछ ही देर हुई थी कि कवि को लगा कि छिपकली मुस्कुरा रही है। फाकामस्ती के चलते बहुत समय से लाल कवि को किसी ने मुस्कुरा कर नहीं देखा था। कालेज के दिनों की पिंक छतरी वाली लड़की याद आ गई । एक रिपिट टेलिकास्ट सा हुआ । शरमा कर कवि ने नजरें नीचे की। तवे पर पड़ी रोटी अभी भी सिंकी नहीं थी।
                   लाल कवि भयंकर संवेदनशील है । शोषण अन्याय व अत्याचार के खिलाफ ठोक कर कविता लिखते हैं। लोग मानते हैं कि उनकी कविताएँ कविता नहीं धधकते हुए अंगारे हैं। लेकिन विडंबना यह है कि हर बार अंगारे ‘हलवा-सेरेमनी’ के काम आ जाते हैं। बाहर इनका कोई असर नहीं होता है । अब देखिए,  खुद उनकी रोटी अभी तक सिंकी नहीं है। पेट में एक अलग तरह की आग है जो धीरे-धीरे बढ़ रही है। सुना है दिल्ली मुंबई जैसे नगरों में दस पंद्रह रुपयों में भरपेट खाया जा सकता है। हालाँकि आजकल लेखकों और कवियों को पारिश्रमिक देने का चलन समाप्त हो गया है किन्तु उसे ‘भूत-लेखन’ से कुछ मिल जाता है। दिल्ली में अगर तीस चालीस रुपयों में दो वक्त का खाना मिल जाए तो लाल कवि क्रांति कर सकता है। उसे अब समझ में आया कि अर्बन-नक्सल का खतरा होने के बावजूद कवि लेखक अपना गाँव-गली छोड़कर दिल्ली क्यों भागे चले आते हैं। पापी पेट भर जाए तो ‘गालिब कौन जाए दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’। लाल कवि के दिमाग में अब चालीस रुपये  और दो वक्त का खाना पकने लगा था। उसने नज़रें उठा कर देखा छिपकली अभी भी मुस्कुरा रही थी। मूड अच्छा था, कवि ने शिष्टाचारवश मुस्कुरा कर उत्तर दे दिया। छिपकली फौरन शरमा का ट्यूबलाइट की पट्टी के पीछे छुप गई। तवे पर पड़ी रोटी अभी भी सिंकी नहीं थी।

                       कवि सोच रहा था कि किसी तरह दिल्ली पहुँच जाए तो फिर घर बसाने के बारे में भी सोचा जा सकता है। एक ‘भूत-लेखन’ से दो लोग हफ्ता भर आराम से खाएंगे और मजा करेंगे। अचानक उसे एक भूत-विचार भी आया की नौकरी वाली पत्नी मिल जाए तो दिल्ली फतेह हुई समझो। खुश मन के साथ कवि ने तवे के नीचे देखा, बर्नर पर आग नहीं थी। उसे ध्यान आया कि गैस खत्म हुए हफ्ता भर हो गया है। गुस्से में उसने बेली हुई रोटियों को मसक कर लौंदा बना दिया। उसकी नजर फिर दीवार पर गई, छिपकली जुबान निकाल कर मानो चिढ़ा रही थी। एक आग सी भड़की अंदर । गुस्से में लाल कवि ने कागज कलम उठाया ।

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गुरुवार, 4 जुलाई 2024

लेखक का मूल्यांकन


राइटर सारासिंह खूब सारा लिख चुके हैं । उन्हें लग रहा है कि अब अच्छा लिखना बेकार है । अच्छे साहित्य का जो माहौल पहले था अब नहीं है  ।   उनकी इच्छा है कि आँखों के सामने मूल्यांकन हो जाना चाहिए । इसलिए उन्होंने अपनी कुछ किताबें नगर के एक समीक्षक- आलोचक को भेज दी । साथ में यह चिट्ठी भी कि

'महोदय पुस्तकें मूल्यांकन हेतु सादर प्रेषित हैं । कृपया समय निकाल कर अच्छी टीप लिख दें ताकि पाठकों को प्रेरणा मिले’।


           अभी वे उम्मीद के तीसरे चौथे चरण में डूब उतर रहे थे कि उनका पुराना मित्तर अक्खरसिंह  सिंह मिल गया । वे अक्खरसिंह  को अपना फैन भी मानते हैं । अरसे तक अक्खरसिंह अपनी टिप्पणियों से सारासिंह की हौसला अफजाई करते रहे हैं । यह बात अलग है कि सारासिंह हर बार उन्हें ( संयोगवश ) दूध लस्सी वगैरा भी पिलाते रहे थे । इससे प्रायः टिप्पणी में तरावट और चिकनाहट आ जाती थी । लेकिन इससे क्या! विद्वान कह रहे हैं कि सार-सार गह ले थोथा दे उड़ाए । अक्खरसिँह. की टिप्पणी भी एक तरह का मूल्यांकन ही है । और यदि यह पौष्टिक भी हो तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । वैसे देखा जाए तो इस दुनिया में कोई भी चीज मुफ्त नहीं मिलती है । मूल्यांकन मेहनत का काम है । सूखा सूखा मूल्यांकन हर किसीके गले में अटकता है ।   

        किसी को दस-पाँच अक्खरसिंह  तो मिल नहीं सकते भले ही आप सचमुच अच्छा ही लिखते हों । जमाना महंगाई का है और लोगों का मिनट मिनट कीमती है । कुछ महीने पहले तक सारासिंह कॉफी हाउस में बैठे थे और प्रायः बिल वे ही चुकाते थे ।   लंबे वक्त के बाद उन्हें समझ में आया कि भाई लोग इडली-डोसा और काफी के बहाने उनकी जेब का मूल्यांकन कर रहे हैं । लेखकों में एक खास बात होती है वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी रचना रद्दी है ।   लेकिन मां के लिए तो अपना कुरूप बच्चा भी सबसे सुंदर होता है । उन्हें विश्वास होता है कि जब दूसरों की रद्दी रचनाएँ चल रही हैं बाजार में तो मेरी क्यों नहीं चलेगी । चलती का नाम गाड़ी और छपती का नाम साहित्य । 


            इसी चक्कर में दक्षिणपंथी होने के बावजूद वे वामपंथ और समाजवाद का समर्थन भी  कर दिया करते हैं । यू नो, साहित्य साधना और त्याग का क्षेत्र भी है । सारासिंह का अनुभव कहता है कि गरीब आदमी सस्ता और अच्छा श्रोता होता है । दो चार अच्छे गरीब मिल जाएं तो साहित्य, समाजवाद और मूल्यांकन तीनों लक्ष्य साधे जा सकते हैं ।   लेकिन इन दिनों अच्छे गरीब मिलने में बहुत दिक्कत है । जब से मुक्त अनाज बाँटा जाने लगा है लेखकों की समस्या और कठिनाई बढ़ गई है । चुनाव के चलते कुछ नई बातें भी सीख गए हैं ये लोग । जो रामदास कभी बीड़ी माचिस में सुन लिया करता था, अब पव्वा माँगता है । कहता है सुनने में मेहनत लगती है साहब जी । दिमाग का दही हो जाता है । जब लिखने वालों को थकान उतारने की जरूरत होती है तो सुनने वालों के लिए क्यों नहीं ! अब आप ही बताइए ऐसे माहौल में कोई कैसे और क्यों लिखे भला ! साहित्य सेवा एक महँगा काम है । विडंबना देखिए जमाना इससे फोकटिया काम समझता है ! ये कुछ स्थितियों है जिसने सारासिंह को विरक्त कर दिया है ।   

            कुछ दिनों बाद आलोचक महोदय का लेख छापा जिसमें तमाम लेखकों का जिक्र उनके कारनामों के साथ था । लेकिन सारासिंह ना तीस में थे ना पचास में । पहले कुछ मिनट उन्होंने भारी तमतमाहट में गुजारे । फिर गुस्सा आया तो पूरे दिन मेहमान रहा । दूसरे दिन सोचा कि गलती किससे नहीं होती । अभी देश को पता चला है कि नेहरू और गांधी से भी हुई है तो एक छोटे से आलोचक का क्या ! बुढ़ापे में यों भी आदमी की याददाश्त कमजोर होने लगती है ।   किताबें मिली होगी लेकिन देखना भूल गए होंगे । एक बार उनसे मिल लेना चाहिए था । कुछ प्रेरणा और प्रसाद भी साथ में होता तो उनके दिमाग में जगह मिल जाती । सारासिंह ने कसम खाई कि तुम मुझे भूल जाओ यह मैं होने नहीं दूँगा । फ़ौरन से पेशतर वे आलोचक जी के सामने थे ।   

" साहब जी, ये कुछ बादाम हैं जी कैलिफोर्निया वाले । रख लो जी, इससे याददाश्त बढ़ती है ।   "  कहते हुए उन्होंने पैकेट आगे बढ़ाया । 

" आप खाते हैं ? " जवाब में आलोचक जी ने पूछा । 

" खाते हैं जी, तभी तो आपको याद रखते हैं हमेशा ।  "

" तो यह बादाम ही है जिसके कारण आप मुझे याद रखते हैं!"

" हाँ जी हाँ ...  आपने सही मूल्यांकन किया । "

" बताइए क्या सेवा करूँ आपकी ? "

" सर जी कुछ किताबें भेजी थी मूल्यांकन के वास्ते ।   कुछ हुआ नहीं ।   "

" क्या होना था? "

" आपके लेख में किताबों का या मेरा कोई जिक्र नहीं है जी …"

" हाँ जिक्र तो नहीं है ।   "

" इसका मतलब है कि मूल्यांकन नहीं हुआ जी !"

" मूल्यांकन तो हुआ । "

" तो जिक्र क्यों नहीं हुआ जी !!"

"ये समझने की बात है  ..."

" आप भूल गए होंगे जी । "

" नहीं याद है मुझे ।   "

" फिर जिक्र क्यों नहीं हुआ जी ?!"

" जिक्र ना होना भी मूल्यांकन ही है जी । "

"जिक्र तो होना चाहिए था, वरना दुनिया को कैसे पता चलेगा कि मेरा लेखन क्या है ।  "

" कुछ बातों का पता न चलना लेखक के हित में होता है । "

" मैं समझा नहीं जी ! "

" ये बादाम ले जाओ और कुछ दिन खाओ समझ जाओगे । "


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