शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्यसेवी दीमकें


                 एक समय ऐसा आ गया जब स्वयं सिद्ध बड़े रचनाकार शब्देश्वर  अपनी दीमक चाट रही किताबों के लिए इतने चिंतित हो गए कि उन्हें अनिंद्रा का शिकार हो जाना पड़ा। रात रात भर वह और दीमक साथ साथ जागते हैं और किताबों के आसपास बने रहते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर में, जिसे विद्वान लोग प्रायः ब्रह्मम मुहुर्त वगैरह कुछ कहते हैं, उन्हें रोना आने लगता है। ऐसे में उन्हें कबीर याद आते हैं, -‘‘दुःखिया दास कबीर, जागे और रोवै। सुखिया सब संसार, खावै और सोवै।’’ उन्हें समझ में नहीं आया कि जब कबीर के पास किताबें नहीं थीं तो दीमक की परेशानी कैसे रही होगी !! उन्हें लगा कि कबीर के दुःखिया होने का कारण अवश्य ही खटमल रहे होंगे। अच्छा है कि उनके अपने घर में खटमल नहीं हैं और वे कबीर होने से बालबाल बच गए हैं। वरना इस बुढ़ापे में कहीं बैठे झीनी चदरिया बुनना पड़ती फोकट में। इधर उनके घर के सारे लोग खा-पी कर सो रहे हैं मजे में। साम्यवादी शब्देश्वर किसी को खाते देखते हैं तो उन्हें भी भूख लगने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। काफी देर से जागते और दीमक को खाते देख खुद भूखे हो चले हैं, कमबख्त गांधीवादी दीमकें लगातार खाए जा रही हैं। राजनीति में कोई हरकत नहीं होने के बावजूद खाना या ‘चाटजाना’ दीमक का काम है। कोई जागरुक सिरफिरा जनहित याचिका लगा दे तो विद्वान न्यायाधिपति को अपने फैसले में कहना ही पड़ेगा कि उन्हें खाने दो, खाना और ‘चाटजाना’ उनका हक है, चाहे किताबें हों या कुछ और। देखने वाली बात ये है कि उनके सामने विकल्प हो तो वे किताबों को प्राथमिकता से चुनती हैं। मनुष्य उनके पुस्तक-प्रेम  को गंभीरता से ले यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन देखिए, कितने षरम की बात है कि आदमी के सामने जूता और किताबें रख दो तो वह जूता पहन का भाग जाएगा, लेकिन किताब उठा कर नहीं देखेगा। 
                      दूसरे दिन शब्देश्वरजी ने दीमक-विशेषज्ञ को बुलवाया। संयोग से वह भी जन्मजात कवि था। उसने बताया कि अगर दीमक कविताएं सुन पातीं तो वह सबको एक रात में ही मार डालता, लेकिन अफसोस, ईश्वर  ने सब प्राणियों को अपनी रक्षा के लिए कुछ न कुछ दिया है, वे बहरी हैं। शब्देश्वर भाईसाब ईश्वर  बड़ा चालाक है। शब्देश्वर को उसकी बात अच्छी नहीं लगी, बोले-‘‘ ईश्वर  चालाक नहीं दयालू है। देखो जिस आदमी को आज भी शब्दों का ठीक से ज्ञान नहीं है वह जमाने भर में शब्देश्वर है। कागज कलम ले कर बैठता हूं तो पता नहीं कहां से शब्द आते जाते हैं फरफर फरफर, अपने आप। बोलो, इसे क्या कहोगे तुम ?’’ 
वह बोला - ‘‘शब्द आपके जींस में हैं शब्देश्वर। आपको पता नहीं, जो दीमकें साहित्य की किताबें चट करती हैं वो आगले जन्म में कवि बनतीं हैं। देख नहीं रहे हैं कि गली मोहल्लों में बांबियां भरी हैं कवियों से। पिछले जनम का चाटा हुआ अपना असर रखता है। साहित्य के साथ पुनर्जन्म होता है दीमकों का। आप चाहें तो इसे संस्कार वगैरह कह सकते हैं। अगर आपकी मंशा  है कि साहित्य सचमुच अगली पीढ़ी में जाए तो दीमकों के प्रति दुर्भाव मत रखिए। आज जो दीमकें आपकी किताबें चाट रही हैं वे ही कल, यानी उनके अगले जन्म में समाज के सामने इन्हें प्रस्तुत करेंगी। आपको पता ही है कि साहित्य का मूल्यांकन कवि के जीते जी नहीं होता है, उसे समय जांचता है और आप विचार करके देखिए कि समय और दीमक में कोई अंतर नहीं है। साहित्य के मामले में दीमक को मारना अपने समय को मारना है।’’
              शब्देश्वर कुछ देर खामोश  और गंभीर बने रहे, फिर बोले, -‘‘ कल भोजन पर आइयेगा, मैं दीमकों का श्राद्ध करना चाहता हूं ।’’                    ---

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