शनिवार, 9 मई 2015

दिव्य-नगर के दीवाने

                     पहले अच्छी तरह समझ लो, स्मार्ट सिटी यानी दिव्य-नगर। दिव्य-नगर में हर चीज दिव्य यानी बड़ों के कायदे से होगी। जैसे दिव्य नागरिकों की सुविधा के लिए हर दिव्य-नगर में स्विसबैंक की एक लोकल शाखा रात-दिन काम करेगी। दिव्य नागरिक लोग वोट नहीं सिर्फ आशीर्वाद यानी चंदा देंगे। सरकारें ब्रेल लिपि में उनके संदेश पढ़ने में दक्ष होंगी और इषारों को पहले से अधिक समझेंगी। विकास की योजनाएं दिव्य-नगर के दफ्तर से अनुमोदित होंगी। मंत्री शपथ लेते ही मंदिर से पहले दिव्य-नगर जाएंगे, हालांकि वहां ना कोई धर्म होगा न ही ईश्वर, फिर भी पूजा होगी और वफादारी की चादर चढ़ाई जाएगी। समय समय पर हरे-पीले झण्डों का उपयोग किया जाएगा लेकिन लाल झण्डे पूर्ण प्रतिबंधित रहेंगे। सामाजिक जीवन प्रतिस्पर्धापूर्ण होगा। विवाह नहीं होंगे, लिव-इन संबंधों का दिव्य चलन होगा। बेटियां पैदा नहीं होंगी, किन्हीं आरामदेव बाबा की बूटी से बेटे ही पैदा होंगे। देवियां खुद गर्भवती नहीं होंगी, किराए की कोख का अधिग्रहण होगा। अस्पताल में मरीजों से ज्यादा डाक्टर और उससे भी ज्यादा नर्सें होंगी। दिव्य नागरिक बीमा वसूलने के लिए समय निकाल कर बीमार होंगे। स्वस्थ होने पर उन्हें प्रमाणपत्र मिलेगा जो राष्ट्रिय  सम्मानों के चयन में मान्य होंगे। 
                  दिव्य-नगर में सिर्फ दिव्य लोग रहेंगे। भारतीय संस्कृति वाली ‘धोती-साड़ी पब्लिक’ ढीलीढ़ाली और लजाऊ होती है, एक तरफ से नीची करो तो दूसरी तरफ ऊंची हो जाती है। स्मार्ट पब्लिक सब तरफ से ऊंची होती है। देखने वाला ‘इंटरेस्ट’ के साथ दीदे फाड़ कर देखता है और विकास की भावना से चाहता है कि और थोड़ी ऊंची हो जाए। सरकारें भावनाओं की कद्र करना चाहती है। दिव्य-नगर में कोई आम रास्ता नहीं होगा, हर रास्ता दिव्य रास्ता होगा। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है कि जो लोग टोले-तबेले में रहने के आदी हैं उनका प्रवेश प्रतिबंधित होगा। 
                  सरकार पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है, पर्यटक झोपड़पट्टियों में गरीबी के और अधनंगों के फोटो खींचने लगते हैं। एक गलत इमेज जाती है दुनिया में हमारी। कुछ दिव्य-नगर होेंगे तो माहौल बनेगा विकास का। विकास हो ना हो माहौल होना चाहिए। माहौल विकास से भी बड़ा होता है। लोकतंत्र में तो माहौल किसी करिश्मे से कम नहीं है। एक बार महौल बन जाए तो सरकार भी बन जाती है। भूखे, नंगे, गरीब माहौल की हवा से गुब्बारे की तरह फूल सकते हैं, दिव्य-नगर एक हवा है। 
                  यों देखिए तो क्या नहीं है देश में। हवाई जहाज हैं, एसी ट्रेनें हैं, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं, करोड़ों की लागत वाले लेट हैं, बड़े अस्पताल और बहुत काबिल डाॅक्टर हैं, कारों की तो पूछो ही मत। सब है, लेकिन कितने लोगों की पहुंच में हैं। पूछोगे तो पता चल जाएगा कि ये बेजा सवाल है। गोद में बच्चा रोता है तो आसमान में उड़ता हवाई जहाज दिखा कर बहला लेते हो, इसका पैसा तो नहीं लगता। हुआ ना हवाई जहाज आपकी पहुंच में, रहा सवाल बच्चों का तो उसके बारे में पार्टी के जिम्मेदार तय कर ही रहे हैं कि कितने पैदा करो। इसी तरह जब बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं  देखोगे, तेज भागती ट्रेनें देखोगे तो फटी आंखों से देखते रह जाओगे। बिना पैसा खर्च किए स्वर्ग देखने का मजा कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। यह अटल सत्य है कि ईमानदारों को हमेशा  दो रोटी मिला करती है, स्वर्ग तो मिलता नहीं है। भोलेभाले सच्चे संस्कारीजन स्वर्ग की कामना भी नहीं कर पाते हैं, वे कर्म करते हैं और करते ही रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। इसी तरह जो स्वर्ग भोग रहे हैं वे भोगते रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। दिव्य-नगर बनेंगे तो दोनों वर्गों की दूरियां कम होगी।
                    आप जानते हैं कि राजनीति के अलावा सब जगह ईमानदारों की मांग रहती है। बड़े बड़े कामों में बेईमानी एक कायदा है, दरअसल बेईमानी अपने आप में बड़ा और सामंजस्यपूर्ण काम है। बड़े काम के लिए बड़ा आदमी ही उपयुक्त होता है। संत साफ साफ कह गए हैं कि ‘समरथ को कोई दोस नहीं गुसाईं’। छोटा आदमी ‘बड़ा काम’ करे तो व्यवस्था बिगड़ती है। इसके लिए जरूरी है कि व्यवस्था को पुष्ट करने वाले स्मार्ट नागरिक थोड़ा हटके यानी दिव्य-नगर में रहें।  

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