सोमवार, 25 जून 2018

कवि के हाथ में अल्फ़ान्सो की महक



बाबूजी आम को दबा दबा कर मत देखो, खराब हो जायेंगे. आमवाले  ने वरिष्ठ कवि को टोकते हुए कहा तो वे पिनक गए, बोले- सूंघ कर देखूं या नहीं ! ये भी बता दे. लगता है तेरे आम खास हैं. 
ऐसा नहीं है बाबूजी, सब लोग दबा दबा कर रख देते हैं और खरीदते नहीं. ऐसे तो आम पिलपिले हो जाते हैं. 
ऐसे कैसे पिलपिले हो जाते हैं ! आदमी देख के बात किया कर, हम कवि हैं, प्रेम  से दबाते हैं. आम से प्रेम करने वाले देखे नहीं होंगे तूने !?
“बाबूजी खरीद लो और मजे से कितना भी दबाओ, कितना भी प्रेम करो कोई बोलेगा नहीं. …. कितना तौल दूँ  ?”
“तौलने की बड़ी जल्दी पड़ी है !! .. भाव क्या है ?”
“ये हजार रुपये किलो, और ये वाला तीन सौ रुपये किलो.”
“आम का भाव बता भाई, काजू बादाम का नहीं. कौन सा आम है ये हजार वाला ?”
“ये अल्फ़ान्सो है साहब.”
“और ये तीन सौ वाला !?”
“ये हापूस है.”
“कोई मिला नहीं क्या सुबह से !! हम कोई ऐरे गैरे हैं जिसको कुछ पता नहीं है ! एं ? अल्फ़ान्सो और हापुस एक ही होता है, जैसे गुड मार्निंग और नमस्ते.”
“गुड मार्निंग में जो बात है साहब वो नमस्ते में कहाँ ! और कम भाव में राम- राम भी हैं, इधर नीचे पड़े हैं, अधसड़े. पचास रुपये किलो.”
“अरे !! क्या अधसड़े ले जायेंगे हम !!”
“गलत समझ गए साहब, ये अधअच्छे हैं. यानि आधे अच्छे. सिर्फ कहलाते अधसड़े हैं. संसार में पूरा अच्छा कौन है ! बड़े बड़े लोग ले जाते हैं बंगले वाले, कार वाले, मेमसाब लोग आती हैं जिनके यहाँ किट्टी पार्टियाँ होती हैं. संत कह गए हैं कि ‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय. सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय.’
“बड़ा विद्वान् है रे तू तो !! कहाँ तक पढ़ा है ?”
“ ‘पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय.’ हमारी पढ़ाई से क्या होता है साहब, ग्राहक पढ़ा- लिखा और समझदार होना चाहिए. सब आम को दबा दबा कर पता नहीं क्या देखते हैं !
“हद करता है यार !! वो आम वाला भी तो है, उसके आम भी अभी मैंने दबा दबा कर देखे. उसने तो कुछ नहीं कहा !”
“उसके आम देसी हैं. देसी आम आमों में दलित होता है. उसका तो एक आम चूस के फैंक दोगे तो भी कुछ नहीं बोलेगा.”
“वो दलित हैं तो तेरे आम क्या हैं भाई !?”
“ये अल्फ़ान्सो देवता हैं, … बाईस बिसवा … और ये हापुस देवता हैं बीस बिसवा. बाबूजी हर कोई छू नहीं सकता इनको. ईमानदार टाईप लोग तो दूर से पालागी करते निकल जाते हैं.”
“और जो नीचे पड़े हैं वो क्या हैं !!?”
“हैं तो देवता ही, पर वो पढ़े लिखे दागी हैं, लेकिन बुराई कुछ नहीं है उनमें. आप ले जाइये … तौलूं ?”
“चल रहने दे, मेरे यहाँ जब कोई पार्टी होगी तब ले जाऊंगा. अभी तो मैं भी इन देवताओं को पालागी करता हूँ.” कविराज अपने हाथों को सूंघते आगे बढ़ गए. अभी भी उनके हाथों में अल्फ़ान्सो की महक थी.            
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