सोमवार, 7 अप्रैल 2025

केटवाक और कदमश्री सम्मान

 




               “नहीं नहीं श्रीमान, कैटवॉक कीजिए। कैटवॉक समझते हैं ना? नहीं समझते हैं तो पहले सीख कर आइये, समझ कर आइये। योग्यता वोग्यता को भूल जाइए, इनके मुगलते में मत रहिये । कदमश्री सम्मान कोई मामूली चीज नहीं है। ड्राइविंग लाइसेंस लेने के लिए भी दस तरह के टेस्ट देना पड़ते हैं तो यहां क्या दिक्कत है! लेने वाले एक ढूंढो तो हजार मिल जाते हैं। यूं कहो कि गले पड़ जाते हैं। कवि प्रतिदिन-पचास का नाम सुना होगा। हिम्मत वाले हैं, जिद्दी हैं, पचासों टेस्ट दे चुके हैं लेकिन नहीं मिला। कैटवॉक करो और मिल ही जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है। टेस्ट परफेक्ट होना चाहिए। बिल्ली चूहा दिखाए और मलाई के मामले में मुंह छुपा ले तो कैसे काम चलेगा। कंप्लीट केट-पन होगा तभी उम्मीद की जा सकती है। अगली बार आओ तो मलाई लेकर आना। मलाई खिलाना शुभ होता है। कदमश्री सम्मान जैसे मामले में शुभ अशुभ का ख्याल तो रखना जरूरी है। इस तरह के बड़े दरबारी सम्मान का मामला मात्र योग संयोग का नहीं होता है। नेपथ्य लीला हमेशा सम्मान से बड़ी होती है। अंतर केवल इतना है कि सम्मान दिखता है । कहने वाले का गए हैं फल की चिंता मत करो कैटवॉक किए जाओ। समझने वाले समझ गए ना समझे वह अनाड़ी है।“ वे एक साँस में बोल गए । उनके पास समय कहाँ, राजधानी देशभर की बिल्लियों से भरी पड़ी है  

                खुद केट भी माँ के पेट से कैटवॉक सीख कर नहीं आती है। कवि प्रतिदिन-पचास अपने मोटापे के बावजूद अभी भी लगे हुए हैं। उन्होंने देखा है कि कोशिश करता रहे तो हाथी भी कैटवॉक कर सकता है। पिछला रिकॉर्ड खंगालोगे तो पता चलेगा कि राजधानी में कई हाथी कैटवॉक कर गए हैं। उनसे ही सीखना चाहिए ।  चलिए कुछ पूछते हैं ।
" गजराज जी आपको पिछली बार कदमश्री सम्मान मिला है तो उसके बारे में कुछ बताइए। "

“कदमश्री मिलता नहीं है लेना पड़ता है। किसी शायर ने कहा है ना, बढ़ा कर हाथ जो उठा ले जाम उसका है।"
" लेकिन वो तो कैटवॉक करने के लिए कह रहे हैं!! हाथ कहां बढ़ाएं । क्या करना पड़ता है?"
" क्या नहीं, यह पूछिए कि क्या-क्या करना पड़ता है। समझिए तनी हुई रस्सी पर चलना होता है।"
" चल लूँगा, कितना दस बीस फुट रस्सी पर? "
" नहीं अपने शहर से राजधानी तक। खूब बैलेंस बनाकर रखना जरूरी है। हाथ में एक बड़ा डंडा हो चिकना, सिफारिश का। उसके दोनों छोरों पर ठीक-ठाक वजन हो, तकि जरूरत पड़ने पर संतुलन बना रहे। इस मामले में आदमी को सुस्ती नहीं रखना चाहिये। कदमश्री का सीजन होता है जैसे आम का होता है। उसके बाद चल जाता है । "
" ठीक है राजधानी पहुंचते ही काम तो हो जाएगा ना? "
" वहां पहुंचोगे तो तुम्हें असली कैट भी मिलेंगी। तुम देखोगे कि वहां मेंढक, खरगोश, कंगारू वगैरह सब कैटवाक कर रहे है !  कुछ डंकी मंकी भी कोशिश में लगे हैं । बहुत कठिन है ।“

“फिर आपने कैसे ले लिया गजराज !?”

“गणेश जी ने दिलवाया ।“

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सोमवार, 31 मार्च 2025

आलसी आदमी महान होता है

 




 


                      आलसी आदमी भी दूसरे तमाम प्राणियों की तरह जिंदा होता है। फर्क केवल उसके जिंदा रहने के तरीके में देखा जा सकता है। वह जरूरी / गैरजरूरी किसी भी तरह की हलन चलन में विश्वास नहीं करता है। वह मानता है कि बैठे रहकर या पड़े रहकर भी मस्त जीवन जिया जा सकता है। आलस्य एक तरह का दिव्य गुण है । शेषनाग पर भगवान भी तो सदा लेटायमान रहते हैं । आलसी अपने को ईश्वर का सच्चा पुत्र मानता है। काम या परिश्रम करके वह पालनहार परमपिता की महिमा पर बट्टा नहीं लगाता है। वह आलस्य के आनंद रस में इतना पगा होता है कि उसे निष्क्रिय जीवन वरदान लगता है । वह अपने को सर्वज्ञानी मानता है । उसे नया पुराना कुछ भी करने या सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती है। असल में वह बंद गोदाम के आखिरी कोने में पड़ा हुआ बुद्धिजीवी होता है। उसे अच्छी तरह से पता है कि जीवन ओन्ली चार दिनों का है। ना यहां कुछ लेकर आए थे ना यहां से कुछ लेकर जाएंगे। यह दुनिया फोकट की एक सराय है जिसमें चतुर लोग खाते, पीते, आराम करते हैं और चले जाते हैं। 50% दानों पर आलसियों का नाम भी लिखा होता है । वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी न्यायाधीश को भी नहीं मिलता है। लीडर करे न चाकरी मंत्री करे ना काम; दास मलूका का कह गए सबके दाता राम। ऐसे में बिना बात हाड़ तोड़ने का कोई मतलब नहीं है। बैल दिन भर काम करते हैं और बैल ही बने रहते हैं, घोड़ा नहीं हो जाते हैं। आलसी मानता है कि हमसे पहले हजारों भोलारम आए और तमाम काम करके चले गए लेकिन कोई उन्हें नहीं जानता। इसीलिए भगवान कहते हैं कि तू मेरा हो जा और अपनी चिंताएं मुझ पर छोड़ कर सो जा । बताइए क्या आज के समय में भगवान पर विश्वास करना गलत है!? नहीं नहीं, बोलिए, गलत है तो कहिये, फिर पता चलेगा। एक बात और, जो लोग काम करते हैं उनसे जाने अनजाने में कानून टूटता ही है। आलसी कानून के सम्मान के लिए भी काम नहीं करता है। उसे किसी नेता या सरकार से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए वोट देकर विरोध या समर्थन दर्ज कराने की उसे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि वह कुछ सोचता विचारता नहीं है। मतदान वाले दिन बस सुबह से सोचता है कि वोट दूं या नहीं दूँ। नहीं दूं या दे ही दूं। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले शाम हो जाती है और वह भगवान को धन्यवाद कहकर वापस पड़ जाता है।

                   जब आप रुचि से इतना पढ़ चुके हैं तो यह भी जान लीजिए कि आलसी होते कितने प्रकार के हैं। जन्मजात आलसी साउण्ड प्रूफ होते हैं। लोगों के कहने सुनने को, तानों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। आप जानते हैं यह कठिन काम है, बड़े नेताओं से ही सधता है । ऐसा करते हुए वह बोलने वालों को अज्ञानी और मूर्ख समझ कर माफ भी करते रहते हैं, मतलब दिल बड़ा । कुछ आलसी संत टाइप होते हैं। वे मानते हैं कि न उधो से लेना न माधो को देना, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर । कुछ मौका परस्त आलसी भी होते हैं जो वक्त जरूरत और अवसर देखकर अलसाते हैं। जैसे आज संडे है तो लस्त पड़े हैं, कुछ नहीं करेंगे। या फिर काम करने वाली (पत्नी)  है आसपास तो वह कुछ नहीं करेंगे। ससुराल में है तो प्रति घंटा चाय बिस्किट की दर से सोफ़ा तोड़ना उनका अधिकार है। आलसी प्रायः भाग्यवान होते हैं, कोई काम खुद ही उनके पास नहीं फटकता है । घर-परिवार और आसपास के लोग ही उन्हें घोर आलसी मानकर उनसे सारी उम्मीद छोड़ देते हैं।

 

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रविवार, 30 मार्च 2025

हास्य व्यंग्य मंत्रालय


 



                    आपात बैठक में तय हुआ कि एक हास्य व्यंग्य मंत्रालय बनाना बहुत आवश्यक हो गया है। देश महसूस कर रहा है की हास्य व्यंग्य की समस्या ने नक्सल समस्या की तरह जड़े जमा ली हैं । पानी दाढ़ीयों से ऊपर जा चुका है और नाक बंद हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। खुफिया रिपोर्ट से पता चला है कि देशभर में उगे व्यंग्यकार हमारे देशप्रेमियों पर धड़धड व्यंग्य लिखने पर आमादा हैं । दिक्कत सिर्फ यह है कि ये लोग एकदम से पहचान में नहीं आते हैं। लेकिन सरकार को सब समझ में आता है और कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगी।

                हमने तय किया है कि मंत्रालय के प्रमुख को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाएगा। ये युवा मंत्री ना खुद हँसेगा और ना किसी दूसरे को हँसने देगा। चेहरे पर हर समय छाई रहने वाली मनहूसियत उसकी पहचान होगी। वह पढ़ा लिखा नहीं होगा..... लेकिन उसके पास डिग्री बड़ी होगी। उसमें व्यंग को समझने की चाहे क्षमता ना हो लेकिन व्यंग्यकार को देख लेने का इरादा मजबूत होगा। इस काम के लिए स्थानीय पुलिस के अलावा उसके साथ पर्याप्त संख्या में कड़क कमांडो मौजूद रहेंगे। मंत्रालय को यह अधिकार होगा कि नगर कसबों से लगाकर ग्राम पंचायत स्तर तक युवाओं का व्यंग्य-भंजक दल गठित करें। पता चला है कि ओटलों, पाटियों, चौपालों, चाय के ठियों या काफी हाउस में मखौल मस्ती चला करती है। सूचना मिलते ही व्यंग्य-भंजक वहां सक्रिय हो जाएंगे। पहली बार व्यंग्य करते पकड़े जाने पर चेतावनी और अगली कार्रवाई का विस्तृत विवरण देकर छोड़ा जाएगा। लेकिन दूसरी बार कटाई छिलाई करके सारे कांटे निकाल दिए जाएंगे और आदमी से एलोवेरा बना दिया जाएगा। हमारी साहित्य समीक्षक संगठन ने बताया है कि व्यंग्यकार एबले किस्म के जीव होते हैं। उनको सोते शेर की नाक आदि में काड़ी करने की बुरी आदत होती है। और जब शेर जाग जाता है तो उछलकर झाड़ पर भी चढ़ जाते हैं। व्यंग्य के ये तरबूज ऊपर से हरे और अंदर से लाल होते हैं। पार्टी लाइन को ना हरा पसंद है ना लाल। सब जानते हैं।

                 सावधानी हटी और चट्ट से दुर्घटना घटी। इसलिए जनहित में बताया जा रहा है की हास्य और व्यंग्य में संक्रमण की भयंकर प्रवृत्ति होती है। यह फूस में आग की तरह फैलता है। इनका वायरस इतना खतरनाक है कि एक व्यंग्यकार को जेल में डाल दो तो तीन चार महीने में सारे कैदी व्यंग्यकार बन सकते हैं। नया मंत्रालय ऐसी जेलों का निर्माण करेगा जो निर्जन स्थान पर होंगी और जहां इन कमबख्तों को सिगरेट, शराब और दोस्त नहीं मिलेंगे। व्यंग्यकार को इसमें क्वॉरेंटाइन करके सड़ाया जाएगा। मंत्रालय जल्द ही एंटी व्यंग वैक्सीन बनवाने कि कोशिश भी करेगा।

                पता चला है की हास्य-व्यंग्य को साहित्य में भी जगह मिली हुई है। यह कार्य किसने किया इसकी जांच की जाएगी। दोषी पाए जाने वाले को कब्र से भी निकाल कर मुकदमा चलाया जाएगा। यदि वे कब्र में नहीं मिले तो श्राद्ध पक्ष में उनका सर्च वारंट जारी किया जाएगा। न्यायपालिका पर अब सरकार को पूरा भरोसा है। साहित्य में हास्य व्यंग्य का अतिक्रमण सिद्ध होते ही तत्काल उसकी बुलडोजर सेवा की जाएगी। बहुत से व्यंग्यकार अतीत में पुरस्कृत व सम्मानित हुए हैं। उन्हें प्राथमिकता से असम्मानित करते हुए हिसाब बराबर किया जाएगा। ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने राजनीतिक व्यवस्था पर कुदाली चलाई है और अब दिवंगत है उनके नाम शौचालय पर लिखे जाएंगे। इस मामले में मंत्रालय का निर्णय अंतिम व बंधनकारी होगा।

                    मंत्रालय एक हास्य व्यंग्य आचरण संहिता भी बनाएगा। जिसमें हंसने के नियम वह कायदों का विवरण होगा। मंत्रालय विवेक का इस्तेमाल करके बेजा हँसने पर दंड की व्यवस्था करेगा और अधिक हँसने टैक्स की लगा सकेगा । राष्ट्रीय चैनल पर हर सप्ताह 'हंसी की बात' कार्यक्रम शुरू किया जाएगा जिसमें जनता एक बार निशुल्क हँस सकेगी। छानबीन और छापे के दौरान जिनके घरों में हास्य-व्यंग्य की किताबें बरामद होगी वे देशद्रोही माने जाएंगे। जिन प्रदेशों में हास्य-व्यंग वाले अधिक पैदा होते हैं वहां व्यंग्य कीटनाशक तब तक छिड़काया जाएगा जब तक कि व्यंग्य-कृमि पूरी तरह नष्ट नहीं हो जाएं ।

                      मंत्रालय को पता है कि विरोधी दलों की मिट्टी पलीत करने के लिए कुछ अनुमोदन प्राप्त व्यंग्यकार लगेंगे। जरूरत पूरी करने के लिए ऐसे नए व्यंग्यकार प्रशिक्षित किए जाएंगे। मौजूदा निष्ठावान व्यंग्यकारों का भी रजिस्ट्रेशन किया जाएगा। आवेदन करने पर ऐसे व्यंग्यकारों को मंत्रालय का अनुमति पत्र मिलेगा और गाइडलाइन के अनुसार वे अपनी रचना लिख सकेंगे। आवेदन का प्रारूप ऑनलाइन उपलब्ध रहेगा। आगे और खबरों के लिए देखते रहिये खाज से खुजली तक।

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बुधवार, 19 मार्च 2025

सिस्टम बना रहना चाहिए







                    
सरकारों का क्या है! सरकारी आती हैं, सरकारी जाती हैं, पर यह सिस्टम बना रहना चाहिए । लोग देते रहें,  हम लेते रहें यही धरम हैं । इसी लेनदेन से समाज चलता है, सरकार चलती है, घर चलता है। कहने वाले इसे बुरा कहते हैं, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। जब ये सिस्टम नहीं था तब भी कुछ बातें थी जिन्हें लोग बुरा कहते थे। हम तो कहते हैं कि समाज में कुछ चीज बुरी अवश्य होनी चाहिए ताकि बुरा कहने वाले निराश ना हों और रोजगार में लग रहें । हालांकि सिस्टम बुरा नहीं है यदि आप सिस्टम के अंदर हों । सच बात तो यह है कि इसे बुरा कहने वाले पहले सिस्टम के अंदर आने की कोशिश करते हैं। बहुत से सफल नहीं हो पाते हैं तो मजबूरन उन्हें सिस्टम के खिलाफ ईमानदार होने का दावा करना पड़ता है। ईमानदारी उनकी प्रथिकता नहीं मजबूरी है ।
                 सिस्टम से बाहर पड़े रह गए कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि सिस्टम से आदमी की बुरी सोच बनती है और वह बेईमानी की तरफ चला जाता है। जबकि ऐसा नहीं है, सबके कल्याण की सोच से सिस्टम बनता है । देश में कानून है, पुलिस है, जेलें हैं, वामपंथी हैं और नैतिकता वादी भी हैं । इन सबके रहते हुए सिस्टम को विकसित कर लेना बहुत कठिन है । लेकिन कुछ दृढ़ संकल्पित समाज-प्रेमी मिल बैठकर रास्ता निकाल लेते हैं। धीरे-धीरे एक समानांतर व्यवस्था यानी सिस्टम खड़ा हो जाता है । ‘सब का साथ सब का विकास’ की भावना से सिस्टम मजबूत बनता है । कानून अपनी जगह है सिस्टम अपनी जगह । वे कानून का कानून-विशेषज्ञों के निर्देश में आदर करते हैं और पूरी कोशिश करते हैं कि उसे धर्म-संकट में नहीं डालें । सहयोग की भावना से काम करो तो कानून भी सहयोग करने से पीछे नहीं हटता है। अच्छे नागरिकों को और क्या चाहिए । आदमी पैसा ले और काम कर दे आज यही सच्ची ईमानदारी है । हाँ, इस बात को नोट करें, सिस्टम लोकतंत्र को पसंद करता है । हर पाँच साल में पहले से बेहतर और सहयोग करने वाली सरकार चुनने का अवसर मिल जाता है जनता को । देखिए जूता काटता है तो कोई जूते को फेंक नहीं देता है । समझदार आदमी वह होता है जो धैर्य रखता है । कुछ दिनों में काटे जाने वाली जगह की चमड़ी धीरे-धीरे मोटी हो जाती है । कुछ ढीला जूता भी हो जाता है । इस सहयोगी पहल से पहनने वाले को जूता प्यारा लगने लगता है। ईमानदारी भी शुरू-शुरू में काटती है । बाद में परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालती जाती है । वही समाज और सभ्यताएं जिंदा रहती हैं जो समय के अनुसार अपने को बदलती रहती है। हमारे यहां ज्यादातर लोग धार्मिक हैं । पूजा स्थलों पर चढ़ाव  चढ़ना हमारी आदत में है । इससे सिस्टम को मजबूत आधार मिलता है । सरकारी महकमें भी एक तरह के देवस्थान होते हैं। चढ़ावा चढ़ाएंगे तभी देवता प्रसन्न होंगे और उनकी मनोकामना पूरी होगी । यह धारणा सिस्टम को मजबूत करती है।

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गुरुवार, 30 जनवरी 2025

नाच मेरी जान तुझे पैसा मिलेगा


 


हमारे यहां बहुत तरह के मौसम होते हैं। जैसे शादी का मौसम, चुनाव का मौसम, गबन घोटाले का मौसम, पीने खाने का मौसम। मौसम के हिसाब से बाजार अपनी कमर कसता और ढीली करता है। बाजार और मौसम में मौसेरा रिश्ता है। ऊपर से अलग-अलग है अंदर से एक हैं। मौसी माँ बराबर होती है चाहे किसी की भी हो।
इन दिनों बसंत है, फूल खिल रहे हैं। मीडिया बता रहा है सब ओर हरा हरा है। चरने वाले चर रहे हैं। जो ना चर पाए वही आदमी है। मौसम की कहें तो रेवड़ियों का है। जी हां वही जो गुड़ तिल से बनती है। छोटी-छोटी मीठी मीठी। जिसे अंधा बाँटता है और अपने अपनों को देता है। रेवड़ियां जितनी मीठी होती है उतनी ही बदनाम भी। जो विरोध करते हैं वह भी बांटने लगते हैं, अगर मौसम रेवड़ियों का हो। लोग मुंह खोलकर बाहर निकलते हैं, पता नहीं कौन मुट्ठी भर डाल दे। मौसम है इसलिए गैंग बंदूक लेकर नहीं रेवड़ियां लेकर निकलती हैं। आज एक के मुंह में डालेंगे कल दूसरे के हलक से निकाल लेंगे। जन सेवा का काला जादू है। कहते हैं रेवड़ियाँ बांटने से कोई कटता नहीं, जुड़ता है। महिलाएं समझदार और जिम्मेदार होती हैं। टीका लगाकर माइक्रो-पात्र में पांच रेवड़ियां रखकर एक दूसरे को देती है और जुड़ जाती हैं। पुरुष ऐसा नहीं करते हैं। जोड़ने तोड़ने के मामले में वे प्रायः नेताओं की सुनते हैं और साधु संतों का मुंह तकते हैं।
खैर, मनोहर सातपुते बहुत भरे हुए हैं। वे रेवड़ियों के बहुत विरोधी हैं। आते ही बोले - " तुम तो आजकल मुंह खोलते नहीं हो अपना! राजनीति में लोकतंत्र को रेवाड़ी-तंत्र बना दिया है! पुराने लोग जनता को जनार्दन मानते थे। यह लोग पतुरिया बनाने पर तुले हुए हैं। नाच मेरी जान तुझे पैसा मिलेगा! पवित्र लोकतंत्र का आक्शन हो रहा है क्या ! बोली लगाई जा रही है ! अच्छा भला सिस्टम बेगम का कोठा होता जा रहा है। तीन-चार जमीदार थैली दिखा दिखा कर घुंघरू गिन रहे हैं! तुम्हें क्या लगता है लोग समझेंगे नहीं!? "
मनोहर सातपुते का गुस्सा जायज है। दुनिया बाजार हो गई है। सब बिकता है। रिश्ते-नाते, जमीर, शरीर, क्या नहीं है बाजार में। एक जगह के बिके हुए लोग दूसरी जगह खरीददार हो जाते हैं। लोकतंत्र की भी बोली लग रही है तो बड़ी बात नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब सातपुते का मुँह भी रेवड़ियों से भर के बंद कर दिया जाएगा।

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