मंगलवार, 30 सितंबर 2025

मजबूरी का हिन्दी प्रेम


 


 

                   पंडिजी जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।

                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं ही । जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, शार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हांलाकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी (शिक्षक ) बना दो, लेकिन वह भी हम से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।

                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।

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सोमवार, 29 सितंबर 2025

लव-लुहान समय में


 




 

जी हाँ आप ठीक समझ रहे हैं, अपना देश सिनेमा प्रधान है और बच्चा बच्चा लव-लंगूर । बजट छोटा हो या कि बड़ा, हीरो- हीरोइन लवलुहान होने का ही पैसा लेते हैं। सिनेमा के हिसाब से देखें तो देश में लव के आलावा कुछ होता ही नहीं है। किताबें उठाएंगे तो ज्यादातर में लव रिसता मिलेगा। धार्मिक किताबों में तो इतना लव है कि पढ़ने वाला प्रेमी हो पड़े। लेकिन ट्विस्ट ये है कि आप लव पढ़ सकते हैं, परदे पर देख सकते हैं लेकिन कर नहीं सकते हैं। किसीको भी करो, लव करते ही बवाल मच जाता है। मान्यता है कि भक्त टाइप आदमी लव नहीं करते हैं। और सच्चा भक्त वह होता है जो दूसरे को भी लव नहीं करने दे। लव करने से समाज कमजोर होता है और अपने लक्ष्य से भटक जाता है। 

‘वे’ बहुत बड़े वाले ‘वे’ हैं । आज ‘वे’ लव के वायरस से बचाव की समझाइश दें रहे हैं -- "देखिये नौजवानों ये समय बहुत चुनौती भरा है। नई पीढ़ी को पता होना चाहिए कि विकास पथ पर दौड़ रहे समाज के लिए  लव सबसे बड़ी बाधा है। लव के कारण देश और धरम खतरे में है। आप जानते ही हो लव अंधा होता है, वह विवेक हर लेता है। लोग धरम देखते हैं न जाति, न छोटा बड़ा देखते हैं न ऊँच नीच बस लव करने लगते हैं। लव से हजारों साल से चला आ रहा सिस्टम खराब हो रहा है। इसलिए कसम खाओ कि खुद लव नहीं करोगे और किसीको करने भी नहीं दोगे। इस पवित्र भूमि पर कोई लव नहीं करेगा। और तो और अपने भगवान, खुदा, गॉड जो भी हैं उनको भी लव नहीं करना है। इनकी पूजा की जाती है, इनसे प्रार्थना की जाती है, लव नहीं किया जाता। पूजा करने से माहौल बनता है और लव करने से बिगड़ता है। हमें माहौल होना बस। माहौल बनने से ही बात बनती है, सरकार भी बनती है। कुर्सी का खेल बच्चों का खेल नहीं है। औघड़ श्मशान जगाता है तब उसे शक्ति मिलती है। वह लव करता तो एक बीवी और चार बच्चों के सिवा और क्या मिलता उसे! इसलिए लव नहीं करना। यह हिदायत है गांठ बांध लो और माहौल पर फोकस करो। माहौल के लिए कुछ भी करना पड़े वह करो सिवाय लव के। "

प्रधानजी बड़ी जिम्मेदारी के साथ मौजूद हैं और पाठ पढ़ा रहे हैं। लव को समाज से पूरी तरह खत्म करने का बीड़ा उन्होंने उठाया है। वे मानते हैं कि समाज के पतन का कारण लव है। एक बार देश लवहीन हो जाए तो उनकी टीम चैन की सांस ले। उनके सत्ता में आने के बाद भी लोग अगर लवलीन हैं तो शरम की बात है। वे बड़ा लक्ष्य ले कर चल रहे हैं और उन्हें सफलता भी मिल रही है। किसी शायर ने कहा है "मैं अकेला ही चला था जानिब ए मंजिल, लोग जुड़ते गए कारवाँ बनता गया "। 

 इधर आई लव फलाँ से लेकर आई लव ढ़िकाँ तक के ढ़ोल बज रहे हैं। अरे भई सब अपने अपने वाले को लव करें तो किसी को क्या दिक्कत हो सकती है! कल को कोई आकर आपका दरवाजा पीटने लगे कि तुम अपने बाप से लव करते हो यह बंद करो।  तुम अपने बाप को इसलिए लव नहीं कर सकते क्योंकि मैं अपने बाप को लव करता हूँ। एक मोहल्ले में दो बाप लवर नहीं हो सकते क्या!! तो मुद्दा लव का है लेकिन लोग नफरत और गुस्से से भरे हुए हैं। पुलिस तो लव के नाम से वैसे ही भड़कती है। इसलिए मौका मिलते ही वह लव लफंगों को अच्छी तरह बजा रही है। असलियत जानने वाले मानते हैं की यहां लव का मतलब लव नहीं पॉलिटिक्स है। ऊपर वाला भी जानता है की लव-अव कुछ नहीं है, बस माहौल बिगाड़ा जा रहा है। दावे किए जा रहे हैं कि तेरे लव से मेरा लव बड़ा है। लव नहीं हुआ टीवीतोड़ किरकिट मैच हो गया! हम करेंगे पर तुझे नहीं करने देंगे चाहे सब लवलुहान क्यों न हो जाएं ।

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रविवार, 28 सितंबर 2025

गधे का मांस


 






 पूजा कराने वाले आदमी ने विधि विधान से सारी क्रिया की।

 अंत में वह भोजन की थाली पर बैठे। भोजन परोसा गया।

 पूजा कराने वाले आदमी ने कहा -- अरे यह क्या है!?!

" गधे का मांस है महाराज, भोग लगाइए।" जजमान ने कहा। 

" गधे का मांस!! मैं गधे का मांस नहीं खाता।"

" हमारी परम्परा है। हमने तो यही पकाया है महाराज। " 

" आपको विकल्प भी रखना चाहिए था, विकल्प जरूरी है। "

" विकल्प तो नहीं है महाराज,  आप कृपा कर भोग लगाइए। "

" अबे विकल्प नहीं होगा तो क्या हम गधे का मांस खा लेंगे!!!" 

" विकल्प नहीं होने के नाम पर भी लोग जो सामने पड़ा है उसे ही खाते रहते हैं महाराज। आप  भी खाइए। "

" हम मूर्ख नहीं हैं जजमान।" 

" मजबूरी है महाराज । " जजमान ने हाथ जोड़े।

" बकरे का नहीं है क्या? " 

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बाहर गाँधी, भीतर रावण


 



 

"ना ना ना... ऐसा नहीं हैं कि चुनाव के टाइम पर ही हम गाँधी को आगे रखते हैं । जब भी जनता के सामने जाना होता है तो गाँधी का मुखौटा लगाए रखने का राजनीतिक शिष्टाचार हैं। इसमें छुपाने का कुछ नहीं है। अब तो किसी को शरम भी नहीं आती है। लोग भी मानने लगे हैं कि जब वोट मांगने आया है तो उप्पर से हाथ जोड़गा और चेहरे से जानीवाकर भी लगेगा ही । " नेता ने अपने को गाँधीवादी बताने ले लिए सच बोलने का रास्ता पकड़ा ।

" और रावण ! ... वो किधर है ? "

" रावण जी तो नस नस में हैं । उनका कोई मुखौटा थोड़ी लगाएगा !! देश अपने गौरवशाली अतीत की ओर उम्मीद से देख रहा है । ऐसे में बिना रावण हुए कोई नेता बन  सकता हैं क्या ? नेता के अंदर रावण रॉ-मटेरियल की तरह है और गाँधी पोस्टर मटेरियल। जिसमें रावण है वही राजनीति में आगे जाता है । ये बात आप मानते हो कि नहीं ? " 

" मानेंगे क्यों नहीं ! आप सरकार हैं, आपके झूठ पर कोई सवाल नहीं कर सकता है, फिर ये तो सच बोल रहे हैं आप । ... अच्छा रावण में क्या पसंद हैं आपको? " 

" ये पूछिए क्या पसंद नहीं हैं। दस सिर, दस मुँह, बीस आँखें, बीस कान !! इतना जिसके पास हो वो आज की राजनीति में गैंडे से कम नहीं है । " 

" एक मिनिट, गैंडा तो जानवर होता है ना ?!" 

"तो क्या हममे आप में जान नहीं है !! जिसमें भी जान होती है वो जानवर होता है। आप भी किसी गलतफहमी में मत रहो, जानवर ही हो । " उन्होंने ऐसे कहा मानों जीवविज्ञान का कोई बड़ा सिद्धांत उद्घाटित कर दिया हो ।

"जी सहमत हैं , ठीक कह रहे हैं। ... रावण को लेकर कुछ बता रहे थे।" 

"देखो ऐसा है, जिसको दस मुँह मिल जाएं वो राजनीति में मीर है आज की डेट में। एक मुँह को वादों की मशीनगन बना दो और दूसरे को वादों से मुकरने की तोप । तीसरा मुँह बढ़िया झूठ बोले और चौथा मस्त बेशरमी से दाँत दिखाए । आजकल रोने का ट्रेंड भी है राजनीति में सो पाँचवा वक्त जरूरत रोता रहे, छठ्ठा ठठा कर हँसने का काम सम्हाले । सातवाँ बच्चे देखते ही लाड़ जताए और आठवाँ भीड़ देखते ही भाइयों और बहनों बोले । नौवा मतलब के लोगों से यारी करे और दसवाँ अपने पुरखों को आँखें दिखाए । हो गए सब बीजी । रावण के तो दस ही थे, दस और होते तो वापर लेते सबको ।"

“इस बार गांधीजी जयंती और दशहरा एक ही दिन हैं । दिक्कत तो होने वाली है ।”

“कोई दिक्कत नहीं होगी । व्यवस्था ऐसी रखेंगे कि दोनों में कोई टकराहट नहीं होगी ।... देखिए शराब की दुकानों का बाहरी शटर बकायदे बंद रहेगा, जनभावना और परंपरा को देखते हुए पीछे की खिड़की खुली रखी जाएगी । माँस की दुकानों पर इससे अच्छी व्यवस्था रहेगी । उस दिन बारह बजे तक कोई हिंसा नहीं होगी । उसके बाद जीवों को मुक्ति और मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ाया जाएगा । ... मीडिया से हो ना ?”

“जी हाँ ।“

“तो जाओ फटाफट, चलाओ ब्रेकिंग न्यूज ।“

 

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मंगलवार, 9 सितंबर 2025

बाजार के हाथ कानून से भी लंबे होते हैं


 


                 हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व हो गया है कि वोटर को मूर्ख बनाना मतलब छाछ को बिलोना है । कुछ नेता मुगालता पाले इस काम में अपनी ऊर्जा खपाते हैं वे अपना समय बर्बाद करते हैं । क्योंकि एक सीमा के बाद और अधिक की संभावना हर जगह खत्म हो जाती है । यह बात मूर्खता पर भी लागू होती है । सोच समझ कर वोट देने के दिन गए, अब वोट बाजार भाव से देना होते हैं । बाजार के हाथ कानून से भी लंबे होते हैं । यहाँ कूड़ कबाड़ से लगा कर गोबर तक बिकता है । कुत्ता, बिल्ली, भैंस, बकरी ही नहीं दूल्हों का भी बड़ा बाजार है । जहाँ भी माँग और पूर्ति का मसला हो बाजार खड़ा दिखाई देता है । चुनाव के समय वोटर कुत्ता, बिल्ली, भैंस, बकरी, दूल्हा होता है । जरूरत के अनुसार उनकी कीमत लगाई जाती है । कुछ वोटर ब्रांडेड होते उनकी कीमत ज्यादा होती है । कुछ के पास दिमाग भी होता है लेकिन टाइम नहीं होता है । ऐसे लोग वोट करने नहीं जाते हैं । पूछने पर वे नाराजी के साथ कहते है कि सारे उम्मीदवार चोर, उचक्के, गुंडे-बदमाश हैं तो किसी को भी चुनो कोई फर्क नहीं पड़ता है । ऐसे वोटर खुद कितने कमजोर होते हैं इसका पता उन्हें नहीं होता है ।

                 किसी के पास सक्रिय बाहुबल हो लेकिन मेधा निष्क्रिय हो तो उसे लाल मिट्टी का पहलवान कहते हैं । ये अच्छे वोटर ही नहीं अच्छे उम्मीदवार भी माने जाते हैं । जिस तरह जादूगर अंडे को मुर्गी या मुर्गी को अंडा बना देता है उसी तरह छड़ी, लाठी डंडों से आदमी को वोटर भी बनाया जा सकता है । राजनीतिक दलों को मालूम है कि यह भूखे प्यासे और गरीब मात्र एक दिन की दारू और दो दिन के खाने में सरकार बनवा सकते हैं। शोधकर्ता देख सकते हैं कि दुनिया भर में इसे सस्ता लोकतंत्र नहीं है। लोग महंगाई को लेकर हाय हाय करते हों तो करते रहें, लेकिन जिनका विश्वास हमारे लोकतंत्र में है वह पूरी तरह से आश्वास्त है कि उनके हाथों लगभग मूल्यहीन सरकार बन जाती है ।

               अंग्रेजी मीडियम में पढ़े हुए लोग यह जानकर प्रसन्न है कि उन्हें ऐसा समाज मिल रहा है जो बहुत सस्ते में हर तरह की सत्ता दे देता है। अच्छी परंपराओं को सहेजने में कोई कसर नहीं रखना चाहिए । देश में हजारों स्कूल इसी उद्देश्य से बंद हुए हैं कि देश को सस्ता लोकतंत्र मिले। कुछ वर्षों के बाद जब अपढ़ों की संख्या बढ़ेगी और वे वोटर भी बनेंगे तब लोकतंत्र का स्वर्णयुग आकार लेगा । राजनीति में दूरदृष्टि और पक्का इरादा हो तो देश को नई दिशा दी जा सकती है । अपढ़ गरीब आदमी को कुछ मिले ना मिले वह हमेशा देता रहता है। नदी दिखती है तो सिक्का फेंक देता है, मंदिर दिखता है तो हाथ जोड़कर रुपया चढ़ा देता है, पुलिस दिखता है तो उसकी जेब गर्म कर देता है, गुंडे दिखते हैं तो उन्हें हफ्ता दे देता है, व्यापारी दिखता है तो दलाली दे देता है, सरकार दिखती है तो सलामी दे देता है। वह जानता है की गरीब है तो उसे देना है, और जो अमीर हैं, समृद्ध हैं, सक्षम हैं, सशक्त हैं, उन्हें लेना है। 

 

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