बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

इकलौते चिराग से दिवाली

                       
अपने बच्चाबाबू जो हैं पालटिकल इलाके के खानदानी चिराग हैं। खानदानी चिराग तो और भी बहुत सारे हैं, समझिये कि जितने खानदान उससे कुछ ज्यादा चिराग, पर रौशन अकेले बच्चाबाबू ही हैं। पार्टी ने इरादा किया है कि वह अपने इकलौते चिराग से दिवाली मना लेगी। उंधते अलसाए लोग, जिन्हें सामान्यतः कार्यकर्ता और उनमें जोश  भरने के लिए अक्सर वफादार सिपाही कहने का चलन है, बच्चाबाबू को अलादीन वाला चिराग मानने लगे हैं। अब जगह जगह जलसे हो रहे हैं और उन्हें तबीयत से रगड़ा जा रहा है। लेकिन अजब यह है कि चिराग से सादे जिन्न के बदले कहानियां के जिन्न निकल रहे हैं, वो भी कहीं के कहीं बेलगाम दौड़े चले जाते हैं। दादी की कहानीं से इमोशन निकालने की कोशिश  में अमृतसर और ब्लूस्टार निकल आता है तो पापा की कहानी में से लिट्टे के झटके। सांप्रदायिकता की ठंडी आग में जान डालने के चक्कर में खुद अपना हाथ जल जाता है और मम्मी याद आने लगती है। लेकिन बच्चाबाबू खुश  हैं, चाटुकार और चमचे उन्हें हवा में उड़ाते रहते हैं, जमीन पर पैर ही रखने नहीं देते, कहते हैं ‘हसीन हैं, मैले हो जाएंगे’। एक चमचे ने धीरे से कहा कि बच्चाबाबू आपके कुंवारे युवा चेहरे ने हसीनों का वोट-बैंक बना दिया है। भाषण-वाषण से कुछ नहीं होता, आदमी का चेहरा सुन्दर होना चाहिए। अब पार्टी के पास दो दो वोट-बैंक हैं, कुर्सी आपकी पक्की है।
बच्चाबाबू को सपनों और शंकाओं के कारण नींद नहीं आ रही है। अगला भाषण इतना तेज देता है कि लगता है ललकार रहा है। मन होता है कि ‘छोटा भीम’ बन कर सबको ठीक कर दें लेकिन बस नहीं चल रहा है। खुद अपनी पार्टी में धड़ों के अंदर दस धड़े हैं। गुप्तचरों ने सूचना दी है कि विरोध पार्टी में अंदर से है, असंतुष्ट पीछली पंक्ति में मुंह फुलाए बैठे होते हैं। बार बार बोल रहे हैं कि पिछली पंक्ति से सांसद और विधायक निकालेंगे, तो अगली पंक्ति वाले घूरने लगते हैं। पिछली पंक्ति वालों को भरोसा होता नहीं है और अगली पंक्ति वालों का विश्वास  कम होने लगता है। बीच वाले सोचते ही रह जाते हैं कि इधर जाएं या उधर जाएं, बड़ी मुश्किल  है अब किधर जाएं। लौटते हुए ज्यादातर बोलते हैं कि बच्चाबाबू अभी सीख रहे हैं।
बात यहीं खत्म हो जाती, लेकिन शाम को एक ‘चाणक्य’ टीवी पर समझा रहे होते हैं कि राजनीति अगर महापद की हो तो उसे सीखा नहीं जाता, यह शुद्ध खनदानी गुण होता है। समझ लीजिए कि युवराज कुर्सी के साथ ही जन्म लेते हैं । ऐसे में महापद उन्हें कैसे मिल सकता है जो मात्र एक नश्वर  देह लेकर पैदा हो जाते हैं। और फिर सारे लोग अगर राजा होंगे तो प्रजा कौन होगा! लोकतंत्र होने के बावजूद प्रजा का ऐतिहासिक महत्व कम नहीं हुआ है। यह वही प्रजा है जो अनेक बालक राजाओं के लिए भी जयजयकार करती रही है। यह भी देखने वाली बात है कि जब बच्चाबाबू गद्दी पर बैठेंगे तो उनको सलाह देने के लिए नौ-रतन भी साथ होंगे। और अगला कभी गद्दी ले गया तो हाथ-पैर फैला कर अकेला ही हुकूमत करेगा।
टीवी एंकर ने पूछा - चाणक्यजी आप ही क्यों नहीं दावेदारी करते ? इतना समझते हैं तो आप ही शासन कीजिए।
चाणक्य बोले ‘‘शासन तो हमीं करते हैं, महा-पद तो शोभा का आसन है, कोई बूढ़ाबाबू बैठे या फिर बच्चाबाबू । कोई फर्क पड़ा है ना पड़ेगा।
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