अपने अच्छे दिनों की उम्मीद में वह अखबार में वैवाहिकी काॅलम देख रहा था। वास्तव में जवानी की दहलीज पर अकेला खड़ा खड़ा ऊब चुका वह, ऐसा मान रहा था कि शादी के बाद हर आदमी के अच्छे दिन आ ही जाते हैं। हाथ की रेखाएं और जन्मकुण्डली वह हमेशा अपनी पतलून की दांईं जेब में तैयार ही रखता है। जैसे ही कोई ज्योतिषी दिखा कि दन्न से उसके सामने फैला दी। अच्छे दिनों का सारंगी वादन सुन कर वह इतना तन जाता जितना कि साठ साल में उसके बाप-दादा भी कभी नहीं तने। जवानी के सपनों की मत पूछो, फोरलेन हाईस्पीड होते हैं और देखने वाला बिना ब्रेक के। बात शादी की हो तो मल्टीकलर, घोड़ी बैंड बाजा सब एक साथ, यानी अच्छे दिन फोर्थ-फिफ्थ गियर में। ताडू ज्योतिषी ने कहा आपके अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं, थोड़ी बहुत बाधाएं हैं वो मैं हटा दूंगा। कुछ दे जाओ और घर जा कर प्रतीक्षा करो। समझो अच्छे दिन पीछे पीछे मेट्रो एक्सप्रेस से आ ही रहे हैं।
एक सुबह उसे विज्ञापन से पता चला कि किन्हीं भले लोगों को योग्य वर चाहिए। वह योग्य है इसमें उसे कोई शक नहीं था, रहा सवाल दूसरों का तो आज दूसरों पर कौन यकीन करता है। संपर्क हुआ, बात हुई, लड़की वाले अच्छे दिनों का शगुन ले कर आ गए। ऐसे मौकों पर लड़कों को अक्सर घंटियां सुनाई देती हैं, ज्यादातर मामलों में वे इसे मंगलध्वनि मान लेते हैं। लड़की थी, उसकी छोटी बहन यानी साली साहिबा थीं, लड़की के भाई, मामा, अम्मा, भौजी, ताऊ , ताई यानी पूरी पार्टी साथ। मामा बोले शादी तुरंत करेंगे, आखिर सब कारेबारी हैं, और जल्दी लौटना चाहते हैं। अंधा क्या चाहे एक अंधी। कुछ उसने नहीं देखा-सोचा, … कुछ वे नहीं देख-सोच रहे। मौके पर मार ले वो मीर। उसने भी गरम तवे पर शादी के दानों को फटाफट भुना लिया। वो क्या कहते हैं आप लोग ‘चट मंगनी और पट ब्याह’। हो गया, लड़की रो-घो के बाकायदा उसके घर में आ गई। भला और किसे कहेंगे अच्छे दिन। हप्ता भर में चार मंदिर, आठ होटल, पांच सिनेमा और हज्जारों की खरीददारी हुई। स्क्रिप्ट की मांग के बावजूद यहां कुछ और नहीं बताया जाएगा, हालांकि सामान्य परिस्थितियों में सब कुछ सामान्य होता रहा।
आठवें दिन की सुबह वह कुछ देर से उठा, लगा जैसे रात को कुछ नशा करके सोया था। पता चला कि दुल्हन मेंहदी लगे हाथों समेत गायब है। फोन लगाने के लिए हाथ बढ़ाया तो चला कि अपना फोन भी गायब है। शंका हुई तो अलमारी देखी, जेवर, कपड़े वगैरह सब गायब। और तो और खुद उसके कपड़े भी नदारत थे । वह बाहर निकल कर शोर मचाना चाहता था लेकिन लुटापिटा, ‘अर्द्धनग्न-पीके’ कैसे तो बाहर निकलता और किसको कुछ कहता। मोहल्ले वाले सेन्सर बोर्ड की तरह माडर्न तो हैं नहीं।
दिनों बाद विकास टी स्टाल पर वह एक पुलिस वालाजी साहब को समोसों के भोग के बाद चाय सेवन करवाते हुए बता रहा है कि वो रिश्तेदार नहीं पूरी गैंग थी लुटेरों की। किसी तरह मेरे अच्छे दिन बरामद करवाओ साहब।
साहब बोले-‘‘ तुम तो घोचूंनंदन हो यार, अच्छे दिन ऐसे आते हैं क्या .... हनुमान जी का परसाद है कि हाथ आगे किया और फांक लिया घप्प से ! ..... आगे घ्यान रखना, फिर मत फंस जाना। ’’
‘‘ सो तो ध्यान रखेंगे साहेब, लेकिन अभी इस केस में कुछ कीजिए ना।’’
‘‘ पुलिस केस है, कोर्ट कचहरी में बीस-पच्चीस साल तो लगते हैं। .... बरामद हो जाएगा .... लेकिन हिम्मत रखो .... पच्चीस साल .... यूं निकल जाएंगे .... अभी देखते देखते ।’’
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