बुधवार, 9 सितंबर 2015

हिन्दी के लड्डू


                                 ‘पंडिजी’ जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।
                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं। जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, षार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हालाॅकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी बना दो, लेकिन वह भी से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।
                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।
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