बुधवार, 20 जनवरी 2016

हरेभरे ठूंठ !

                     
       नए राजा को लाल मैदान में अपनी सत्ता का परचम लहराना था, इसलिए वे बघ्घी पर सवार हो कर गुजरे। दूसरे दिन अखबारों में राजा की फोटों के साथ खबर बनी कि राजा जी बघ्धी पर पधारे, झंडा फहराया और लाल मैदान को पीला मैदान बनाने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक दुकान’ ने घोड़ों के फोटो छापे, और लिखा कि ‘लाल मैदान की ओर जाते घोड़े’। लाल मैदान से ‘दैनिक दुकान’ को भले ही चिढ़ हो पर घोड़ों से प्यार है। घोड़े न हों तो उसकी खबरें ही नहीं बनें। अक्सर वो घोड़ों को सूत्र कहते हैं। जो घोड़े राजा को ढ़ो रहे हैं वे दरअसल वे कई दुकानों का जरूरी हिस्सा भी हैं। आमजन इन्हें लग्गू के नाम से जानते हैं । यदि व्यवस्था बघ्घी है तो लग्गू उनके घोड़े हैं। ऐसे में खबर बघ्धी की हो तो घोड़ो का महत्व ‘सवार’ से ज्यादा हो जाता है। यहां ‘शर्तें-लागू’ हैं, यानी घोड़ा वही जो बघ्धी में लगा हो, बाकी को आप कुछ भी मानने के लिए स्वतंत्र हैं, गधा तक। 
                       तो असल बात लगने या लगे रहने की है। व्यवस्था कोई भी हो, कामयाब वही होते हैं जो लगे रहते हैं। सच्ची बात तो यह है कि कामयाबी लता की तरह होती है और समझदार को ठूंठ की तरह उससे लगा रहना पड़ता है। एक बार अगर ठूंठ ठीक से लग जाए तो लता के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लता की मजबूरी ही सफलता है। अब लगे रहने को देखें तो यह इतना आसान काम भी नहीं है कि आए और लग लिए मजे में। बिना ठूंठ हुए आदमी कहीं लग भी नहीं सकता। दिक्कत यह है कि दुनिया ठूंठ को ठूंठ मानती है और लगे हुए को लगा हुआ। दोनों ही मामलों में तिरस्कार की भावना प्रधान होती है। समझो कि आग का दूसरा दरिया है और इसमें भी डूब के ही जाना है। एक तरह की बेशरम जांबाजी की जरूरत होती है। लेकिन उम्मीद एक बहुत पौष्टिक चीज है, वह जानता है कि एक बार लता लिपट गई तो वह भी उपर से नीचे तक हरा ही हरा है। तो भइया आप समझ ही गए होंगे कि आजकल  इतिहास वही बनाते हैं जो ठूंठ या घोड़े होते हैं। 
                            लाल मैदान के पीछे आज एक समारोह हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि वे हैं जो किसी जमाने में रेल्वे स्टेशन  पर कविता करते हुए काला दंत मंजन बेचते थे। मंजन पता नहीं कहां गया पर कविता ने उन्हें मंच दिखा दिया। लगे रहे तो मंच भी सध गया, वे एक बार डायस पकड़ लें तो श्रोताओं के साथ माइक भी पानी मांगने लगे। आयोजकों पर बीतने लगी तो उन्हें मुख्य अतिथि बना कर बैठा देने की युक्ति आजमाई गई। अब वो बाकायदा आदरणीय है, साहिबे महफिल है, माला पहन रहा है। वह हराभरा है और भूल जाना चाहता है कि असल में वह ठूंठ है। ठूंठ को आड़ा पटक कर जब चादरें चढ़ाई जाने लगती है तो वह पीर मान लिया जाता है, लोग उससे मन्नतें तक मांगने लगते हैं। प्रेक्टिल आदमी सफलता इसी को कहते हैं। 
                           लगना या लगे रहना एक बहुआयामी साधना है। जैसे रेडियो या टीवी सेट में कई चैनल लगे होते हैं उसी तरह एक लग्गू भी कई मोर्चों पर लगा रहता है। जैसे कोई मंत्री के साथ लगा और मीडिया के साथ भी लगा है। लोग ताड़ नहीं पाते कि मंत्री के साथ लगा है इसलिए मीडिया से लगा है या मीडिया से लगा है इसलिए मंत्री से लगा है। प्रतिभाशाली लग्गू मंत्री से ज्यादा काम का होता है, इसमें अब कुछ भी रहस्यपूर्ण नहीं है। मंत्री तो बस एक मूरत है, लग्गू पुजारी है। मूरत को तुलसी के पत्ते पर भोग लगता है, चढ़ावे की थाली पुजारी को मिलती है। लगा रहे तो लग्गू इतना ताकतवर हो जाता है कि जिसके सिर पर हाथ रख दे वो भस्म। नहीं क्या ?
                                                                  ----

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें