भारत एक राजनीति प्रधान देश है और यहाँ राजनीति भावना
प्रधान है . भावना दन्न से आहत होती है और गुलशन में नए गुल खिल जाते हैं . जैसे मधुमक्खी के छत्ते में
पत्थर मारो तो वे उड़ कर माहौल में छा जाती हैं उसी तरह जनभावना को आहत कर दो तो एक
खास किस्म का बदला हुआ मजबूत माहौल बन जाता है . जानकार
इसे जनभावना से खिलवाड़ करना भी कहते रहते हैं . लेकिन यह कोई मामूली काम नहीं है . जन समूह की भावना के साथ खेल लेना राजनितिक
कौशल का काम है . कुछ लोग इसे बुद्धिमानी का काम भी कहते हैं . भावना जब जनता की
हो तो खिलवाड़ करने के लिए दूरदृष्टि और बड़े अनुभव का होना लाभदायक होता है .
बहुत दिनों तक भावना आहत नहीं हो तो यह काम खुद पार्टी को करना पड़ता है .
लोग अब जागरूक और समझदार भी हो चले हैं, भावना के मामले में वे शाक-प्रूफ होते जा
रहे हैं . एक तरह से ये अच्छा भी है . अगर गैस-पेट्रोल, दाल-तेल की महंगाई से उनकी
भावना आहत होने लग जाए तो लोग चुनाव के वक्त पर नेता के सामने सोंटा और वोटा के समय
नोटा इस्तेमाल करने लगेंगे . फार्मूला यह है कि चुनाव आते ही भावना आहत कर दें या
फिर भावना आहत हो चुकी हो तो तुरंत चुनाव करवा लें . लीडर का काम है कि जनता की भावना का
वो हिस्सा आहत करवाए जो पार्टी के काम का हो . धर्म इसमें बड़ा काम आता है .
भावनाएं पोल्ट्री फॉर्म की मुर्गियों की तरह हैं जिन्हें मार देने के लिए ही पाला जाता है
. सरकारें आती हैं जाती हैं, नेता आते हैं जाते हैं लेकिन लोकतंत्र के लिए जनता की
आहत होने वाली भावनाएं बनी रहनी चाहिए .
एक लोकतान्त्रिक देस में दो पार्टियाँ हैं, एक
टप्पू पार्टी और एक गप्पू पार्टी . गप्पू पार्टी को लोगों की भावना से खेलने में
मास्टरी है सो ग्रासरूट तक खेलती है . टप्पू पार्टी अपनी पुश्तैनी शेरवानी और लाल
गुलाब में ही टप्पे खा रही है . जनता से उसे वोट के आलावा कोई खास लेना देना नहीं
था जितना कि गप्पू पार्टी को था . टप्पू ठहरे छली घर्मनिर्पेक्ष और लोगों की भावना जो है धार्मिक मसलों पर ‘फट्ट से’ आहत होती है. ये खेल उनके बस का नहीं रहा . जिनकी भावना आहत नहीं होती यानी नास्तिक और
बुद्धिजीवी टाईप लोगों की, उन पर गप्पू समर्थक वाट्स एप के जरिये इतना थूकते हैं
कि वे अपने झंडे डंडे के साथ कहाँ गायब हो गए हैं पता नहीं चलता . मतलब मैदान साफ
हो जाता है . लोकतंत्र में आहत भावना सत्ता के लिए रेड कारपेट होती है . इस बात से
किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कारपेट पर चलने वालों के पैर कीचड़ में कितने सने
हुए हैं .
इधर आधी जनसँख्या यानी महिलाओं की भावनाएं बहुकोणीय होती हैं . जाहिर
हैं कि आहत होने के लिए उनके पास अलग अलग कोण की सुविधा होती हैं . जैसे एक कोण
पति,सास या अन्य रिश्तेदारों से आहत होने लिए होता है, दूसरा किसी की साड़ी, जेवर
वगैरह देख कर आहत होने के लिए . इसी तरह और भी तमाम कोण हैं, आहत होने का कोई मौका
वे नहीं छोड़ती हैं . बजट में टेक्स के इजाफे की पहली खबर से उनकी भावना आहत होना
शुरू कर देती है . वित्तमंत्री इस बात को जानता है . इसलिए बजट में वह चालाकी से टिकी बिंदी को टेक्स छूट के साथ गैस के पांच रुपये नब्बे पैसे कम कर देता है और देश भर की महिलाओं के सर पर बधाई के साथ
अहसान का टोकरा भी चढ़ा देता है . साथ में यह बयान कि सरकार ने महिलाओं की भावना का
ध्यान रखा है . भावुक देवियाँ इतने में खुश हो कर खोटे सिक्कों को पर्स में डाल कर
दिल के करीब रख लेती हैं . जनभावना ऐसा सिक्का है जिसके दोनों तरफ ‘हेड’ है, उछालने
वाला चाहिए . जो सही सही आहत कर ले सत्ता उसकी .
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