राजा पिता होता है प्रजा का . प्रजा
को कितना चाहिए, क्या चाहिए, क्यों चाहिए ! विकास तभी होगा जब सारा कुछ बाप के
नियंत्रण में होगा. वरना तो भेड़ के झुण्ड की तरह खाया कम उजड़ा ज्यादा. देश बूफे
नहीं है समधी का कि ठूंसते चले गए. सबको अनुशासन में रहना होगा. कितना-क्या खाना
है, क्या पहनना है, किसकी कितनी पूजा करना है, किसको लाइक, किस पर कमेन्ट करना है,
कब सोना-जागना है, पड़ौसी को कब हाय-बाय बोलना है. सब . इसके लिए वार्ड स्तर पर प्रशासनिक
व्यवस्था की गई है .
नंबर आने पर उन्होंने आवेदन लिया और पढ़ा . “माननीय महोदय,
सेवा में विनम्र निवेदन है कि मुझे बहुत समय से बेचैनी जैसा फील हो रहा है . मन
बहुत उदास रहता है . भूख लगती है परन्तु नहीं लगती है .
रात को नींद खुल खुल जाती है और बड़ी बड़ी कचौरियां दिखाई देती हैं .
थाली में पड़ी दाल-रोटी काटने को दौड़ती है . दिल हरी और लाल चटनी के लिए हूम हूम करता है . बाबा ने भी कहा है कि
कृपा वहीं अटकी हुई है . इसलिए हुजूर से निवेदन है कि मुझे कचौरी खाने का परमिट
देने की कृपा करें . हुजुर का आज्ञाकारी, केन्द्रीय आधार-कार्डधारी, लोकल बालमुकुन्द
गिरधारी . “
देश आत्मनिर्भरता की सड़क पर है जिसमें
जगह जगह अनुशासन के स्पीड ब्रेकर भी हैं . क्षेत्रीय कचौरी-समोसा अधिकारी बड़ी सी
टेबल लिए, बुलंद ब्रेकर बने बैठे हैं . दीवार पर सुनहरे रंग में लिखा है ‘न खाऊंगा,
न खाने दूंगा’. बावजूद इसके दफ्तर में लोग खा रहे हैं और खाने दे रहे हैं . कचौरी
और समोसों की अनुमति के लिए बाहर अलग अलग लाइन थी .
साहब ने उपर से नीचे तक ताड़ने के बाद पूछा
– “टेक्स देते हो ? ... रिटर्न की कॉपी नहीं लगाई !”
“टेक्स नहीं देते हैं सर ... हमारा
मतलब है टेक्स नहीं बनता है . “
“क्यों नहीं बनता है ?”
“गरीब हैं सर ... मज़बूरी है .”
“फिर तो सरकार खिलाएगी तुम्हें कचोरी-वचोरी सब. कार्ड बनवा लो बस .”
“कार्ड तो बना है साहब ... “
“फिर क्या दिक्कत है !?”
“कचौरी नीचे आते आते भजिया हो जाती है,
वो भी ठंडा-बासी. ... सुना है सब
प्राइवेट हो रहा है, बड़े बड़े लोग बहुत बड़ा बड़ा और गरमागरम खा रहे हैं ... परमिट
मिल जाए तो हम गरम कचौरी खा लेंगे” .
“कितनी कचौरी का परमिट चाहिए ?”
“तीन-चार बस .”
“पिछली दफा कब खाई थी ?”
“याद नहीं सर ...बहुत दिनों से नहीं
खाई .”
“याद नहीं !! क्या मतलब है इसका !
कचौरी खाई और भूल गए ! सिस्टम को मजाक समझ रखा है ! टीवी वाला पूछेगा तो कह दोगे कि सरकार कुछ करती नहीं है ! ... एफिड़ेविड लगेगा
अब. चले आए मुंह उठा के ! जंगल समझ रखा है क्या ! नियम कानून कुछ है या नहीं ! देश
‘नहीं खाने से’ आगे बढ़ता है, कचौरी के लिए लार टपकाने से नहीं . ”
“करीब डेढ़ महिना हुआ सर ... तब खाई थी
.”
“उसका सेंक्शन लेटर कहाँ है ? फोटो
कॉपी लगाना पड़ेगी .”
“अगली बार लगा दूंगा सर, इस बार कुछ ‘मेनेज’
कर लीजिए प्लीज”.
थोड़ी यहाँ वहाँ के बाद पचास रूपए का
नोट जेब में डालते हुए बोले -“कितनी खाओगे ?”
“जी ... तीन-चार ... नहीं पांच-छह .“
“सिर्फ दो खाओ वरना कचौरीजीवी हो
जाओगे .”
“परमिट मिल जाये सर तो चार पांच दिन
में खाऊंगा ताकि मन भर जाये .”
“वो देखो क्या लिखा है ... ‘न खाऊंगा,
न खाने दूंगा’, वो कचौरी के लिए ही है . बावजूद इसके तुम्हें परमिट मिल रहा है.”
“सर ये कचौरी के लिए नहीं किसी और चीज
के लिए लिखा है !”
“हाँ हाँ समझ रहे हैं . दूर कर लो
गलतफहमी ... रिश्वत खाई नहीं जाती है ली जाती है . लेने-देने पर रोक होगी तो विकास
कैसे होगा ! ... चलो भटको भटकाओ मत . ये लो बिना तारीख का परमिट दे रहे हैं ... सिर्फ सन लिखा है . इकत्तीस दिसंबर तक खाओ
जितनी खाना है .... लेकिन बताना मत किसी को ... नहीं तो मिडिया वालो को ही बता दो तो
वो खायेंगे कम बिखेरेंगे ज्यादा . “
-----
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें