मंगलवार, 11 जनवरी 2022

पंद्रह दिनों में फर्राटेदार साहित्यकार बनें


 

विज्ञापन पढ़ते ही नवल नगरपंडे का दिल हूम हूम करने लगा । पंद्रह दिनों में अगर फर्राटेदार साहित्यकार बन लिए तो हाथ पीले और मुंह लाल होने में देर नहीं लगेगी । नीचे ‘फूल’ गैरंटी के साथ लिखा था कि फीस ही नहीं ईनाम भी देंगे आप । साथ ही यह भी लिखा था कि नाम और पहचान गुप्त रखा जाता है । इसीलिए शहर के बड़े साहित्यकारों के नाम यहाँ नहीं दिए जा रहे हैं । कई दाढ़ी वाले कवि और लम्बे कुरते वाले कथाकारों ने हमारे यहाँ से ही प्रशिक्षण लिया है । एक जमाना था जब साहित्यकारों को वक्त जरुरत ही पूछा जाता था । जैसे घोड़ी-बैंड वालों को बरात के समय । लेकिन अब माहौल जो है बदल गया है । बात ये है कि सरकार बदलती है तो माहौल भी आटोमेटिक बदलता है । नया लिखने वाले नयों की भारी मांग है । लोग कागज-कलम दबाये स्टार्ट-अप में दनादन कूद रहे हैं । समय कम है, मौके की गंगा बह रही है तो फटाफट हाथ धो लेने में कोई बुराई नहीं है । नवल नगरपंडे ने सोच लिया कि साहित्यकार बनाते ही सबसे पहले प्रेम कवितायेँ लिखेंगे । सुना है कि प्रेम कवितायेँ लिखने वालों से लड़कियाँ चट्ट से प्रेम करने लगती हैं । दो साल से लगातार रिजेक्ट हो रहे हैं । अगर दो चार कवितायेँ काम कर गयीं तो अपन भी बैंड पर “आज मेरे यार की शादी है” बजवा लेंगे ।

कुछ देर में ही नवल नगरपंडे विज्ञापित दफ्तर में थे । सामने बड़ी सी कुर्सी पर माथे पर चन्दन चुपड़े, साहित्यकार के भेष में एक भारी से सज्जन बैठे हैं वे आचार्य हैं ऐसा सामने रखी पट्टी पर लिखा है । मुस्कराते हुए उन्होंने कहा – बईठिये ।

नवल नगरपंडे मुस्कराने की जवाबी कार्रवाई करते हुए बैठ गए । पूछा – “आचार्य जी, वो पन्द्रा दिनों में साहित्यकार ...?”

“उसी के लिए तो बईठे हैं हम । आज बहुतै जरुरत है साहित्य सेबा की । बहुत बढ़िया कोर्स हय । एक बार ठीक से समझ-सिख जाइये तो आपका ब्यक्तित्व बदल जाएगा । फस्ट डे से ही आपको अपने में बदलाव महसूस होने लगेगा । केतना आदमी लोगों को अभी तक साहित्यकार बना दिए हैं जानेंगे तो फीस नगद देने से अपने को रोक नहीं पाएंगे । बाबा का असिर्बाद है । बनारस सुनैं हैं ना ? बाबा बम भोले, लगा के भांग के गोले । “

“अरे भांग पीना पड़ेगी क्या !?” नवल चौंके ।

“पीजिएगा तब न जानियेगा । पंद्रह दिन में दन्न से साहित्य का भोले भंडारी बन जाईयेगा तभेई मानियेगा । भांग में भासा है, बो का कहते है नई बाली हिंदी । इसमें कबिता है, कहानी है ... सब है जो चहिये । भांग से साधना में जो है मन बहुतै जोर से लगता है । ... पंद्रह दिनों की फीस सात हजार है ... ईनाम अलग ।“

“फीस तो बहुत ज्यादा है ...” नवल ना नुकुर की मुद्रा में आए ।

“ज्यादा नहीं बहुतै कम है ... पूछिये क्यों ... पूछिये पूछिये सरमाइए नहीं ।“

“क्यों ?”

“एक ज़माने में पत्र-पत्रिकाएं मेहनताना देती थीं, प्रकासक रोयल्टी देता था । अब सरम सब जगह से ख़तम हो गयी है । बेसरमी लाइफ स्टाइल बन गई  है । छापते सब हैं देता कोई कुछ नहीं । साहित्य जो है फिरी फुग्गे का खेल हो गया है । बताइए ऐसे में डेढ़-दो लाख का कोर्स सात हजार में मिल रहा है तो समझिये फ्री ही पड़ रहा है । ... चलिए नाम बोला जाये ।“

“नाम नवल नगरपंडे । ... फीस एक साथ देना होगी क्या ?”

“पंद्रह दिनों का कोर्स है तो क्या छः माह का क़िस्त करवाइयेगा !?”

“आचार्य जी एक बार थोड़ा सिलेबस बता देते तो ठीक रहता ।“

“थोड़ा काहे पूरा जानिए, हक्क है आपका । देखिये, पहले दो दिन ब्यक्तित्व बिकास किया जायेगा । मतलब साहित्यकार की तरह कपड़ा-लत्ता पहनना सिखियेगा । चाल-ढाल,  उठना-बइठना, लटका-झटका, बोलना-चुप रहना सब सिखाया जाता हय  ।“

“उसके बाद ?”

“उसके बाद दो दिन कलम-कागज का छेत्र । किताबैं, पत्र-पत्रिकाएं बगैरा देखना खंगालना सिखियेगा । नए पुराने, जिन्दा मुर्दा साहित्यकारों के  बारे में जानकारी हासिल कीजियेगा ।“

“ठीक है, चार दिन हुए । बाकी बचे ग्यारह दिन ?”

“इसके बाद तीन दिन कबिता लिखना सीखिएगा । तुक विज्ञान जानिएगा । तीसरे दिन से कबिता ठोकियेगा दनादन ।“

“आगे के दिनों में ?”

“आगे का तीन दिन कथा-कहानी पर होगा । कहानी का आगापीछा जानिएगा । तमाम कहानीकारों के बारे में बताया जायेगा कि उनकी कैसी कहानियां आपके काम की हैं या नहीं हैं । हमारा कुछ ट्रिक है वह भी बताया जायेगा ।“

“ट्रिक ! ट्रिक मतलब क्या ?!”

“आगे का पांच दिन ट्रिक का ही हय । जैसे कहानी खोजना पुरानी किताबों से, पुरानी पत्रिकाओं से । उसे पढ़ना समझना और फिर अपने हिसाब से बदल लेना ट्रिक है ।“

“अपने हिसाब से कैसे ?”

“अरे भाई कहानी मुंबई की चल रही हो तो आप दिल्ली की कर दो । नायक रूपचंद हो तो राजीव कर दो । मतलब पात्रों और जगह के नाम बदल दो ... कहानी आपकी हुई ।“

“अरे ! ये तो बड़ा असान है !”

“इतना आसान नहीं है जी । कफ़न और पंच परमेश्वर खेंच देंगे तो पकड़े जायेंगे ।“

“शीर्षक भी तो बदलना पड़ेगा ना ?”

“क्या चुराना है, उससे ज्यादा क्या नहीं चुराना है इसी में सारी ट्रिक हय, सारा ज्ञान हय ।  यह सीखना पड़ेगा । और कैसे चुराना है यह भी सिखियेगा । इस बिधा को सोरोगेट साहित्यकार की केटेगिरी मिला है । दूसरों का उठाइए और अपना बना कर बजार में छोड़ दीजिये । चिंता मत कीजिये, ये पुन्न का काम है । अनाथ, आबारा, लाबारिस, बेनाम  रचनाओं को अपना नाम देना बड़ा जिगरे का काम हय ।“

“लोग छापेंगे, पत्र-पत्रिका वाले ?”

“आरे छापेंगे क्यों नहीं !! बिग्यापन के बीच बीच में जो खली अस्थान होता हय उनको भरना तो पड़ता हय ना । भरेंगे । प्यारे मोहन प्यारे का नाम जानते हो ? हमारे ही प्राडक्ट हय । साल में तीन चार अंडे दे देते हय ।“

“अंडे !!”

“किताबे तो अंडा ही होती हय आजकाल । जब तक कबि कुड़क नहीं हो जाए देता ही रहता है । अब देखिये कोई रोजाना आधा दर्जन कबिता लिख्खेगा तो चार किताबें तो निकलेगा ही ।“

“रोज आधा दर्जन कवितायेँ ! ये तो बहुत हैं ।“

“आउट पुट बहुतै अच्छा देता है यहाँ का प्राडक्ट । आप तो पहले दिन से ही इतना निकाल देंगे ... गारंटी है ।“

“आचार्य जी हमारी बहुत इच्छा है कि एक दो किताबें निकल जाये फटाफट । लोकार्पण करवाएं, सभा हो, भीड़-वीड़ हो, हार-फूल, भाषण-वाषण ... वो क्या है कि माँ चाहती है कि घर में बहु आ जाये, अभी शादी नहीं हो पा रही है हमारी ।“

“हो जायेगा । किताब छापने बाले और लोकार्पण करबाने बाले कांट्रेक्टर हैं हमारे टच में । कहिये तो एक-ठो किताब पहले छपबा दें आपकी ... लिखना बाद में सीख लीजियेगा, पहले घोड़ी चढ़ लीजिये ।  कोई दिक्कत नहीं है ... दुनिया बहुतै तेज चल रही है ।“

“कितना लग जायेगा ?”

“पचास साठ हजार तो लगेगा ही । ... किन्तु सस्ता पड़ेगा । ब्याह के खर्चा में जोड़ लीजिये या फिर दहेज़ से जनरेट का लीजियेगा ।“

“जी मैं सोच रहा था कि दहेज़ न भी मिले बस लड़की ही मिल जाये तो ...”

“अजी बिद्वान आदमी हैं, साहित्यकार हैं तो दहेज़ काहे नहीं मिलेगा !! ... दो तीन बरस का ग्रेस पीरियड छोड़ कर बाद में ठाठ से दहेज़ के खिलाफ कबितायें भी लिखियेगा कोई दिक्कत नहीं है ।  दुनिया बहुतै तेज चल रही हय ... देस जो हय बिस्वगुरु होने जा रहा है तो बिद्वानों के दम पर ही ना ? फीस निकाला जाय अब । “

“पहले तो किताब निकालने का कह रहे थे आप ! ...”

“फीस जमा करियेगा तभी न आप को साहित्यकार घोसित किया जा सकता हय । रसीद कटवाइए और यहाँ से अभी के अभी साहित्यकार बनके निकलिएगा  ठप्पे से ।“

नवल नगरपंडे ने फीस जमा कर दी ।

“बधाई हो ... लीजिये आप साहित्यकार हुए इसी बखत से । दो जोड़ी कुरता पजामा खरीद लीजिये, थोड़ा दाढ़ी बढ़ा लीजिये ... बस हो गया । और लड़की ढूंढने में लग जाइये फटाफट ।“

“और किताब ?”

“जैसे ही पचास हजार जमा कीजियेगा आपकी किताब का गर्भाधान संस्कार हो जायेगा ।“

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