रविवार, 15 अक्तूबर 2017

कचरा युद्ध


दो घरों के बीच एक खाली प्लाट हो तो दिवाली की सफाई का आनंद दूना हो जाता है. मिसेस तलवार ने मकान किराये पर लेते वक्त खास तौर पर इसका ध्यान रखा था कि घर के पास कम से कम एक खाली प्लाट होना ही चाहिए चाहे किराया दो-चार सौ ज्यादा लग जाये चलेगा. आज दिवाली की सफाई के दौरान जब दूसरे लोग अपना अटाला और कचरा लिए इधर उधर घूम रहे हैं या फिर हल्ला-गाड़ी का इंतजार कर रहे हैं, मिसेस तलवार आराम से टोकरी भर भर के अपना कूड़ा पडौस के प्लाट में डाल रही हैं. मिस्टर तलवार पुलिस महकमें में हैं और इस बात को उन्होंने मोहल्ले के पचास पचास घरों तक सबको बता दिया है. साथ में यह भी कोई उनके पास वाले प्लाट में कचरा नहीं डालेगा, सिर्फ वे ही डालेंगी.
मिसेस तलवार बेहद सफाई पसंद हैं. जो साफ कपड़े महीने भर तक पहने नहीं गए हों उन्हें भी धुलवा लेती हैं चाहे वे पहले से घुले और प्रेस किये रखे हों. बर्तनों का भी ऐसा ही है. बिना वापरे ही हर तीसरे दिन बर्तन मंजवना उनके लिए जरुरी है. उनका तर्क है कि जब कल का नहाया आदमी आज फिर नहाता है तो कपड़े-बर्तन के साथ अन्याय क्यों ? घर में फर्श का हाल यह है कि चाहे कितनी भी ठण्ड क्यों न हो वे दिन में दो बार पोंछा अवश्य लगवाएँगी. कई बार तो लगता है कि फर्श मिसेस तलवार को देख कर कांप रहा है.
इस बार मामला जरा चुनौती का हो गया है. हो यह रहा है कि सामने वाली मिसेस बाघमारे के घर की सफाई चल रही है और वे भी घर का कूड़ा कचरा दनादन खली प्लाट में डलवा रही हैं. कचरा क्या डलवा रहीं हैं लगता है मिसेस तलवार को सीधे चुनौती दे रही हैं. उनके पति यानी बाघमारे जी नेता हैं और हाल ही में पार्टी के नगर अध्यक्ष हो गए हैं. उनका कहना है कि पुलिस-उलिस को तो वे अपनी जेब में रखते हैं. उनकी जेब में मिसेस बाघमारे कभी भी हाथ डाल सकती हैं और मन में आये उसको यहाँ से वहां फैंक सकती हैं. जाहिर है मिसेस तलवार से उन्हें रत्ती भर भी डर नहीं है. बल्कि वे अब चाहती हैं कि मिसेस तलवार उनसे भले ही डरें नहीं पर इज्जत तो करें.
इधर मिसेस तलवार का पारा गरम हो कर लगातार उछालें मार रहा है. कुछ कर नहीं सकतीं लेकिन प्रतिस्पर्धा से बहार होना भी उन्हें गवारा नहीं है. उन्होंने अपना और कचरा प्लाट में फैंकना शुरू किया. लेकिन एक साथ जरुरी कचरा घर में उपलब्ध नहीं था. मजबूरन थाने का कचरा भी उन्हें बुलवाना पड़ रहा है. इस बहाने थाने की सफाई भी हो रही है और सिपाही कचरा ला कर मिसेस तलवार की तरफ ढेर कर रहे हैं. मिसेस बाघमारे ने भी नेतागिरी के प्रभाव से तमाम लोगों का कचरा अपनी साईड ढेर करवाना शुरू कर दिया. दो प्रभावशाली देवियों में कचरा युद्ध चल रहा है. जिसका पहाड़ जितना ऊँचा होगा वो उतना ही दूसरे को नीचा दिखा पाएंगी. एक पावर गेम सा कुछ है जो चल रहा है. लेकिन इस बहाने घर, मोहल्ला यहाँ तक कि थाना भी साफ हो गया है.

------- 

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

कायनात में बैंक और सुन्दरी

अखबार पढ़ने की आदत अच्छी है, इससे व्यक्ति की सोच और समझ सात कलम, बारह पन्नों की सुरंग में गहरे तक उतरती है. पिछले कई दिनों से पढ़ रहा हूँ कि कैसे समझदार लोग देखते देखते करोड़पति बन गए ! दुनिया में सब तरह के लोग हैं, जिन्हें होना है वो हो जाते हैं और जिन्हें देखनाभर है वे टूंगते रह जाते हैं. मैं इसी श्रेणी में हूँ और अखबार के जरिये देख रहा हूँ और सोच भी रहा हूँ. सोचना एक अच्छा काम है, हालांकि इसको ले कर समाज में मत विभाजन है. कुछ लोग कंधे पर हाथ रख कर हिदायती अंदाज में कहते हैं कि ज्यादा मत सोच पगले, ये अच्छी बात नहीं है. दूसरे मत वाले बोलते हैं कि सोचो, कोई तो रास्ता निकलेगा. मै सोचता हूँ कि मुझे सोचना चाहिए. जबरिया सोचने से भी रास्ते निकल आया करते हैं. जो लंबे रास्ते पकड़ कर यहाँ से निकल लिए हैं निश्चित ही उन्होंने शुरुवात सोचने से ही की होगी. सोचने के लिए हाथ पैर हिलाने जरूरत नहीं पड़ती, इससे अच्छी बात और क्या होगी. बस बैठे रहिये मजे में और सोचते रहिये खरामा खरामा. इस साधना के चलते दुनिया अगर आपको निकम्मा भी समझती रहे तो चिंता मत कीजिये. ये वो समाज है जो आरम्भ में निंदा करता है लेकिन बाद में चरणों में लोटता है. कोई अगर ठान ले तो बिना रियाज के भी सोच सकता है. कलाम साहब ने कहा था कि सपने देखो. सपने तो मुझे भी बहुत आते हैं, ऐसे ऐसे कि आपको क्या बताऊँ !! आज ही एक सपना आया था.... लेकिन छोडो, आपको लगेगा कि हाय मुझे क्यों नहीं आया. जरुरी नहीं कि कोई आदमी सपने में भी पैसों के पीछे ही भागे. विश्व सुंदरियाँ हर किसी के सपने में आती भी कहाँ हैं. आदमी में सौंदर्य बोध भी होना चाहिए. भाई साब सपने देखना भी एक तरह की जिद है. मन लायक सपने देखना सीखने में कई बार एक उम्र खर्च हो जाती है. किसी फ़िल्मी हीरो ने कहा है कि अगर आप दिल से किसी को चाहते हो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश करती है.
अभी ये सोच चल ही रहा था कि फ़ोन आया. उधर से एक सौम्य स्त्री का स्वर सुनाई दिया- मैं फलां बैंक से फलां बोल रही हूँ. आगे कुछ और रटे जुमलों के बाद उसने पूछा क्या आपको लोन की जरुरत है ? मैं समझ गया कि प्रोसेस शुरू हो गई है. कायनात में यह बैंक और सुन्दर युवती भी शामिल है. आपका एक वाजिब सवाल हो सकता है कि यह युवती है और सुन्दर भी है, यह तुम्हें कैसे पता !? तो मैं कहूँगा कि आपकी और मेरी सोच में यही अंतर है. खैर मैंने उसे कहा कि लोन की बहुत जरुरत है जी. हिंदुस्तान में पैसे की जरुरत भला किसे नहीं है. सबसे ज्यादा जरुरत तो पैसे वालों को ही है.
सुन्दर युवती बोली – “बैंक जानती है सर. दरअसल देश में गरीब बहुत हैं और गरीबों को रुपयों की नहीं रोटी की जरुरत होती है और आप भी जानते हैं कि बैंक रोटी नहीं बनाती है. इसलिए हम गरोबों से बात नहीं करते हैं. खैर, जान कर अच्छा लगा कि आपको रुपयों की जरुरत है. सर, क्या मैं ये जान सकती हूँ कि आपको कितना लोन चाहिए.
बोतल-किंग काल्या को कितना दिया था ? मैंने पूछा .
काल्या जी हजार करोड़ से ऊपर ले गए थे.
कुछ और सुविधाएँ भी तो दीं होंगी उसको ?
विलफुल-डिफाल्टर की सुविधा है सबके लिए. लेकिन इसके लिए आपकी तरफ से मजबूत दावेदारी प्रस्तुत करना होगी.
ठीक है, तो आप प्लीज लोन देने की प्रक्रिया शुरू कीजिये.
ओके सर, आपके पास कोई प्रोजेक्ट है जिस पर लोन दिया जा सके ?
प्रोजेक्ट तो नहीं है. लेकिन आपको इससे क्या, आप लोन दीजिए, ये बैंक का काम है.
प्रोसीजर है सर, आप प्रोजेक्ट बनवा लीजिए, आजकल तो बन जाते हैं.
छोडिये, इतना टाइम नहीं है मेरे पास.
आपको ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं सर, बैंक अब हर कदम पर आपके साथ है. प्रोजेक्ट हमारे पास तैयार पड़े हैं , आप बस साइन करें, काम हो जायेगा.
बड़े कस्टमर्स को आप बैंक में बुलाते हैं क्या !?
हम आ जायेंगे सर, आखिर लोन तो हमें देना है. ..... वैसे आपके पास कोई प्रापर्टी तो होगी ?
प्रापर्टी तो तब बनेगी जब आप लोन देंगे. समझिए कि आपका लोन ही प्रापर्टी है. आपको अपने ही लोन को प्रापर्टी समझने में कोई दिक्कत है क्या !?
पहले की कोई प्रापर्टी नहीं है क्या !? इस बार सुन्दर युवती ने सर नहीं कहा .
है तो, पर उन पर आलरेडी लोन ले रखा है.
चलेगा सर, आप हमें यह मत बताइयेगा कि आपने उन पर लोन ले रखा है.
ओह !! सॉरी . मैंने तो अभी आपको बता दिया !
फोन पर बताया सर, पेपर पर नहीं. बैंक के कान नहीं होते हैं, आप चिंता मत कीजिये.
कितनी सुन्दर हैं आप.
थेंक्स सर. ....!!
एक बात और पूछना थी.
जी, पूछिए सर .
बोतल-किंग काल्या का कितना लोन राइट ऑफ किया था आपकी बैंक ने ?
जब बैंक को चिंता नहीं है तो आपको चिंता क्यों सर !! हम देते फास्ट हैं, लेते स्लो हैं. बैंक का व्यवहार सबके साथ सम्मानजनक होता है, बशर्ते वो गरीब न हो.
वाह शुक्रिया आपका, आप वाकई बहुत सुन्दर हैं.
थेंक्स सर.
आपकी बैंक लोन देने में बड़ी फास्ट है !
क्या करें सर, जनता का पैसा बैंक पर बोझ होता है. आखिर हम लोग कितना वेतन ले सकते हैं !! हद होती है किसी चीज की ! आप जैसे लोग ना हों तो बैंकें हाय हाय करते दाम न तोड़ दें.
-----


शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

राजा साहब मुस्कराए !


राजा साहब  के महल के बाहर एक घंटा लगा हुआ है जिसे न्याय-घंटकहा जाता है. आप कहेंगे कि राजा कहाँ हैं अब ? तो भईया देखा जाये तो न्याय भी कहाँ है अब ? जैसे घंटा लटक रहा है वैसे ही राजा भी लटक रहे हैं लोकतंत्र के मंदिर में. जो श्रद्धालु है वे बजा लेते हैं मौके और दस्तूर के हिसाब से.  इसी न्याय-घंट को एक आदमी लगातार बजाए जा रहा है. कायदे से उसे एक बार बजा कर इंतजार करना चाहिए लेकिन वह लगातार बजा रहा है. पूछने पर बोला कि जनहित याचिका के मामले में न्याय के कान में अक्सर तेल पड़ जाता है. रनिवास में व्यस्त राजा साहब का कतई मन नहीं है फिर भी वे कुछ जरूरी काम अधूरे छोड़ कर वे बाहर निकले तो ताक में बैठे उनके दरबारी-रत्न यानी कविराज, वैद्यऔर मस्त-मिडिया चट से उनके पीछे खड़े हो गए. राजा साहब ने फरियादी को घूरा, जिसका मतलब था कि घंटा बजाने की हिमाकत क्यों ?
फरियादी के कहा –“ हुजूर, प्रजा की रक्षा कीजिये मालिक. चोर-उचक्के, गुंडे-मवाली, लुटेरे-हत्यारे सब बेख़ौफ़ हो गए हैं.  घरों में रोज चोरियां हो रही हैं , यात्रियों से सामान लूट लिया जाता है, राह चलती औरतों के गले से चेन खींची जाती है.  बूढ़े मार डाले जा रहे हैं, बच्चे चुराए जा रहे हैं. रिआया अपने  को असुरक्षित समझ रही है.
सुन कर राजा साहब कुछ देर तक विचार मुद्रा में रहे. ऐसे मौकों पर विचार करते दिखने की सुदीर्ध परम्परा रही है हमारे यहाँ. फौरीतौर पर फरियादी की आत्मा को इससे तसल्ली मिल जाती है कि हुजूर उसके पक्ष में सोच रहे हैं. देखा जाये तो लोकतंत्र में जनता तसल्ली में रहे यह बड़ी बात है. भोली रिआया तो इसी बात से खुश हो लेती है कि हुजूर सोचते भी हैं. मौके और दस्तूर के हिसाब से मिडिया ने फ़ौरन कुछ फोटो ले लिए. पास खड़े वैद्यराज और कविराज-कक्कड  से राजा साहब ने पूछा इस फरियाद का यह मतलब क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए कि लोगों  के पास बहुत धन है और उनके अच्छे दिन आ गए हैं ?
ठीक कह रहे हैं हुजूर, अगर लोगों के पास धन नहीं होता तो चोरी जैसे अपराध की गुंजाईश कहाँ रहती, स्त्रियां सोना नहीं पहनती तो चेन खेंचने वालों को अवसर कैसे मिलते. क्राइम रिपोर्ट से प्रमाणित होता है कि प्रजा के अच्छे दिन आ गए हैं. इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है . हुजूर की जय हो. कक्कड ने समर्थन लेपन किया.
वैद्यराज ने अनुमोदन की पुडिया आगे की - राजा साहब आप ठीक कह रहे हैं , अब आमजन भी भोगविलास की ओर उन्मुख हो गए है. इन दिनों वाजीकरण के राजसी नुस्खों की मांग बहुत हो गई  है. अच्छे दिनों का इससे बड़ा प्रमाण कोई नहीं है.
कविराज-मक्कड ने दूसरा पक्ष रखा, क्योंकि वह नया नया कवि है , उसका काम है कविराज-कक्कड की  बात को काटना, बोले– “ राजन, फरियादी सच कह रहा है, आपके संसदीय क्षेत्र में कुछ लोगों ने आतंक मचा रखा है. वे सरगना की तरह काम करते हैं, मार-पीट और हप्ता वसूली भी खूब हो रही है. उन पर कड़ी कार्रवाई होना चाहिए .
इस बार राजा साहब सचमुच सोच में पड़ गए,  बोले –“ अगर हमें टिकिट नहीं मिला होता तो ये सरगनागिरी हमें करना पड़ रही होती. अगली बार अगर टिकिट उन लोगों को मिल गया तो सत्ता में वे होंगे. तब हमारे लल्लों-पिल्लों को रोजगार की समस्या होगी. आज अगर हम उन पर कार्रवाई करेंगे तो कल वे इन पर करेंगे. हमारी सेना का घर कैसे चलेगा.
कुछ तो करना पड़ेगा राजन, फरियादी अभी तक घंटे की रस्सी पकड़े खड़ा है. .... विलम्ब  किया तो ये फिर घंटा बजाने लगेगा, दूसरे तमाम लोग इकठ्ठा हो जायेंगे और बैठे बिठाये ब्रेकिंग न्यूज बन जायेगी . मस्त-मिडिया ने राजा साहब को चेताया.
कविराज कक्कड, बारीकी से विचार करो, कोई नया रास्ता निकालो. तुम्हारा नाम पद-श्री पुरस्कार के लिए आगे बढाया जा रहा है. चिंतित राजा ने कहा .
हुजूर, लोगों को कहा जाये कि वे अपने घर में नगद नहीं रखें, नगद नहीं होगा तो चोरी कैसे होगी. औरतों को नकली चेन पहनने को कहा जा सकता है. उसके बाद भी अगर प्रजा आदेश का उलंघन करती है तो शासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी.
राजा साहब को बात ठीक लगी, सो उन्होंने न्याय की ओर कदम बढाया, बोले- नागरिक तुम्हारी फरियाद पर विचार कर लिया गया है. अब प्रजा अपने घर में दस हजार से ज्यादा नगद नहीं रख सकेगी. अगर चोरी हुई तो माना जायेगा कि चोरी मात्र दस हजार की हुई है. महिलाएं भी नकली चेन पहनें, चेन खींची जाने पर शासन मानेगा कि नकली खींची गई है.
लेकिन हुजूर, फरियाद ये है कि गुंडे बेख़ौफ़ हैं , उसका क्या !?
हाँ गुंडों को दिक्कत तो होगी, लेकिन उनके लिए उचित मुआवजे की व्यवस्था की जायेगी.
लेकिन लोगों के पास दस हजार से ज्यादा रकम होती है. आप तो जानते ही हैं कि नब्बे प्रतिशत बिजनेस दो नम्बर में होता है, गलत सरकारी नीतियों के कारण लोगों को घर में लाखों-करोड़ों रखना पड़ते  हैं .
घरों में लाखों-करोड़ों होते हैं !! फिर तो डाका हमें ही डालना चाहिये. राजा फुफुसये.
कविराज मक्कड ने भी टेका लगाया, हुजूर, आपको डाका डालने कि क्या जरुरत है. आप छापे डलवाइये.
जहां तक इन अपराधों का सवाल है इसके लिए प्रजा ही  जिम्मेदार है. इसलिए इन पर कोई कर या जुर्माना  लगाया जाना चाहिए .
आयकर, संपत्ति कर, स्वास्थ्य  कर, मनोरंजन कर, सफाई कर, पढाई कर, और भी तमाम कर लगे हैं , ..... अब कौन सा कर लगा सकते हैं ? राजा सोच में पड़े या उन्होंने सवाल किया .
सौंदर्य कर या श्रंगार कर लगाना उचित होगा.
प्रदर्शन कर या दिखावा कर भी लगाया जा सकता है.
हुजूर, घंटा-कर ही लगा दें तो कैसा रहेगा. लोग फरियाद करके दोबारा लुटने नहीं आयेंगे .
राजा साहब मुस्करा उठे. सिपाही फरियादी की जेब तलाशी में जुट गए .
----------


ऊंट की लीद में जीरा

अमीरी के लिए पैसों पर निर्भर होने की परम्परा पुरानी है. अब जमाना बदल गया है, जो एसिडिटी के मामले में अमीर होते हैं वे ही सच्चे अमीर होते हैं. अमीर आदमी खाज-खुजली से ख़ुर्र ख़ुर्र करता किसे अच्छा लगेगा.  देखा जाये तो एसिडिटी का मामला डाक्टरी का एक मसला है. इस पर किसी को बोलना है तो डाक्टर बोले या फिर मरीज.  लेकिन भाई साब बीमारियाँ अब स्टेट्स सिम्बल हो गयीं है. सत्ता, समृद्धि और एसिडिटी आज सुखी और सफल लोगों की पहचान है. जहाँ तक गरीबों का सवाल है उनकी सबसे बड़ी बीमारी गरीबी है. भले दुनिया हजार कष्टों से भारी पड़ी हो लेकिन आदमी एक बार कायदे का गरीब हो ले यानी तय की गई रेखा के नीचे आ जाये तो सारे कष्ट बौने हो जाते हैं.
उन्होंने आते ही अपना नया विजिटिंग कार्ड आगे कर दिया कि वे चाय-वाय नहीं पियेंगे, एसिडिटी हो जाती है. इस सूचना के साथ फुट नोट में उनके एश्वर्य के बारीक़ अक्षर समझे जाने योग्य हैं.
“हाँ भई , बड़े लोगों के पास भला एसिड की क्या कमी है जो उन्हें ऊपर से भी पीना पड़े.”
“अरे नहीं, ऐसी बात नहीं है. जब से ये जीएसटी हुआ है ना तब से एसिडिटी की दिक्कत बढ़ गयी है.  ठीक से कुछ खा ही नहीं पा रहे हैं. हम खानदानी लोग हैं, पेट के अन्दर एक नंबर की जेब और दो नंबर की थैली ले कर पैदा होते हैं. इसी को आप फैमिली हिस्ट्री कह लीजिये. लेकिन अब बड़ी दिक्कत है. लोग समझते हैं कि सरकार हमारी है और हम मजे कर रहे हैं ! लेकिन हमारी हम ही जान रहे हैं. फोन में डायल टोन की जगह आवाज सुनाई देती है कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा.”
“फिर इन दिनों खाने में क्या लेते हैं आप ?”
“कभी १८%, कभी २८%. जितना हाथ लग जाये. यों समझिये कि सच्चे व्यापारियों का पेट तो खाली ही रह जाता है. बिना दूसरी परत के कारोबारी शोभा भी नहीं देता है. अब क्या बोलें, .... विकास का मन्त्र मरने वालों को समझना चाहिए कि ऊंट के मुंह में जीरा डालोगे तो लीद में जो निकलेगा उसे वोट तो नहीं कह पायेगा कोई.”
“आप दुखी ना हों, सरकार शायद यह चाहती है कि अमीर भी ‘स्लिंम और फिट’ हों और जीवन का आनंद लें. ये क्या कि सुबह से शाम तक कोल्हू का बैल बने रहें. अब देखिये ना मात्र एसिडिटी की वजह से बीपी, शुगर, हार्ट वगैरह कहाँ कहाँ असर दिखाई नहीं देता है. आपको तो प्रसन्न होना चाहिए कि सरकार बिना किसी बीमा के आपकी सेहत का ध्यान रख रही है.”
“अब सरकार का क्या कहें ! क्या सोचा था और क्या हो गया. हम तो आज भी कह दें  कि छोरा चाय ला तो छोरा दौड़ा चला आता है. इसी मुगालते में रह गये, अब कोई सुनने वाला नहीं है. जिससे टेबल पर कपड़ा मरने की उम्मीद लिए बैठे थे वो झाड़ू मर देता है बार बार !! वो भी कभी पीठ पर कभी कमर के नीचे.”
उनके चेहरे पर नाराजी और पछतावे का भाव उतर आया. अगर भूल सुधार का कोई मौका मिल जाये तो वे शायद चूकें नहीं. अब देखो, अगले चुनाव में ऊंट किस करवट बैठता है और लीद में क्या करता है.”
-----

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

आज़ादी आज़ादी


एक बार किसी को ठीक से ठांस भर दिया जाये कि वो गुलाम है तो सबसे पहले वह ठांसने वाले का गुलाम हो कर अपने आज़ाद होने की घोषणा कर सकता है. हमारे यहाँ बड़ा आज़ाद वह है जो जानता है कि उसे किसका गुलाम होना है. जब देश गुलाम था तब भी बहुत से लोग आज़ाद थे और आज़ादी में भी आज बहुत से लोग गुलाम हैं. जो अंग्रेजो के गुलाम थे वही अपनी जमींदारी में गरीब-गुरबों के सामने पूरे आज़ाद थे. दैनिक जीवन में जो ब्राह्मणों के सहर्ष गुलाम रहे वे अपने से छोटी जाति वालों पर जूते से अपनी जबरिया आज़ादी छापते रहे. जो एक जगह गुलाम दिखाई देता है वह अक्सर दूसरी जगह आज़ाद हुआ करता है. एक जगह से अपमानित हो कर आया हुआ अक्सर दूसरों को, जो उससे कमजोर होते हैं, अपमानित कर अपनी धूल झाड़ता है.
यों देखा जाये तो दुनिया भर में मर्द आज़ाद दिखाई देते हैं लेकिन .... घर में !... कुछ कहा नहीं जा सकता. इसी तरह औरतें, मानी जाती हैं कि घर में गुलाम हैं, लेकिन बाहर ? ....पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता !  बुद्धिमान यानी विद्वान् लोग बहुत सोचविचार के बाद गुलामी करते हैं. इस तरह की गुलामी उनके लिए एक हथियार की तरह होती है. अगर गुलामी सुविचारित है तो प्रायः कई तरह की आज़ादी के अवसर प्रदान करती है. कहते हैं कि बोलने की आज़ादी सबसे बड़ी होती है. इसलिए लोकतंत्र में बोलने पर बहुत जोर दिया जाता है. सो अपने यहाँ जो जुबान चला ले वह आज़ाद, और जो सभ्य बने रहे वो शराफत के गुलाम. विश्वास न हो तो किसी भी गृहणी से पूछ लो आपको उत्तर हाँ में ही मिलेगा. पढ़े-लिखे, समृद्ध-सुखी लोग अंग्रेजी में आज़ादी की मांग करते देखे जाते हैं. जो बाज़ार में बैठ कर लूटते हैं, सत्ता में रहते हुए समेटते हैं, उन्हें प्याज-टमाटर मंहगा मिले तो गुलामी का अहसास होने लगता है. आज़ादी तो कुछ करने की भी है हमारे यहाँ, लेकिन जब करना पड़ता है तो वो हमें गुलामी लगती है. इसलिए आदमी तभी तक काम करता है जब तक कि नौकरी में वह टेम्पररी है. जैसे उसके हाथ में परमानेंट होने का लेटर आता है वह काम यानी गुलामी बंद कर देता हैं. नया जमाना- नये लोग,  वेतन की इज्जत कर लेते हैं, नौकरी की नहीं.
हाल के वक्त में आज़ाद देश के कुछ नौजवानों को उच्चशिक्षा के अधिकार के साथ देश के श्रेष्ठ विश्वविध्यालय में अध्ययन करते हुए सबसे पहले यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि वे गुलाम हैं और यह भी कि उन्हें तुरंत आज़ादी भी चाहिए. यानी अब्भी के अब्भी, होम डिलीवरी, बिलकुल पित्जा-बर्गर की तरह. उन्हें किसी ने याद दिलाया कि आप लोग तो बाकायदा आज़ाद मुल्क में पैदा हुए है. कहीं  भी रह सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं, धंधा-रोजगार कर सकते हैं. संविधान के दायरे में रहते हुए हर कोई आज़ाद है. उन्होंने नकार दिया कि हम तो गुलाम होने और महसूस करने के लिए स्वतंत्र है. अगर कोई विचारधारा उन्हें गुलामी का सही रास्ता दिखा रही है तो बाकी सभी तरह की आज़ादी उनके लिए ढकोसला मात्र है.. उस्ताद लोग जानते हैं कि आज़ादी मात्र एक नारा है जो भेड़-बकरियों से कहीं भी, कभी भी, यहाँ तक कि शैक्षणिक परिसर में भी लगवाया जा सकता है. कबूतरों को ठीक से सिखा कर उन्हें कितना भी खुला छोड़ दीजिये वे अपने पिंजरे से प्यार करना नहीं भूलते है. पेड़ों पर बैठा तोतों का झुण्ड जब ‘हमें चाहिए आज़ादी-आज़ादी’ के नारे लगता है लेकिन अपने पंख नहीं फैलता है तो उनकी नियत और हौसलों पर संदेह होने लगता है. शिक्षा सही को सही और गलत को गलत समझने का सलीका पैदा करती है. लेकिन जब सलीके का ही संकट पैदा हो गया तो आगे कैसे बढ़ा जाये ! शिक्षित नौजवान दुनिया बदलने निकले यह ठीक है, उसे यह तो पता होना ही चाहिए कि क्या बदलना है ! दुनिया में बदलाव की गुंजाईश तो उनके प्रयासों के बाद भी बनी रहेगी. जब वे अपना काम खत्म करके सुस्ता रहे होंगे तब भी कुछ लोग आज़ादी-आज़ादी चिल्लाते हुए निकल आयेंगे.

------

बुधवार, 19 जुलाई 2017

सिस्टम के कीड़े

कालियाजी का धंधा तो जेबकटी का है लेकिन आदमी उसूलों वाले हैं. वे मानते हैं कि धंधा चाहे कैसा भी हो जी-जान लगा कर करना चाहिए. बहुत जरुरी हो तो अपनी जान लगा देने से पीछे नहीं हटना चाहिए. उसूल बड़े होते हैं, दुनिया धंधा नहीं उसूल देखती है. जो इस बात को समझ लेता है वो उसूलों को सूट-टाई की तरह पहनता है. सभ्य समाजों में सूट-टाई दिख जाए तो कुछ और देखने की जरुरत और आदत नहीं है. कालियाजी मेराथन दौड़ सकते हैं, चाहते तो चेन खींचने का काम भी कर सकते थे. आजकल इसमें अच्छी कमाई चल रही है, मेनेजमेंट और इंजीनियरिंग की पढाई करने वाले भी इसमें लगे हैं और अपना सुनहरा भविष्य बना रहे हैं. लेकिन कालियाजी ये काम पसंद नहीं है. उनका उसूल है कि सामान्य तौर पर माता-बहनों की इज्जत करना चाहिए. दूसरा ये कि चेन खिंचाई का धंधा ओछा है. किसी भली महिला को ताड़ा, चेन खिंची और चोट्टों की तरह भाग लिए ! धंधे में इज्जत होना चाहिए, यह उनका दूसरा उसूल है. जैसे कि उनका धंधा. कई बार तो जेब काटने के बाद वे अपने शिकार के आंसू पोंछते, सांत्वना देते वहीँ उसके पास मौजूद रहते, उस पर अहसान करते हैं. आज के युग में मरीज के मरने के बाद डाक्टर तक भाग जाते हैं, ऐसे में यह बड़ी बात है. देश में सफाई अभियान चल रहा है और वे पूरी ताकत से इसमें जुटे हैं. जेबकटी को वे एक उम्दा दर्जे की कला मानते हैं. जिसकी जेब कटती है उसकी तो छोडिये, दाहिने हाथ से जेब काटते हैं तो खुद उनके बाएं हाथ को पता नहीं चलता. उनका उसूल है कि जो भी काम करो पूरी निष्ठा और दक्षता से करो. धंधा कोई भी हो बिना लगन, मेहनत और ईमानदारी के सफलता नहीं मिलती है. जिसका जो हक बनता है वो उसे ईमानदारी से देना चाहिए. इसलिए एरिया के भाई लोगों को टुकड़ा डालने में कालियाजी ने कभी कोई कोताही नहीं की. वर्दी वालों की वे बहुत इज्जत करते हैं, इतनी कि उन्हें समाज में किसी से इज्जत नहीं मिलने का मलाल नहीं रहता. उनसे कभी कुछ छुपाया नहीं, हमेशा सम्मान के साथ भरपल्ले दिया. जो सिस्टम का सम्मान करते हैं सिस्टम उनका सम्मान करता है. यही आदर्श परम्परा है. कालियाजी सिस्टम के कीड़े हैं तो ऐसे ही नहीं. उन्हें पता है कि अच्छा आदमी अच्छे व्यवहार से बनता है. इसलिए उनका उसूल है कि अपना करम करो, सबको हिस्सा दो, पक्के समाजवादी बनो. सबका साथ, सबका विकास में विश्वास रखो. ईश्वर भी आदमी की अच्छाई देखता है धंधा नहीं. इसीलिए पूजा-पाठ जिनका धंधा होता है उन्हें इसका पुण्य नहीं मिलता है. कालियाजी गरीबों, बीमारों के आलावा घरम-करम और प्रभु के लिए भी कुछ हिस्सा अवश्य रखते हैं.
पिछले चुनाव के वक्त देश की बड़ी पार्टी ने बड़ी उम्मीद से उम्मीदवारी का प्रस्ताव कालियाजी के पास भेजा था. लेकिन इन्होंने साफ मना कर दिया कि मैं उसूलों वाला आदमी हूँ खोटे काम नहीं करता. कल ऊपर वाले के सामने भी हाजिर होना है. कहते है कि नेतृत्व करने वालों के लिए नरक में तीन नये बनवाना पड़े हैं यमराज को. ए-ब्लाक कामरेडियत के दावेदारों से भरा पड़ा है. बी-ब्लाक वाले जब भूख से तिलमिलाते हैं तो भजन गाते हैं ‘वैष्णवजन तो तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे’. सी-ब्लाक रिजर्व है, सुना है इसके भागी अभी धरती पर राज कर रहे हैं. जैसे ही वे मुक्त होंगे सीधे इधर पधारेंगे. कालियाजी उसूलों वाले आदमी हैं, सो स्वर्ग में किसी ब्लाक की उम्मीद से हैं.
(फुटनोट- कलियाजी वो जेबकट नहीं हैं जो रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि पर धंधा करते हैं। )

-------

बुधवार, 28 जून 2017

जनहित में डोनेशन की डकैती



आप खुद देखिए सर जी, स्कूल की फीस, बस फीस, लंच फीस, किताबें, ड्रेस, जूते, ट्यूशन फीस, और भी न जाने क्या क्या लगता है !! उस पर पता नहीं किस मीठे में आपने प्रायवेट स्कूलों को डोनेशन लेने की छूट दे दी !!
वे कुछ देर चिंतन-योग के बाद बोले राष्ट्रहित के लिए सरकार को कुछ कठोर निर्णय लेना पड़ते हैं. एक अच्छे नागरिक के तौर पर आपको सहयोग और समर्थन करना चाहिए,  वरना.
अपनी जेब कटवाने में कौन सहयोग करता है सर !! आपके बच्चे भी तो होंगे, वे भी तो पढते होंगे. फरियादी ने वरना पर ध्यान दिए बगैर अपनी बात जारी रखी.
तुम प्रदेश से बाहर रहते हो क्या !? जनरल नालेज तक नहीं है तुम्हें ! ये भी नहीं जानते कि सरकार मामा है और उसके भांजा-भांजी होते हैं.
एक तो यह पता नहीं चलता कि कब आप मामा हो लेते हो और कब सरकार बन जाते हो !! और मामा हो तो पढाने नहीं दोगे क्या भांजा-भांजी को !? स्कूल वाले पूरे एक लाख डोनेशन मांग रहे हैं !!
देखो हम बच्चों के मामा जरुर हैं लेकिन आप जीजा बनने की कोशिश तो करो मत. प्रदेश का कोई भी स्कूल एक लाख नहीं मांग रहा है. आप झूठ नहीं बोलिए, वरना. लगा सरकार बकायदा नाराज होने जा रही है.
सर, निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे रूपये का क्या मतलब होता है !!
देखिए वे लोग तो एक लाख से कम पर मान ही नहीं रहे थे. लेकिन सरकार ने दबाव बनाया. जनहित में जितना कर सकती थी सरकार ने किया.
क्या आप चाहते हैं कि किसानों की तरह पेरेंट्स भी आत्महत्या करने लगें !? लोग कैसे दे पाएंगे इतनी बड़ी रकम !! आप मामा हो या कंस मामा हो !?
शांत हो जाओ जीजाजी, सरकार को पता है कि नहीं दे पाएंगे. लेकिन सरकारी स्कूलों के दरवाजे खुले हैं. फीस कम है, डोनेशन तो है ही नहीं. वहाँ सबका स्वागत है. यू नो, मामा सिर्फ ब्याव करवाने के लिए नहीं है.
सिर्फ सरकारी स्कूलों में एडमीशन के लिए आपने उन्हें लूट की छूट दे दी !!
ऐसा नहीं है, सब जानते हैं कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. देश में पचास हजार बच्चे रोज पैदा हो रहे हैं. कितने ?! ... पचास हज्जार !! पता है ना कितनी मिंडी लगती है पचास हजार में !! फेमिली प्लानिंग योजना भी इस डोनेशन योजना में शामिल है. जबरन नसबंदी-सेवा तो जनता को पसंद आती नहीं है. लोग जब एक बच्चे को पढाने में पस्त हो जायेंगे तो दूसरे बच्चे का विचार सपने में भी नहीं आएगा. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? सरकार जो करती है जनहित में ही करती है . प्रायवेट स्कूल देश सेवा के लिए आगे आये हैं और जनहित में डोनेशन स्वीकार रहें हैं तो उनका अभिनन्दन किया जाना चाहिए.
हम जानते हैं बच्चों के मामा कि जल्दी ही चुनाव आने वाले हैं !?
हाँ, ये भी एक कारण है. बल्कि मज़बूरी कहिये इसको. आप लोग जानते ही हैं कि असल जिंदगी में मंहगाई बहुत बढ़ गई है. बिना खर्चा किये जनता वोट भी नहीं देती है. आप लोगों को ही पिलायेंगे-खिलाएंगे. राम की चिड़िया राम का खेत. हमारा कुछ नहीं, सब आप लोगों के लिए ही है. आपको जो भी देना पड़ेगा वह लौट कर आपके पास ही आएगा. इसलिए मानों कि जो भी हो रहा है जनहित में है .
-----

गुरुवार, 15 जून 2017

भीगा आंगन, एक खिड़की और दो उदास चेहरे

प्रेम जैसे मामलों में स्मृतियों के द्वार तभी खुलते हैं जब संभावनाओं के दरवाजे बंद हो जाते हैं । एक उम्र के बाद बारिश के साथ पुरानी प्रेमिकाओं को याद करने का मौसम शुरू हो जाता है । मैं खिड़की के पास बैठा हूं और बाहर पानी के साथ यादें बरस रही हैं । मन गूंगे का गुड हो चला है , किसी को बता भी नहीं सकता कि किस चीज से भीग रहा हूं । बल्कि अभी कोई आ कर ताड़ ले तो छुपाना मुश्किल । हवाएं चुगलखोर हैं वरना बरसात के मौसम को कौन अहमक बेईमान कह सकता है । जाने क्यों गरमी या ठंड के मौसम में प्रेमिकाएं याद नहीं आतीं । ना सही गरमी में पर ठंड़ में तो आ ही सकती हैं । एक बार तो स्मृति के प्रतीक स्वरूप उनके भेंटे स्वेटर में घुसने की कोशिश की, जो बड़े जतन से सम्हाल कर रखा हुआ था । पता चला कि स्वेटर के साथ स्मृतियां भी टाइट हो गई हैं । दम घुटने लगा तो तौबा के साथ बाहर निकले और पूरी ठंड़ वैधानिक स्वेटर में काटी । यों देखा जाए तो गरमी का मौसम इस काम के लिए मुफीद है । उमस भरे दिनों में वैसे भी कुछ और करने का मन नहीं होता । फुरसत से उदास हो पंखे के नीचे बैठो और याद करो मजे में । लेकिन संविधानाअपनी सारी दफाओं के साथ इस उम्मीद से सामने होती हैं कि आप निठल्ले न रहें, बैठे-बैठे तसव्वुरे-जाना किए रहें । लेकिन पसीना बहुत आता है कमबख्त, कुछ गरमी से और उससे ज्यादा दीदार-ए-हुस्न-ए-मौजूद से । ज्यादातर वक्त सुराही-लोटा बजाते गुजर जाता है । लेकिन बारिश की उदासी मीठी होती है , जैसे हवाओं में आम की मीठी महक घुली हो ।
तजुर्बेकार स्मृतिखोर बारिश  के चलते खिड़की पर उदास बैठने से पहले हाथ में एक मोटी किताब ले लेता है । मोटी किताब का ऐसा है कि वे पढ़ने के काम कम , सिर छुपाने के काम ज्यादा आती हैं । हाथ में मोटी किताब हो तो ज्यादातर मामलों में होता यह है कि लोग आपसे बात नहीं करते, पत्नी भी नहीं । गोया कि किताब न हो राकेट लांचर हो । कालेजों में प्रोफेसरान मोटी किताब थामें निकल भर जाएं तो भीड़ रास्ता दे देती है । ये तजुर्बे की बात है, चाहें तो इसे राज की बात भी समझ सकते हैं । अक्सर मोर्चों से स्थूलांगिंनियां मोटी किताब देख कर सिकंदर की तरह लौटती देखी गईं हैं ।
हां तो मैं बारिश  शुरू होते ही हाथ में मोटी किताब ले, बाकायदे क्लासिक उदासी के साथ खिड़की के किनारे बैठ जाता हूं । अब आगे का काम मधुरा को करना था । मधुरा ! समझ गए होंगे आप । वो जहां भी होगी, उसे अवश्य पता होगा कि बारिश का मौसम है और वादे के अनुसार खिड़की पर उदास बैठा मैं उसे याद कर रहा हो सकता हूं । ठीक इसी वक्त आकाश  में एक बदली एक्स्ट्रा आ जाती है और साफ दिखाई देता है कि आंगन कुछ ज्यादा भींग रहा है । इसका मतलब कनेक्टिविटी बराबर है ! अब फालतू हिलना-डुलना , चकर-मकर होना रसभंग करना है । जैसे एक बार ट्रांजिस्टर  बीबीसी पकड़ ले तो जरा सा हिलने खिसकने से आप विश्व समाचारों से वंचित हो जाते हैं । बरसात में ऐसे ही यादों के सिगनल होते हैं, जरा एन्टिना हिला कि गए ।
‘‘ सुनो ..... क्या कर रहे हो ? ’’ इधर कान में शब्द  चेंटे उधर आकाश  में बिजली कड़की ।
‘‘ किताब पढ़ रहा हूं ...... दिखता नहीं है क्या !?’’ जाने स्त्रियां पत्नी बनते ही थानेदार क्यों हो जाती हैं ।
‘‘ किताब ! .... हाथ में तो भगवत् गीता है ! ’’
‘‘ हां ! ..... तो ? ’’
‘‘ आपने उल्टी पकड़ी हुई है । ’’
‘‘ अं .... हां , पता है । मैं अभी सीधी करने ही वाला था कि बिजली कड़क गई । ’’
‘‘ झूठ ..... सच सच बताओ उसी कलमुंही को याद कर रहे थे या नहीं ? ’’
‘‘ नहीं ... मेरा मतलब है कि किस कलमुहीं  को !!?’’
‘‘ तुम्हारे हाथ में गीता है , कसम खाओ कि जो कहोगे सच सच कहोगे । ’’
‘‘ इसमें कसम खाने वाली क्या बात है !?.... तुम भी बस ।’’
‘‘ ठीक कहते हो , रंगे हाथ पकड़े जाने पर कसम की क्या जरूरत है । ’’
‘‘ अब ऐसे बारिश  के मौसम में कोई याद आ जाए तो गुनाह थोड़ी है । ’’
‘‘ गुनाह नहीं है !? खाओ गीता की कसम । ’’
‘‘ हां गुनाह नहीं है , गीता की कसम । ’’
‘‘ तो ठीक है , थोड़ा उधर खसको, जगह दो । मुझे भी किसी की याद आ रही है । मेरा आंगन भी भीग रहा है । कुछ देर मैं भी उदास हो लूं । ’’
आंगन लगातार भीग रहा था, खिड़की उतनी ही खुली थी, भीतर दो उदास बैठे थे । लेकिन मेरी उदासी अब उतनी क्लासिक नहीं थी ।   

-----