गुरुवार, 29 अगस्त 2013

तीसरा विकल्प

आदमी अगर बुद्धिजीवी होने के लिए बदनाम है तो लोग पूरी कोशिश करते हैं कि उससे बात न करना पड़े। हालाँकि  बुद्धिजीवी देखने में सामान्य आदमी दिखाई देता है, लेकिन उसमें बुद्धि के कांटे पाए जाते हैं। पहली दफा संपर्क में आया व्यक्ति अक्सर लपेटे में आ जाता है। लेकिन दूसरी बार वह कोई जोखिम नहीं लेता है। एक चैनल ने अपना सर्वे परिणाम बताया कि शुरूवाती बुद्धिजीवियों का विवाह हो जाता है लेकिन सिद्ध बुद्धिजीवी प्रायः कुंवारे रह जाते हैं। ‘‘बुद्धिजीवियों के पारिवारिक जीवन में चुनौतियां, समस्याएं और संभावना’’ विषय पर समाजशास्त्र में दो पीएच.डी. हो चुकी हैं। लेकिन अभी तक चेतनायुक्त समाज में कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं हुआ है। हाल ही में खाद्य सुरक्षा बिल पास हुआ, विशेषज्ञयों को उम्मीद है कि इससे सिद्ध बुद्धिजीवियों के लिए भी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश  के रास्ते खुलेंगे, और वे अपनी बुद्धि बच्चों को पालने पोसने के रचनात्मक कार्य में लगाएंगे। लेकिन दिक्कत ये है कि जानकार लोग बुद्धिजीवीनुमा प्राणी को मकान किराए पर नहीं देते हैं। जिन्होंने गलती कर दी, वे सुबह शाम प्रार्थना करते हैं कि भगवान जल्द से जल्द उन्हें अपने निजी मकान की मिल्कियत अता करे। क्योंकि बुद्धिजीवी को मकान में रखना बार बार लीकेज होने वाली गैस की टंकी रखने जितना जोखिम भरा होता है।
                                    नेता लोग भी बुद्धिजीवियों से वोट नहीं मांगते हैं, वे जानते हैं कि इनसे वोट मांगेंगे तो ये ज्ञान देने लगेंगे। हमारे आदरणीय गुण्डे भाई भी चाकू-छूरे से नहीं ज्ञान से डरते हैं, इसलिए सबके लग लेते हैं पर इनके मूं नहीं लगते हैं। सरकार को तो वोट की ही गरज होती है ज्ञान की नहीं। जब वन्य जीवों तक के संरक्षण की जिम्मेदारी सरकार ने ली है तो बुद्धिजीवियों की उपेक्षा कैसे की जाती। इनके लिए अलग से कुछ अभयारण्य बनाए गए हैं जहां वे सेमीनार करते, पीएचडियां करवाते कुलांचे भरते रहते हैं। खैर, बात चुनाव वाले दिनों की चल रही थी, हर बार बुद्धिजीवी देखता है कि पार्टी वाले उसके पडौसियों को सम्मानपूर्वक अपनी गाड़ी में बैठा कर बूथ तक छोड़ते हैं, लेकिन उसकी तरफ देखते भी नहीं हैं! चूंकि वो बुद्धिजीवी है, वह जानता है कि उसकी उपेक्षा कर दूसरों को दिया गया सम्मान असल में उसका अपमान है। इसलिए बुद्धिजीवी व्यवस्था विरोधी होने लगता है। किसी को साड़ियां मिलती हैं, किसी को नगद, कइयों को दोनों। अनुभवी नेता अपने पट्ठों को समझा रहे हैं कि चुनाव न काम से जीते जाते हैं न सज्जनता से। चुनाव एक तरह का धंधा है, जो मेनेजमेंट से किया जाता है। चुनाव में चाहे जितने पाप कर लो और गंगा नहा आओ। राजनीति ने धर्म को अपने नहाने-धोने के लिए ही जिन्दा रखा है। अब आप ही बताइये कि इतना सब जानने के बाद कौन बुद्धिजीवी वोट देने जाएगा। उनसे पूछो तो बोलते हैं कि तीसरा विकल्प नहीं है सो वह वोट नहीं देते हैं। इस बार देश  गुपचुप तरीके से तीसरा विकल्प खोज रहा है । लेकिन तीसरा विकल्प है कि किसीको मिल ही नहीं रहा है। मौजूदा पार्टी को वोट देना देश  की बरबादी को पंख लगा देना है और दावेदार पार्टी को चुनना खुद अपनी जिन्दगी को दांव पर लगाना है। तर्क इतना साफ और पुख्ता है कि बात गले उतरती है।
                     
                लेकिन इनदिनों बुद्धिजीवी मौन रहने लगा है। सुना है कि बोतलों में बंद जिन्न तीसरा विकल्प बन कर बाहर निकला है। बुद्धिजीवी खुश  हैं कि उन्हें तीसरा विकल्प मिल गया है। राजनीति वाले जानते हैं कि सोचने समझने वालों को तीसरा विकल्प दिए बिना व्यवस्था को बचाए रखना मुश्किल  है।
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