सोमवार, 2 सितंबर 2013

लालकवि पीला दुपट्टा

                      संसार को माया कह गए संत गलत नहीं थे। अच्छाभला संवेदनशील आदमी सोचता है कि विचार की किसी एक चट्टान पर बैठ कर चार कविताएं लिख डालूं तो दूसरी चट्टानों की मेनकाएं उछल उछल कर सालसा नाचने लगती हैं। आए दिन देखने में आता है कि कई रचनाकार शरीर से प्रगतिशीलता के बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं पर आत्मा उनकी चीखती रहती है कि ‘हवन करेंगे, हवन करेंगे’। लेकिन हिम्मत नहीं होती है, किसी ‘नामालूम’ का खौफ ऐसा कि पूछो मत। सुना है कि परंपरावादी डायनें भी सात घर छोड़ देतीं हैं। इसी से प्रेरत हो प्रगतिशील को भी अपना शहर छोड़ कर हवन करने दूसरे शहर में जाना पड़ता है। यों देखो तो भक्त भगवान से बड़ा होता है क्योंकि उसके पास प्रगतिशीलता भी होती है। मंदिर में कोई देख ले तो उसे पहचानना मुश्किल । उसके माथे पर किसी पंडा से पचास ग्राम चंदन ज्यादा मिलेगा। अंदर ही अंदर वो अपने आप को समझाता है कि अवसर की जिस चट्टान पर बैठो उसका कायदा तो पूरा करना ही पड़ता है। विचारधारा का क्या होता है यह पता नहीं पर काया को तो मोक्ष ही चाहिए। समझदार आदमी वर्तमान में जीता है और प्रत्यक्षवादी होता है। लाल झंडे के नीचे आ गए तो उसके, भगवा के नीचे आए तो उसके। जिघर बम, उधर हम। तुम्हारी भी जै जै, हमारी भी जै जै। जिस दिन अंतड़ियां सूखी रह गई उस दिन भूख और गरीबी पर बीस कविताएं ठोक दी। जिस दिन छक लिए उस दिन प्रभु कृपालू, दीन दयालू। किसी किसी दिन ‘मंदिर-मस्जिद लड़वाते, मेल करवाती मधुषाला’ भी हो जाता।
                      इनदिनों देश  में मोदक-मौसम चल रहा है। लालकवि जोरदार तरीके से मोदियाने में मुदित हैं। किसी समय उनकी जो काली दाढ़ी किसी विवादित ढ़ांचे के ढ़हाए जाने के शिकवे में खुजाई जाती रही थी अब वो मोदक भाई की मर्दानगी  के सम्मान में सफेद है और सहलाई जा रही है। लालकवि को साफ लग रहा है कि बिना हंसिए हथौड़े के भी जमाना बस बदलने ही वाला है। दोस्तियां पुरानी हैं और कामरेडों के साथ उठना बैठना हैं। इधर नए मित्र अपनी चुटिया और तिलक दिखा दिखा कर रिझा रहे हैं। मन कभी अटकल कभी भटकल हो रहा है, एक तरफ लाल सलाम की चाह है तो दूसरी तरफ मोक्ष के मस्त मोदक हैं। लालकवि फिसलना चाह रहा है, पर अपनी लिखी पुरानी कविताओं से ही डर भी रहा है। किसी जलने वाले ने उठा के सामने रख दी बुराई का प्रतीक बना कर रावण के साथ बांधने में ये देर नहीं लगाएंगे।
                  लालकवि ने एक दिन अपनी परेशानी एक विशेषज्ञ को बताई। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं ही, साथ में संतनुमा कुछ भी हैं। वे श्रद्धापूर्वक चोरी, अतिक्रमण, हत्या वगैरह कर लेते हैं और तंत्र-मंत्र, पूजा, और कथा-प्रवचन आदि भी कर डालते हैं। समस्या सुन कर बोले -‘‘ पहले साफ कर लो कि कवि होना चाहते हो, कामरेड रहोगे या मोदकपंथी बनोगे, क्रांति चाहते हो या भक्ति, गरीबों का पेट भरना चाहते हो या अपना घर, रातों में जागना चाहते हो या जागरण के चलते सोना..... बताओ लालकवि, .... तय करो कि तुम क्या चाहते हो ?’’
                    लालकवि सोच में पड़ गया। वह कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता था, दरअसल वो पाने के लिए मशविरा चाहता था, छोड़ने के लिए नहीं। पहले की उसकी कविताएं बेड़ी बन कर पैरों में अटक रही थीं। .... कुछ देर शांत रहने के बाद अचानक निर्णय पर पहुंचा। लोगों ने देखा कि लालकवि नारे लगा रहा है- ‘मंदिर वहीं बनांएगे’।
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