शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

ज्यादा खाती है सरकारी भैंस !

                     सरकारी भैंस ने इस पंचवर्षीय योजना में भी पाड़ा ही दिया। चलो पाड़ा दिया तो दिया पर दूध तो देवे !! पर जब देखो बाल्टी खाली की खाली। दूध होता तो है पर देती नहीं है, चुपके से पाड़े को पिला देती है। यों देखा जाए तो पाड़ा अभी सीधा है, अपने बाड़े ही कुदकड़ी लगाता रहता है। उसकी कोई गलती नहीं है, वो तो अभी खाना सीख ही रहा है। लेकिन भैंस खानदानी है, खाने का मौका मिल जाए तो चारा-चंदी ऐसा साफ करे कि पूछो मत। भूखे विरोधी जब इसे रात-दिन पगुराते देखते हैं तो मारे गुस्से के उनके खाली मुंह से भी झाग निकलने लगता है। पास पडौस के सब बोलने लगे हैं कि चौधरीजी, निकाल बाहर करो इस भैंस को, क्या काम की ससुरी, खाती बहोत है, देती कुछ नहीं है। सिरफ गोबर-गैस के भरोसे खूंटे से बांधे रखना कोई समझदारी तो है ना!
                        चौधरी ठहरे धनी-मानी, खयाल कहीं न कहीं मूंछों का भी है। कहते साठ साल से ज्यादा समय हुआ जब हमारे दादा, बड़े चौधरी मेले से मुर्रा-नस्ल देख समझ कर लाए थे। तभी से पीढ़ी दर पीढ़ी खूंटे पर बंधी खा रही है। पहले वालियों ने तो अपने समय पर दूध भी दिया, कभी कम कभी ज्यादा, पर बाद में नस्ल बिगड़ती गई। इधर मंहगाई के साथ साथ इसकी खुराक भी बढ़ती जा रही है और दूध सूखता जा रहा है। भैंस का पेट भरने में पुश्तैनी  जमीन बिकती जा रही है परंतु दादा की निशानी है सो घर में जजमान समझ कर बांध रखा है।
                   लोगों के कहने सुनने से कई दफा मन हुआ कि हाट बता ही दें। पर भैंस सरकारी है, बड़ी चतुर चालाक, दो पीढ़ी पहले वाली ने मौका मिला तो संविधान चबा कर महीनों जुगाली की थी, उसका असर अभी भी बना चला आ रहा है। उसकी कामकाज की भाषा अंग्रेजी जैसी कुछ भी हो पर लगता है कि वो हिन्दी भी समझती है। हाट के दो दिन पहले से वह गाढ़ा दूध देने लगती है और बात को सफलता पूर्वक टलवा देती है।
                        घर वाले अंदर ही अंदर चिंतित हैं, माना कि ईंधन की बड़ी समस्या है पर कंडे-उपले से भैंस का खर्चा नहीं निकल सकता है। मुंह आगे कोई बोलता नहीं है परंतु सच बात ये है कि भैंस को पोसने में  खुद चौधरी दुबले होते जा रहे हैं। सिर्फ निकालते रहने से तो कुबेर का खजाना भी खाली होने लगता है।
                    उधर मीडिया में किसी ने कह दिया कि गरीबी एक मानसिक अवस्था है। यानी अगर आदमी को लगे कि उसकी आमदनी से खर्चा ज्यादा है और हाथ लगातार खाली हो रहे हैं तो वह गरीब है। चिंता चिता समान होती ही है। उनकी सेहत सेंसेक्स के साथ गिर रही थी कि एक संशोधित बयान और आ गया कि गरीबी का कारण बीमारी है। यानी जो बीमार हैं वो गरीब हैं। या यों कह लीजिए कि जो चिंतित हैं वो गरीब हैं। सरकारी भैंस के कारण चौधरी चिंतित और बीमार है, और चौधरी के कारण सारा गांव चिंतित यानी बीमार है।
                   मीडिया में आंकड़े इस बात के आ रहे हैं कि गरीबी बढ़ रही है। जबकि खबर यह होना चाहिए कि भैंस ज्यादा खा रही है। गांव भैंस के विरोध में होता जा रहा है। चौधरी खानदान की परंपरा से बाहर आने को आतुर हैं, पर बाड़े का क्या!! बाड़ा सूना हो जाएगा। बाड़े में कुछ तो होना ही चाहिए, मुर्गियां तो शोभा देंगी नहीं। नए लड़कों की मांग है कि चौधरी हाथी पाल लें।
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