मंगलवार, 16 जनवरी 2018

सिस्टम से पंगे !


देखिए, एक बात साफ साफ समझ लीजिये, प्रायवेट स्कूल चलाना सरकारी स्कूल चलाने जैसा पवित्र काम नहीं है. देसी जमीन पर विदेसी स्कूल देने के लिए ऊपर से नीचे तक कितने पापड़ बेल कर देना पड़ते हैं आपको पता नहीं है. अच्छे लोग वही होते हैं जो सिस्टम के साथ मिल कर चलते हैं. जानते ही हो कि सिस्टम बाय द विशिष्टजन, ऑफ़ द  विशिष्टजन, फॉर द विशिष्टजन होता है ? जब हम सवा लाख रुपये फीस लेते हैं और देने वाले देते हैं तो साफ है कि आपसी अंडरस्टेंडिंग सिस्टम को सपोर्ट करने की है. हर चीज ओन द पेपर नहीं होती है, बहुत सी हवाला की तरह भी होती हैं. हाथ मिला कर ग्लेड टू मीट यू कहना सिस्टम का पासवर्ड है. जब तक कोई पकड़ा न जाये या कोई दिक्कत पेश न आये तब तक सब ठीक है. हमारी बसें भी, ड्रायवर भी और स्कूल भी. स्कूल की मंशा किसी की जान से खेलने की नहीं मात्र पैसे से खेलने की होती है. हालाँकि आप देखेंगे कि पढ़ाई-लिखाई के मामले में हम कोई समझौता नहीं करते हैं. आपको बच्चे में अंग्रेजी के आलावा कुछ नहीं चाहिए था. वही हम करते भी हैं. सरकार के आदेश के बावजूद सारी किताबें अपनी मर्जी की महँगी वाली चलाते हैं. टीचर्स को अच्छी तनखा देते हैं. एक एक दिन का उनका काम तय होता है. लेकिन बसों का फिटनेस लेने का काम सिस्टम से होता है. पेरेंट्स लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उनका काम भी बिना पैसा दिए कहीं भी नहीं होता है. अगर आप कहें कि स्कूल को ईमानदारी से सब काम करना चाहिए तो साहब सॉरी कहना पड़ेगा. हमने कभी नहीं कहा कि बच्चों की फीस ईमानदारी की कमाई से दीजिये. 
 आज आप बसों की फिटनेस को लेकर सवाल कर रहे हैं, कल लंच देखने चले आयेंगे ! परसों सवाल करेंगे कि सप्ताह में अलग अलग रंग की चार तरह की यूनिफार्म क्यों है ? जूते-मोज़े, बस्ता-बैग वगैरह दसियों बातें हैं जिन पर आपकी चोंच खुलने लग जाएगी. इतनी आज़ादी किसी पेरेंट को नहीं मिलेगी. आप आज़ाद है,  देश आज़ाद है लेकिन स्कूल केम्पस के बहार. यहाँ कोई आज़ादी नहीं चलेगी. अगर बच्च्चा तरह तरह की चालाकियां देखता है तो सीखता है, जो आगे चल कर उसके जीवन में काम आती हैं. ईमानदारी और मेहनत से कोई आदमी सफल हुआ होता तो इस सिस्टम की जरुरत ही क्या थी ! जो सिस्टम पर संदेह करेगा उसे सिस्टम में कोई जगह नहीं मिलेगी. और याद रखिये, जो सिस्टम को चुनौती देगा उसे सिस्टम की चुनौती का सामना करना पड़ेगा.
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