गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

जब दो पाए हों मुकाबिल तो चौपाये निकालो




 

                                  लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि कोई कितना भी अमानुष हो इसमें सबको सामान अवसर मिलता है . फिलासफी यह है कि ‘जो बढ़ कर खुद उठा ले हाथ में, मीना उसी का है’ . शुरू शुरू में लोकतंत्र का गणित सबको समझ में नहीं आया था . धीरे धीरे रहस्यों की गुप्त गंगा नीचे उतारी और उसने पूरे जमीन को नम कर दिया . जो आवारा पशु अभी तक यहाँ वहाँ मुँह मारते घूमते थे अचानक राजनीति के पठार में प्रवेश करने लगे . शुरू में उन्होंने नंदी की भूमिका अदा की . उनकी पीठ पर बैठ कर कई ‘भोले’ भगवान होने लगे तो उनका माथा ठनका . उन्हें अपने सींग और पीठ का महत्त्व समझ में आया . उन्हें लगा कि षड्यंत्र हो रहा है . सोचने लगे कि जब असली भोले हम हैं तो भगवानियत के हक़दार हम क्यों नहीं हो सकते !! हमारे सींग, हमारी पीठ, हमारी टाँगें ! तो अपना हक़ हम क्यों नहीं मांगे !? किसी ने कहा है ‘मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे; एक खेत नहीं, एक देश नहीं, सारी दुनिया मांगेंगे . इसके साथ एक शुरुवात हुई . कुछ सांड जिनके सींग खून पिए हुए थे, बाकायदा विधायक और मंत्री बनने में सफल हो गए . उन्होंने ईश्वर के नाम पर शपथ ली कि वे जनता की सेवा करेंगे . कुर्सी उनकी जितनी सेवा करेगी उसे भी वे स्वीकार करेंगे . इसका असर हुआ और जनता में सांड को लेकर चली आ रही छबि में बदलाव हुआ . जो पुलिस डंडा-जूता ले कर पीछे पड़ी रहती थी अब वह गार्ड ऑफ़ ऑनर की ड्यूटी कर रही है . सांड जो आवारा थे अब कहीं सांड-साहब और कहीं सांड-जी हो गए हैं . वे फीते काट रहे हैं,  भाषण दे रहे हैं और वादे कर रहे हैं. देश भर के बेरोजगार, आवारा, मरकने सांडों को इससे प्रेरणा मिली . वे सब राजनीति के बाड़े में घुसने लगे . परिणाम यह हुआ कि इन्सान और इंसाननुमा लोगों ने बाड़े से बाहर हो कर अपनी इज्जत बचाई . मिडिया ने पूछा तो कहा कि राजनीति गन्दी हो गयी है और अब हर किसी के बस की बात नहीं है . सांड साहबों ने प्रेस को बताया कि राजनीति में पढेलिखे और शरीफ लोगों का अब कोई काम नहीं है . ऐसे लोगों को घर बैठा कर पेंशन दी जाएगी और वक्त जरुरत उनसे मार्गदर्शन भी लिया जा सकता है . पार्टी की ओर से उनके जन्मदिन पर एक छोटा सा केक भी भेंट किया जायेगा जिसकी फोटो समाचार पत्रों और टीवी पर दिखाई जाएगी . इस तरह इनके योगदान को याद रखा जायेगा .

                                 चुनाव के दौरान प्रचार के लिए तमाम सांड शहर शहर घूमने लगे . उनकी हुंकार से ध्वनि प्रदूषण हुआ तो चौपाये सांडों को बुरा लगा . गुस्सा आया तो कुछेक ने उनकी सभाओं में दौड़ लगा दी . भाईचारे को भुला कर इधर वालों ने डंडे फटकारे तो चौपायों ने सींग घुमा दिए . कुछ लोग मर भी गए . मजबूरियों का मौसम था . जो गाय को आगे करके वोट मांग रहे थे वो सांडों का विरोध  नहीं कर सकते थे . जल्द ही सन्देश फैला कि दुनिया के सांडों एक हो जाओ . लोकतंत्र के इस खेल में सांडों का मुकाबला सांड कर रहे हैं . सांड सांड की लड़ाई में बागड़ जनता को कहना पड़ रहा है –‘पीटो न सिर अपना, न आंसू निकालो ; जब दो पाए हों मुकाबिल तो चौपाये निकालो’ .

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