बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

कार्पोरेट्स के गोडाउन में विकास के भैंसे


 

यहाँ विकास का मतलब डिक्शनरी में दिए गए अर्थ से नहीं है . राजनीति में विकास यमराज के भैंसे की तरह है, जो अपनी पीठ पर किसी को लादे लोकतंत्र की जमीन पर घूमता रहता है . चुनाव के दौरान हर पार्टी अपना एक भैंसा ले कर उस पर सवार रहती है . लेकिन ‘तेरे भैंसे से मेरा भैंसा काला’ सिद्ध करने की शुरुवाती कोशिश अंत तक नहीं पहुँच पाती है . सारे भैंसें खूंटे से बांध कर पार्टियाँ जातिवाद, परिवारवाद, और चिथड़ा-चरित्र के पकौड़े तलने लगती हैं . परोसते हुए, देश का मतदाता समझदार है, मतदाता जागरुक है, मतदाता सब जानता है, मतदाता ही देश का मालिक है जैसे पचासों झूठ के चटपटे जीरावन के साथ अपनी दुकान जमा लेती हैं . उधर मौका मिलते ही विकास के सारे भैंसे कारपोरेट्स अपने गोडाउन में बांध लेते हैं . लोकतंत्र एक सीढी  और चढ़ जाता है .

इधर देश के मालिक यानी जनता जो है लोकतंत्र को लेकर विकसित नजरिया रखने लगी है . बाप दादे नेता का चरित्र और काम देखते थे क्योंकि उस समय होता भी था . उनकी नजर इस पर भी होती थी कि आदमी के बोल बचन कैसे हैं . उसने देश की आजादी के लिए क्या किया है, समाज के किसी काम आया है या नहीं, लोगों के लिए कुछ किया है या नहीं ! लेकिन अब समय बदला है . सोच में भी काफी विकास हो गया है . लोग छोटी छोटी बातों से ऊपर उठ गए हैं . डाकू डाके डाले, हत्याएं करे तो उसका ये काम कानून के खिलाफ हो सकता है . वह अगर गाँव में लड़कियों की शादी करवा दे, गरीब को खाने पहनने के लिए दे दे तो जनता के लिए वह डाकू नहीं भगवान हो जाता है . कानून को अपना काम करना है तो करता रहे, डाकूजी अपना काम करते हैं और गाँव वाले अपना . इसमें किसी को क्या दिक्कत हो सकती है ! देश तभी तरक्की करता है जब सब अपना अपना काम करते रहें . कानून के हाथ कितने लम्बे या छोटे होते हैं ये देखना जनता की जिम्मेदारी में नहीं आता है . गरीब पुराने ज़माने के डाकुओं के लिए भी उतने ही उपयोगी और सुविधाजनक होते थे जितने कि नए ज़माने वालों के लिए होते हैं . लोकतंत्र विशेषज्ञों को भी यह बात समझ में आ गयी है इसलिए गरीबी हटाने के नारे सब देते हैं हटाता कोई नहीं . नेतृत्व करने वाला कितना भी मूर्ख क्यों न हो  जिस डाल पर बैठता है उसी डाल को कभी काटना नहीं चाहेगा .

मिडिया मेन ने अपना माइक धन्ना के मुँह आगे किया तो उसे लगा कि इसमें से विकास निकलेगा . लेकिन सवाल अलग जगह से आया कि “इस बार आप किसको वोट देने वाले हैं ?”

धन्ना को कुछ सूझा नहीं कि क्या बोले . सो दूसरा सवाल आया –“ अच्छा, पिछली बार किसको दिया था ?”

“पिछली बार बोतल को दिया था .”

“अबकी बार भी बोतल को दोगे ?”

“थोड़ा सोचना पड़ेगा, धरवाली कह रही है गैस सिलेंडर को दें, छोरी स्कूटी को देना चाहती है और छोरा लेपटोप को .”

“पार्टी कौन सी पसंद है आपको ?”

“कोई सी भी नहीं . मतलब सभी पसंद हैं . सब एक जैसी हैं जी .”

“रैली में जाते हो ?”

“जाते हैं जी, पांच सौ रूपया और एक टैम का खाना मिलना चाइए .”

“नेता जो भाषण देता है वो नहीं सुनते क्या ?”

“जैसा फालतू भाषण नेता देता है, हम भी वैसा फालतू सुनते हैं .”

“नेता इसलिए भाषण देता है कि आप लोग वोट दें और वह देश की सेवा कर सके.”

“फोकटे भाषण सुन के कौन वोट देता है साहब !?  भाषण में ही दम होता तो फिरी का अनाज, तेल, गैस, पेट्रोल, दारू, नगदी, लेपटॉप, स्कूटी वगैरह की क्या जरुरत थी ?”

“आप लोग लेते हैं इसलिए उनको देना पड़ता है . अगर बुरा है, भ्रष्टाचार है तो आप लेना बंद कर दीजिये . सब ठीक हो जायेगा .”

“वो भी कहीं न कहीं से तो लेते हैं .  जो लेते हैं वही देते हैं . हमारे नहीं लेने से वो लेना बंद कर देंगे क्या !?”

“आप तो इसलिए मना करो कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा .”

“आप पहले ये तो पता करो कि मजबूत लोकतंत्र उन्हें पसंद आयेगा क्या !?”

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