बुधवार, 5 जून 2013

साहित्यिक खाप की एक शाम


        तय समय से पहले ही साहित्यिक-खाप के सारे पंच बार में पहुँच गए। संकेत मिलते ही बैरे ने 'चिंतन-पेय' परोसा और पंचों में एकता और संगठन की एक भावुक लहर-सी दौड़ गई। सबने एक-दूसरे से शीशे के भरे पात्र टकराकर 'विचार' कहा और पहला घूँट भरा।

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तो बताएँ... मुद्दे क्या हैं?' पापड़ तोड़ते हुए वरिष्ठ सरपंच ने पूछा।

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पहला तो यही कि कविता का 'भीम-पुरस्कार' इस बार चंद्रप्रकाश 'चंद्र' को देने की घोषणा हुई है जिसका हमें विरोध करना है।' पूर्वी खाप के पंच ने बताया।

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बिलकुल... विरोध तो करना ही है। चंद्रप्रकाश 'चंद्र' हमारे गोत्र का नहीं है। ...और साहित्यिक पुरस्कार हमेशा सगोत्रों को ही दिया जाता है। ...यही परंपरा है...। और परंपराओं से ही खाप का अस्तित्व है। हमें हर हाल में खाप की रक्षा करना है', बुजुर्ग पंच ने समर्थन किया। 

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भीम-पुरस्कार की निर्णायक समिति में कौन लोग थे? उन्होंने गोत्र का ध्यान क्यों नहीं रखा?' युवा पंच ने अनुभवहीनता के कारण प्रश्न किया। 

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भीम पुरस्कार सरकारी है। वहाँ हमारे गोत्र के निर्णायक हमेशा नहीं होते हैं। सरकार अपने संविधान के हिसाब से चलती है।'
दूसरा लेखक पीते-खाते उसे आकार देता है और एक मुकाम पर पहुँचा देता है। यह सामग्री किसी तीसरे के पास जाती है, किन्हीं कारणों के चलते वह उसका संस्कार-परिष्कार कर उसे एक कृति में बदल देता है। साधकजी इसे अपनी रचना-प्रक्रिया कहते हैं, जो महँगी जरूर है पर बराबर फायदा करती है। बहरहाल, जब सारे लोग उनकी ओर देखने लगे तो उन्हें अपना मुँह खोलना पड़ा, 'देखिए, हमारी 'खाप-स्मृति' एक बड़ी पुस्तिका है। यदि अभी उसकी चर्चा लेकर बैठ गए तो चंद्रप्रकाश 'चंद्र' का मुद्दा रह जाएगा।'संविधान के हिसाब से नहीं, चाटुकारों के हिसाब से चलती है। ...हमें सरकार पर पूरी ताकत से दबाव बनाना पड़ेगा। ...खाप के होते कोई भी पुरस्कार गोत्र के बाहर नहीं जाना चाहिए।' चिंतन पेय के सुरुर में आते ही सरपंचजी की आवाज में वजन पड़ने लगा। अब तक चुप बैठे बड़े मानसिंह ने बहुत सोचते हुए अपनी राय व्यक्त की, 'भई... म्हारी राय तो या हे कि सरकार को मनाना कोई आस्साण काम नीं है। खाप की इज्जत बचाणे के वास्ते अगर हम चंदर परकाश को गोत्र में शामिल कर लें तो? ...साँप भी मर जावेगा और लाट्ठी भी ना टूट्टेगी।

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देखिए... ये साहित्यिक-खाप है... और ये स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हम यहाँ कोई समझौते या अच्छे काम के लिए जमा नहीं हुए हैं। ...जैसी कि हमारी आदर्श परंपरा रही है, हमें इस विवाद को ऊँचा उठाकर सही दिशा में आगे बढ़ाना है। ...

जहाँ तक चंद्रप्रकाश 'चंद्र' का सवाल है, उसे गोत्र में कैसे लिया जा सकता है! वो कवि नहीं तुक्कड़ है। उसकी कविताएँ ऐरे-गैरे तक समझ लेते हैं! उसकी रचनाओं में हमारी विचारधारा नहीं होती है। ऐसे में उसे सगोत्र बनाने पर विचार नहीं किया जा सकता है।

एक सन्नाटा-सा छा जाता है और वातावरण में केवल पापड़ टूटने की आवाजें रह जाती हैं। अधिकांश को याद नहीं आ रहा है कि खाप की विचारधारा क्या है। सुना है शुरुआत में विचारधारा को लेकर बड़ी उटापटक हुई थी। एक पुस्तिका बनी थी 'खाप-स्मृति' नाम की जिसे बाकायदा पढ़वाया जाता था और सहमत होने पर ही किसी को सदस्यता दी जाती थी। बाद में चलन बदला, पुराने सदस्यों की अनुशंसा पर नए सदस्य बनाए जाने लगे ताकि जरूरत पड़ने पर उनके वोट मिल सकें। धीरे-धीरे सदस्यता का यही तरीका रह गया और ' खाप-स्मृति' कहाँ पड़ी सड़ गई, किसी को पता नहीं।

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वैसे एक बार हम लोगों को विचारधारा के बारे में ठीक से बता-समझा दिया जाता तो बेहतर होता', तरल-गरलजी ने कहा। 

एकसाथ कई आवाजें समर्थन में आईं और सबने विचारधारा के मुद्दे पर प्रकाश डालने के लिए खाप-रत्न सुखानंद 'साधकजी' से आग्रह किया। साधकजी महान साहित्यकार हैं। उन्होंने बहुत कम लिखा है किंतु पुरस्कार अधिक प्राप्त किए हैं, इसलिए लोग उन्हें कलाकार की श्रेणी में भी रखते हैं। 

उनका मानना है कि लेखक को कलम की साधना में ज्यादा समय बरबाद करने की अपेक्षा गोत्र और परंपरा के प्रति समर्पित होना चाहिए। लेखन तो निमित्त मात्र होता है, जो पैसा खर्च कर दूसरों से भी करवाया जा सकता है। लेकिन पुरस्कार घर की दीवार पर लटकने वाला सिंह-शीश होता है, जो लेखक को बड़ा शिकारी होने का-सा गौरव और आनंद प्रदान करता है। अगली पीढ़ी भले ही लिखे को लेखक के साथ फूँक दे, पर पुरस्कार समेटकर ले जाएगी। पुरस्कार इतिहास बनाते हैं और लेखन से चिता तैयार होती है। इसलिए साधकजी केवल सेंट्रल आइडिया यानी केंद्रीय विचार देते हैं। 

ठीक है... पहले इसी मुद्दे को ले लें, खाप-स्मृति सब लोग कहीं ढूँढ-ढाँढकर पढ़ लेंगे।

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मेरा ख्याल है कि चंद्रप्रकाश 'चंद्र' के मामले में हम गोत्र और परंपरा के आधार पर विरोध नहीं कर सकते हैं। हमें कोई दूसरा रास्ता निकालना होगा', बुजुर्ग पंच बोले।

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दूसरा रास्ता क्या हो सकता है?' 

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हमें यह बोलना होगा कि चंद्रप्रकाश की रचनाएँ घटिया, अश्लील और पुरस्कार के योग्य नहीं हैं। यही एकमात्र रास्ता है।

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ठीक है... किसी ने पढ़ा है चंद्रप्रकाश को?' 

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एक-दो कविताएँ पढ़ी हैं यहाँ-वहाँ।

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मैं तो नाम देखकर ही हटा देता हूँ सामने से। ...जो गोत्र का नहीं उस पर समय नष्ट करने में क्या लाभ?' 

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मेरा ख्याल है कि निर्णायकों ने भी नहीं पढ़ा होगा।

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बिलकुल अनुभवहीन हो... निर्णय करने के लिए निर्णय की जरूरत होती है... पढ़ने की नहीं।

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तो क्या हमें पढ़ना पड़ेगा?' 

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अब कहाँ पढ़ेंगे... चलिए, हम एकता और संगठन के बल पर विरोध करेंगे।' इसके साथ ही बैरे को भोजन लगाने का संकेत हुआ और टेबल पर वे मुर्ग अपने सब कुछ के साथ लाए गए जिसे सुबह तक बचाए रखने के लिए वे प्रार्थना कर रहे थे। 

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वाह... बढ़िया है... क्या नाम है इसका?' सरपंच ने पूछा।

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जी चिकन... चिकन...' बैरे ने जवाब दिया।

कुछ नाम नहीं है! जैसे चिकन जोश, चिकन मदहोश ...

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नहीं सर... ये तो अभी ऐसे ही चल रहा है ..। 

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ऐसे-कैसे? .... चलिए हम रखते हैं इसका नाम.... इसका नाम बताया करो 'चिकन चन्द्रप्रकाश 'चन्द्र'...। खाप ठठाकर हँस पड़ी..। किसी के हाथ में टाँग थी, किसी के मुँह में गर्दन। अचानक चिकन में एक नया स्वाद आने लगा था !


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‘एल.ओ.सी’ की चिंता में मैडम दुशाला दास


          
आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की अंतिम नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है । कट-रीनाओं से लेकर मल्ल-लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसीकहा जाता है । जैसे गरीबी की रेखा होती है लेकिन दिखाई नहीं देती वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है । एलओसी एक आभासी रेखा होती है सुधिजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं । मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है । 
            दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं और आसार अच्छे नहीं थे । लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं । उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी टूंगना उनकी बरदाश्त  के बाहर हो जाता है । पता नहीं फैशन करतीं हैं या जादू !! मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं । जी चहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से । लेकिन मजबूरी ये कि बस नहीं चलता किसी पर ।
पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा विस्तार दे दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा । डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘‘आपको किस बात का टेंशन है ?’’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला - ‘‘ हवा-पानी के असर से कभी कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं । किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो टीवी वाले हप्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश की पूरी एक सौ इक्कीस करोड़ जनसंख्या की दो सौ बयालीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं । हमारी सरकार किसी एलओसीकी रक्षा नहीं कर पा रही है !! क्या होगा देश का ?’’
पंद्रह दिनों के बेडरेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं ।
               हप्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए बरामद हुए । वहां भरभरा कर गिरने के लिए कुछ था ही नहीं । एलओसीमात्र एक रक्षा-चैकी में बदल गई थी । खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला ने दबिश डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली किन्तु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू उसमें देख क्या रहे थे और इससे उन्हें क्या मिल रहा था !!
           दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था उससे ज्यादा उत्सुक हो कर वे संभावनादेख रहे थे । संभावना हमेशा  बड़ी ही होती है । चैनल भी बार बार ब्रेक से अपना बैंक बैलेंस ठीक करते हुए टीआरपी को कैश कर रहा था और कमिंग-अपकी पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था । हर ब्रेक के बाद संभावनाबढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी । वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है ।
            दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में घंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी ?! संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई । टीवी के बहस और चिंताकार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो ?
         उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया - ‘‘ काश ...! .... हालांकि गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है , लेकिन अब तक गिरा तो नहीं । ’’
         ‘‘ लेकिन डर तो बना रहता है, ऐसा फैशन आखिर किस लिए !!? ’’ वे बोलीं ।
           ‘‘ जिसे आप डर कह रही है दरअसल वो संभावना है । फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है । दुशाला-दासहोने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है । और जिसमें संभावनानहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है । ’’
        दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया । आगे का समय वे ईश्वर की इच्छा पर निकालेंगी । एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं ।


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सोमवार, 3 जून 2013

चिंतन बड़ी एबली चीज होती है !!



बैठक कहो, अधिवेशन कहो, मंथन या शिविर बोलो बात कमोबेश एक ही है , चिंतन । चिंतन का ऐसा है सिरिमानजी कि इसको खुद ही करना पड़ता है । और करने का ऐसा है कि ये हर किसी के बस की बात नहीं है । राजनीति में यही ऐसा काम है जिसमें सबसे ज्यादा जोखिम है । नहीं करो तो खतरा और करो तो उससे भी बड़ा खतरा । अगर चिंतन करने वालों ने निष्कासित होने के बाद अपनी पार्टी बनाई होती तो कइयों ने बना ली होती । बनाना चाहे तो लोग बिना चिंतन के भी पार्टी बना लेते हैं । लेकिन सिरिमानजी चिंतन बड़ी एबली चीज होती है । एक बार किसीको चिंतन की लत पड़ जाए तो किसी ‘चिंतन-मुक्ति शिविर’ से भी लाभ नहीं होता । पार्टी की मजबूती के लिए कइयों को मना किया जाता है कि आप कृपया अपना दिमाग नहीं चलाएं, किन्तु वो अपना दिमाग दौड़ाए जाते हैं । परिणाम यह होता है कि पार्टी उन्हें दौड़ा दौड़ा कर .... अंत में खदेड़ देती है । नतीजे में बस ये चर्चा रह जाती है सिरिमानजी, कि चिंतन से बचो और पार्टी में बने रहो ।
घटना का सांप सफलता पूर्वक निकल जाए, तो रह गई लकीर को पीटना चिंतन करना कहलाता है । यह एक तरह का ‘सेफ-चिंतन’ होता है । कुछ लोग इसे राजनीतिक चिंतन भी कहते पाए जाते हैं । अभी आपको बताया कि चिंतन बड़ी एबली चीज होती है । करो चाहे नहीं करो परंतु लोगों को मालूम चलना चाहिये कि पार्टी चिंतनशुदा है । राजनीति में चिंतन मांग का सिंदूर होता है , और सिंदूर से न मेडिकल जांच होती है न चरित्र का प्रमाण-पत्र बनता है । लेकिन लोकतंत्र में चिंतन की साख होती है । कुछ परंपरावादी वोट साख के कारण भी मिलते देखे गए हैं ।
ग्रंथों-पुराणों से पता चलता है कि हमारी विभूतियां जंगलों में , गुफाओं में , कंदराओं में बैठ कर चिंतन किया करतीं थी । लेकिन जंगल में मोर नाचा किसने देखा ! आजकल मीडिया का जमाना है , उन्हें मैनेज करने की भारी कीमत चुकाना पड़ती है । चिंतन हुआ लेकिन चर्चा नहीं हुई तो फायदा ही क्या ! और फिर गलती से विकास बहुत हो गया है । जंगल कट गए हैं , विभूतियां भी पांच सितारा जीवन जीने लगी हैं । चिंतन के लिये गुंजाइश नहीं  के बराबर बची है । वो तो अच्छा है कि अनेक विभूतियों को कब्ज की षिकायत है और कमोड़ पर बैठे वे दिनभर का आवश्यक चिंतन इस दौरान कर लेते हैं वरना विचार की भूमि पूरी तरह से बंजर हो जाती । किन्तु ऐसा नहीं है कि प्रयास किये जाएं और किसी समस्या का हल न मिले । गुफाएं-कंदराएं न मिलें तो कई बार तंबू में चिंतन कर लेने का रिवाज हो गया है । तंबू-चिंतन में सुविधा ज्यादा होती है और समय भी कम लगता है । वैज्ञानिक शोधों ने बताया है कि चिंतन तंबुओ में सुरक्षित होता है । दरअसल तंबुओं के कान नहीं होते, दीवारों के होते हैं । राजनीति में गोपनियता बहुत जरुरी है ।
एक बात और है सिरिमानजी, आप देखिये कि देश इस समय आलोचना के संकट से भी गुजर रहा है । वैसे गुजरने को तो दाल, चावल, तेल, शकर, गेंहू, बिजली, गैस जैसी अनेक चीजों के संकट से भी गुजर रहा है । लेकिन चिंतन-शो  में लगाए रखो तो जनता धैर्य रखती है और संकट बेशरमी से अपने आप गुजर जाता है और अगर नहीं गुजरता तो जनता को उस संकट की आदत पड़ जाती है । पैंसठ सालों में देश को गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, आतंकवाद, दंगे, सड़क दुर्घटनाएं, अपराध, भ्रष्टाचार, जैसी अनेक बुराइयों की आदत पड़ गई है । देश के सामने अपने समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकट आए और गुजर गए और लौट के समझदार चिंतन शिविर में आए ।
चिंता चिंतन से बड़ी चीज होती है । देश की चिंता एक अलग मामला है उसके लिये बुद्धिजीवीनुमा काफी सारे लोग हैं जो प्रायः बिना कब्ज की शिकायत के भी चिंतन करते हैं । इसीलिये राजनीतिक दल बुद्धिजीवियों से, कुछ श्री-सम्मान वगैरह दे-दिलाकर, सुरक्षात्मक और आवश्यक दूरी बनाए रखते हैं । चिंतन बड़ी एबली चीज होती है सिरिमानजी, देश को लगना चाहिये कि चिंतन देश के लिये किया जा रहा है , फिर चाहे कमोड-साधना के लिए किया गया चिंतन ही क्यों न हो । शिविरों में सामूहिक चिंतन होता है ।
सर्कस या मेले में आपने मौत का कुंआ देखा होगा , उसमें आदमी मोटर सायकल चलाता है । सिरिमानजी हमने पूछा उससे कि आप इतनी तेज मोटर सायकल कैसे चला लेते हैं !! तो वह बोला कि मौत के कुंए में ट्रेफिक-सिगनल नहीं होता है , और आप चाहे जितना भी तेज चलिये कुंए से बाहर नहीं निकलते है , देखने वालों के रोंगटे भले ही खड़े हो जाएं । शिविरों का भी यही महत्व है सिरिमानजी, रोंगटे खड़े करना । चिंतनिये इतनी जोर का चिंतन करें कि जनता के रोंगटे खड़े हो जाएं तो चिंतन सफल हुआ समझो । चिंतन के कुंए में मोटरसायकल दौड़ाई तिरिभिन्नाट और रहे वहीं के वहीं । इधर शिविर में चिंतन भी हुआ तिरिभिन्नाट और रहे वहीं के वहीं ।  इसीलिये तो कहा है सिरिमानजी कि चिंतन बड़ी एबली चीज होती है ।
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असली विकास पीछे लौटने में है !

 
           
  तय हुआ कि शहर को आधुनिक बनाया जाए और लोगों को दकियानूसी । पूरी ताकत से प्रयास किये जाएं तो दोनों लक्ष्य एक साथ हांसिल  किये जा सकते हैं । इसीलिये राजनीति को विज्ञान मानने के बावजूद कला भी कहा जाता हैं ।  राजनीति में आजकल बहुत कुछ करना पड़ता है , यहां तक कि विकास भी । विकास में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें आगे की ओर देखना और बढ़ना पड़ता है जबकि राजनीति का असली मजा पीछे जाने में है । जो आगे जाने की लत पाले हुए हैं उन्हें नहीं पता कि पीछे शानदार परंपराएं है , रामराज्य है । राम की राजनीति राज्य की यानी सत्ता की राजनीति है । असली विकास पीछे लौटने में है , क्योंकि  पीछे स्वर्ग है और आगे नरक । लेकिन कुछ हैं जो न खुद समझते हैं और न ही किसी और को समझने देते हैं । वैसे ऐसों की परवाह भी किसे है । लेकिन लोकतंत्र में सबसे बड़ी बुराई यह है कि हर पांच साल में चुनाव होते हैं । जनता में  किसीने एक बार विकास का भूत चढ़ा दिया तो आसानी से उतरता नहीं । इधर टीवी-सिनेमा ने लोगों के दिमाग खराब कर रखे हैं । जो देखते हैं वही करना चाहते हैं । समाज में अपराध और विकास की भावना इसीलिये बढ़ रही है । हम तो दोनों के खिलाफ हैं लेकिन मजबूरी है , कार्यकर्ताओं का ख्याल तो रखना ही पड़ता है । जनता अगर यज्ञ-हवन और धर्म-धन्धे से सध जाए तो जरूरत ही क्या है मगजमारी करने की ! अरे भई ‘‘ जाही बिधि राखै राम, ताही बिधि रहिये ...’’ ।


               लेकिन ओखली में सिर दिया तो मूसलबाजों से क्या डरना । निन्दाजीवी शहर की एक नदी के नाम पर रो रहे हैं !! एक नदी थी , नौ लाख पेड़ थे , हरियाली इतनी कि स्वर्ग का भ्रम हो , शुद्ध हवा , दिन में परिन्दे रात में जुगनू , शान्ति-सौहार्द ....... ! क्या नहीं था ?  लेकिन देखिये , जहां इतना सब हो वहां विकास करना मामूली बात नहीं है । पेड़ कटवाने में ही तीन साल लग गए, फिर भी काम अभी पूरा नहीं हुआ । रहा नदी का सवाल तो भाइयों समय बदल रहा है और जरूरत भी । षहर को नदी से ज्यादा ड्रेनेज  की आवश्यकता है । वैसे हमने कुछ नहीं किया । छोटे से शहर में तीस लाख की विशाल जनसंख्या हर सुबह जो बहाती है उसे देख कर नदी बेचारी के प्राण अपने आप सूख गए । लेकिन जो होता है अच्छा ही होता है । सिधार चुकी नदी अपने पीछे तैरने-डूबने की बहुत सारी यादें और बहुमूल्य जमीन छोड़ गई है । यादें बूढों के साथ चलीं जाएंगी और जमीन का उपयोग , यानी व्यावसायिक सदुपयोग हम कर लेंगे  । जल्द ही हम सबको बता देंगे कि नदी के होने से जमीन का होना ज्यादा कीमती है । आधुनिक और विकसित समाज में कीमत सब कुछ है । सभ्य समाज कीमत मिलने पर सभ्यता छोड़ने के लिए तत्पर रहता है ।
हमने देखा है कि सरकारी स्कूलों के पास बहुत जमीनें थीं । उस पर बच्चे फुटबाल-हांकी  जैसे खेल खेला करते थे और प्रायः जख्मी होते थे । पढ़ाई का कीमती समय खेलों में बरबाद हुआ करता था । लेकिन दूरदृष्टि और पक्के इरादे से क्या नहीं हो सकता है । सरकारी स्कूल हमारी शहीद नदी की तरह धीरे धीरे सूखते चले गए और हमारे लिये कीमती जमीनो का उपहार देते गए । बदले में हमने प्रायवेट स्कूल गली गली में खुलवा दिये । दो-तीन कमरों वाले इन स्कूलों में देश  का भविष्य ‘‘ जानी जानी  यस पापा .... ’’ गा रहा है !! खेल का मैदान, पुस्तकालय , शौचालय , खिड़की और प्रकाश  युक्त कमरे हम केवल कागज और कंप्यूटर पर ही देखते हैं । इससे उनका काम भी चलता है  और हमारा भी ।

यही हाल सड़कों को लेकर है , जिसके मन में जो आता है बक देता है । लेकिन देखिये क्या थीं और क्या हो गई सड़कें । पहले कार देखने को नहीं मिलती थी अब शहर कारों से अंटा पड़ रहा है , लोग मजबूरी में कारें दनादन खरीद रहे हैं । बीस साल पहले आदमी कर्ज लेने के लिये बैंकों में हाथ बांधे खड़ा, घिघियाता रहता था । अब बैंक वाले किसी भी रास्ता चलते आदमी के आगे हाथ बांधे घिघियाते रहते हैं कि कर्ज ले लो मांई-बाप !! लोग दुत्तकार के कहते हैं कि नहीं चाहिये पर वे पुचकार कर टिका ही देते हैं । ऐसे में कविता और व्यंग्य-घिस्सू जैसे ऐरे-गैरे भी कार नहीं लें तो क्या करें ? जो भी हो , कार वाले भाइयों के लिये सड़कें चैड़ी होना तो होना ।  यही क्यों , बारातें , रैली , जुलूस , पुतला दहन , प्रदर्शन  वगैरह भी जरूरी हैं । लोकतंत्र में किसी को कह कर देखिये कि भाई बारात मत निकालो , ट्रेफिक  पर रहम करो । आपको तुरंत ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जायका चख कर अस्पताल प्रस्थान करना पड़ सकता है । जाओगे क्या ?  नहीं ना ? तो फिर आप भी विकास के लिए जरा पीछे चलिए । असली विकास पीछे लौटने में है भियाजी ।

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