नया साल आ रहा है तो इसमें कोई नई बात तो है नहीं, हर साल
आता है. लेकिन इधर फलसफा ये कि ‘सामान
सौ बरस का और खबर पल भर की नहीं‘. एक समय ऐसा आता है जब जीवन
पर से विश्वास कम होने लगता है. रोज सुबह उठ के आइना देखते हैं कि ‘हाँ, वाकई हैं अभी’. बशीर बद्र ने कहा है कि ‘उजाले अपनी यादों के साथ रहने दो,
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये’. और इधर सुबह से
सातवाँ फोन इस सवाल के साथ आया कि “कैसे मना रहे हो ?”
हम लोग मनाने के मामले में दुनिया से चार कदम आगे ही होते
हैं. जीत मनाना हो या कि उत्सव, हर समय बेगानी शादी में अब्दुल्ले दीवाने. मौका अपना
हो या पराया मिलने भर की देर है बस. यों समझिए कि ताक में ही बैठे होते हैं. जिनके
जीवन में कुछ भी नया नहीं आता, नया साल उनके लिए भी आता ही है. कोई इस बात को ले कर
घिस घिस करे कि नये साल में भला नया क्या है ? तो करता रहे, उसकी समस्या है. लेकिन
उनकी बात में कुछ दम तो है, नए साल में पुराना भी कायम रहे तो गनीमत है, किसी से
भी पूछ लो यही कहेगा कि पन्द्रह साल पहले जिंदगी अच्छी थी. इस हिसाब से तो नया
दुश्वारियां ले कर आता है तो उसका स्वागत क्यों !?
फोन आ रहे हैं तो मित्रों को बताना ही पड़ेगा कि “कैसे मना रहे हो ?“.
पुराना कोई लेखक
लिखता तो उसकी पंक्तियां होतीं कि ‘भारत एक मनाऊ देश है, यहाँ लोग मनाने के लिए
पैदा होते हैं. आदमी खाने से रह जाये मनाने से नहीं रह सकता है. जिन्हें मनाने का
कारण नहीं पता होता है वो दूसरों को देख कर मनाने लगते हैं. जिन्हें कारण पता होता
है लेकिन नहीं मनाना चाहते हैं, वे भी डर के मारे मनाने लगते हैं. जो सहमत होते हैं
वे ‘सहमति’ के साथ मनाते हैं और जो असहमत होते हैं
वे अपनी ‘असहमति’ के साथ मना
लेते हैं.’ लेकिन मैं इतना पुराना नहीं हूँ, देखता हूँ कि
यहाँ जो भी कुछ होता है व्यापक पैमाने में होता है. अब नया साल सामने है तो पैमाना
छोटा कैसे हो सकता है. सरकार कहे , या वे ही क्यों न कहें जिनके हाथ में सरकार का
रिमोट कंट्रोल है कि हमारा नया साल ये नहीं है, फिर भी नया साल पूरा देश मनाएगा. मनाने
वालों को मनाने का बहाना चाहिए. आपने गौर नहीं किया होगा कि नया साल सेक्युलर है,
हिंदू ,मुसलमान, गोरे-काले सबके लिए आता है. आमिर हों या गरीब, दोनों एक तरह से
मनाते हैं, बोतल-ब्रांड का फर्क हो सकता है तो होता रहे.
फोन फिर आया, -“ हेलो, क्या यार अभी तक आपने बताया नहीं कि नए साल का क्या प्रोग्राम है ?”
“ पूरे साल का प्रोग्राम कैसे बता सकता हूँ
जबकि मैं तो पूरे दिन का प्रोग्राम भी नहीं बनाता. “ मैंने
जानबूझ कर घुमाऊ सा जवाब दिया.
“फिर भी, कुछ तो करोगे ? क्या सोचा है ?”
“सोचा तो कुछ भी नहीं, आप बताओ ?”
“पार्टी करेंगे और क्या ! कहो तो तुम्हारे
यहाँ आ जाएँ ?”
“ सोच कर बताता हूँ .”
कह कर फोन रखा. सोचने लगो तो कुछ भी विचार आ सकते हैं. अचानक मुझे मुर्गों का
ध्यान हो आया जो नए साल में अपनी पुरानी काया छोड़ कर नया शारीर धारण करने के लिए
प्रस्थान करेंगे. पता नहीं वे जानते हैं या नहीं नए साल के मायने. जिन्दा मुर्गे
मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. क्या तो उनकी किस्मत होती है, तमाम मुर्गियों के बीच
अकेला मायकल जेक्सन सा अश्लील हरकतें करता कि देखने वाला रश्क कर जाये. नए साल में
कितनी मुर्गियां विधवा होती होंगी पता नहीं. अभी कुछ दिन पहले तक शाहरुख नाम का एक
सुंदर बकरा गली में बच्चों के साथ खेला करता था. पता नहीं अब कहाँ होगा. किसी
सेलिब्रिटी के यहाँ पैदा हुआ होगा तो सीधे ब्रेकिंग न्यूज और हेड लाइन्स में
जिन्दा हुआ होगा. गीता में कहा गया है कि आत्मा पुराने वस्त्र को छोड़ कर नए वस्त्र
धारण करती है . क्या इन प्राणियों को आभारी होना चाहिए हमारा-तुम्हारा, नए साल के
जश्न का. विडंबना ये है कि गीता वे नहीं जानते. गीता मारने वालों को प्रेरित करती
है और जिन्हें मरना है उनके पक्ष में भगवान नहीं बोले. खैर ..... मुझे क्या ! मैं
अक्सर गूढ़ प्रसंगों से मुंह छुपा लेता हूँ. समझदारों के बीच बैठो-उठो तो
व्यावहारिकता के सारे गुण आ जाते हैं. और फिर मैं कौन सा यमदूत हूँ जो मरने-जीने
का हिसाब किताब रखता फिरूं. संसार एक सराय है, जिसे आना है आएगा, जिसे जाना है
जायेगा. कुछ फर्क नहीं पड़ता कि साल नया है या कि दिन नया. जब आखिरत होती है तो कुछ
भी ठीक नहीं होता. बच्चन कह गए हैं,--“इस पर प्रिये मधु है,
तुम हो, ... उस पार न जाने क्या होगा.”
पत्नी से पूछता हूँ. वो क्या है कि जब कुछ ठीक सूझ नहीं रहा
हो तो समझदार लोग अक्सर पत्नी से पूछ लिया करते हैं. इसका लाभ यह होता है कि
निर्णय गलत हुआ तो जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है. दूसरा ये कि निर्णय को मूर्त रूप
देने की जिम्मेदारी से भी वे बच सकते हैं. तीसरा वे सभ्य समाज में नारी को बराबर
का महत्व और सम्मान देने वाले प्रगतिशील पुरुष की हैसियत पा जाते हैं. और चौथा
..... अब छोडिये, इतने तो लाभ हैं और आप नहीं जानते ऐसा भी तो नहीं हैं. हाँ तो
पत्नी से पूछा कि भई, नए साल में इस बार क्या करने वाली हो ?
कुछ देर बाद वे बोलीं –“ इस बार सत्यनारायण की कथा करवा लें तो कैसा रहे ?”
फोन फिर बजा –“ हाँ तो क्या सोचा बे ?”
“सत्यनारायण की कथा करवाने की सोच रहे हैं.”
“ अबे तू आदमी है कि पजामा ....” उधर से फोन पटकने की आवाज आई .
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