गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दाम सरकारी, गोदाम सरकारी

‘‘ अरे ! तुम्हारा नाम भी नारायन !! पूरे गांव ने एक ही नाम रख लिया है क्या !? कोई रामनारायन, कोई सतनारायन, कोई हरनारायन ! तुम लोग आदमी हो या आरटीओ के नंबर ! सही बताओ तुम्हारा नाम क्या है ?’’ कोआपरेटिव सोसायटी में गेहूं खरीदी के तमाम रजिस्टरों के बीच सजे साहब बोले।
‘‘ जपनारायन लिख लो साहेब।’’
‘‘ जपनारयन , .... और ये क्या !! चालीस बोरी गेहूं लाए हो !? दद्दा ये कोआपरेटिव सोसायटी है बनिए की दुकान नहीं कि इत्ता-उत्ता जित्ता भी हो बटोर लाए। ’’
‘‘ जित्ता था सब लाया हूं मालिक। बढ़िया किसम का गेहूं है। एक बार देख लेते ....’’
‘‘ देखेंगे क्यों नहीं ! देखना तो पडै़गा ही। ऐसेई थोड़ी लै लेगी सरकार। बड़ी सख्त ड्यूटी है महाराज। सरकार मेहनत और ईमानदारी से काम करने का पैसा देती है, कोई मजाक नहीं है! इत्ती गरमी में यहां बैठे हम पसीना हेड़ रए हें तो किसके लिए ? सरकार की सेवा के लिए ..... और गेहूं क्यों नहीं लाए ? ’’
‘‘ इत्तई पैदा हुआ साहेब। सारा लै आए हैं। जमीन कम है। हम छोटे किसान हैं। ’’
‘‘ अरे महाराज ! कित्ते जनम तक छोटे किसान बने पैदा होते रहोगे ! कुछ पुन्न-उन्न किए होते तो तुम बड़े किसान के घर में पैदा होते और औलादें भी बड़े किसान की कहातीं। सारी गलती तुम्हारी है। हम पाण्डे हैं, ....... सब्जी-भाजी पैदा करते हो ? आलू-कांदा कुछ ?’’
‘‘ आप गेहूं देख लेते ..... एक एक दाना चमकदार है। ’’ किसान ने ना में सिर हिलाते हुए गुजारिश  की ।
‘‘ चमकदार होने से क्या होता है !? पीसने से आटा ही बनेगा, बिजली तो बनेगी नहीं ! एं ?  ………  भैंस पाली होगी ? घी-वी होता है ?’’
‘‘ पांच पानी का गेहूं है साहेब, देख तो लेते ।’’ किसान ने फिर सिर हिलाते हुए कहा।
‘‘ तो सेम्पल लाओ ना .... अब मैं जाऊँगा क्या तुम्हारे ट्रेक्टर  के पास, ..... सरकारी आदमी उपर से पाण्डे ?’’
किसान सेम्पल ले कर हाजिर होता है, साहब बोले-‘‘हूं ....गेहूं तो अच्छा है! पहले बताना था ना।’’
‘‘ कह तो रहे थे कि देख लेते एक बार।’’
‘‘ ठीक है दद्दा, ऐसे तो सब कहते रहते हैं। .... चालीस बोरे हैं ना ?’’
‘‘ हां पूरे चालीस हैं। ’’
‘‘ देखो एक आदमी साथ कर देते हैं। दस बोरी मेरे यहां पटका दो, दस-दस हमारे बड़े साहबों के यहां और दस बैंक वाले साहब के यहां ।’’
‘‘ पैसे कौन देगा !?’’ किसान चिंतित हो गया।
‘‘ पैसा !! ....... तुमको सरकार पर भरोसा नहीं है तो आए क्यों यहां ?’’
‘‘ हम तो इसलिए बोले साहब कि अनाज तो सरकारी गोदाम में जाता है !’’
‘‘ तो हम क्या सरकारी आदमी नहीं हैं !? ....... सरकार के गोदाम कोई एक जगह होते हैं !……  अब यहां तुम्हारे लिए एक लिस्ट टंगवाए क्या, कि ये-ये बंगले सरकारी गोदाम हैं। .... सुबह-शाम कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हो क्या ?’’ साहब ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ गलती हो गई साहब ..... हम समझे सरकारी गोदाम एक ही होता है। ..... तो पैसा आप लोग ही देंगे ना दस-दस बोरी का ?’’ किसान की शंका अभी भी बनी हुई थी।
‘‘ अरे यार !! …… कहां से आ गए तुम !! ……  महाराज सरकारी गोदाम अलग अलग होते हैं पर सरकारी जेब एक ही होती है। पैसा यहीं से मिलेगा तुमको । ’’
‘‘ ठीक है साहेब, हमें क्या करना है, .... पैसा चाहिए बस ।’’
‘‘ साइन करोगे या अंगूठा लगाओगे ?’’
‘‘ दसखत करेंगे साहब, पुराने जमाने की चोथी पास हैं।’’ किसान थोड़ा तन कर बोला।
‘‘ चैथी पास !! अरे वाह .... चलो ठीक है, दस्तखत करो यहां .... यहां ...’’
‘‘ ये क्या साहब !! आपने तो 400 बोरी लिख दिया ! हम तो 40  ही लाए हैं !’’
‘‘ 400  लिखा है तो क्या 400  का पैसा लोगे !! बड़े भ्रष्ट हो तुम तो ! भगवान से तो डरो जरा !’’
‘‘ राम राम, हम कहां चार सौ का पैसा मांग रहे हैं!! …।   इतनी अंधेर कहीं मची है ! भगवान सब देख रहा है। ’’
‘‘ तो भगवान को देखने दो ना। तुम इधर उधर क्यों देख रहे हो। तुमको ईमानदारी से चालीस बोरी के पैसे मिलेंगे। इसमें कोई दिक्कत है क्या ?’’
‘‘ चालीस के मिल जाएं यही बहुत है, समझो गंगा नहा लिए साहब। ’’
‘‘ तो फिर आंख मींच के साइन करो फटाफट और गंगा नहाओ।’’
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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

प्रेम के विरोधी, बच्चों के आग्रही !!

                     ऐसा है बाउजी कि अब अपनी गांठ में कुछ है नहीं किसीको देनेे के लिए, देख ही रहे हो कि हिन्दी का लेखक दो कौड़ी का नहीं रहा इस ‘बे-चना’ जोर-बाजार में, जिम्मेदारियों के मैदान में दम टूटा सो उसकी क्या कहें, ऐसे में बाबा बन जाना अपुन का भी अधिकार है। जन्मसिद्ध है या नहीं इस पर सरकार के दो मत हो सकते हैं लेकिन अधिकार तो है। असफल और निराश  लोग गुफाओं कंदराओं में घुस कर एक नई संभावना को जन्म देते रहे हैं। जानकार बताते हैं कि वस्त्र त्यागने की अपनी पुरानी फिलाॅसफी है। आपत्तियों के बावजूद नंगों के नौ ग्रह आज भी वैधानिक रूप से बलवान होते हैं। अगर एक मौका नाचीज को भी मिले तो किसीको भला क्या दिक्कत हो सकती है। लोकतंत्र में सबको दांवमारने का मौका है। अच्छी बात यह है कि सब ये बात जानते हैं और इसी का नाम राष्ट्रिय चेतना है। 
                    बड़े बड़े नहानों से पता चलता है कि प्रतिस्पर्धा बहुत है और बाबालैण्ड चोर, उचक्कों, यहां तक कि हत्यारों से भी भर गया है, फिर भी आलसियों, मक्कारों के लिए कुछ जगह तो निकलती ही रही है। जबसे राजनीति में नाकाराओं के लिए स्थान और मौके बने हैं बाबाओं ने भी झंन्नाट अंगड़ाइयां लेना शुरू कर दिया है। अपने यहां बारह साल में कूड़े-कचरे के दिन भी फिरने का रिवाज है तो बाबाहोन को कब तक नजरअंदाज किया जा सकता था। सपना तो ये हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसद में कामरेडों को छोड़ कर सब बाबईबाबा होंगे। चुन्नी भाई आप नाराज क्यों होते हो जी, सपना तो सपना है, दिखाने वाले दिखाते रहते हैं भले ही पूरा एक न हो। इधर अबकी बार भी पांच-दस बाबे आ गए हैं अपने हठयोग से और चौपन इंच की छाती पे मूंग जैसा कुछ दलने की जीतोड़ कोशिश में हैं। बावजूद इसके बाबाजियों को लग रहा है कि उन्होंने अभी तक देश के लिए कुछ किया नहीं सो कुछ करना चाहिए, लेकिन खुद ढंग का कुछ कर सकते तो बाबा बनने की नौबत क्यों आती। 
               साहब को बच्चा बच्चा पार्टी का होना मांगता। उनका कहना है कि सदस्य बनाओ वोट बढ़ाओ। सो राजनीति में आने के बाद वोट बढ़ाना उनकी प्राथमिक विवशता है। बाबे मान रहे हैं कि भारतीय जच्चाएं बच्चे नहीं वोट पैदा करती हैं। उनके आहव्वान पर सारी की सारी ‘वोट’ जनने लगें तो संख्याबल पर सतयुग आ जाएगा। उन्हें भगवान पर पहले भी भरोसा नहीं था, अब भी नहीं है इसलिए बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। जो कभी कहा करते थे कि बच्चे भगवान की देन हैं वे अब कह रहे हैं कि खुद पैदा करो। जो प्रेम के विरोधी हैं वे बच्चों के आग्रही हैं!! प्रेम करने से संस्कृति नष्ट होती है बच्चे पैदा करने से वोटबैंक मजबूत होगा। दो से देश का विकास होने में देर लग रही है इसलिए जल्दी करो, चार करो भई। थोक में करो जी, सरकार अपनी है इसलिए डरो मत आठ-नौ-दस करो। कुत्ते-बिल्ली से सीखो या फिर बकरी से ही प्रेरणा ले लो। विकास करना है तो अब इंसान बने रहने की कोई जरूरत नहीं है। भीड़ का मतलब ताकत है, इसलिए भीड़ बढ़ाओ, मक्खी-मच्छर की तरह बढ़ो। जनसंख्या विस्फोट हमारी ‘विकास नीति’ हैं। भारतमाता को पोल्र्टीफार्म समझो। बच्चे राजनीति का ‘राॅ-मटेरियल’ हैं। 
                      उनके विकास की यही स्मार्ट-राजनीति है जिसमें विकास आगे बढ़ाने का नहीं, पीछे लुढकाने का नाम है। स्मार्टनेस के नाम पर पामेरेरियन पिल्ले को चूमने वाले इतनी जल्दी में हैं कि उन्हें दिख ही नहीं रहा कि उसका मुंह किधर हैं। पैंसठ साल में पैंतीस करोड़ से एक सौ पच्चीस करोड़ हो गए हैं। पता नहीं जनसंख्या है या रक्षा बजट जिसे बढ़ते जाना मजबूरी है। किन्तु सौभाग्य से देश जानता है कि उससे क्या गलती हो चुकी है। ‘भेडिया आया’ की राजनीति ने भोलेभाले लोगों को अब समझदार बना दिया है। 
                माफ कीजिए आप तनाव में आ रहे हैं। शांत  हो जाइये और देखिए कि वे मान रहे हैं कि बच्चे खुद आपकी देन ही नहीं आपकी जिम्मेदारी भी हैं। भगवान बरी हुए, आज खुश तो बहुत होंगे वो।
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गुरुवार, 29 जनवरी 2015

सुनो जगदीश्वर !


आधी रात को अपने असलहे के साथ कवि ने उस वक्त मंदिर में प्रवेश किया जब वहां कोई नहीं था। हृदय की अंतिम गहराइयों से लगाकर आकाश के आखरी छोर तक फैली अपनी अनंत श्रद्धा के साथ उसने जगदीश्वर के सामने शीश नमाया। घूप-अगरबत्ती के घूंए और फूलों व जल की सीलन से भरा पूरा गर्भगृह कवि की सच्ची भक्ति भावना से गमक उठा। ऊबे-अलसाए बैठे जगदीश्वर में ऊर्जा का संचार हुआ, यंत्रवत उनका हाथ आशीर्वाद के लिए उठा लेकिन उनका ध्यान कवि के थैले पर अटक गया। आराधना का तांडव समाप्त कर कवि ने थैले का मुंह खोला और एक लंबी कविता निकाली, बोले-कृपया इरशाद कहें जगदीश्वर, कुछ कालजयी कविताएं पेश करता हूं, आशीर्वाद दीजिएगा, मेरी पहली  कविता है मंजर में खंजर
‘‘ ठहरो कवि, ये क्या हो रहा है !! जानते नहीं हो कि मंदिर में किसी भी व्यसन के साथ आना मना है ! बाहर सूचनापट्ट पर भी साफ साफ लिखा हुआ है।’’ जगदीश्वर ने आरंभ में ही आपत्ती लेना आवश्यक समझा।
‘‘ ये तो मेरी पूजा का हिस्सा है प्रभु ।’’
‘‘ किसने कहा कि पूजा कविता सुना कर की जाती है,  तुम यहां कविता नहीं सुना सकते हो। ’’ जगदीश्वर ने आज्ञा नहीं दी ।
‘‘ ऐसे कैसे नहीं सुना सकता हूं !! सारा संसार जानता है कि जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी भगवान सुनता है। इस हिसाब से मेरा हक बनता है। ’’ कवि ने तर्क दिया।
‘‘ वो प्रार्थना के संदर्भ में कहा गया है। और यहां मैं केवल आरती सुनता हूं।’’
‘‘ आपको सुनना पड़ेगी जगदीश्वर, आपकी मर्जी के बगैर पत्ता भी खड़कता है। आपने ही मुझे कवि बनाया है, अब भुगतेगा कौन ’’
‘‘ पत्नी को सुनाओ ना, भारतीय हो , उस पर तो तुम हर तरह के अत्याचार कर सकते हो। ’’जगदीश्वर ने सुझाया।
‘‘ आपका सूचना तंत्र ठीक नहीं है जगदीश्वर । किसकी पत्नी सुनती है !! सुनती होती तो इतने कवि बनते,खरी-खोटी सुनी होगी पहले कवि ने, आह से निकला होगा खण्ड-काव्य। मुझे तो आश्चर्य है कि आप कवि क्यों नहीं हो गए अब तक !! ’’ कवि ने जगदीश्वर को लपेटा तो वे थोड़े नरम पड़े।  कविराज मैंने कानबहाद्दुर भी तो बनाए हैं। थोड़ा प्रयास करो, थोड़ा खर्च करो। एक भी मिल गया तो काम चल जाएगा। ’’
‘‘ आप एक नहीं हो क्या !, ..... अफवाह तो यह फैला रखी है कि ईश्वर एक है ! ..... अगर किसीकी सुनोगे नहीं तो हर कोई अपना अपना भगवान बना लेगा। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो आपका बाजार बिगड़ेगा। आपकी लापरवाही के कारण अब लुच्चे-लफंगे तक भगवान हो रहे हैं। ’’ कवि ने जगदीश्वर को डराना शुरू किया।
‘‘ जहां तक मुझे याद आ रहा है तुम तो कामरेड हो कवि। ’’ जगदीश्वर ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ तो इससे आपको क्या ! देर रात आता हूं, अंधेरे में आता हूं, गेट से नहीं कंपाउन्डवाल फांद कर आता हूं, अपना नगर छोड़ कर आता हूं, लेकिन आता हूं, ..... सारा रिस्क मेरा है। मैं किसी भी दक्षिणपंथी से ज्यादा विश्वास करता हूं आप पर, आपको तो प्रसन्न होना चाहिए मेरी काली-श्रद्धा से। ’’ कवि ने पूरे आत्मविश्वास  से उनकी बात खारिज कर दी।
‘‘ देखो कवि, .....  मैं थका हुआ हूं और अब सोना चाहता हूं। तुम अपने श्रोताओं को पकड़ो।’’
‘‘ कवियों के लिए श्रोता अब बचे ही कहां हैं, सब प्रधानमंत्री को ही सुनते हैं। नगर में कवियों के छत्ते के छत्ते हैं जो गुस्साए बैठे हैं। आपको एक एक कवि के पीछे कम से कम पांच पांच कानसेन भी बनाना चाहिए थे। ......  आप मेरी दो-तीन सुन लो वरना मैं अफवाह फैला दूंगा कि भगवान ने अब कथा सुनना बंद कर दिया है और  आजकल कविता ही सुन रहे हैं । ’’
‘‘ एक तो तुम आधी रात को आते हो, इस वक्त तो हरकोई थक-हार कर सो रहा होता है। ऊपर से धौंस देते हो !! ..... तुम मुझे क्षमा करो कामरेड। .... मैं तुम्हें एक ऐसा जीवित श्रोता देता हूं जिसे तुम चौबीस घंटे कविता सुना सकते हो। ये लो उसका फोन नंबर और जाओ प्लीज।  ’’जगदीश्वर ने हाथ जोड़ दिए।
मजबूर कवि ने नंबर लिया और अँधेरे में कंपाउन्डवाल की ओर चल दिया। जाते जाते बोला-‘‘आपकी कोई बात विश्वसनीय नहीं है जगदीश्वर । बाहर तो अफवाह है कि जगदीश्वर अब किसी की बलि नहीं लेते हैं !! ’’
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सोमवार, 5 जनवरी 2015

बाजार में नंगे

           
                 
बाजार अकच्छ ( नंगे ) संस्कृति के प्रभाव में है। बेटों को बाप समझा रहे हैं कि जिसने की शरम उसके फूटे करम। अकच्छ इकोनाॅमिक्स का बाजार पर कब्जा है। कहते हैं कि नंगों से भगवान भी डरते हैं, शायद इसीलिए वे बाजार से दूर रहते हैं। संसार में सब कुछ भगवान के भरोसे है। सिर्फ बाजार ही बेशरमी के भरोसे है। नंगापन जहां भी होता  है वहां अपने आप एक बाजार तैयार हो जाता है। आकाश  में कोई दर्जी नहीं है इसलिए स्टार नंगे  होते हैं। बाजार अगर कोई नंगा है तो समझिये कि वह स्टार है। स्टार बनने के लिए हर कोई उतावला है। बस एक मौका चाहिए, जाहिर है कि मौकों की अपनी कीमत है। आज नंगे हो कर  चुकाइये कल नंगई से ही वसूलिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोने का मंत्र बाजार ने ही दिया है। नंगई  से ही कीमत तय हो रही है। मुनाफा बाजार की जान है। बाजार रक्तबीज की तरह है, जिस भी जमीन को छूता है वहां एक नया बाजार खड़ा हो जाता है। किसी जमाने में बाजारों का मुकाम शहर होते थे अब गांव गांव खरीद फरोक्त हो रही है। रामनामी औढे बाबा इठ्यान्नू-निन्यानू-सौ जप रहे हैं । पिछली पीढ़ी ने जिस घरती को माता कहा, बाजार के कारण अगली पीढ़ी को उसके ‘रेट’ बताना पड़ रहे हैं। हर नजर सौदों की संभावना से भरी लगती है। ईश्वर  ने केवल मनुष्य को मुस्कान दी है लेकिन बाजार ने मुस्कराने के अर्थ बदल दिए हैं। पहले जिन होठों पर प्रेम की चहल कदमी होती थी अब वहां बाजार की छम्मकछल्लो ठुमक रही है। आदमी का हर अंदाज सौदा है और कोई सौदा सच्चा सौदा नहीं है। किसी जमाने में बाजार जरूरतों की पूर्ति किया करते थे, अब वे जरूरतें पैदा करते हैं। एक शायर ने कहा है कि बाजार से गुजर रहा हूं पर खरीदार नहीं हूं। बाजार ने ऐसे लोगों के लिए ही अब सीसी-कैमरे लगवा रखे हैं। 
                   बाजार में हर चीज बिकती है, नंगे  न बिकने वाली चीजों को भी बेचने का हुनर जानते हैं। कूड़ा-कचरा तक बेचा जा सकता है, खरीददार हर समय पैदा किए जा सकते हैं। सुनार का कचरा बाकायदे अच्छे भाव में बिकता है। उसके यहां झाडू लगाने वाला उस कचरे से सोना-चांदी निकालता है। एक कवि के यहां काम करने वाली महरी को कवि के कचरे का "अकच्छ ग्राहक" मिल गया। आज वह ग्राहक महाकवि है हालाॅकि कवि अभी अख्यात ही हैं। कुछ लोग मिट्टी उठाते हैं और सोना बना लेते हैं। बाजार  इसी को टेलेन्ट कहता है। 
                      जिनके पास भेड़-बकरियों का झुण्ड होता है वे खेत में एक रात झुण्ड को ठहराने की खासी कीमत लेते हैं। क्योंकि रातभर की मेंगनियां और पेशाब खेत की उपज बढ़ा देती हैं। अगर हमें मालूम पड़ जाएं कि हमारा एक एक अंग बाजार की मूल्य सूचि में शामिल है तो शायद  हम घर के बजाए लाॅकर में रहना पसंद करें। जिस तरह बाजार किसान की इज्जत नहीं करता है लेकिन अनाज से पैसा कमाता है उसी तरह रचनाओं से कमाने वाले प्रकाशक वगैरह लेखक की इज्जत नहीं करते हैं। साहित्य का क्षेत्र भी "अकच्छ बाजार" से अछूता नहीं है। कहानी, उपन्यास, नज्म, गजल सब लिखा लिखाया मिल सकता है। खरीदिये, छपवाइये और फटाफट साहित्य के ‘बड़े मिंया’ हो जाइये। कुछ ‘खां-साहबों’ के बाड़े में लिखने वाले गाय-भैंसों जैसे स्थाई रूप से पलते और ‘दूध’ देते हैं। अक्सर प्रसिद्ध गीतों के बारे में मालूम होता है कि कोई अनाम गीतकार का लिखा हुआ है जो दो-चार सौ रुपयों में नामचीन कलमकार ले गए थे। लेकिन नंगों का  बाजार बकरा बेचने के बाद उसकी खाल देख कर रोने की इजाजत किसी को नहीं देता है। आज नगद गिनो और कल दूसरा गीत लिखकर लाओ, वरना अपना सायकिल रिक्षा चलाओ। अकच्छ बाजार में जेबकटाई भी खूब होती है। एक लेखिका ने मुस्करा कर अपना उपन्यास अधोवृद्ध रचनाकार को सुधारने के लिए दिया। वे अपनी बकरी को उनसे ऊंट बनवा कर ले गईं, और अब बाकायदा ऊंट उनका है। अधोवृद्ध कुछ दिन चीखे चिल्लाए फिर खांसी की दवा खरीदने लगे। कहीं खबर छपी थी कि पीएचडी लिखने वालों का ‘मार्केट’ खूब फलफूल रहा है। क्यों न हो, बाजार ज्ञान का नहीं डिग्री का होता है। और जिसका बाजार होता है वही बड़ा होता है, और जायज भी। पैसा मिले तो कोई काम छोटा नहीं है, बशर्ते पुलिस वगैरह की पकड़ में न आएं।
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                   

जो कभी बीमारी घोषित थे , सत्ता में आने के बाद इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही सिस्टम के लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकलवा कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, नहीं हुआ तो संस्कृति रक्षक खराब क्र देंगे.  गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलने दिया जायेगा जो चौघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, यानी पक्के तौर पर होगा ही। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलना होंगे, मनना होगा कि  विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है।
               इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख,  भविष्य में डर,  वह मान लेती है कि दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में सांस लेते हैं उसी में बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं। हरेक को आजादी है,  वो चाहे तो शान्तिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से।
           “ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
   ‘‘ क्या बताऊ, हप्ताभर से उछल रहे हैं, डाक्टर कहते हैं युवा-हृदय-सम्राट हो गया है।’’
   ‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेशा गेटआउट लगा के रखती हूं।’’
   ‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
   ‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेक्शन होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
   ‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर थर्ड स्टेज लीडरी का हो जाता।’’
    ‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
    ‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा खाली महसूस होता है.....।
     ‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
     ‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’
            जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे नेता इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि डाक्टर से बचना है तो घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं,  इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं।

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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ठीकरे मांग रहे सिर

                 
हारने के बाद हार का ठीकरा सामने आता है। हार जितनी बड़ी होती है ठीकरा भी उतना बड़ा होता है। परंपरा ये है कि जितनी जल्दी हो किसी के सिर पर ठीकरे को फोड़ देना जरूरी है। आदर्श राजनीति में चाकू पीठ में ही घोंपा जाता है, उसी तरह ठीकरा सिर के अलावा और कहीं नहीं फोड़ा जा सकता है। ठीकरा कोई तिजोरी में रखने की चीज नहीं है, न ही पार्टी कार्यालय में मोमेंटो यानी स्मृति चिन्ह की तरह सजाया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि ठीकरा चाहे जहां फोड़ा भी नहीं जा सकता है। उसके लिए बाकायदा एक सिर लगता है, यानी एक बाजिब सिर। ये नहीं कि किसी रास्ते चलते को पकड़ लिया और उसके सिर पर फोड़ दिया दन्न से। पुराने जमाने में अघ्यक्ष के सर को यह सम्मान दिया जाता था, जिस पर नारियल से ले कर ठीकरा तक, सब कुछ फोड़ा जा सकता था। लेकिन हाल के बरसों में कुछ गलतफहमियों ने जड़े जमा लीं। अध्यक्ष के गले में पड़ने वाली मालाओं का ध्यान रहा, ठीकरों को भूल गए। अगर दूरदृष्टि से जोखिम का ध्यान रखा होता तो न सही अध्यक्ष, कम से कम उपाध्यक्ष तो किसी शोषित-पीड़ित बेनाम कार्यकर्ता को बनाया होता तो आज आराम से काम आ गया होता। जिसने दस साल से अपने सिर पर सब कुछ लिया, अगर उसी को जरा सा श्रेय देते तो वह ठीकरे भी अपने सिर पर फुड़वा लेता। अब क्या हो सकता है, गलती हो गई। ठीकरे हर राज्य से थोक में चले आ रहे हैं। पार्टी कार्यालय का पिछवाड़ा गोदाम की तरह ठीकरों से भर गया है। जो अपनी गरदन तक भेजने का दावा कर रहे थे अब ठीकरे भेज रहे हैं। इधर जिन्होंने सारी शक्तियां एक जगह केन्द्रित करके रखी हुई थी उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ठीकरों का विकेन्द्रीकरण कैसे हो! लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता। ठीकरे मुंडेर पर उगे पीपल की तरह रोज बढ़ते जा रहे हैं। समस्या ये है कि यदि समय रहते इन्हें किसी सिर पर नहीं फोड़ा गया तो ये ईंट ईंट बिखेर देंगे।
पार्टी के कुछ उपेक्षित जनों ने विज्ञापननुमा बयान दिये हैं कि वे ठीकरे फुड़वाने के लिए अपना सिर प्रस्तुत करते हैं। लेकिन ठीकरों की तुलना में उनके सिर बहुत छोटे हैं। अगर फोड़ने की कोशिश की गई तो सिर के मुआवजे उपर से गले पड़ जाएगें। फिर इसमें त्याग और बलिदान की बू आ रही है। वे जानते हैं कि इस वक्त कोई ठीकरे फुड़वा लेगा तो कल उसके गले में उन्हें खुद माला डालना पड़ेगी, इज्जत का एक आसन देना पड़ेगा, बावजूद इसके क्या गैरंटी कि कल वंश परंपरा के दावों को भी वह स्वीकार कर लेगा।
कहने को पार्टी में जगह जगह हार के कारणों पर चिंतन बैठक चल रही है। किन्तु वास्तव में उनकी चिंता उपयुक्त सिर की तलाश है। बच्चों को जोखिम में नहीं डाल सकते, उन्होंने तो अभी अभी सिर उठाना सीखा है। अभी तो उन्हें ठीकरों का मतलब भी मालूम नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे फूटते कैसे हैं। पता चलेगा तो शायद वे राजनीति से दूर ही रहना
चाहें। अगर कहीं ऐसा हो गया तो भी दिक्कत होगी।
पार्टी जिन्हें अपना चाणक्य कहती आई है, उन्हें बुलाया गया। पूछा कि – आप ही रास्ता बताइये .... कि ठीकरे भी फूट जाएं और शीर्षस्थ
सिर भी बच जाएं।
बहुत विचार के बाद वे बोले – हमें इतिहास में से कोई सिर ढूंढ़ना चाहिए। हमारा इतिहास महत्वपूर्ण सिरों से भरा पड़ा है। ठीकरों की तुलना में ये सिर बड़े भी हैं। समय समय पर हमने उन्हें श्रेय दिया है, उनके माथे पर पगड़ी बांधी है, गले में माला पहनाई है। आज समय
आया है कि वे बुरे वक्त में पार्टी के काम आएं।
‘‘ ये नहीं हो सकता। इतिहास में तो वंश है। उचित व्यक्ति ने
आपत्ती की।
‘‘ वंश  के अलावा भी हैं इतिहास में ।
‘‘ वो पार्टी का इतिहास नहीं है। बाकी किसी को हम इतिहास नहीं
मानते। आप कोई और रास्ता बताइये।
‘‘ मीडिया के सिर फोड़ दीजिए। चाणक्य बोले।
दुकान बंद नहीं कर रहे हैं हम। उचित व्यक्ति ने नाराजी से कहा।
फिर तो एक ही तरकीब है, जनता के सिर फोड़ दो। आम आदमी
हर समय काम आते हैं।
‘‘ ठीक, आम आदमी का सिर सही रहेगा। एक पत्थर से दो
शिकार। ....

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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

एक क्विंटल के बाउजी

सब उन्हें बाऊजी कहते हैं, वैसे उनकी दिली इच्छा तो बापजी कहलाने की रही है, पर क्या करें लोकतंत्र है। इसके कारण जब तब खींसें निपोरना पड़ती है, जिन्हें जूतों से हड़काया था कभी उनके हाथ तक जोड़ने की आदत डालना पड़ी है। हुजूर, सरकार, मांईबाप सुनने की चाह थी लेकिन कान में पड़ता है पिलपिला बाऊजीमन करता है कि थप्पड़ लगा कर मुर्गा बना दें अगले को। लोकतंत्र गले की हड्डी हो गया ससुरा, बड़े बड़े अनारकली हो के रह गए, मरण की मुश्किल  में जिए जा रहे हैं या जीने की कोशिश में मरे जा रहे हैं। शुरू शुरू में दिक्कत बहुत हुई, लेकिन बाद में उन्होंने मन मार के बाऊजी से काम चलाना सीख लिया। दिल को समझा लिया कि बाऊजी भी बाप ही होता है रे,  कान इधर से पकड़ो या उधर से, एक ही बात है।
                 आप सोच रहे होंगे कि उन्हें बाप बनने की ऐसी क्या पड़ी है, वो भी सबके !! तो जिस तरह भइया "जन-धन योजना" सरकार की प्रतिष्ठा है उसी तरह "बाप-बन योजना" उनकी निजी प्रतिष्ठा है। ये बात अपने दिमाग की हार्डडिस्क में अच्छे से 'सेव' कर लो कि बाप से संबोधित होना उनका एक खानदानी व्यसन है। पुराना समय होता तो इस मामले में कोई प्रश्नवाचक सिर झुका के भी प्रवेश नहीं कर सकता था उनके दरबार में। अब व्यसन है तो है, खानदानी हैं इसलिए जरूरी है कि दस-बीस व्यसन भी हों। व्यसन आन-बान-शान होते हैं खानदानी लोगों के। आम लोगों को तो परंपरा-रवायतों वगैरह का ज्ञान होता है नहीं,  सड़क किनारे कोई पड़ा दिखा नहीं कि पट्ट से बोल दिया एवड़ा-बेवड़ा कुछ भी। अगर लोकतंत्र नहीं होता तो आपको अपने आप समझ में आ जाता कि बापजी पड़े हैं। पड़े क्या हैं अपनी राज्य-भूमि को प्यार कर रहे हैं कायदे से। वो दिन होते तो झुक के सात सलाम और पांच पा-लागी अलग से करते लोग। लेकिन अब क्या है, अदब कायदों का तो अकाल ही पड़ गया। बासी, सल पड़ा काना आलू सा बाऊजी मिल जाए तो बहुत है।
                        बाऊजी जब राजनीति में आए थे तब काफी जवान थे। बल्कि ये कहना ठीक होगा कि जवानी के बल पर ही राजनीति में आए थे। उनके दिमाग में बात साफ थी कि राजनीति वो न जनता के लिए करते हैं और न ही देश के लिए। वे जो करते हैं खुद के लिए करते हैं। राजपाठ के दिन भले ही लद गए हों पर कोशिश करने वालों को सफलता मिलती है। आज भी राजा होने के लिए प्रजा चाहिए परंतु ये लोकतंत्र कमबख्त है और जनता ढीठ। प्रजा बनाओ तो बनती नहीं है। वे बार बार लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहते हैं लेकिन जनता को कुछ समझ में नहीं आता, बहुत हुआ तो नारा ठोंक देती है कि "जब तक सूरज-चांद रहेगा, बाऊजी का नाम रहेगा"। वे दुःखी हो जाते हैं, मन तो होता है कि छोड़ दें ऐसी राजनीति जो श्रीमंत को बाऊजी बना देती है लेकिन कोई जमीन हो तो नाव से उतरें भी।
                       खैर, बात में से बात निकलती जा रही है और असली बात छूट रही है। जनता भी पक्की राजनीतिबाज है उसने नेताओं को तौलने का फैशन चला रख़ा है। किसी जमाने में चांदी से तौला करते थे लेकिन मंहगाई है तो आलू-प्याज और टमाटर से तौल देते हैं। ये भी मंहगे हुए तो कर्णधार केलों से तुलने लगे, बाद में घर जाने के भाव में कद्दू, फूल गोभी, तरबूज वगैरह का नंबर लगा। हर तुलाई के बाद फोटू छपती, खबर बनती है। बाऊजी का भी मन होता था कि काश कोई उन्हें भी तौल दे। साठ किलो के शरीर से उन्होंने राजनीति शुरू की थी, तौलने के हिसाब से वजन ठीक था। उस वक्त पट्ठे नहीं थे, होते तो चांदी से तुल जाते। अब सौ किलो के हो गए हैं और तरबूज-खरबूज से तुलने का मन नहीं हो रहा है। चाहते हैं कि चांदी ना सही, तुलें तो कम से कम अनाज से तुलें। पट्ठों ने अनाज मंडी में जा कर खबर की कि बाऊजी अनाज से तुलना चाहते हैं, तौलो।
                 ^^ सोयाबीन का सीजन चल रिया हे, धंधा करें कि फ़ोकट की तौला-तौली करें भिया !! छोटे-बड़े बांट-वांट भी नीं हैं, इलेक्ट्रानिक मसीन से काम होता हे यां-पे। बिजली कभी आती हे कभी जाती हे। पेले इ प्रेसन हेंगे, केसे करेंगे, आप लोग ही सोचो।" मंडी अध्यक्ष ने समस्या बताई।
               ^^ बाऊजी पूरे सौ किलो के हैं। ना सौ ग्राम ज्यादा ना सौ ग्राम कम। सोयाबीन की भरती के बरोबर। बोलो अब क्या दिक्कत है " -
               ^^ क्या सचमुच पूरे सो किलो हेंगे "
               ^^ पूरे सौ किलो । "
               अध्यक्ष ने हम्माल को दौड़ा कर मदनसेठ को बुलवाया। वे भागे आए,- ^^ अरे मदन सेठ, तोल की व्योवस्था हो गई क्या तुमारी "
              ^^ अब्बी कां ।"
              फौरन से पेश्तर बाऊजी को लेकर आए पट्ठे। बाऊजी बड़े से तराजू के एक तरफ बैठे हैं और दूसरे पलड़े पर सोयाबीन की बोरियां एक एक कर रखी-उतारी जा रही हैं। तालियां बज रहीं हैं और हार डाले जा रहे हैंबताया जा रहा है कि बाऊजी तुल रहे हैं। बाऊजी भी मान रहे हैं कि वे ही तुल रहे हैं। किसान खुश है कि उसकी सोयाबीन तुल रही है। व्यापारी खुश  है कि बाऊजी को दो किलो फूलमाला पहना कर उन्हें क्विंटल पीछे दो किलो सोयाबीन ज्यादा मिल रही है। 
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नवंबर के भरोसे पूरा साल

                       
जिन्दा रहना मेरा निजी जोखिम है, बावजूद इसके नवंबर का महीना मेरे, जीवित होने, का महीना होता है। एक बार मैं नवंबर में जिन्दा घोषित हो जाउं तो आगे के ग्यारह महीनों की गैरंटी हो जाती है। यानी मैं अगर नवंबर में जीवित बरामद होता हूं तो ही वास्तव में जीवित हूं, वरना मरा हुआ हूं, चाहे नहीं भी मरा हूं। साफ है कि जो नवंबर चूक गए वो गए काम से। अगर कोई बंदा अक्टूबर में जाउं-जाउं कर रहा हो तो, उसके वालेकोशिश करते हैं कि कम से  कम नवंबर तो निकाल ले। नवंबर में मैं यह लेख लिख रहा हूं तो संपादकजी मान लेंगे कि जिन्दा हूं लेकिन मेरा विभाग नहीं मानेगा। विभाग कागजों पर चलता है, मेरे जिन्दा होने की घोषणा मेरे होने से ज्यादा जरूरी है। अगर कोई किसी तरह घोषणा करने में सफल हो जाए तो मरा हुआ आदमी भी जिन्दा हो सकता है। संसार मिथ्या है, काया नश्वर है, इसलिए कागजों पर जिन्दा होना जरूरी है। जब मैं घोषणा करता हूं तो मुझे भी लगता है कि मैं वाकई जिन्दा हूं। वरना ऐसे लाखों हैं जो जिन्दा हैं, लेकिन उन्हें कोई मानता नहीं,उनसे जिन्दा आदमी सा व्यवहार नहीं करता। बारह महीनों में से किसी भी महीने में उनसे कोई नहीं कहता कि घोषणा करो कि तुम जिन्दा हो । धीरे धीरे वे खुद ही भूलने लगते हैं कि वे जिन्दा हैं, अन्य लोग तो पहले ही भूल चुकते हैं। देखा जाए तो इस व्यवस्था में बड़ा सुकून है, आज के समय में जब कोई किसी को पूछता नहीं है कि भइया जी रहे हो या मर रहे हो। ऐसे में विभाग पूछ रहा है कि जिन्दा हो, तो कितना अपनापन लगता है।
अपने यहां तो मरे को भी तब तक मरा नहीं मानते हैं जब तक कि डाक्टर उसे मृत घोषित न कर दे। सोचिए अगर डाक्टर हड़ताल कर दें या ठान लें कि हम किसी को मृत घोषित नहीं करेंगे तो लोगों का मरना कितना                           मुश्किल  हो जाएगा। लेकिन इधर ऐसा नहीं है। अगर कोई अपने जिन्दा रहने की घोषणा खुद नहीं करेगा तो पहली दिसंबर को अपने आप मरा मान लिया जाएगा। पेंशन खाते में उसका अंतिम संस्कार हो जाएगा और शोकपत्र के साथ शेष रकम नामांकित को दे कर हाथ जोड़ दिए जाएंगे। वह चीखता रहे कि मैं जिन्दा हूं, उधर से जवाब आएगा कि बाउजी ये दिसंबर है। दिसंबर में जिन्दगी के पट बंद हो जाते हैं। जो नवंबर में मस्त थे वे दिसंबर में अस्त माने जाएंगे।

अस्सी वर्षीय दर्शन बाबू सरकार को भजते थकते नहीं हैं। नवंबर के इंतजार में कब और कैसे बाकी ग्यारह महीने जी लेते हैं उन्हें खुद पता नहीं चलता है। नवंबर नहीं हो तो उनकी सांसें ही थम जाएं। सेहत उनकी बढ़िया है, नवंबर की गुलाबी ठंड में वे अपना शादी का सूट स्तरी करवाते हैं, जूतों पर पालश इतनी कि लगता है जूते दिखा कर पेंशन लाने वाले हों। बगल में पहले सेंट होता था अब डीओ। कान के उपर के बालों को छोड़ शेष रह गए कुछ बालों पर खिजाब और मूंछों पर तेल लगा कर तैयार होते हैं। हाथ में एक बैग है जिस में जरूरी कागजों के अलावा हनुमानचालीसा भी है। वे बाकायदा अगले ग्यारह महीनों की जिन्दगी लेने जा रहे होते हैं। जब लौटेंगे तो उनके मुंह में पान होगा जिसके रस को वे अपने कोट के साथ शेयर कर रहे होंगे। लेकिन कोई उन्हें कुछ नहीं कहेगा। नवंबर का महीना घर में दूध देती गाय के आने का महीना है।