शुक्रवार, 4 मई 2018

शैर में टेम्पोरेचर चुम्मालीस

हाँ हलो, हलो... का हो बिंदा, ये क्या सुन रए हम ! तुमारे शैर में चुम्मालीस टेम्पोरेचर चल-रा हे ! ओर यहाँ तुमारी भौजी कल्लाई बैठी हे कि कब यहाँ धूप जमीन पकड़े और कब हम कुडलई, पापड़, बड़ी बना लें फटाफट. और तो और गेंहूँ में घुन लगे पड़े हैं  पर  धूप दिखाने का महूरत ही नहीं बन रहा है. घर में दस बीस किलो होएं तो छान फटक लें शैर वालों जेसा, पर इधर तो तीन कोठी भरी पड़ी हें !! करें क्या येई समज में नहीं आ रहा. एक तो धूप नहीं चटक रई ओर ऊपर से पेड़ और हरियाली इत्ती हे कि धरती जो हे गरम नईं हो रई. सारा दिन पेड़ों पे चिड़ियों की चें-चूं  लगी रेती हे सो अलग. शैर वाले बड़े समझदार हें पट्ठे, पेड़ सारे काट डाले ओर ऊँची ऊँची बिलडिंग होन बना ली मजे में. चिड़िया की चें-चूं का झंझट ही नहीं. देखो अब, विकास की सुन तो रये कि गाँव का भी होगा, पेड़ काटने लगें तो पक्का होए. इधर तो शाम सेई ठंडी हवा चलने लगाती है, लोगों के घरों में दहेज़ में मिले पंखे-कूलर पड़े खराब हो रए हें. तुम लोग तो सुना है कि एसी में सोते हो. ठाठ हैं भईया तुमारे, चुम्मालीस  टेम्पोरेचर के मजे तो बस शैर वालों के होते हें. यहाँ तो दही, छाछ, सत्तू है पर सब बेकार, तपन लगे तो पियें खाएं. भरी दुपहरी में जो अमराई में लेट जाओ तो आराम इतना कि यम के दूत आवें तो यहीं सो जाएँ ससुरे. तुमारी भौजी पूँछ रईं थीं कि पूछ लो बिंदा से कि ना हो तो एक दो बोरा आलू भेज दें, खूब निकले हैं अबकी. उधर चुम्मालीस  है तो चिप्स बना-सुखा के भेज देंगे और थोड़ा बहुत खुद भी रख लेंगे. बचपन में तुम्हें आलू की चिप्स कितनी पसंद थी ! हप्ता भर में तीन चार किलो तो अकेले खा जाते थे आराम से. पर छोडो तुम कहाँ बनवाओगे. जरा सी तो गैलरी है तुमारे फ्लेट में. एक बार सोये थे हम वहां, पांव लम्बे करने पर सिर टकराता रहा रात भर.
इस साल पंचायत वाले कोसिस कर रए हें कि सीमेंट वाली सड़क बन जाये. अब देखो क्या होता है. सुने हैं कि सीमेंट वाली सड़क बनाने में पैसा खूब खाने को मिलता है. इसीलिए उम्मीद हो गयी है, दबंग लोग लगे पड़े हैं. सुना है कि सीमेंट वाली सड़क अच्छी तपती है, लोग आमलेट तक बना लेते हैं उसपे. अभी तो यहाँ कच्ची सड़कें हैं, दिन ढलते ही ठंडी हो जाती हैं. तुम्हे तो पता है कि छोरा छोरी नंगे पांव यहाँ वहां दौड़ते फिरते हैं. शैर के लोग पढ़े लिखे हैं, वहां फुटपाथ  भी खुल्ला नहीं है. घर के बहार कदम रखो तो सीधे सीमेंट की सड़क. तभी न एक से बढ़ के एक जूता चप्पल पहनने को मिलता है लोगों को. यहाँ इतना सुख कहाँ, भरी दुपरिया में निकल जाओ तो ईनाम है जो पांव जल जाये. धिक्कार है, अबकी सोच समझ कर वोट देने का फैसला किया है हमने. एक प्रदुषण युक्त, हरियाली मुक्त विकास इधर भी होना सबको. 
तुम लोग वहाँ पर छोटे छोटे प्लाट पर मकान बनाये हो और हर घर में एक ठो बोरिंग भी छेदे हो. लेकिन यहाँ तो घिसी पीटी जोइंट फेमिली का चलन हे सब लोग एक कुंए से काम चला लेते हैं. सोच रहे हैं कि शिक्षित समझदार जैसा व्यवहार करें और सब भाई अलग हो जाएँ. अलग अलग बोरिंग करवा लें और पानी खीचें मजे में. ऊपर से गोरमेंट नल में पानी भी देती हे ! आजकल शैर में जितने इन्सान रहते हैं उससे ज्यादा मोटर कारें रहती हैं. सुना हे कि नल के पीने वाले पानी से कारें धोते हैं, कुत्ता नहलाते हैं और फुलवारी सींचते हैं !! शैर तो समझो स्वरग है, बिंदा हम तो केरए भईया गरमी गरमी अपनी भैंसे ले के आ जाएँ तुमरे शैर, नहा धो लेंगी बेचारी, आखिर दूध तो शैर वाले ही पीते हैं उनका.
और  हाँ, तुमे तो मालूम हे अम्मा को गठिया हे. बैध जी बोले हैं की गरमी पड़ेगी तो थोड़ा सुधर जायेगा. पर गरमी इधर पड़ ही नहीं रही ससुरी. हम कहे कि अम्मा शैर चली जाओ, वहाँ चुम्मालीस हे पर सुनती ही नहीं. सुना हे कि दिल्ली में बहुत गर्मी हे. होनई चईये, चुम्मालीस नहीं तो काहे की राजधानी. टीवी में देखे हैं कि दिल्ली वाले पट्ठे बहुत तेज चलते हें, लगता नहीं कि किसी को गठिया होगा. अम्मा को तुमी समझाओ जरा, न हो तो आ के ले जाओ. ... और सुनाओ बहू बच्चे ठीक हैं ? ..... क्या !! ..... रांग  नंबर हैं !! रांग  नंबर चल रहा था !! .... ठीक है .... चलो रखते हें.

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सोमवार, 23 अप्रैल 2018

वोटर बचाओ


देखिये भाई साब, बात को समझने की कोशिश कीजिये. लड़कियां जो शिकार हो रही हैं वो नाबालिक हैं. जाहिर है कि वे अभी वोटर नहीं हैं. लोकतंत्र में वोटर होने न होने का महत्त्व है और दिक्कत भी. जिन पर बलात्कार का आरोप है वे नागरिक बालिग हैं और वोटर भी. अब इसे संयोग ही कहिये कि सामने चुनाव भी सीना ताने खड़े हैं. चुनाव का तो आपको पता ही है, क्या से क्या हाल कर देते हैं सरकार का. जो कमर तनी तनी रहती थी मुई ऐसी फोल्ड हो जाती है कि पूछो मत. कभी कभी लगता है कि कोई तहा के पटक न दे किसी कोने में. पांच साल जो सूरजमुखी रहे चुनाव में हरसिंगार के फूल हुए जाते हैं. आत्मा ही जानती है जब ऐरों गैरों तक को जीजा फूफा कहना पड़ता है. ऐसे में किसी वोटर को नाराज करना खुद अपने गले में फंसी का फंदा डाल लेना है. किसानी छोड़ के तो इधर आये हैं, और यहाँ भी फांसी लटकना पड़े तो लानत है राजनीति पर. माहौल देखिये,  सारी पार्टियाँ कमर कस के मैदान में हैं. वो कहते हैं ना सावधानी हटी और दुर्घटना घटी. इसलिए वोटर कितना भी पापी क्यों ना हो चुनाव तक कनपुरिया गंगाजी की तरह पवित्र है. सच बात तो ये हैं कि चुनावी दिनों में खुद राजनीतिक दलों की स्थिति उन नाबालिक लड़कियों की तरह ही हो जाती है. जिस गली में जाओ इज्जत लुटने लगाती है, हाथ जोड़ते, पैर छूते, रोते गिड़गिगिडाते एक एक पल युग की तरह निकलता है. लोकतंत्र कमबख्त नगरवधु बना देता है. इसके बाद भी मजबूरी देखो कि उफ़ तक करना मना है. जब दिखो राजी दिखो. इसलिए यह कहना कि सरकार पीड़िता के दर्द को समझती नहीं है तो सरासर गलत है. लेकिन किसको कहने जाएँ, हमारी कौन सुनेगा !!  नेशनल पॉलिसी है कि सब सहना पड़ता है भईया. जो सह जाये समझो वो सुखी. जो न्याय मांगने निकलेगा उसे न्याय की भी कीमत चुकानी पड़ेगी. जानते ही होगे कि दुनिया बही खाते वाली है, यहाँ कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. 
आपको लग रहा होगा कि बलात्कार के पक्ष में बात जा रही है. हम यह नहीं कह रहे कि ‘लडकों से गलती हो जाती है’. वो तो दूसरी पार्टी वाले कहे हैं. हमारा कहना तो ये हैं कि लड़कियों का पश्चिमी पहनावा, फ़ास्ट फ़ूड, चाउमिन, पित्जा, तिरछी नजर वगैरह से एक तरह का एयर होस्टेस  नुमा माहौल बनता है और ये हो जाता है. अगर लडकियों को पकड़ पकड़ के बाल विवाह कर दिया जाये हर घर गंगा नहा ले. अपनी ममता दीदी की भी बात सही है, लडकियों को आज़ादी बहुत मिली हुई है और यही रेप का कारण है. लेकिन मुद्दे की बात यह है कि ईश्वर की मर्जी के बगैर कुछ नहीं होता है. जब तक धरती है ये होते रहेंगे. इसमें सरकार या मंत्री वंत्री कुछ नहीं कर सकता है. इसलिए मनुष्य को बीच में पड़ कर प्रकृति में बाधक नहीं होना चाहिए. टीवी वाले लगातार बहस करवा रहे हैं, अच्छी बात है. सारे दल अपने प्रवक्ता भेजते हैं. बलात्कार चाहे रुकें न रुकें, लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए बहसें निरंतर होना चाहिए, चाहे बहसों की निरंतरता के लिए रेप ही क्यों न होते रहें.
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शनिवार, 3 मार्च 2018

होली में स्कूटर

एक जमाना था, होली हो और लकड़ी का टोटा हो यह हो नहीं सकता था. आसपास इतनी लकड़ी होती थी कि ढाई क्विंटल में जल जाने वाले मुर्दे को भी पांच क्विंटल लकड़ी में फूंका जाता था. रोटी के लिए रोते भले ही मिल जाएँ लेकिन लकड़ी के नाम पर रोने वाले ढूंढे नहीं मिलते थे. रोने का ऐसा है कि इसमें सुरताल कोई नहीं देखता. आज भी सिचुएशन के हिसाब से कोई भी कभी भी रो सकता है. अधिकार के नाम पर जनता के पास बस यही एक अधिकार है कि भईया रो ले और छाती की आग ठंडी कर ले. रोने पर ना कोई टेक्स है ना कानून, उदार है सरकार. वरना देश को खुशहाल दिखाने के लिए यह कारगर तरीका हो सकता है. रोने वाला आधार की जद में तो है ही, रोते ही उसके खाते से अच्छा ख़ासा काटा जा सकता है. 
 होली का त्यौहार गिले शिकवे दूर करने और हिसाब किताब ठीक करने का मौका होता है. मसलन मोहल्ले का बनिया उधार नहीं देता है या ज्यादा दाम वसूलता है तो उसकी खटिया और तखत इस बार होली में नजर आना चाहिए. नत्थू पेलवान छोकरों को जब तब जुतियाते रहते हैं तो मटकी भर मैला उनके दरवाजे पर रात दो बजे फोड़ी जाना तय  है. जाहिर है नत्थू पेलवान रात दो बजे से पगलाएंगे तो पिच पर अकेले होंगे और मैच डे एंड नाईट चलेगा. मजा ये कि घंटों की हाय हुक्कू के बाद भी कोई उनकी पकड़ में नहीं आयेगा. 
लेकि अब वो जमाना कहाँ साहब ! घरों में लकड़ी के नाम पर एक बेलन मिल जाये तो समझो बहुत है. फर्नीचर लोहे और प्लास्टिक के हो गए, जलाने के लिए कुछ मांगने पर अख़बार की रद्दी निकालने लगते हैं. लेकिन बात जब होली की हो तो चोरी की लकड़ी का मजा ही कुछ और होता है. मानो न मानो चंदा भीख है, चाहे वह चुनाव लड़ने के लिए ही क्यों न माँगा गया हो. होली पर लकड़ी चुराना पुरुषार्थ का काम माना जाता था. हट्टे कठ्ठे लडके आधी रात को रस्सी और कुल्हाड़ी ले कर इस पुण्य कार्य के लिए निकलते. इरादे समाजवादी रहते, फिर चाहे खेत मामा का ही क्यों न हो, जिम्मेदारी तो आखिर जिम्मेदारी होती है. रात अँधेरी होती, हालाँकि आसमान में टेक्स पेड इनकम सा आधा अधूरा चाँद भी होता, जिससे समझ में नहीं आता कि रौशनी हो रही है या अँधेरा. लेकिन जब कोई नेक काम के लिए चोरी करता है तो ईश्वर उसका साथ देते हैं. समाजसेवी डाकू जब भी डाका डालते हैं या बैंक का पैसा लूटते हैं तो बाकायदा पूजा पाठ भी करते हैं. पूजा पाठ हो जाये तो ‘ऊपर वाला’ नीरव मोदी और माल्या के पक्ष में भी मजबूर हो जाता है. गीता में प्रभु ने कहा भी है कि “हे अर्जुन, जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ.” काम छोटा है आस्था का स्थान बड़ा है. रहा कानून का डर तो उसके लिए हमारे वकील साहब लोग हैं ही. कोई करुणा सागर किसी आदमी की हत्या करके आये तो ये कानून की हत्या कर इंसानियत को भी जन्नत नसीब करवा देते हैं.  जैसे छपक छपक चले आल्हा की तलवार, एक को मारे, दूजा मरे तीसरा डर से मर जाय. वकील कानून का एंटीबायटिक होता है. अनुभवी हत्यारे मानते हैं कि वकील कानून से बड़े होते हैं. ऐसे वकीलों को समाज सम्मान पूर्वक ‘अच्छा वकील’ कहता है और मानता भी है. खैर, बातें हैं बातों का क्या ! सवाल ये हैं आज अगर कोई लकड़ी चुराने निकले तो कहाँ निकले ! मजबूरन लड़कों को चंदा मांगने निकलना पड़ता है. 
रायबहादुर सेठ खदानचंद के सुपुत्र सेठ रतनचंद से पहला चंदा लिया जाना है. लड़कों की भीड़ देख कर वे खुद पोर्च में आ गए. चंदे की बात सुन कर बोले कि ये जो स्कूटर खड़ा है इसे किसी रात चुरा ले जाओ और रख दो होली में. यही चंदा मान लो मेरा. समर्थ आदमी प्रधान मंत्री न हो तब भी, कब और कैसी मजाक कर दे यह समझ में नहीं आता है. भले लड़कों ने मना कर दिया कि स्कूटर होली में कैसे जलाया जा सकता है सर ! और क्यों ? रतनचंद बोले होली गिले शिकवे दूर करने का त्यौहार है और गिले शिकवे दिलों में ही नहीं होते हैं, बाहर भी होते हैं. अगर तुम लोग चुरा कर नहीं ले जाओगे तो मैं ही किसी रात होली में रख आऊंगा. बस तुम इसे होली से बाहर मत निकलना. पता चला कि उन्हें गुस्सा इस बात का लड़के के दहेज़ में कार मांगी थी और उधर वालों ने स्कूटर पकड़ा दिया. स्कूटर क्या है उनके लिए दो क्विंटल लकड़ी है. होली में रख दे कोई तो उठती लपटों से छाती ठन्डी हो जाए. लड़कों को तसल्ली हुई कि अच्छा है उनका गिला शिकवा स्कूटर से है वरना बड़े लोगों में गिले शिकवे का रिवाज तो बहु से भी है.
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भांग के पकौड़े


भांग के पकौड़ों की खास बात यह होती है कि इसमें भांग होती है और यह बात सिर्फ बनाने वाला जानता है. जैसे बजट में क्या है यह बजट बनाने वाला जनता है. भांग का ऐसा है कि इसका सेवन करने वाला मस्त रहता है. जीएसटी के चिमटे से चाहे कोई उसके कपड़े तक खेंच ले जाये उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है. राजनीतिशास्त्र के फुटनोट में कहीं लिखा है कि जनता को भांग पिला कर राख लपेट दे और राजा  मस्त राज करे. भांग की खासियत है कि यह पिलाई जा सकती है और खिलाई भी जा सकती  है. पीना तो खैर पीना है, जैसे राजेश खन्ना ने जै जै शिवशंकर करते हुए पी डाली थी. लेकिन खाने का मामला थोड़ा अलग है. जो खिलाई जाती है उसे गोली कहते हैं. दक्ष मुखिया जानता है गोली कैसे देना है. ना ना, गोली से आप वो गोली मत समझ लेना जो आजकल हमारे गुंडे भाई भरे बाजार किसी को भी ठों से मार कर देश की जनसंख्या नियंत्रण नीति को अपना समर्थन और सहयोग देते हैं. ये गोली भांग की गोली है जो अंटी यानी कन्चे की तरह होती है. सफल नेता छाती चौड़ी करके मिडिया के मार्फ़त रोज एक गोली देश को खिला देता है.  भोलेनाथ के इस परसाद से भक्त झूमते रहते हैं. लेकिन चुनाव के पहले जनसभाओं में जो बांटा जाता है उसे भांग का अंटा कहते है. यों समझिये कि अंटा अंटी का पति होता है और पेकेज की तरह भरापूरा और मोटा होता है. अंटी व्यवस्था बनवाती है और अंटा बहुमत दिलवाता है. 
 युवा शक्ति इनदिनों पकौड़ों के माध्यम से अपना गौरवशाली इतिहास लिख रही है. शिक्षित व्यक्ति जो भी काम करता है सलीके से करता है. वह कम तेल में ज्यादा पकौड़े तल सकता है. आकार-प्रकार और मिर्च मसले का अनुपात तय कर वह पकौड़ों के चार वर्ण बना सकता है. हरा-पीला डाल कर हिन्दू-मुसलमाँ पकौड़े बना सकता है. उसे बताया गया है कि जब चाय बेचने से ये हो सकता है तो पकौड़ा बेचने से वो क्यों नहीं हो सकता है. भांग कई तरह की होती है, यानी ‘ये’ भी होती है और ‘वो’ भी हो सकती है.  भांग के पकौड़ों का मजा तलने वाले को आता है और खाने वाले को भी. कहते हैं कि राजनीति के कुंओं में भांग पड़ी हुई है. सुना है कि  दिल्ली का पानी ऐसा है कि उसे पीते - नहाते रोम रोम से लुच्चापन टपकने लगता है. अब आप नाराज मत हो जाइये प्लीज. जब धर्म को अफीम कहा गया तब भी उसका कुछ नहीं हुआ तो राजनीति को भांग कह देने से कुछ होना जाना नहीं है. डिब्बी और बोतल पर लिखा है कि ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ फिर भी न सिगरेट छूटती है न शराब. भांग के पकौड़ों की वेरायटी बहुत है, इधर विकास का पकौड़ा है, उधर बुलेट ट्रेन पकौड़ा, पकौड़ा मंदिर, पकौड़ा महंगाई, पकौड़ा भ्रष्टाचार, पकौड़ा कलाधन, पकौड़ा पाकिस्तान, पकौड़ा तीन तलाक, और भी बहुत कुछ. और खुश खबर, भांग के पकौड़ों को आधार से नहीं जोड़ा है, इसलिए बारबार खाते रहो, मस्ती भरे तराने गाते रहो. अंटा है, गोली है. बुरा न मानो होली है.
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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

हल्के होने का सुख


कुछ लोग स्वाभाव से बड़े जिज्ञासु होते हैं और हर बात की तह तक जाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जिज्ञासा तो बाकी लोगों में भी होती है लेकिन वे अशांत जिज्ञासा और बड़प्पन के झगड़े में न पड़ कर वे मूर्खता को ही साध लेते हैं. मूर्खता को साधना ज्ञान की साधना से कठिन है. कहते हैं ज्ञानी को दस बाधाएं आती हैं, मूर्ख के लिए एक भी नहीं. समर्थकों का मनना है कि मूर्ख आदमी समाज के लिए उतना खतरनाक नहीं होता है जितना आला दिमाग हो सकता है. कहते हैं अपने शुरुवाती दिनों में कालिदास मूर्ख थे, बाद में कवि हो गए. इस ट्रेक रिकार्ड के कारण कवि आज भी अपने को बुद्धिमान साबित करने की कोशिश में संघर्ष करते देखे जाते हैं. वैसे कवि से समाज को कोई खास खतरा नहीं होता हैं. मोहल्ले में एक  हो तो लोग उसकी इज्जत तक करने लगते हैं. जैसे मोहल्ले में अकेला सांड हो तो लोग उसे रोटी डाल देते हैं. लेकिन दो चार हों तो डंडा फटकारने के आलावा कोई चारा नहीं होता है. हालाँकि मानने वाले मानते हैं कि सांड को डंडा मरने से पाप लगता है. इसलिए वे प्रायः सांड और कवि से बच कर ही निकलते हैं. 
पाप को लेकर हमारी सोच बहुत कलात्मक है. जिन्हें अंडा खाने से पाप लगता हैं उन्हें बेईमानी करने से नहीं लगता. वे मानते हैं कि बेईमानी अंडा नहीं अवधारणा है. अवधारणाएं कमजोर लोगों के लिए होती हैं. पुजारी अच्छी तरह से जानता है मंदिर की हकीकत. उसका काम अवधारणा को बनाये रखना है. अवधारणा बनी रहे तो मेरा-तेरा ही नहीं पूरी सृष्टी का काम चलता रहता है. अब देखिये, किसी ज़माने में कुप्रचलित अवधारणा के अनुसार भ्रष्टाचार पापपूर्ण कार्य था. कर्मवीरों ने अवधारणा बदल दी और पाप को पुण्य की गरिमा प्रदान की. अब भ्रष्ट आदमी को जब पुलिस औपचारिकतावश पकड़ कर ले जाती है तो वह मुस्कराता है, हाथ हिलाता है, फोटो के लिए पोज देता है और प्रकरण की गंभीरता को सिरे से नकार देता है. इससे व्यवस्था मजबूत होती है और लोगों में एक अच्छा सन्देश जाता है कि महापुरुष विपत्तियों का सामना हँसते हुए करते हैं. कल कोई सरकार जेल जाने वाले समाज सेवियों को पेंशन देगी तो उसमें वे अग्रिम पंक्ति में होंगे. अभी एक सर्वे से पता चला कि अधिकांश बेरोजगार सरकारी नौकरी चाहते हैं. उनका मानना है कि सरकारी नौकरी संभावनाओं के एटीएम से भरी होती है. प्रायवेट में तो तनख्वाह के आलावा कुछ नहीं होता है, उस पर जुल्म यह कि काम भी करना पड़ता है. इसलिए पीजी जैसी उच्चशिक्षा लेने वाले भी चपरासी की सरकारी नौकरी के लिए भागे चले आते हैं.  प्रायवेट कंपनी में टाई वाला साहब बनाने से सरकारी चपरासी होना रोज गंगा नहाना और रोज पुण्य कमाना है. सिस्टम के बाहर से जो पाप दिखाई देता है वह सिस्टम के अन्दर पुण्य का फल है. सिस्टम में शामिल होते ही व्यक्ति में दिव्य ज्ञान का संचार होता है कि संसार में ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं खडगता हैकरता ईश्वर ही है, और वह जो करता है अच्छा ही करता है.  वह मानने लगता है कि हम्माम यानि दफ्तर में सब नंगे हों तो कपडे वाले अधर्मियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई होना चाहिए. इसलिए हे सद्पुरुष, पाप के भय से मुक्त हो कर दैवीय सिस्टम में उन्मुक्त विचरण कर. पाप मात्र एक विचार है, और सिस्टम की इस पवित्र भूमि पर विचार एक सुविधाघर से अधिक कुछ नहीं है. जब भी आवश्यकता महसूस हो इसमें जाते रहना चाहिए, हल्के होने के सुख और आनंद को, हल्के हो कर ही जाना जा सकता है. 
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रविवार, 28 जनवरी 2018

कामरेड कहाँ जाते हैं मरने के बाद ?


किसी जमाने में बुजुर्गों का बड़ा महत्त्व हुआ करता था. जीवन की जटिलताओं से दो चार होने में उनके अनुभव काम आया करते थे. मसलन बच्चा पैदा हुआ है तो घुट्टी चटाना है या शहद यह कौन बताएगा ? किन्नर नेग मांगने के लिए दरवाजा और ताली पीट रहे हैं उनसे कौन निबटेगा ? ब्याह शादी के जैसे प्रसंगों पर कैसे बात बैठाई जाये कि लड़की वालों से ‘दहेज़ नहीं - दहेज़ नहीं’  कहते हुए दुनिया भर का सामान भी जप लिया जाये, वगैरह. लेकिन अब जमाना बदल गया है, बुजुर्ग केवल आशीर्वाद देने के लिए हैं, वो भी देओ तो ठीक नहीं तो रखो एफडी बना कर अपने पास.
  अब दुनिया बदल गयी है. बच्चों के  पास उपयोगी ज्ञान है. वे जिज्ञासु भी बहुत हैं, सवाल पर सवाल पूछते हैं. अभी हमारे वाले राहुल ने  पूछा कि दादू ये बताओ कि सब लोग मरने के बाद स्वर्ग या नरक में जाते हैं तो कामरेडों का क्या होता है ? मरने के बाद वे कहाँ जाते हैं ?!
अपना राहुल बड़ा तेज है, सवाल से ज्यादा पेंचीदा मामला ये है कि गलत जवाब देना उसके साथ लूडो खेलते गोटी पिटवाने जैसा है. सोचने का अभिनय करते हुए मैंने बताया कि जो भी मरता है स्वर्ग या नरक ही जाता है, कामरेड भी वहीं  जाता है. लेकिन उसका तर्क था कि कामरेड  नास्तिक होता है. जो ईश्वर को नहीं मानता हो, पूजा-पाठ  में जिसका विश्वास नहीं हो, जिसके लिए स्वर्ग या नरक का कोई अर्थ नहीं हो, वो वहां कैसे जा सकता है !?
“बेटा ऐसा है कि कामरेड भले ही ईश्वर को नहीं मानता हो लेकिन ईश्वर तो कामरेड को मानता है. हर सुबह जब धूप खिलती है तो कामरेडों की पत्नियाँ भी कपड़े सुखाने छत पर आती हैं या नहीं. जब बारिश होती है तो कामरेड को भी घर से छाता ले कर निकलना होता है या नहीं.” मैंने समझाने का प्रयास किया लेकिन उसने टका सा जवाब दिया, - “दादू फिलासफी झाड़ कर बचो मत, जब कामरेड स्वर्ग-नरक  सिस्टम को ही नहीं मानते हैं तो उन्हें वहाँ ले जाने का सवाल ही नहीं है.”  बच्चन सामने होते तो कहता कि क्विट करता हूँ, जवाब नहीं पता. लेकिन राहुल ! समझो घर का नया मुखिया है सो दूसरा रास्ता लिया, “बहुत से लोग होते हैं जो सरकार को नहीं मानते हैं बल्कि कई तो सरकार के विरोधी भी होते हैं. लेकिन वे भी कानून के दायरे में होते हैं. सीबीआई या आईटी वालों के छापे भी अक्सर उन्हीं के यहाँ पड़ते हैं. इसी तरह दूसरे पहुंचें या नहीं पहुंचें कामरेड जरूर वहाँ पहुँचते हैं.” राहुल ने फ़ौरन सवाल दागा, - “ स्वर्ण-नरक दोनों जगह पहुँचते है ?” 
“स्वर्ग तो शायद नहीं लेकिन नरक जरुर पहुँचते होंगे. भगवान भी इंसानों की तरह होते हैं. वो कथा सुनी है ना सतनारायण की, झूठ बोलने पर उन्होंने धन से भरी नौका को फूल -पत्ती  से भर दिया था. जिसके पास सत्ता होती है वो लाइव टीवी और विदेशी मेहमानों के सामने अच्छे  अच्छों को पीछे की पंक्ति में बैठा देता है. ऐसे माहौल में कामरेडों की क्या चलेगी. भगवान की  मर्जी , वो उनको स्वर्ग-नरक  कहीं भी बैठा दे.” लेकिन जैसी कि आपको भी आशंका है राहुल सहमत नहीं हुआ. उसका कहना है कि जो मजलूमों के साथ होते हैं, उनको संगठित करके संघर्ष करते हैं ईश्वर उन्हें नरक में डाल कर खतरा तो उठाएंगे नहीं. और स्वर्ग में भी जगह देंगे नहीं. फिर सवाल ये कि वे जाते कहाँ है ? हमने एक और ट्राय मारा- “वे फिर से पैदा होते होंगे. जैसे इन दिनों कहते हैं ना ‘बार बार, छप्पन इंची सरकार’.”
अपना राहुल तो भईया राहुल है, माने क्या ? बोला - “फिर तो देश और दुनिया में कामरेडों की संख्या बढना चाहिए थी ! लेकिन देख रहे हो ना, गिनती के रह गए हैं, टायगरों की तरह. मिडिया वाले भी उन्हें लुप्त होती प्रजाति की तरह दिखाते है. सवाल वही है, ‘कामरेड मरने के बाद जाते कहाँ हैं’.

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गुरुवार, 25 जनवरी 2018

विरोध कर, लेकिन मत कर


कल्चर बदल रहा है, सोच भी बदल रही है. आप सबके साथ हों न हों सबके साथ दिखना जरुरी है. जब समर्थक तन कर खड़े हों तो उनके समर्थन में और जब विरोधी हाथ में पत्थर लिए हुमक रहें हों तो इसमे कुछ कहने की जरुरत नहीं.  इन दिनों  शराब के विरोध का दौर  है. विरोध के लिए अपनी देह के साथ प्रदर्शन करना पड़ता है. फोटू-ओटू छप जाती है, बड़ा मजा भी आता है. शाम को बढ़िया पार्टी-वार्टी भी होती है. कई बार विरोध प्रदर्शन में लोकल नेताहोन भी आ कर बैठ जाते हैं. लोकल नेता लोकल ट्रेन की तरह होता है, हर छोटे स्टेशन पर रुक लेता है. अभी विरोध प्रदर्शन में बैठा है, शाम को किसी बार में बैठा मिलेगा. किसी में इतना लचीलापन नहीं हो तो वह पक्का तो क्या कच्चा जनसेवक भी नहीं बन सकता है. आजकल नेता को सब पता होता है, नेता को ही क्यों सबको सब पता होता है. इसलिए हा-हू के बाद सब यही कहते हैं कि ‘देख लेना होना-जाना कुछ नहीं है.  विरोध की एक परम्परा होती है, लोकतंत्र में इसका बड़ा महत्त्व होता है. इसलिए समय समय पर विरोध में सबको सहयोग करना चाहिए. 
मॉड मैडमें प्रायः अपने मेकप को लेकर सुपर गंभीर होती हैं, लेकिन शराब विरोध को लेकर भी वे कुछ गंभीर टाईप हो लेती हैं. उनका मानना है कि वे शराब की दुकान का विरोध कर रही हैं. दुकान यहाँ से हट जाये और कहीं और शिफ्ट हो जाये, बस. लेकिन इतनी दूर भी ना हो कि ‘किसी को’ आये दिन दिक्कतों का सामना करना पड़े. यू-नो, पेट्रोल आजकल कितना महंगा होता जा रहा है और गाड़ियाँ भी एवरेज कम निकाल रही हैं. ट्रेफिक भी इतना है कि टाइम बहुत बर्बाद होता है. शहर तक को स्मार्ट बनाया जा रहा है तो शहरी भोंदू कैसे रह सकते हैं !? उनको भी माडर्न लाइफ होना कि नहीं होना ?
सरकारें भी लोकतंत्र के साथ परिपक्प हो चली हैं. छोटा-मोटा विरोध प्रदर्शन चलता रहे तो उसे भी लगता है कि तवज्जोह मिल रही है. आखिर लोगों को भी कुछ मांगना चाहिए, हर पांच साल में सरकार ही मांगती रहे यह अच्छा भी नहीं लगता. शराब का पहला विरोध हुआ था तो बोतलों पर लिखवा दिया था कि ‘शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’. अब आप जानो आपका काम जाने. यह चेतावनी अंग्रेजी में भी लिखवाई गई. सरकार जानती है कि अंग्रेजी जानने वाले सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं ‘अंग्रेजी’ से भी प्रेम करते हैं. हिंदी वालों का मामला अलग है, ‘चेतावनी’ शब्द उनके शब्दकोष में है ही नहीं. जैसे नेपोलियन के शब्दकोष में भी कुछ शब्द नहीं थे. जब ‘चेतावनी’ शब्द है ही नहीं तो क्या बीडी-सिगरेट, तम्बाकू और क्या शराब !! सब ज्ञानी हैं, जानते हैं शरीर नाशवान है, और चेतावनी देने वाले पट्ठों का शरीर भी बचेगा नहीं. भवान कह गए हैं कि जो भी है बस आत्मा है. शस्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती  तो शराब क्या कर लेगी भाय !? ऐसा कोई समय नहीं रहा जब राजा-प्रजा और मधुशालाएँ नहीं रहीं. तो हे अर्जुन रामचंदानी, मनुष्य बार बार जन्म लेता है और बार बार मरता है. इसलिए जीवन में ‘बार’ के महत्त्व को समझ. आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर. हे प्रिय, दर्शन को समझ और प्रदर्शन में जा, विरोध कर लेकिन विरोधी मत बन. सरकार पीने वालों से सहयोग कर रही है, तू सरकार से कर. 
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सोचिये मत, दबा के खाइए और मस्त रहिये


कहते हैं कि सोचना भी एक काम है, और बहुत कठिन काम है. इनदिनों कठिन कामों के लिए  क्रेश कोर्स का चलन है. सुना है अपने राहुल भिया भी सोचने लगे हैं. ये बहुत अच्छी बात है. हालाँकि यह भी सच है कि अच्छी बातें विलम्ब से हुआ करती हैं. मैं नहीं सोचता हूँ, अव्वल तो मुझे सोचने का कभी कोई काम पड़ा नहीं, जब कभी किसी ने कहा कि इस मामले पर सोचो तो सबसे पहले सवाल यही आया कि कैसे !! एक अनुभवी ने बताया कि बैठ कर सोचो, गाँधी जी भी बैठ कर ही सोचते थे, संसद भवन के बाहर उनकी मूर्ति लगी है जिसमें वे बाकायदे सोच में पड़े बैठे दिखाई दे रहे हैं. खड़े आदमी के घुटने बेचारे उसे खड़े रखने में व्यस्त होते हैं. अनुभवी बताते हैं कि अगर घुटनों में दर्द हो तो सोचने का काम लगभग असंभव है. जिन्हें गठिया हो जाता है वे पूरे समय गठिया के आलावा कुछ नहीं सोच पाते हैं. लेकिन जिनको सर दर्द हो रहा हो उनके साथ ऐसा नहीं है. बावजूद दर्द के वे कहीं पेड़ के नीचे बैठते हैं और गर्रर से सोचने लगते है मोपेड की तरह. माना जाता है कि पेड़ आक्सीजन ही नहीं देते विचार भी देते हैं. बड़े बड़े संत-महात्मा, डाकू वगैरह पेड़ के नीचे बैठे सोचा करते थे. अब दिक्कत ये हैं कि हमारे यहाँ लोग नये पेड़ लगा ही नहीं रहे हैं. बल्कि आप गवाह हैं इसके कि पुराने पेड़ लगातार बेरहमी से काटे जा रहे हैं. महानगरों में पेड़ नहीं है इसलिए विचार भी नहीं है. एक विचारहीन यांत्रिकता है जिसे लोग जिंदगी कहते हैं. पन्द्रहवें माले की बालकनी से नंदू नीचे भागते दौड़ते लोगों को देखता है और खुश होता रहता है कि वह इस तरक्की का हिस्सा है. वो तो अच्छा है कि कमोड लगे हैं घरों में और कुछ देर मज़बूरी में ही सही वहां बैठना पड़ता है. जो लोग इस पवित्र स्थान पर फोन ले कर नहीं बैठते हैं वे विचारों की कुछ हेडलाइन झटक लेते  हैं. पुराने जमाने में डूब कर सोचने का मशविरा भी मिला करता था. लेकिन आप बेहतर जानते हैं कि नदी में कूद कूद कर नहाने वाले अब आधी बाल्टी में नहा रहे हैं तो डूबने की गुंजाईश बचती कहाँ है. चुल्लू भर का रिवाज तो समझो खत्म ही हो गया है. संसार का बड़े से बड़ा बेशरम ले आईये वो मरने को तैयार नहीं है, भले ही पांच साल की सजा दे दीजिये, जेल में माली बना दीजिये या पांच-पच्चीस लाख जुर्माना कर दीजिये वो हेड लाइन में बत्तीसी चमकता ही मिलेगा. 
सुना है सोचने के कुछ कायदे भी हैं. जैसे कवि, शायर या कलाकार टाईप के लोग प्रायः गर्दन को ऊंचा करके सोचते हैं ताकि साफ हो जाये कि वे ऊँचा सोच रहे हैं. ऐसे में कोई कोई ठोड़ी के नीचे हाथ भी रख ले तो माना जाता है कि गंभीर चिंतन भी हो रहा है. कई बार बड़े नेता इसी तरह सोचते फोटो में दिखाई देते हैं. इससे पढ़े-लिखे वोटरों को अच्छा सन्देश जाता है. हालाँकि बाकी लोगों की यह धारणा बनी रहती है कि नेता लोग बड़े वाले कलाकार होते हैं. कलाकार वह होता है जो करता तो दीखता है लेकिन वास्तव में वो नहीं कर रहा होता है जो करता है,…. और जो वह वास्तव में करता है वो किसी को नहीं दीखता है. सीबीआई को भी नहीं. जब कुछ सोचने की गुन्जाइश ही नहीं है तो जनता भी अब कलाकारों से काम चला लेती है. वो जानती है कि ये अलीबाबा राजनीति में आया है तो किसी न किसी दरवाजे पर जा कर ‘खुल जा सिम-सिम’ जरुर बोलेगा. ये अकेले नहीं, इनके साथ चालीस चोर और भी हैं. अगर इन्हें नेता मानेगा तो दुखी होगा, कलाकार मानेगा तो फिल्म या नाटक का मजा मिलेगा. …… लगता है आप सोचने लग पड़े हैं, ……. सोचिये मत, …… भोजन भंडारों में जाईये, ….. दबा के खाइए और मस्त रहिये.
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मंगलवार, 16 जनवरी 2018

सिस्टम से पंगे !


देखिए, एक बात साफ साफ समझ लीजिये, प्रायवेट स्कूल चलाना सरकारी स्कूल चलाने जैसा पवित्र काम नहीं है. देसी जमीन पर विदेसी स्कूल देने के लिए ऊपर से नीचे तक कितने पापड़ बेल कर देना पड़ते हैं आपको पता नहीं है. अच्छे लोग वही होते हैं जो सिस्टम के साथ मिल कर चलते हैं. जानते ही हो कि सिस्टम बाय द विशिष्टजन, ऑफ़ द  विशिष्टजन, फॉर द विशिष्टजन होता है ? जब हम सवा लाख रुपये फीस लेते हैं और देने वाले देते हैं तो साफ है कि आपसी अंडरस्टेंडिंग सिस्टम को सपोर्ट करने की है. हर चीज ओन द पेपर नहीं होती है, बहुत सी हवाला की तरह भी होती हैं. हाथ मिला कर ग्लेड टू मीट यू कहना सिस्टम का पासवर्ड है. जब तक कोई पकड़ा न जाये या कोई दिक्कत पेश न आये तब तक सब ठीक है. हमारी बसें भी, ड्रायवर भी और स्कूल भी. स्कूल की मंशा किसी की जान से खेलने की नहीं मात्र पैसे से खेलने की होती है. हालाँकि आप देखेंगे कि पढ़ाई-लिखाई के मामले में हम कोई समझौता नहीं करते हैं. आपको बच्चे में अंग्रेजी के आलावा कुछ नहीं चाहिए था. वही हम करते भी हैं. सरकार के आदेश के बावजूद सारी किताबें अपनी मर्जी की महँगी वाली चलाते हैं. टीचर्स को अच्छी तनखा देते हैं. एक एक दिन का उनका काम तय होता है. लेकिन बसों का फिटनेस लेने का काम सिस्टम से होता है. पेरेंट्स लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उनका काम भी बिना पैसा दिए कहीं भी नहीं होता है. अगर आप कहें कि स्कूल को ईमानदारी से सब काम करना चाहिए तो साहब सॉरी कहना पड़ेगा. हमने कभी नहीं कहा कि बच्चों की फीस ईमानदारी की कमाई से दीजिये. 
 आज आप बसों की फिटनेस को लेकर सवाल कर रहे हैं, कल लंच देखने चले आयेंगे ! परसों सवाल करेंगे कि सप्ताह में अलग अलग रंग की चार तरह की यूनिफार्म क्यों है ? जूते-मोज़े, बस्ता-बैग वगैरह दसियों बातें हैं जिन पर आपकी चोंच खुलने लग जाएगी. इतनी आज़ादी किसी पेरेंट को नहीं मिलेगी. आप आज़ाद है,  देश आज़ाद है लेकिन स्कूल केम्पस के बहार. यहाँ कोई आज़ादी नहीं चलेगी. अगर बच्च्चा तरह तरह की चालाकियां देखता है तो सीखता है, जो आगे चल कर उसके जीवन में काम आती हैं. ईमानदारी और मेहनत से कोई आदमी सफल हुआ होता तो इस सिस्टम की जरुरत ही क्या थी ! जो सिस्टम पर संदेह करेगा उसे सिस्टम में कोई जगह नहीं मिलेगी. और याद रखिये, जो सिस्टम को चुनौती देगा उसे सिस्टम की चुनौती का सामना करना पड़ेगा.
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