गुरुवार, 27 मई 2021

पहलवान रोया, ... चाँद रोया तारे रोये साथ साथ


 

वह बड़ा पहलवान है, ओलंपियन कहते हैं उसे, दुनिया भर में ताल ठोकता घूमता रहा है . उसने अपने से छोटे को पप्पू समझ खूब पीटा, इतना कि उसकी मौत हो गई . खबर है कि गिरफ़्तारी में फफक फफक कर रो रहा है . पुलिस तक की पत्थर दाल पसीज रही है . चाय-पानी का पूछती है तो वो रोने लगता है . पहलवान जान गया है कि उसे जो भी मिला है अब तक सब छिनने वाला है . यह सोच सोच कर वह रात रात भर रोता है . उसके साथ चाँद रोया, तारे रोये साथ साथ . उसके रोने की खबर ब्रेकिंग न्यूज में भड़भड़ाई तो लोगों में सहानुभूति की लहर सांय-सांय करती बहने लगी . महिलाओं का तो ऐसा हैं कि रोते हुए आदमी को देखती हैं तो तपे मोम सी पिघलने लगती हैं . पहलवान क्या रोया देश की आधी आबादी दो नैनों में आँसू भरे निंदिया से दूर चली गई . नौजवानों ने देखा तो पहले पैग के बाद ही सोच में पड़ गए, पहलवानी में जाएँ या नहीं जाएँ,  टू बी इन पहलवानी ऑर टू बी इन पकौड़ा बिजनेस ! कोई अगर लाईव पांच-सात मिनिट धार धार रोए तो सहज ही सोचना पड़ता है कि उसने रात भर में रो रो कर कितने तकिये गीले कर दिए होंगे ! अकेला आदमी बेचारा, वो भी पहलवान ! कैसे रोया होगा ! कायदे से रोने के लिए मिनिमम एक कन्धा लगता है . किसी शायर ने कहा है – “आपके पहलू में आ कर रो दिए ...” सो कुछ लोग रोने के लिए पहलू पसंद करते हैं . यों देखा जाए तो जिसके पास पहलू होता है उसी के पास कन्धा भी होता है . एक के साथ एक फ्री . वो तो अच्छा है कि मीडिया  ‘दिशाहीन’ नहीं है वरना दीपक रसिया कन्धा खोजता और ब्रेकिंग न्यूज में पहलू दिखाता . पहलवान की बिगड़ी को और बिगाड़ देता . या फिर दो तीन शामें इसी बात को लेकर बहस बैठती कि बिना पहलू के कोई पूरी रात कैसे रोया होगा ! और आखिर में बहस इस बात पर कि ‘सदी का रोतला पहलवान’ कौन है !?

आप में से कईयों को यह प्रश्न अवश्य सता रहा होगा कि आखिर दहाड़ने वाला पहलवान रोया क्यों ? जो मामूली गुस्से में हड्डियाँ तोड़ दे वो रोने के लिए आँसू किधर से लाया आखिर ! बात इस पर होनी चाहिए . तो जान लीजिये कि पहल करने वाला पहलवान होता है . और पहल करने के लिए कोई काम छोटा नहीं होता है . कई बार छोटे छोटे काम बड़े काम के होते हैं . लोग जब आपके काम के कारण लगातार कुपित हो रहे हों तो रुदन से ही अपनी सफाई दी जा सकती है . समय समय पर रो कर रुदन को गरिमा प्रदान करना भी बड़े पहलवानों का काम है . रोना सिर्फ काम नहीं कला भी है . सच बात तो यह है कि रोना एक दांव भी है . सही मौके पर सही मात्रा में कोई दांव लगाये यानी रोये तो दो चार आंसू हड्डी तोड़ पहलवान को आर्थोपेडिक सर्जन का सम्मान दिलवा सकते हैं . टीवी वालों ने माइक आगे कर पूछा – “ आपने रोने की यह कला कहाँ से सीखी है ?”  पहल-वान बोला –“जीवन की कसरत सब सिखा देती है . बूढ़े उस्तादों से खूब सिखने को मिला है . दांव सही लग जाए तो पूरे देश को चित किया जा सकता है .”

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बुधवार, 19 मई 2021

लांग लिव सुल्तान

 


   शिकार से लौटने के फ़ौरन बाद सुल्तान ने मारे गए जानवरों के लिए शोक व्यक्त किया . दरबारियों ने कहा जो मर गए वो तो मुक्त हो गए लेकिन जो बचे हैं सुल्तान का शोक उनके लिए एक भरोसा है . राजनीति में भरोसा गले में  बंधा ताबीज होता है जिसमें चूहे की लेंडी भरी हो तो भी सुरक्षा का भाव पैदा हो जाता है . सुल्तान जब भी किसी को मारते हैं या मरने के लिए छोड़ देते हैं, बाकायदा शोक व्यक्त करते हैं . उन्हें पता है कि शोक व्यक्त करने से रियाया में उनके प्रति आदर बढ़ जाता है . इसलिए एक अन्तराल से शोक व्यक्त करते रहना उनकी सियासी जरुरत है . अपने शोक को रियाया तक मुकम्मल तरीके से पहुँचाने का उनका पुख्ता इंतजाम है  . कैमरा मेन से लगाकर चैनल मालिक तक उनके शोर-संचार माध्यम हैं  . वे सुल्तान के शोक को मुल्क के लिए हर बार गैर मामूली घटना की तरह पूरे चिल्ला-चिल्ली  के साथ पेश करते हैं . कई बार महज शोक व्यक्त करने के लिए सुल्तान को जानें लेना पड़तीं हैं . बिना किसी के मरे या मारे शोक व्यक्त करना व्यावहारिक भी तो नहीं है . आज उन्होंने अपने शोक सन्देश में कहा कि जान इन्सान की जाए या जानवर की, उनके लिए एक बराबर है . सुल्तान का दिल बहुत बड़ा और मिज़ाज बहुत नरम है, वह इन्सान और जानवर में कोई फर्क नहीं करता है . जब कभी भी जानवर मारे गए उन्होंने समझा जैसे कि इन्सान मारे गए हों . और जब जब इन्सान मारे गए उन्होंने माना कि जानवर मारे गए . चाहने वाले सब सुल्तान से इत्तफाक रखते हैं, लेकिन उनके खानसामा की राय कुछ अलग है . वह रसोई में सिर्फ और सिर्फ जानवरों को ही पकाता है . इस वक्त भी जब सुल्तान शोक व्यक्त कर रहे हैं खानसामा अपने काम में व्यस्त है .

सुल्तान के दिल की बात कोई नहीं जानता है . जब भी मुल्क से ‘दिल की बात’ के नाम पर वह कुछ कहता है तो दिल अपनी सेक्रेटरी के पास मंथली मेंटेनेंस के लिए छोड़ आता है . बात अपनी जगह, दिल अपनी जगह . दिल के जरिये मोहब्बत की जा सकती है, राजनीति अच्छे बुरे दिमाग का मामला हैं . फिर भी मिडिया के मार्फ़त समझाया गया कि जब जब सुल्तान दिल की बात करते हैं तो इसका मतलब रियाया यह माने कि वे मोहब्बत कर रहे हैं . ऐसे में रियाया को चाहिए कि मोहब्बत में सच-झूठ, सही-गलत, वादा-सौदा वगैरह कुछ नहीं देखे . दुनिया जानती है कि जंग और मोहब्बत में सब जायज होता है . सुल्तान अगर मोहब्बत में कोड़े भी लगवाए तो रियाया को इसमें दर्द नहीं मजा महसूसना चाहिए . यही सुल्तान प्रेम है और सुल्तान प्रेम ही देश प्रेम है .  शायर जिगर मुरादाबादी ने कहा है – “ये इश्क नहीं आसां इतना समझ लीजै ; एक आग का दरिया है और डूब के जाना है “. इधर इश्क में जब सुल्तान मुकाबिल है तो आग का दरिया नहीं, आग का समन्दर है . सुल्तान मादक बांसुरी बजा रहा है और मुल्क में उसके प्रति इश्क उफान पर है . रियाया इतनी बड़ी तादाद में कुर्बान हो रही है कि दफन के लिए सवा गज जमीं भी नसीब नहीं है . एक कब्र में दो दो मुर्दे नामालूम पड़ौसी बने दफ़न पड़े हैं. जो कभी शिकायत करते थे कि पैर फैलाओ तो सर टकराता है उन्हें मालूम पड़ गया कि सिस्टम में मुर्दे फोल्ड भी किये जा सकते हैं . सुल्तान की मोहब्बत के ये बीमार जांनिसार हैं . महंगाई से, बेकारी से, कंगाली से, कर्ज से, मर्ज से या लाठी-डंडे-गोली से चाहे मर जाएँ मगर जब भी दुआ करनी हो हाथ उठा कर यही कहेंगे ‘लॉन्ग लिव सुल्तान’ .



             

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

बेमारी-बाज़ार में राम-देसी-वीर

 


                             

चार-पांच बार फोन लगाया तब कहीं जा कर घंटी बजी . और बजी तो ऐसी बजी कि बजती ही रही . आखिर उधर से किसी ने फोन उठाया, -‘हेलो ..’

“हाँ हेलो, ... हऊँ गनपत बोल रियो हूँ खजूर खेडी से ... जे राम जी की तमारे. में कंईं के रिया हूँ कि अपने इन्जेसन चिये, वो कंईं केवे राम-देसी-वीर, कोरोनो को इन्जेसन. वाटसेप पे तमारो नंबर आई रियो हे कि तम बेचीं रिया हो भाव का भाव में. भोत अच्छो काम करी रिओ हो तम .”

“मिल जाएगा, पेशेंट कहाँ भर्ती है ?” उधर से आवाज आई.

“भरती काँ करी रिया हें !! जागो-ई नी हे कंईंपे . ओर तम देखो के अस्पताल में बेड-ई मिले हे बस . इलाज तो कोई हे नि करोनो को. खली बेड काई पईसा ले रिया हे सबे. तो बेड तो अपना घरेज हे. तम तो इन्जेसन को भाव बोलो. कितरा को हे ?”

“पच्चीस हजार का है.”

“अरे भई !  सेकड़ा का भाव बतई रिया हो कंईं ! !”

“सेकड़ा का नहीं एक का भाव है.”

“तमारे मेसेज में तो लिख्यो थो कि भाव का भाव मेंई दई रिया हो !  ...”

“पच्चीस हजार में खरीदा है दादा हमने, भाव के भाव में ही दे रहे हैं. कोरोना बाज़ार में आओ तो पता चलेगा तुमको भाव ... पैंतीस हजार में भी नहीं मिल रहा है .”

“एक के साथै एक फीरी हे कंईं ?”

“ये तेल-साबुन नहीं है दा साब, इंजेक्शन है रेमडेसिविर. जिंदगी बचती है इससे. संजीवनी बूटी है.”

“अरे मारकीट में सब जागो पे मिल रिया हे हो. तम ठीक भाव लगाओ तो लई लाँ, असो कंईं करो. ठीक भाव लगाव तम .”

“ भाव ठीक है दादा, पच्चीस का ही मिलेगा .”

“म्हारा छोरा होन जाए सेर में रोज, भाव मालम हे मके. इत्तो भाव नी हे.”

“तो जहाँ ठीक भाव में मिल रहा है वहाँ से ले लो, मेरे पास नहीं है .” फोन कट गया.

घरवाली पास ही बैठी थी. गनपत बोले –“लुटेरा होन हें सेरवाला. आपण बी जावां सेर में तो अपनो नाज ओर सब्जी भाजी कम भाव में लई ले ओर काटी पिटी ले तो पईसा बी कम मिले ! चोट्टा होन बड़ी बड़ी बिल्डिंग बनई ने बैठ्या हे पन पेट नी भरयो.”

“सबके देखि रिया हे राम जी. अपने कईं करनो, जो करेगा वो भरेगा.” पत्नी ने तसल्ली दी .

“देखजे अबी फिर करेगा फोन कि ले लो बीस में. ... बीस में दे तो ले लाँ कंईं ?”

“हूँ कंईं केऊँ ... जसा तमारी समज पड़े. ... एक इन्जेसन में हुई जायगो ? ... कम तो नी पड़ेगा ? ... बेन-बेटी होन के बुलावगा तो सबे आयगा फिर . ”

“पुर जाएगा हो... यां अपने सरकारी अस्पताल की नरस को बोल दांगा कि लगई दे थोड़ो थोड़ो सबको. कोरोनो माता हे ये तो, हाथ जोड़ लांगा, माथा टेकी दांगा, मानी जाएगी. देवी देवता होन फूल नी फूल की पाँखडी से-ई राजी हुई जाए. मनक में सरदा होनी चिये बस .” गनपत ने ऊपर देख कर हाथ जोड़े.

“पांच छोरी अने पांच जंवई दस तो येई हुई ग्या. ओर बच्चा होन को ले के अई ओर उनके नी लगवावगा तो बुरा मानेगा सब .सबके लगवाई रिया हो तो उनके बी लगवाई दो .”

“गेली की गेली रेगी तू तो, रोज टीवी देखे पन समजे कुछ नी. चिल्ला चिल्ला के बोली रिया कि पेतालीस से उप्पर वाला को लगवानों जरुरी हे . अट्ठारा साल से कम के बच्चा होन को जरुरत नी हे इन्जेसन की .”

“ अब म्हारे कंईं मालम ! क़ज़ा कसी बेमारी बनई हो भगवान ! उम्मर देखी ने चेंटे ओ बई ! ... दो जन अपन बी तो हाँ, अपने नी लगेगा कंईं ?” घरवाली ने पूछा .

“अपने कईं करनो अब ! नाती-पोता सब देखि लिया, अब कईं काम अपनो ! ...एं ?”

“लगी जाए तो लगई लो, तीरथ करी लांगा संगे संगे ... पुरी जाएगा एक इन्जेसन ?”

“तू फिकर मत कर ... नरस से बोली दांगा के पानी मिलई दे थोड़ो सो. अपनों ब्योहार अच्छो हे उके संगे. अरे परसाद जसो हुई जायगो न वा. करोना माता का मान राइ जायगो तो अपनों घर छोड़ी देगी और कंईं. धरम को काम सोची समजी ने करनो पड़े. घर की बात हे कोई हिसाब तो देनो नी हे सरकार को.”

“दस दस में देता तो अपन दो लई लेता मजे में, भाई-भावज को बी बुलवाई लेती में तो .”

“ फोन तो आयो नी अब लक ... फिर लगाऊं कंईं ?”

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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

दिमाग प्रतिबंधित है पार्टी में

 






                       
“हमारी पार्टी को लेकर ऐसा क्या लगा आपको कि कार्यकर्त्ता बनना चाहते हैं ?” अध्यक्ष जी ने सदस्यता लेने आए पवन कुमार विश्वबिहारी से पूछा .

“पार्टी के बारे में काफी सुना है मैंने इसलिए मैंने सोचा सर ...”

“सर नहीं श्रीमान या महोदय कहें .” अध्यक्ष जी ने टोका .

“जी महोदय, ... मैंने बहुत सोचने के बाद तय किया कि आपकी पार्टी सबसे अच्छी है . देश प्रेम आपकी पार्टी में कूट-कूट के मार-मार के भरा हुआ है . और अनुशासन भी गजब का है . आप बन्दे को जिस कुर्सी पर भी बैठा देते हो वो उस पर ही बढ़िया काम करने लगता है, चाहे उसमें उस कुर्सी की योग्यता हो के न हो . ये चमत्कार किसी और पार्टी में देखने को नहीं मिलता है इसलिए मैंने सोचा कि ...”

“सोचते बहुत हो !! ... खुद ही सोचते हो अपने आप या कोई बौद्धिक देता है ?” अध्यक्ष जी ने नाक पर चश्मा  चढाते हुए पूछा .

“जी महोदय, मैं ही सोचता हूँ . मतलब विचार करता हूँ . विचार करना मुझे बहुत अच्छा लगता है . विचार करने से तरह तरह के विचार आते हैं . बहुत से विचार राष्ट्रीय भी होते हैं इसीलिए मैं राजनीति में आना चाहता हूँ .”

“राष्ट्रीय सोच लेते हो ! ऐसा कब कब सोचते हो ?”

“वैसे तो सोचता ही रहता हूँ ... जैसे मछली का पता नहीं होता है कि वो कब पानी पीती है वैसे विद्वानों का भी पता नहीं चलता है कि कब सोचते हैं . यों समझिये कि चलता ही रहता है .”

“सोचने की फेक्ट्री हो ! पार्टी के बारे में कब से सोच रहे हो ?”

“अभी दो तीन महीने से सोच रहा हूँ कि आपकी पार्टी ...”

“एक बार सोचना शुरू करते हो तो कितनी देर तक सोचते रहते हो ?”

“यों समझिये कि स्टेशन से गाड़ी छूटती है तो फिर नॉनस्टॉप चलती है , सुपरफ़ास्ट ..”

“नॉनस्टॉप ! सुपरफास्ट ! ... सोच कर बताओ . कैसे सोचते हो .”

“महोदय ! ... वो क्या है ... मुझे कुछ ठीक से ... जैसा आप समझें ... मतलब मेरा ... इस समय कुछ पक्का नहीं है .”

“हिंदी में सोचते हो या अंग्रेजी में ?”

“ सोचते तो अंग्रेजी में हैं किन्तु बोल नहीं पाते इसलिए फाइनल ड्राफ्ट राष्ट्र भाषा में ही निकालते हैं .”

“सोचने के आलावा और कोई काम करते हो ? ... नौकरी वौकरी ?”

“नौकरी अब कहाँ है महोदय ! ... गए ज़माने . चाय का ठेला लगता हूँ .”

“फिर क्या दिक्कत है !”

“दिक्कत कुछ खास नहीं... सोचता हूँ कि चाय बेच रहा हूँ तो पार्टी भी ज्वाइन कर लूँ . परम्पराओं  का सम्मान करने वाली है आपकी पार्टी .”

“ फिर सोचा !! हर समय सोचते ही रहते हो !!”

“हाँ ... चाय बनाने में दिमाग तो लगता नहीं है . चाय उबलती है उसके साथ ही विचार भी .”

“आगे क्या चाय बेचना छोड़ दोगे ?”

“महोदय मैंने तय किया है जब तक दूसरा कुछ बेचने को नहीं मिलेगा चाय ही बेचता रहूँगा .”

“सोचते हो और तय भी कर लेते हो !!”

“जी महोदय ... एक बार सेवा का मौका दें .”

“देखो युवक, शरीर को मजबूत बनाओ, बलशाली बनों लेकिन सोचने के चक्कर में मत पड़ो .”

“महोदय मेरा दिमाग तेज है पार्टी के काम आएगा.”

“ये तुम सोचते हो लेकिन पार्टी को दिमाग और दिमाग वालों की जरुरत नहीं है . खोपड़ी अगर ठोस यानी ठस्स हो और ऊपर सींग उगे हों तो ले सकते हैं पार्टी में .”

“फिर दिमाग का क्या करूँ महोदय !”

“मंदिर जाते हो तो जूते बाहर उतारते हो ना ?

“मंदिर तो नंगे पैर जाता हूँ ... आजकल जूते चोरी बहुत होते हैं ना .”

“हूँ ... पार्टी में जब भी कोई आता है नंगे-दिमाग आता है . ये बात समझ लो युवक .” पार्टी को तुम्हारा शरीर चाहिए दिमाग नहीं.”

“सिर्फ शरीर की भर्ती करते हैं आप !?”

“हाँ ... वो भी तब तक, जब तक कि रोबोट पर्याप्त मात्र में बनने नहीं लगते . दिमाग प्रतिबंधित है इसलिए हमारी पार्टी मजबूत है.”

“महोदय मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है ... सोच कर बाद में बताऊंगा .”

“ फिर सोच !! तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता, तुम चाय बेचते रहो .”

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सोमवार, 29 मार्च 2021

अश्वत्थामा हतौ ...

 




           किसी ज़माने में झूठ बोलने वाले को राजा दरबार में सबके सामने छड़ी से पिटवाया करता था . गुनाह यह होता था कि झूठ उसने क्यों बोला . झूठ ऐरे गैरों के बोलने की चीज नहीं है . मामूली मुँह झूठ के वजन से खुद ही पिचक जाता है . आम आदमी सीधा-सच्चा और चरित्रवान होना चाहिए . चरित्र एक तरह का बारकोड होता है, ऊपर से कुछ भी समझ में नहीं आए लेकिन अन्दर एक एक लेनदेन दर्ज होता है . लोग घरों में रहते दिखाई देते हैं लेकिन असल में वे बाज़ार में रहते हैं . बाज़ार की पहली शर्त सफलता है . चिंता की बात यह है कि हर कोई झूठ बोलने लगेगा तो झूठ की मार्केट वेल्यू क्या रह जाएगी . घार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धा पूर्वक पचा लिया . इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं . लोगों को पूरे विश्वास के साथ झूठ पर कान देना चाहिए. झूठ सुनना और उस पर सहमत रहना देशभक्ति है . जो झूठ को झूठ मानते हैं वे गलत तरीके से शिक्षित हैं और कम्युनिस्ट भी हैं . देशभक्ति को गरिमा प्रदान करने के लिए इनसे सख्ती से निपटने की जरुरत है . हाथों में लाल रुमाल ले कर, सच के नाम पर आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ने की इजाजत इन्हें नहीं दी जा सकती है .

              कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं . जिस राज्य में झूठ विकलांग रह जाता है वहां की सरकार निकम्मी कहलाती है . झूठ को पैर लगाने का काम राजनीतिक कौशल से ही संभव होता है . जब चलते धर्मयुद्ध में कहा गया कि “अश्वत्थामा हतौ ...” तभी से राजनीति में झूठ को दौड़ने वाले पैर मिल गए . जिस झूठ में प्रभु का समर्थन हो वो संसार का नियम हो जाता है ... और नियमों से ही व्यवस्था बनती है . जो व्यवस्था में नहीं हैं वो कितने ही बड़े क्यों न हों डस्टबिन के लायक हैं . हरी नीली बास्केट में कितने सफ़ेद हाथी अपने पीले दांत बगल में दबाए पड़े हैं किसी को पता है !?

             समझदार कह गए हैं की शिखर पर पहुँच तो सकते हैं लेकिन शिखर पर बने रहना बहुत मुश्किल है . लोकतंत्र के चलते राजा बने रहना तो और भी कठिन है . हर दूसरी सभा में छाती ठोक के ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ कहना पड़ता है . इसके लिए सवा किलो का कलेजा लगता है . वक्त जरुरत जब बयान देना हो, कोई वादा करना हो, कोई आंकड़ा बताना हो यानि विकास वगैरह का,  तो झूठ के बिना बड़ी दिक्कत हो जाती है .  हर मौके के लिए अलग रंग, अलग ढंग का, अलग वजन का झूठ चाहिए होता है ! कहीं सफ़ेद झूठ, कहीं ग्रे, कहीं काला, हरा, पीला, लाल झूठ . कभी इतिहास का, कभी वर्तमान का और कभी भविष्य का झूठ . कभी धर्म का, कभी विज्ञान का, कभी भूख, कभी गरीबी, कभी दान, अनुदान का . ज्ञानी कह गए हैं कि संसार मिथ्या है तो इसके मायने अब समझ में आ रहे हैं . राजनीति का बड़ा सच छोटे से राजनीतिक-झूठ में छुपा हुआ होता है . राजनीति में झूठ एक परफोर्मिंग आर्ट है . जनता भी वोट देने से पहले परफोर्मेंस देखती है . कोई चीख कर, चिंघाड़ कर, मटक मटका कर, अंडे को कबूतर में और आदमी को गधे में बदल देता है वही अव्वल आता है . झूठ का जादू मिडिया में चढ़ कर बोलता है . इसीलिए जनता को यानि हम लोगों को नेता नहीं जादूगर चाहिए . जी बोल दे ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ और पूरी बाज़ी पलट जाए .

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सोमवार, 15 मार्च 2021

दुखी होने का क्या लोगे ?

 

         


                    

                 पुराने चावल कहाते रहे तो पन्नों में बासमती दर्ज हो गए . सम्हाल ठीक से नहीं हुई तो इल्लियाँ पड़ गयीं और कब बास मरने लगे पता ही नहीं चला . राष्ट्रीय पार्टी का ठप्पा होने के कारण उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है . विपक्ष में हैं और उनके रहते  जनता दुखी न हो यह डूब मरने की बात है . इतिहासकार लिखेंगे पार्टी इसलिए डूब गई कि वो जनता को दुख का अहसास नहीं करा सकी ! हालाँकि उनके पास पीढ़ियों का अनुभव है कि दुःख में से सुख कैसे निकला जाता है . कहा जाता है कि डर के आगे जीत है . इसका राजनितिक मतलब है जो डराने में सफल हो जाता है वही जीतता है . विडम्बना ये है कि डरा वही सकता है जो खुद डरा हुआ नहीं हो . महापुरुष गब्बर सिंग प्रवचन दे गए हैं कि जो डर गया वो मर गया . लेकिन इससे डर ही बढ़ता है निडरता नहीं आती . उस पर एक एक करके जय और वीरू पाला बदलते जाएँ तो सीने का नाप बदल जाता है, इधर भी और उधर भी . दाढ़ी बढ़ाने से आत्मविश्वास बढ़ता है लेकिन सुना है कम्बख्त गर्लफ्रेंड नहीं मानती . जिन्हें पहाड़ जैसा कुछ चढ़ना है उन्हें किसी भी तरह की यानी पार्ट टाइम या फुल टाइम गर्लफ्रेंड से दूर ही रहना चाहिए . अनुभवी बताते हैं कि उसका रिचार्ज करवाते करवाते अच्छा भला आदमी पचास का हो जाता है . कोई शायर कह गए हैं कि “खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए;  रहा दिल में हमारे ये रंज-ओ–अमल, न इधर के हुए न उधर के हुए ” .  लेकिन अनुभव जलेबी है उज्जैनी मावे की, खाए बगैर कोई मानता भी नहीं है . गुरु कहते हैं कि राजनीति भरवाँ बैंगन नहीं हैं दादी के हाथ के, कि आए बैठे और मजे ले के डबल सटका  गये . इतना आसन भी नहीं है कि जनता से सीधे पूछ लें कि भईया दुखी होने का क्या लोगे !  आजकल लोग सयाने हो गए हैं, ज्यादा कुरेदो तो शेरवानी और लाल गुलाब दिखाने लगते हैं .

                  इधर जानता अपने को सुखी महसूस करने पर अमादा है . औंधा लटका के कोई खाल भी खिंच ले तो थेंक्यू कहने पर उतारू . पता चलता है हर आदमी जबरा फिलासफर है . मानता है सोचो तो संसार में दुःख ही दुःख है नहीं सोचो तो सुख ही सुख . सारी दिक्कत सोचने की वजह से है . सोचने का सम्बन्ध ज्ञान से है और ज्ञान दुकान पर मिलता है . दुकान का नाम टीवी और इंटरनेट है . ये सुख करता दुःख हरता हैं . राजनीतिशास्त्र में लिखा है कि  इन्हें नेवेद्य लगाओ तो प्रसन्न होते हैं या फिर इनकी नाक दबाओ तो मुंह खुलते हैं . राजनीति नकार को स्वीकार में बदलने की कला है . सो पूरी टीम को व्यवहारिक होना चाहिए . नाच मेरी टीवी-बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा . जिसे लोग चैनल समझते हैं वो दरअसल चीयर गर्ल है . उधर बल्लेबाज झूम के शाट लगाते हैं इधर गर्ल्स चेयर से उछल उछल जाती हैं . दर्शकगणों  आप सोचो मत, कोई पूछे तो बताओ कि मजे में हो . यह समझ लो कि खुश रहना ही देशप्रेम है . टीवी वालों का क्या है ... रस्सी, डमरू और डंडा सरकारी; नाचे कूदे बंदरिया, खीर खाए मदारी . तो सब लोग बजाओ ताली, जो न बजाए उसको मारे घरवाली.

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बुधवार, 10 मार्च 2021

लाल कोबरा का डिस्को डांस

 


                         लाल कोबरा अपने बिल से बाहर निकला तो जंगल की बदली रंगत देख कर उसकी फूंक निकल गई . चारों ओर सरसों और टेसू फूले हुए थे . माहौल में ग़जब का उछाल था और जमीन से आसमान तक कहीं केसरिया तो कहीं पीला दमक रहा था . वह सोच में पड़ गया कि क्या गजब अनसोचा सीन है !! उसके मुंह में जितने डॉयलाग पड़े हुए थे सारे सकते में आ गए . अभी तक तो सब तरफ लाल था कहाँ चला गया ! वह लाल से ही होली खेलता आ रहा था . जब लोग लाल से होली खेलते थे तो लगता कि पार्टी का प्रमोशन हो रहा है. लाल उसका इतना प्रिय कि खुद अपने खून से उसे ‘कामरेड, कोई शक’ की आवाज सुनाई देती है .  उसने  गरीबों का मसीहा बनने के लिए डंडा पकड़ा था . स्कूल में जब परेड होती थी तो वह लेफ्ट-राइट को अनसुना कर देता था और उसकी जगह लेफ्ट-वन लेफ्ट-टू सुनता . लेफ्ट ही उसका राइट था और राइट हमेशा लेफ्ट . उसने लाठी को उठा कर उसका वजन कूता और हाईकमान को फोन लगाया, -“साहब  इधर तो सब मोसंबी-नारंगी है ! मेरा लाल किधर गया ? होली है सर होली ! सारा लाल साफ कर दोगे तो होली कैसे खेलेगी पब्लिक ! थोड़ा लाल जरुरी है कल्चर के वास्ते.”

                “नवजात ... भूल जाओ लाल को, याद रखो लाल को देखते ही भड़क जाना अब तुम्हारी ड्यूटी  है .” साहब ने याद  दिलाया .   

               “लेकिन साहब मैं लाल कोबरा हूँ .”

               उधर से आवाज आई - “कोबरा नहीं तुम डांसर थे और अब सांड हो . कोई डांसर अपने आपको कोबरा-फोबरा कुछ भी समझता रह सकता है लेकिन पार्टी का अपना आकलन होता है .  पार्टी अनुशासन को फ़ॉलो करो, लाल को देखते ही तुम्हें फ़ौरन भड़क पड़ना है . कोई शक ?”

                “नहीं साहब, ... जी साहब, जिधर भड़काओगे भड़क जाऊंगा साहब .  लेकिन होली का क्या ? वो तो लाल से ही ....”

                 “अनुशासन को प्राथमिकता दो डांसर, यहाँ डिस्को नहीं भारतनाट्यम सिखाया जाता है . सुबह जल्दी उठो, प्रार्थना करो और व्यायाम भी . वरिष्ठजनों  से ज्ञान  लो उसके बाद मुंह खोलो . और होली है तो टेसू के फूल चुनने जाओ.  कुछ दिन रहो हमारे साथ , अच्छा लगने लगेगा.  वैसे कोबरा जी, आप चिंता मत करो उचित समय आने पर आपको दूध भी पिलाया जाएगा.” साहब ने फोन बंद कर दिया .

                  कोबरा ने अपने को ऊपर से नीचे तक देखा, एक लहर सी उठी और लगा कि उसका अस्तित्व एक दुम में तब्दील हो गया लग रहा है . उसने ऊपर देखते हुए अपने आप से सवाल किया कि एक कोबरा दुम कैसे हो सकता है !! आकाशवाणी हुई, प्रभु बोले - ‘ वत्स, लेफ्ट से राइट हो चुके हो तुम . विकास के इस मायावी पथ पर अनेक रंगबिरंगी दुमें साथ चलीं जो अब ब्लेक कोबरा हैं .  तुम भी विकास पथ पर आगे बढ़ चुके हो तो दुम क्या चीज है, कुछ भी हो सकता है . वैसे सांड होना भी बुरा नहीं है. प्रमोशन समझो इसे. सोचो भगवान के गले में लिपटे पड़े होने से उन्हें पीठ पर ले कर चलना अधिक सम्मानजनक है. सो अब उठो, चाय-वाय पियो, केंचुली बदलो फटाफट और लाल रंग देख कर भड़को.  ...   क्या पता कल को सीएम ही बना दिये जाओ ...  नई  जिम्मेदारी है, इसमे कोई शक नहीं होना चाहिए ? ”

                  वह बुदबुदाया “भालो पोरभो ... आमि इक्ता कोबरा , इक चोबोल-ई छोबि .”

 

 

 

 

 

 


शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है

 




जब चूल्हा नहीं जलता है तो पेट जलता है. लेकिन जले तो दुनिया का जले, आपका क्यों जले. आइये आज आपको चूल्हे के मामले में आत्मनिर्भर बनने का उपाय बताते हैं. बिजली और गैस की चिंता से मुक्त हो जाइये और समय के साथ चलिए. संकोच मत कीजिये, जहाँ से चले थे वहीँ पहुंचना प्रकृति के साथ चलना है. खाली हाथ आना और खाली हाथ जाना यही ईश्वर की मर्जी है. विकास भी एक परिधि के रूप में गति करता है.

चूल्हा बनाने के लिए हमें सिर्फ छः ईंटों की जरुरत है . मज़बूरी ये है कि ईंट किराने की दुकान पर मिलती नहीं हैं. ऑनलाइन मिल सकती है लेकिन पक्का नहीं है . सबसे अच्छा यही है कि किसी बनते मकान से ले आयें . आसपास देखिये कहीं मकान बन रहा हो तो वहाँ से छः ईंटें लाइए . ईंट आजकल बहुत महँगी है, सस्ती के ज़माने में रूपए की पांच मिल जाया करती थीं . अब सात रूपए की एक मिलती है . बैंकें लोन देने लगें तो चीजें महँगी होने लगती हैं . घ्यान रहे बनते मकानों पर चौकीदार रहता है . लेकिन आप समझदार और  शहरी हैं, काम निकालना जानते हैं . उसे मुस्कराते हुए भईया कहें और दैन्य भाव से छः ईंटें मांगे. गरीब आदमी जल्दी पसीजता है, सम्भावना यही है कि वो दे देगा क्योंकि उसके बाप का क्या जाता है. किन्तु ये भी हो सकता है कि मना कर दे, लेकिन आप कोशिश जारी रखिये. देश और दुनिया के हों न हों अक्सर मकान के चौकीदार ईमानदार होते हैं . दरअसल ईमानदारी के आलावा उनके पास कुछ होता नहीं है . इसलिए लोग उनसे सबसे पहले ईमानदारी ही खरीदते हैं . आप पढ़े लिखे हैं और जानते हैं कि चूल्हा जलाने की समस्या उसके सामने भी है. किसी गरीब के साथ पहली बार डील थोड़ी कर रहे हैं. दस का नोट दीजिये और उसी के सर पर रखवा कर छः ईंटें घर लाइए. आपके मन में स्टार्ट-अप जैसी फिलिंग आएगी जो कि इस वक्त जरुरी है.

आप जानते ही होंगे कि गैस चूल्हा संसार में बहुत बाद में आया . पहले वो चूल्हा आया जो आप अब बनाने जा रहे हैं. ऐतिहासिक चीजों को जानना और अनुभव करना बहुत गौरवपूर्ण होता है. जब लगेगा कि आप संस्कृति की और लौट रहे हैं तो छाती अपने आप चौड़ी होने लगेगी. चौड़ी छाती बड़े काम की होती है . चौड़ी छाती वालों को दहेज़ तगड़ा मिलता है. बैंक वाले चौड़ी छाती देख के लोन फटाफट दे देते हैं . और तो और चौराहों पर लाल बत्ती में इनको रुकने की जरुरत नहीं पड़ती है. खैर, आपको क्या करना है इन सब बातों से, आप चौड़ी छाती से चूल्हा बनाइये. हाँ तो अच्छी समतल जगह देख कर यू शेप में तीन ईंटों को जमाइए, उसके ऊपर तीन और रख दीजिये. लीजिये फटाक से आपका चूल्हा तैयार है. गौर से देखिये, लगेगा जैसे पुलिस के बेरिकेट्स तीन तरफ से लगे हैं और आग चाहे जिसकी हो रोटी सेकने तक यहीं कैद कर ली जाएगी. आग जलाइये और मजे में रोटी सेकिये. चूल्हे की अवधारणा यही है, जलाओ और सेको. अब आपको कुछ सूखी लकड़ियाँ चाहिए जो लोकतंत्र में विरोधी दलों की तरह जल्दी आग पकड़ सकें. वाम लकड़ियाँ जल्दी आग पकडती हैं लेकिन उनके जंगल सूख गए हैं. आजकल देखने को भी मिलती नहीं हैं. कोई बात नहीं आप चिंता नहीं करें. शुक्र है ऊपर वाले का, अभी श्मशान में लकड़ियाँ मिल जाती हैं. वहीँ से ‘मेनेज’ कर लीजिये. मुर्दे को पांच किलो लकड़ी कम मिलेगी तो शिकायत करने नहीं आएगा. अपना चूल्हा जलाने के लिए जागरूक नागरिकों को कुछ तो नया करना ही पड़ता है. तो चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है ... .

 

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बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

कचौरी परमिट

 



राजा पिता होता है प्रजा का . प्रजा को कितना चाहिए, क्या चाहिए, क्यों चाहिए ! विकास तभी होगा जब सारा कुछ बाप के नियंत्रण में होगा. वरना तो भेड़ के झुण्ड की तरह खाया कम उजड़ा ज्यादा. देश बूफे नहीं है समधी का कि ठूंसते चले गए. सबको अनुशासन में रहना होगा. कितना-क्या खाना है, क्या पहनना है, किसकी कितनी पूजा करना है, किसको लाइक, किस पर कमेन्ट करना है, कब सोना-जागना है, पडौसी को कब हाय-बाय बोलना है. सब .

नंबर आने पर  उन्होंने आवेदन लिया और पढ़ा . “माननीय महोदय, सेवा में विनम्र निवेदन है कि मुझे बहुत समय से बेचैनी जैसा फिलिंग हो रहा है . मन बहुत उदास रहता है . भूख लगती है परन्तु नहीं लगती है . रात को नींद खुल खुल जाती है और बड़ी बड़ी कचौरियां दिखाई देती हैं . थाली में पड़ी दाल-रोटी काटने को दौड़ती है . दिल हरी और लाल चटनी  के लिए हूम हूम करता है . बाबा ने भी कहा है कि कृपा वहीँ अटकी हुई है . इसलिए हुजूर से निवेदन है कि मुझे कचौरी खाने का परमिट देने की कृपा करें . आज्ञाकारी, आधार कार्डधारी, बालमुकुन्द गिरधारी . “

देश आत्मनिर्भरता की सड़क पर है जिसमें जगह जगह अनुशासन के स्पीड ब्रेकर भी हैं . क्षेत्रीय कचौरी-समोसा अधिकारी बड़ी सी टेबल लिए, बुलंद ब्रेकर बने बैठे हैं . दीवार पर सुनहरे रंग में लिखा है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’. बावजूद इसके दफ्तर में लोग खा रहे हैं और खाने दे रहे हैं . कचौरी और समोसों की अनुमति के लिए बाहर अलग अलग लाइन थी .

साहब ने उपर से नीचे तक ताड़ने के बाद पूछा – “टेक्स देते हो ? ... रिटर्न की कॉपी नहीं लगाई !”

“टेक्स नहीं देते हैं सर ... हमारा मतलब है टेक्स नहीं बनता है . “

“क्यों नहीं बनता है ?”

“गरीब हैं सर ... मज़बूरी है .”

“फिर तो सरकार खिलाएगी तुम्हें  कचोरी-वचोरी सब. कार्ड बनवा लो बस .”

“कार्ड तो बना है साहब ... “

“फिर क्या दिक्कत है !?”

“कचौरी नीचे आते आते भजिया हो जाती है, वो भी ठंडा-बासी.   ... सुना है सब प्राइवेट हो रहा है, बड़े बड़े लोग बहुत बड़ा बड़ा और गरमागरम खा रहे हैं ... परमिट मिल जाए तो हम गरम कचौरी खा लेंगे” .

“कितनी कचौरी का परमिट चाहिए ?”

“तीन-चार बस .”

“पिछली दफा कब खाई थी ?”

“याद नहीं सर ...बहुत दिनों से नहीं खाई .”

“याद नहीं !! क्या मतलब है इसका ! कचौरी खाई और भूल गए ! सिस्टम को मजाक समझ रखा है ! टीवी वाला पूछेगा तो कह  दोगे कि सरकार कुछ करती नहीं है ! ... एफिड़ेविड लगेगा अब. चले आए मुंह उठा के ! जंगल समझ रखा है क्या ! नियम कानून कुछ है या नहीं ! देश ‘नहीं खाने से’ आगे बढ़ता है, कचौरी के लिए लार टपकाने से नहीं . ”

“करीब डेढ़ महिना हुआ सर ... तब खाई थी .”

“उसका सेंशन लेटर कहाँ है ? फोटो कॉपी लगाना पड़ेगी .”

“अगली बार लगा दूंगा सर, इस बार कुछ ‘मेनेज’ कर लीजिए प्लीज”.

थोड़ी यहाँ वहाँ के बाद पच्चीस रूपए का नोट जेब में डालते हुए बोले -“कितनी खाओगे ?”

“जी ... तीन-चार ... नहीं पांच-छह .“

“सिर्फ दो खाओ वरना कचौरीजीवी हो जाओगे ... वो देखो लिखा है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ बावजूद इसके तुम्हें परमिट मिल रहा है.”

“सर ये कचौरी के लिए नहीं किसी और चीज के लिए लिखा है !”

“हाँ हाँ समझ रहे हैं . दूर कर लो गलतफहमी ... रिश्वत खाई नहीं जाती है ली जाती है . लेने-देने पर रोक होगी तो विकास कैसे होगा !“

 

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सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

गाँधीजी की लाठी में कोपलें

 


           


   सुबह अचानक खबर फैली कि चौक वाले गाँधीजी जिस लाठी को लिए खड़े हैं उसमें कोपलें फूट आई हैं ! सबसे पहले सेल्फी लेने वालों की भीड़ उमड़ी उसके बाद कमर कस के मिडिया वाले उतरे . चन्द मिनिटों में लाठी देश भर में ब्रेकिंग न्यूज के साथ लाइव हो गई . हर चैनल   का दावा था कि वो ही सबसे पहले ये खबर आप तक पहुंचा रहे हैं . स्टूडियो में बैठी सुंदरी मंथरा सिंह ने चरचराती आवाज में चीखते हुए बताया कि चैनल को उनके विश्वस्त खोजी सूत्रों से पता चला है कि गाँधीजी भी लाइव होने जा रहे हैं और कुछ कहने के लिए उन्होंने खादी पार्टी के ‘पीएम-इन-ड्रीम’ को बुलवाया है . हमारे प्रतिनिधि पत्रकार रवि जलजला मौके पर मौजूद हैं . “रवि, लाठी में कोपलें फूट चुकी हैं, आप प्रतिमा के पास जा कर यह पता लगाइए कि क्या गाँधी जी की धडकनें भी चालू हो रही हैं ? “

            रवि ने अपने तर गले से सूखी आवाज में बताया कि “आप ठीक कह रही हैं मंथरा, अभी अभी मैंने गाँधी जी धड़कन सुनी हैं . उनका दिल असामान्य धड़क रहा है . लग रहा है जैसे पास कहीं से ट्रेन गुजर रही हो .”   रवि का वाक्य समाप्त होने के पहले स्क्रीन पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ का ब्रेकिंग डांस होने लगा . साथ ही मंथरा स्थानीय प्रशासन को लापरवाह बताते हुए मांग कर रही थीं कि मेडिकल टीम द्वारा गाँधी जी का बीपी और ईसीजी चेक करवाया जाए. आखिर वे देश के बापू हैं और हर नोट पर उनकी तस्वीर छपी हुई है . दिल दिमाग में हों न हों पर हर नागरिक की जेब में वे अवश्य होते हैं.

          खादी पार्टी के प्रवक्ता का बयान आया कि गाँधी जी यह सन्देश दे रहे हैं कि जब उनकी लाठी में कोपलें फूट सकती हैं पार्टी में भी नई जान फूंकी जा सकती है . पार्टी ने फैसला किया है कि वो गाँधी जी की इस प्रतिमा को दिल्ली लाएगी और मार्गदर्शन लेगी. ब्रेकिंग न्यूज का कैबरे हुआ – गांधीजी को दिल्ली लाया जाएगा और पार्टी उनका इलाज बड़े अस्पताल में करवाएगी . दिल्ली की दूसरी सरकार वाले बोले – केंद्र सरकार बजट में कटौती कर रही है जिसकी वजह से हमारी सरकार को अपने हिस्से के पूरे गाँधी नहीं मिल रहे हैं . बावजूद इसके बापू दिल्ली लाए जाते हैं तो हम बिजली-पानी मुफ्त देंगे और उनका वोट लेंगे . इसमें कोई पार्टीवाद या जातिवाद नहीं चलने दिया जाएगा .                                        

               तत्काल प्रदेश के मुख्यमंत्री लाइव हुए और बोले कि गाँधी जी को कहीं ले जाने नहीं दिया जाएगा . कोपलें हमारे प्रदेश में फूटी हैं तो इसका मतलब साफ है कि यहाँ लाठी की जड़ें गहरी हैं . सरकार आभारी है कि बापू ने स्टार्ट-अप के लिए प्रदेश को चुना है . लाठी का यह पेड़ कल बड़ा होगा और उसमें लाठियों की फसल आएगी . प्रदेश में कानून और व्यवस्था के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं उसे गाँधी जी का समर्थन मिलने से सरकार को बल मिला है . रहा सवाल धडकनों का तो हम कोशिश करेंगे कि जो तीन गोलियां अन्दर फंसी पड़ी हैं अब उन्हें निकलवा लें . उनकी कमर में लटकी घड़ी में आज भी पांच बज कर सत्रह मिनिट हो रहे हैं ! एक बार धड़कन ठीक से चलने लगे तो गाँधी जी को एक डिजिटल वाच दी जाएगी कलाई वाली . इधर देर से चुप बैठी चौधरानी बोल पड़ी-- पीपल जब मुंडेर पर उग सकता है तो गांधीजी की लाठी पे क्यों नहीं ! चौधरी ने घुड़क दिया – ओए चुप कर ... तू चेनल वालों से ज्यादा अक्कल वाली हो गई है क्या !!

 

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बुधवार, 20 जनवरी 2021

सातवाँ दांत हिल रहा है

 




पहली बार दांत में दर्द हुआ था तो डाक्टर ने सबसे पहले अक्कल दाढ निकल दी और कहा अब जब भी तकलीफ हो या न भी हो तो कुछ सोचना मत, सीधे चले आना. डाक्टर के पास सीधे चले जाते रहने से उसका आत्मविश्वास बढ़ता है. अब तक छह दांत निकल चुके हैं. डाक्साब का कहना है कि तम्बाकू तो सारे दांतों ने चबाई है, सो न्याय सबके साथ होगा. दंतशाला  में देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं. जैसे जैसे नंबर लगेगा बाकी भी निकाले जायेंगे. जिस दिन वे सोलह या इससे काम रह जायेंगे, दंत-सरकार अल्पमत हो जायेगी तो संसद भंग करके राष्ट्रपति शासन यानी डेन्चर लगा दिया जायेगा. चाहे नकली हों पर सलीकेदार दांतों से मुस्कराने का मजा ही कुछ और होता है. कल तेजी से खर्च हो रहे एक नागरिक के सारे दांत निकालने के बाद उनमें बत्तीसी फिट करते हुए डाक्टर ने कहा कि देखिये अंकल जी, अब आप कितने जवान लग रहे हैं ! जब आप मुस्करायेंगे तो मार्निंग वाक करने वाली लड़कियों के अंदर हूम हूम होने लगेगा.

मैं जनता हूँ डाक्टर यही बात एक दिन मुझे भी कहने वाले हैं. मैं तो तब बाल भी रंग लूँगा. मन तो आँख पर चढे चश्मे को भी निकाल फैंकने का है लेकिन आजकल चश्में वालों के प्रति धारणा बदल गयी है. पुराने ज़माने में तो उनकी शादी मुश्किल से होती थी जिन्हें चश्मा लगता था. लेकिन अब मुझे कौन सी शादी करना है !! इश्क लडाने भर को मिल जाये, बस बहुत हुआ. कोरी ऑक्सीजन के लिए रोज सुबह सुबह उठना वैसे भी किसको अच्छा लगता है. कोई टारगेट हो, यानी दिन की शुरुवात ईश्कियाना हो जाये इससे अच्छी बात क्या होगी, ऑफकोर्स इस उम्र में भी .

छह निकल गए हैं, सांतवे को मैं देखता हूँ, मेरी प्रयास से वो भी हिलने की कोशिश कर रहा है. रामभरोसे को, जिसे सब आरबी कहते है, मैंने बताया.

आरबी का ऐसा मानना है कि वो एक सुलझा हुआ आदमी है. सुलझा हुआ आदमी उसे कहते हैं जिसके आसपास उलझे हुए आदमी होते हैं. जैसे कि इस वक्त मैं हूँ. अगर कोई उलझा हुआ नहीं भी होता है तो ये उसे उलझा कर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कर लेता है. उनका मानना है कि दो सुलझे हुए आदमी साथ नहीं रह सकते चाहे वे पति पत्नी ही क्यों न हों. वे बोले –“ देखो गुरु, सिर्फ नई बत्तीसी लगाने और बाल रंगने से काम नहीं चलने वाला है, तुम्हें च्यवनप्राश भी खाना पड़ेगा. तुम्हारे इश्कियाने के अच्छे दिन तभी आयेंगे.

जिस आदमी की अक्कल दाढ डाक्टर की डस्टबिन में पड़ी हो, और बचे हुए दांत कभी मुलायम कभी माया के हो रहे हों और जिसे अच्छे दिनों की तलब भी हो वह क्या कर सकता है ? पिछली बार तो उसने वोट भी दे कर देख लिया था. लोकतंत्र में विकल्प खुले होते है, आदमी प्रयोगधर्मी हो जाता है, वह कुछ भी कर सकता है. च्यवनप्राश खाना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन आजकल शुद्ध च्यवनप्राश मिलना कठिन है. मैंने आरबी को कहा तो बोला –“ च्यवनप्राश शुद्ध कैसे हो सकता है !! वो तो एक मिलीजुली सरकार है.  दस-पन्द्रह चीजें एक साथ हों तो वे एक ताकत बनती हैं.

वो तो ठीक है, लेकिन कौन सी चीजें मिलायी जाती हैं सवाल यह है. अगर आलू-रतालू मिला दिए तो चन्द्रशेखरप्राश का क्या मतलब है. इसकी सूचि, अनुपात, आधार वगैरह कुछ तो होगा ?

हाँ हाँ , आधार है ना, पहला सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखना और दूसरा कमान मिनिमम प्रोग्राम इसका आधार है. एक तीसरा आधार भी है, अपना काम है बन्ता, भाड़ में जाये जन्ता .

भाई साब मैं च्यवनप्राश के बारे में पूछ रहा हूँ !! मैंने आरबी को याद दिलाया.

मै भी तो च्यवनप्राश के बारे में ही बता रहा हूँ. इससे जब सेहतमंद सरकार बन जाती है तो निजी तौर पर आपको भी उम्मीद रखना चाहिए.

रहने ही दो, मुझे सरकार के चक्कर में पप्पू नहीं बनना है भईया. दांत जा रहे हैं, कुछ निजी अच्छे दिन आ जाएँ तो समझो गंगा नहाये.

अच्छे दिन कहाँ से आते हैं ये देखो, जिसे जमाना पप्पू कहता है उस तक को मालूम है कि सरकार बनेगी तब अच्छे दिन आयेंगे. इस बात को समझो कि अच्छे दिनों का मतलब सरकार होता है और सरकार का मतलब अच्छे दिन. बाकि सब मिथ्या है.

तो इसका मतलब हुआ कि जनता के अच्छे दिन कभी नहीं आयेंगे !?

जो सरकार के साथ हैं उनके अच्छे दिन हैं और जो नहीं हैं उनके नहीं हैं. तय हमें और आपको करना है.

आपने तो  उलझा दिया, कुछ समझ में नहीं आ रहा है !

ये तो अच्छी बात है, इसका मतलब हुआ कि आप सरकार के कामों और नीतियों के समर्थक हैं. देखिये संवाद करने से स्थिति कितनी जल्दी स्पष्ट हो जाती है. इसी को सार्थक संवाद कहते हैं. मुझे तो लगता है कि आपके अच्छे दिन आना शुरू हो गए हैं. आप बस जरा सा मुस्कराइए.

कैसे मुस्कराऊँ, अभी मेरे बहुत से पुराने दांत बाकी  हैं.

मुक्ति पाओ, जीतनी जल्दी हो सके मुक्ति पाओ पुरानी  चीजों से. नए से जुडो और नए को जोड़ो, यही विकास है.

मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि संसकृति विरोधी बातें कर रहे हैं आप !

कोई किसी को किसी का विरोधी नहीं बना सकता है. समय आने पर दांत खुद गिरने लगते हैं, अंततः आपके पास नए डेन्चर और च्यवनप्राश के आलावा कोई विकल्प नहीं रहता है. .... क्या सोच रहे हो ?

कुछ नहीं, सातवाँ  दांत हिल रहा है शायद.

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 *जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर-452010

फोन-
9406701670
9826361533