शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

अंतर मात्र दोपाये और चौपाये का

कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है और यह बात आदमियों के साथ गधो पर भी लागू  होती है. इधर कुछ गैर राजनितिक जिज्ञासु पूछ रहे हैं कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ? इस तरह का सवाल किसी गधे के सामने आये तो उसे भी ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं होती, किन्तु गधे टीवी नहीं देखते हैं. प्राइम टाइम पर दनादन दुलात्तियां चल रहीं हैं जिसे बहस नाम दिया गया है. कुछ होते हैं जिन्हें लोग चिन्तक वगैरह कह कर प्रायः ख़ारिज कर दिया करते हैं, वे हर सवाल का जवाब गंभीरता से देते हैं. कायदा यह है कि जो चीज गंभीरता से दी जाये उसे गंभीरता से लिया भी जाना चाहिए. चिन्तक वैसे भी थोड़ा भारी प्राणी होता है, उस पर गंभीरता का गीलापन और आ जुड़े तो वजन बढता ही है. ऐसे ही चिन्तक किस्म के एक जी हैं, बोले - देखिये यह एक बहुत ही सामायिक और गूढ़ प्रश्न है. प्रबुद्ध समाज को यह देखना और समझना होगा कि गधा कौन है. अगर चौपाये और दोपाये से इस अंतर को कर रहे हैं तो निसंदेह हम नासमझ हैं. क्योंकि इतना अंतर तो मूर्ख भी जानते हैं. सो जरुरी है कि देश इस पर गहरे से चिंतन करे.
चिंतन को लेकर आप किसी तरह का खौफ मत खाइए. सामान्य रूप से चिंतन अच्छी चीज है. दरअसल चिंतन एक मज़बूरी होता है और कई बार शौक भी. यह दवा भी है और बीमारी भी. जब कोई चिंतन करने लगे तो उसे रोकना नहीं चाहिए. सुरक्षित यही है कि उसे अच्छी तरह से कर लेने दिया जाये. कई बार इसी से स्वास्थ में सुधार होने लगता है और लोग च्यवनप्राश को श्रेय देने लगते हैं. बड़े लोग जो बहुदा चिंतन में ही वक्त बिताया करते हैं और प्रायः दीर्धायु होते देखे गए हैं. चिंतन अनुलोम-विलोम दोनों प्रकार का होता है. सत्ता के जाते ही चिंतन विलोम होने लगता है. अगर कोई पूरी मेहनत से विलोम कर ले तो उसे अनुलोम का मौका भी मिल सकता है. खैर, इन सब बातों से आपको क्या लेना-देना. इस समय वक्त की दहलीज पर सवाल यह है कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ?
सामान्य आदमी का ध्यान आदमी और गधे में उलझ गया है. जबकि मूल प्रश्न यहाँ अंतर है. अंतर समानता का विरोधी है. लेकिन जैसा कि सब जानते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. जहाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों का महत्त्व होता है वहाँ किसी भी तरह के अंतर को बहुत बुरा माना जाता है. लेकिन इससे अंतर मिटता थोड़ी है , आदमी और आदमी में अंतर होता है, गधे और गधे में भी, चाहे वो किसी एक ही राज्य के क्यों न हों. जब अंतर की ही खोज करते रहेंगे तो अंत में हमें समानता का नामोनिशान नहीं मिलेगा. इसलिए समय की मांग है कि समानता पर ध्यान केंद्रित किया जाये. लेकिन संसार में समान कुछ भी नहीं है. जो समान समझे जाते हैं उनमें भी अंतर होता है. एक माँ-बाप की संतानों में अंतर होता है. और तो और, आदमी जो सुबह था शाम उसमें अंतर होता है. सच पूछो तो समानता एक भ्रम है. हम अंतरों के बीच में से कुछ उठा कर समानता के माथे मार देते हैं. अगर सवाल होता कि आदमी और गधे में समानता क्या है तो बात जटिल हो जाती. भूख प्यास दोनों को लगती है, प्रेम और पैदा दोनों ही करते हैं, जीवन संघर्ष और मृत्यु दोनों के हिस्से में है. फिर भी कुछ है जो उनमें अंतर करता है. अगर भारत को दृष्टि में रखते हुए देंखे तो कह सकते हैं कि आदमी चुनाव लड़ सकता है गधा नहीं. दूसरा यह कि आदमी चुनाव में गधे को मुद्दा बना सकता है लेकिन गधे के लिए आदमी इस लायक भी नहीं है. कल जब चुनाव परिणाम आयेंगे तो कोई आदमी ही जीतेगा और वह अहसान फरामोश गधे का आभारी भी नहीं होगा. किसी ने जगह जगह हाथी बनवा कर अपनी छाती चौड़ी की. कल गधों की प्रतिमा बनवा कर कोई अपना फर्ज पूरा नहीं करेगा. यही अंतर है आदमी और गधे में.


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बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

टमाटर मंडी के बाहर कवि

दोनों वरिष्ठ कवि मंडी से टमाटर खरीद कर लौटे थे. एक जमाना था जब वे दो-चार कविताएं सुना कर टमाटर-बैंगन वगैरह इकठ्ठा कर लिया करते थे. उस समय कविता को ले कर लोगों में जबरदस्त संवेदना थी. कवितायें तो उनकी आज भी वैसी ही हैं, टमाटर भी सस्ते हैं लेकिन लोगों ने बर्दास्त करना सीख लिया है.  ज्वाला जी के पास छब्बीस रूपये थे, उन्होंने तेरह किलो टमाटर खरीदे और इस सफलता पर उनके अंदर तक एक शीतलता उतर आई थी. प्याला जी के पास थे तो तीस रुपये लेकिन पच्चीस रुपये तात्कालिक भविष्य के लिए बचा कर उन्होंने मात्र ढाई किलो टमाटर खरीदे. खबरों से पता तो यह चला था कि किसान मंडी के गेट पर टमाटर फैंक कर चले जाते हैं. लेकिन वो कल की बात थी, आज टमाटर का भाव दो रुपये किलो रहा. प्याला जी की जेब अक्सर बदनाम रहती है इसलिए वे स्वभाव के विपरीत स्थाई गंभीर हैं. बोले- कितनी भीड़ थी मंडी में ! सारा शहर ही उमड़ पड़ा टमाटर खरीदने के लिए. इतने लोग नहीं आये होते तो शायद आज भी किसान फैंक कर चले जाते.
ज्वाला जी को अब कोई टेंशन नहीं था. साल भर की चटनी के लिए वे पर्याप्त टमाटर खरीद चुके थे. लिहाजा अब उनका संवेदनशील हो जाना सुरक्षित था, -- वो तो ठीक है, लेकिन किसान की सोचो. उस बेचारे की तो मजदूरी भी नहीं निकली. प्यालाजी नासमझ नहीं हैं, उन्होंने लापरवाही से जवाब दिया किसान की किसान जाने या फिर जाने सरकार. गेंहूँ,चावल,दाल वगैरह सब दो रुपये किलो मिले तो अबकी बार,रिपीट सरकार.
जरा ये तो सोचो, भाव नहीं मिलेंगे तो किसान आत्महत्या करने लगेंगे. ज्वालाजी जन-ज्वाला होने के मूड में आने लगे.
उन्हें आत्महत्या नहीं करना चाहिए. साहित्य की मंडी में हमारी कविता को कभी भाव नहीं मिले तो क्या हमने आत्महत्या की ?! प्यालाजी अपने अनुभव से ठोस तर्क दिया.
ज्वालाजी को लगा कि उन पर ताना कसा गया है, - दूसरों की तो पता नहीं लेकिन मेरी कविता को तो भाव मिलता है.
हां मिलता है, दो रुपये किलो. .... कल मैंने अखबार की रद्दी तीस रुपये में तीन किलो बेची थी. प्यालाजी ने अपना गुस्सा निकला.
दो रुपये ही सही, पर मैं मुफ्त में अपनी कविता फैंकता नहीं हूँ, कभी फेसबुक पर कभी यहाँ वहाँ . ज्वालाजी ने भी आक्रमण किया.
इस मुकाम पर बात बिगड सकती थी लेकिन दोनों ने हमेशा की तरह गम खाया. कुछ देर के लिए दोनों के बीच एक सन्नाटा सा पसर गया. साहित्यकारों का ऐसा है कि जब भी सन्नाटा पड़ता है तो उनमें समझौते की चेतना जागृत हो जाती है. पहल प्यालाजी ने की - अगर किसान खेती करने के साथ कविता भी करने लगें तो उनमें बर्दाश्त करने की क्षमता का विकास होगा. सुन कर ज्वालाजी ने लगभग घूरते हुए उन्हें हिदायत दी- कैसी बातें करते हो आप !! पहले ही बहुत कम्पटीशन है कविता में. जो भी रिटायर हो रहा है सीधे कविता ठोंक रहा है और काफी-डोसा खिला कर सुना रहा है !! और पता है किसानों के पास बुवाई-कटाई के बाद कितना समय होता है ! वो कविता के खेत बोने लगेंगे और आदत के अनुसार यहाँ लाकर ढोलने लगेंगे तो हमारा क्या होगा !? प्यालाजी को अपनी गलती का अहसास हुआ, बोले मुझे क्या, चिंता की शुरुवात तो तुम्हीं ने की थी. तुम्ही बताओ क्या करें ? ज्वाला जी सोच कर बोले- किसान पर कविता लिखो, और किसी गोष्ठी में ढोल आओ. ... बस हो गया फर्ज पूरा.

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सोमवार, 30 जनवरी 2017

बाबू बेईमान होना चाहता है

बाबू की आँखों में नींद नहीं है, आज रात दो से तीन के बीच स्वर्ण सिद्धि योग है. इस तरह  के योग तभी बनते हैं जब पूरा देश सोया होता है. कहने वाले कह गए हैं कि सोया सो खोया, जगा सो पाया. अगली गली में पोत्दारजी का बंगला है जिसकी कम्पाउंड वाल से लग कर मनी प्लांट फैला हुआ है. बाबू को इस मुहूर्त में मानी प्लांट की एक लट चुरा कर लाना है और अपने यहाँ रोप देना है. ऐसा करने पर उसके यहाँ भी पैसा आएगा, जैसा कि पोत्दार जी के  यहाँ बरस रहा है.  बाबू को ये उपाय बहुत पहले एक जानकर ने बताया है लेकिन वह हिम्मत नहीं कर सका और कई मुहूर्त निकल गए. हालाँकि मनी प्लांट चुराने के मामले में कानून की कोई धारा अभी तक नहीं है. लेकिन हिम्मत अपनी  जगह है, कानून अपनी जगह और पोत्दार जी के दो जर्मन शेफर्ड कुत्ते अपनी जगह.
जिस तरह के आदमी को हम लोग कभी कभी उसका अपमान न करने की गरज से सीधा सच्चा इंसान कह देते हैं , बाबू  ठीक वैसे ही आदमी हैं. किसी समय यानी स्कूल में उन्होंने नमक का दरोगा कहानी पढ़ी थी. तभी से उनके दिमाग  में ईमानदारी के भित्ती चित्र बने पड़े हैं. वैसे तो दुनिया जहान  के हजार काम पड़े हैं करने को लेकिन वे नहीं करते हैं. वे पहले सूंघ लेते हैं कि इस काम में बेईमानी की कितनी गुंजाईश है. पता चलता है कि आज कोई काम ऐसा है ही नहीं जो ईमानदारी से किया जा सके. इसलिए वे कुछ करते ही नहीं हैं ताकि ईमानदार बची रहे. इंतजार बस इतना है कि कोई सेठ या बिजनेस किंग जैसा कोई आए और अपनी कंपनी में उन्हें सजा ले. बाबू को यह भी लगता है कि ईमानदारी का गहरा रिश्ता अगर किसी चीज से है तो वो है नमक. लोग जिसका नमक खा लेते हैं उससे बेईमानी नहीं करते है. स्कूल के दिनों में बाबू के साथ ठकुर जालमसिंग का बेटा संग्राम पढता था. उसे घर वालों की सख्त हिदायत थी कि मीठा भले ही खा लेना पर किसी का नमक नहीं खाना, चाहे अमरुद में बुरक कर ही कोई क्यों न दे. उसी ने बाबू को बताया था कि किसी का नमक खा लो तो उसके प्रति ईमानदार रहना पड़ता है. और ईमानदारी से भला कोई जमींदारी चलती है !! लेकिन मीठे में ऐसा कुछ नहीं है, संत्री से लेकर मंत्री तक का सारा खेल मीठे से ही चलता है. और तो और भगवान तक भक्तों का नमक नहीं स्वीकारते, मीठे से ही पूजा पूरी होती उनकी. जहाँ मीठा होता वहाँ ईमानदारी को छोड़ सारे सभ्याचार होते है. सभ्य समाज की सफलता के सारे रहस्य मीठे में छुपे होते हैं. मीठे का ये सच कुछ लोगों को कड़वा लग सकता है, लेकिन कडवे को किस तरह थू कर देना है वे जानते हैं.
 कानून सबकी रक्षा नहीं कर पाता, चाहे वह निरीह काले हिरन हो या बाबू जैसे आदमी. वैधानिक न भी हो तो भी आप इसे चेतावनी मान सकते हैं. बाबू कानून से इसलिए भी डरता है कि कभी चपेट में आ गया तो इसी से मारा जायेगा. कानून का रुतबा और साख बढाने में गरीब आदमी बड़े काम आता है. अगर कोई तरक्की और सभ्यता की मुख्यधारा से अपने को बचाए रखे, यानी कोई अरमान ना रखे, जो मिल जाये उसी में खुश रहे, सरकारी टीवी, अस्पताल और स्कूल से काम चलाए, कौडियों के मोल में मिल रही अमेरिकी उतरन पहने, कंट्रोल के माटी मिले अनाज से तृप्त हो ले तो कानून खुश है. बाबू को इसमे बस एक ही दिक्कत है कि कानून से डरने वालों की कोई इज्जत नहीं करता है. यह बात उसे अच्छी नहीं लगती है. उसके मन में यह है कि भले ही लोग भोंदू मानें पर थोड़ी इज्जत भी करें. आदमी संसार में सिर्फ रोटी तोड़ने तो आया नहीं, इज्जत के लिए भी आया है. देखा जाये तो आदमी के पास इज्जत के आलावा और क्या है ! लेकिब बाबू को दुःख ये है कि आजकल इज्जत पैसे से मिलती है और पैसा बेईमानी का सगा है. एक ज्ञानी बताए हैं कि ईमानदारी और पैसा समझिए राहू-केतु हैं. दोनों एक घर में नहीं बैठते. पैसा चाहिए तो ईमानदारी का उद्यापन करना अत्यंत आवश्यक है. ईमानदारी आज के युग में एक पापग्रह है, जिस कुंडली में होता है उस जातक को कभी पनपने नहीं देता है. इस दोष का जितनी जल्दी हो सके निवारण करें. शास्त्रों में सब तरह के उपाय मौजूद है. बाबू ने ऐसे व्रत किये जिसमें नमक नहीं खाना था. मीठा खा कर अभी उत्तर दिशा में निकला कभी दक्षिण में दौड़ा. मीठा चढाया, मीठा खिलाया, मीठा बांटा. यहाँ तक कि काले सांड को खोज कर उसे गुड-दाल खिलाई. धर्म की शरण में आने से लाभ यह हुआ कि नमक पर से उसका ध्यान हटा, दिमाग में बने भित्ती चित्र धुंधले पड़े. सफलता के लिए यह पहली सीढ़ी है. उसने माना कि जो करता है वो ईश्वर ही करता है यानी देने वाला भी वही है और लेने वाला भी वही है. बेईमानी सिर्फ एक विचार है जो नियमित फूल-चन्दन करने, पूजा पाठ करने से परेशान  नहीं करता है. नमक और इश्क का चक्कर अच्छे भले आदमी को बर्बादी करता है. नमक को जुबान से आगे महत्त्व नहीं देना चाहिए, इसलिए बोल मीठे हों तो बेईमान आदमी को ईमानदार होने का सुख महसूस हो सकता है.
बाबू अब इज्जत चाहता है, सुख की जिन्दगी जीना चाहता है, दो जर्मन शेफर्ड कुत्ते पलना चाहता है. एक ड्रायवर, एक माली, एक सीए, एक वकील, अपनी सेवा में रखना चाहता है. बाबू भाग्यवान होना और कहलाना चाहता है, अपने निजी धन से कथा-भागवत के भव्य आयोजन करवाना चाहता है, भगवान को थाल भर के लड्डू चढाना चाहता है. अपने लिए मोक्ष और स्वर्ग चाहता है सबके साथ से अपना विकास चाहता है इसलिए बेईमान होना चाहता है. इसमें कोई बुराई है क्या ?

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बुधवार, 18 जनवरी 2017

छत पर धूप खाते हुए एक रिश्ते की तलाश

इस वक्त यानी सुबह के साढ़े आठ बजे बहुत सर्दी पड़ रही है. इधर लोग रात जो पड़ती है उसे ठण्ड कहते है. इसके विस्तार में जाये बगैर मेरी तरह आप भी मान लो कि कहते होंगे, अपने को क्या.  जो मिल जाये उससे काम चला लेने की आदत छोटी-मोटी गलतियों पर ध्यान नहीं देती है. तो कह सकता हूँ कि सर्दी बहुत लग रही है, और जुकाम हो जाये तो सर्दी हो गई है . कई लोग  इस स्थिति को सर्दी खा जाना भी कहते हैं. दरअसल अपने देश में खाने की रेंज बहुत बड़ी है. सर्दी सेलेकर रिश्वत तक सब इसी से व्यक्त होता है.
नीचे कांप रहा था तो घर वालों ने कहा छत पर चले जाओ और धूप खाओ थोड़ी. धूप में बैठे या पड़े हुए आदमी और धूप खाते हुए आदमी में अंतर होता है. ऐसा माना जाता है कि जो धूप खाते हैं वे सर्दी नहीं खाते. मैं छत पर हूँ और देख रहा हूँ कि अभी धूप खाने लायक नहीं हुई है . सो, इन द मीन टाइम, हवा खा रहा हूँ. हवा जो है हमारे एरिया में प्रचुर मात्र में पाई जाती है. प्रापर्टी डीलरों ने खास हवा की मात्रा की वजह से इस एरिया के भाव बहुत बढा रखे है. अभी पिछले दिनों जब तैमूर अली साहब ने दुनिया रौशन की, तब दो गली छोड़ के एक प्लाट बिका है. सुना है खरीदने वाले ने हवा की मात्रा के काफी पैसे दिए, वरना प्लाट तो कहीं भी मिल जाता. देखिये, अगर आप प्रबुद्धनुमा कुछ हैं तो हवा की मात्रा को ले कर आपत्ति कर सकते है, आपकी समस्या है. मैं प्रबुद्ध नहीं हूँ सो हवा की मात्रा को ले कर मुझे तब तक कोई दिक्कत नहीं है जब तक कि फेफड़े भर मुझे मिलती रहे.
सामने तीन मंजिला मकान है जो दरअसल एक बंगला है और जिस पर लक्ष्मी-निवास भी लिखा हुआ है. यहाँ विश्विहारी श्याम सुमन जी रहते हैं. लक्ष्मी गृह स्वामिनी का नाम है, चूँकि वे ब्याह कर लाई गईं हैं इसलिए आटोमैटिक गृह स्वामिनी हो गईं हैं. दरअसल वे कैशलेस-लक्ष्मी हैं. वे  दुर्गा, काली, चंडी या कुछ भी होती, कैशलेस ही होती. आपको लग रहा होगा कि श्याम सुमन जी कवि या लेखक-वेखक हैं. अगर लग रहा है तो लगने दीजिए, इसमें कोई हर्ज नहीं है, थोड़ी देर में अपने   आप ठीक हो जायेगा. लेकिन सचाई ये है कि श्याम सुमन दरअसल रात के पंछी हैं. कुछ लोगों को इस वजह से लगता है कि उन्हें अँधेरे में भी दिखाई देता है. वास्तविकता क्या है अभी कुछ साफ नहीं है.
तो श्याम सुमन जी अपनी तीसरी मंजिल पर टावेल लपेटे बैठे धूप खा रहे है. उनकी छत पर खाने लायक धूप आ चुकी है. अगर थोड़ी ओट मिल जाये तो वे अपने और धूप के बीच टावेल को बाधा नहीं बनने दें. किन्तु अभी तक उन्होंने ऐसा नहीं किया है, जाहिर है कि वे शिष्टाचार जैसी अनावश्यक बातों का भी बड़ी शिद्दत से ख्याल रख रहे हैं. विकास इसी को कहते हैं. आखिर आदिकाल से चल कर मानव तीसरी मंजिल तक पहुँच गया है तो उसकी प्रसंशा की जानी चाहिए. अगर वे मेरी ओर देखभर लेंगे तो मैं मुस्कराते हुए हाथ उठा कर उनका अभिवादन करना चाहूँगा. लेकिन हकीकत ये है कि वे पडौसी भी हैं. अच्छे पडौसी का धर्म होता है कि वो पास पडौस में झांके तक नहीं चाहे कोई मर ही क्यों न रहा हो. लोग मानते हैं कि जब आप पडौसी की मदद के लिए हाथ आगे बढाते हैं तो ईश्वर अपने हाथ खींच लेता है. इसलिए सच्चे पडौसी कभी मदद को आगे नहीं आते हैं और ईश्वर में हमारी आस्था को मजबूत करते हैं. इसी का नाम पडौसी धर्म होता है.
काफी समय हुआ एक बार हमारी मुलाकात हुई थी, हमने हाथ तक मिला लिया था. यह लगभग वही समय था जब हमारे प्रधान मंत्री ने चीनी नेताओं को स्वागत भोज दे रहे थे. श्याम सुमन जी के साथ इस मुलाकात को मिडिया ने भले ही कवर नहीं किया हो पर मोहल्ले के लोगों ने लाइव देखा था, लेकिन छोटा मोटा घोटाला जैसा कुछ मान कर सबने तुरंत भुला भी दिया था. मुझे लोगों की इस तरह की प्रवृत्ति पर आपत्ति है. छोटे क्या वे बड़े घोटाले भी भूल जाते हैं. अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि लोकतंत्र की सफलता के पीछे भूलने का महत्त्व है या याद रखने का. अगर मौका मिला तो श्याम सुमन जी से इस बिंदु पर विचार करना चाहूँगा. कुछ और हो न हो, ऐसा करने से वे खुश अवश्य हो जायेंगे. पडौसी अगर खुश हो तो ऐसे समय बड़े काम आता है जब आप घरेलू फटकार खा कर बाहर निकल आये हों और सामान्य होने की प्रक्रिया में किसी से बात करने के इच्छुक हों. इस तरह की विशेष परिस्थितियों में प्रोटोकोल भी आड़े नहीं आता.
आहा !!! अब मेरी छत पर भी धूप आ गई है. वंचित होने का जो अहसास अभी तक तारी था वह समाप्त हो रहा है . मै नामालूम किस्म के आत्मविश्वास से भर रहा हूँ और इसे व्यक्त करने के लिए एक जोरदार अंगडाई लेना चाहता हूँ, ताकि श्याम सुमन मुझे  और मेरी धूप को नोटिस करें. शुरुवाती कोशिशों के बाद मैं खांसता हूँ. खांसना एक कला है, इसकी भी अपनी भाषा होती है जिसमे पारंगत होते होते आदमी अपने को सीनियर सिटीजन की लाइन में बरामद करता है. पहले जब मोबाईल फोन नहीं था लोग एसएमएस की जगह खांस दिया करते थे. हमारे दादा दादी इस खांसी-चेट से बिना किसी की जानकारी में आये बहुत सा संवाद कर लेते थे. मेरी कोशिश मात्र इतनी है कि श्याम सुमन जी एक बार पलट कर देख लें तो उनका अभिवादन हो जाये. आखिर जब दो लोग एक ही सूरज से धूप खा रहे हों तो उनमें एक रिश्ता तो बन ही जाता है.
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शनिवार, 14 जनवरी 2017

मेरे वाट्सएपीया मित्र

इनदिनों जैसे ही सुबह आप फोन खोलते हैं ज्ञान का छप्पर मानों फट पड़ता है और आपको भगवान आदतन याद आ जाते हैं. हमारे आभासी शुभचिंतक  गुड मार्निंग के एक पाउच के साथ चार पोटले ज्ञान के भी पकड़ा जाते हैं. लगता है सबको ज्ञान की हाजत सी हो रही है और हर कोई वाट्सअप के कमोड पर बैठा बस एक ही काम कर रहा है. जहां सोच वहाँ शौचालय से लोग प्रेरित हुए हैं. दूसरों को सुधारने का ईचवन-टीचवन अभियान सा चल पड़ा है. गूढ़ गंभीर संदेशों में उपदेश के आलावा दो बातें और साफ हो जाती हैं, एक तो ये कि आप पूरे नहीं तो थोड़े जाहिल अवश्य हैं  और आपको सीखने की जरुरत है, और वे जहीन हैं सो कृपापूर्वक अपना दायित्व निभा रहे हैं. अब आपमें सलीका हो तो जवाब दे कर उनका आभार मानिये. किसी का संस्कार करना बहुत बड़ा काम है, मानने वाले इसे समाज के निर्माण का ठेका तक माने बैठे हैं. वे जो कर रहे हैं उसी से मनुष्यता के गौरवशाली दिन आयेंगे. ज्ञान का कोई लीगल टेंडर तो होता नहीं कि कोई चिढा हुआ व्यक्ति रात बारह बजे बाद से उन्हें रद्दी घोषित कर दे.  तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि मात्र कॉपी पेस्ट करके आदमी महान आत्मा बन सकता है. और ये छोटी मोटी नहीं आत्मविश्वास की बात है. ज्ञान बांटो तो आप जानते ही हैं कि दूसरे का बढ़े ना बढ़े अपना आत्मविश्वाश इतना बढ़ जाता कि पूछिए मत. मन के हारे हार है और मन के जीते जीत. अनुभव बताते हैं कि जो भी मन से हारा वो हमारे सामने ज्ञानचंद बनके उभरा. ये सन्देश है- दीपक बोलता नहीं, उसका प्रकाश ही परिचय देता है. ठीक उसी प्रकार हम अपने बारे में कुछ नहीं बोलेंगे, अच्छे मसेज ही हमारा परिचय देंगे.
इससे कौन इंकार कर सकता है कि जो ज्ञान देता है वो गुरु हुआ. गुरु लोगों का ऐसा है कि वे आदिकाल से ही पूज्य चले आ रहे हैं. हालाँकि नए ज़माने के लीगल-गुरु प्रेक्टिकल हैं और छठे-सातवें वेतनमान के बाद पूज्यता के मिथ्या-मोह से बाहर आ गए हैं. वे जान गए हैं कि जितना मान वेतनमान से अर्जित होता है उसका दस प्रतिशत भी गुरुगिरी से नहीं होता है. फिर आजकल लड़के गूगल की चिमटी से गुरु के कान खींच लेने में देर नहीं करते है. मेसेजबाजी में ये दिक्कत नहीं है. ज्ञान-दंगा चल रहा है, अँधेरे में कुछ पत्थर फैक कर आराम से गुड नाईट कर जाइये. जिसको लगना होगा लग जायेगा, आपको मारने के सुख से कोई वंचित नहीं कर सकता है. उतना ज्ञान तो देना ही पड़ेगा जितने से अपना गुरुभाव बना रहे.

एक गुरु मुझे लगातार दिल की बीमारी से बचने के उपाय भेज रहे हैं. उनका सोचना शायद यह है कि बाकी पुरजो के साथ इनका दिल भी वरिष्ठ हुआ ही है. लेकिन मेरा दिल मनमोहन सिंह की तरह शालीनता से अपना काम कर रहा है. मोटापा और पेट कम करने की जानकारी लगभग रोज आ रही है. भाई आप मोटे नहीं हों तो आगे भेज दीजिए, ये गरीब देश मोटों से भरा पड़ा है. अभी किसीने बताया कि सफ़ेद पैरों वाली काली बकरी के ताजा दूध में सीताफल के बीज घिस कर रोज सुबह लगाने से गंजापन शर्तिया दूर हो जाता है और सर पर इतने बाल आ जाते हैं कि आधार कार्ड दूसरा बनवाने की जरूरत आ पड़ती है. रामबाण उपाय है, अवश्य ट्राय करें. अब मैं रेहड देखते ही जाने अनजाने सफ़ेद पैरों वाली काली बकरी खोजने लगता हूँ. आप यह जान कर भी चौंकते हैं कि आपका हर हिमायती  पत्नी पीड़ित है और उसने अपनी निराशा या कुंठा का ड्रेनेज पाइप वाट्स अप के चेम्बर में जोड़ दिया है. इस मामले में एक समझदार भी मिले, उन्होंने बताया कि चीजें बुरी नहीं होती हैं यदि उसका इस्तेमाल सही तरीके से करें. रोज रोज की किटकिट से परेशान उन्होंने पत्नी को एक फोन उपहार में दे दिया. अब घर में इतनी शांति है कि चाय के लिए भी मेसेज से अनुरोध करते हैं. किसी ने सुझाया कि निराश मत बैठिये, इच्छा हो तो जिंदगी कहीं से भी शुरू की जा सकती है, आप इस मेसेज को आगे बढा कर शुभारंभ कर सकते हैं. एक साप्ताहिक मेसेज है - हजारों हैं मेरे अल्फाज के दीवाने, मेरी ख़ामोशी सुनने वाले आप भी होते तो क्या बात थी. साथ में वैधानिक सूचना यह भी कि रिश्ते खराब होने की एक वजह ये भी है कि लोग मेसेज का जवाब नहीं देते. मुगालते साफ रहें इसके प्रयास भी होते हैं-  आपकी योग्यता आपको  शिखर पर पहुंचने में मददगार हो सकती है  लेकिन शिखर पर बने रहने के लिए आपको अच्छे मेसेज पढ़ना जरूरी हैं. और नाराजी की हद इधर है- कुछ लोग ऊँचा उठने के लिए किस हद तक गिरने को तैयार हो जाते है कि मेसेज का जवाब तक नहीं देते. इतनी जल्दी दुनिया की कोई चीज नहीं बदलती जितनी जल्दी लोगों की नजर बदल जाती है. या फिर एक उलाहना ये भी कि आदमी के शब्द नहीं बोलते, उसका वक्त बोलता है. रात के बारा पैंतालीस हो रहे हैं, गुड नाईट. यानी भाड़ में जाओ .                 ---------------

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

नए साल पर एक चिकनिया चिंतन


नया साल आ रहा है तो इसमें कोई नई बात तो है नहीं, हर साल आता है. लेकिन इधर फलसफा ये कि सामान सौ बरस का और खबर पल भर की नहीं. एक समय ऐसा आता है जब जीवन पर से विश्वास कम होने लगता है. रोज सुबह उठ के आइना देखते हैं कि हाँ, वाकई हैं अभी. बशीर बद्र ने कहा है कि उजाले अपनी यादों  के साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये. और इधर सुबह से सातवाँ फोन इस सवाल के साथ आया कि कैसे मना रहे हो ?
हम लोग मनाने के मामले में दुनिया से चार कदम आगे ही होते हैं. जीत मनाना हो या कि उत्सव, हर समय बेगानी शादी में अब्दुल्ले दीवाने. मौका अपना हो या पराया मिलने भर की देर है बस. यों समझिए कि ताक में ही बैठे होते हैं. जिनके जीवन में कुछ भी नया नहीं आता, नया साल उनके लिए भी आता ही है. कोई इस बात को ले कर घिस घिस करे कि नये साल में भला नया क्या है ? तो करता रहे, उसकी समस्या है. लेकिन उनकी बात में कुछ दम तो है, नए साल में पुराना भी कायम रहे तो गनीमत है, किसी से भी पूछ लो यही कहेगा कि पन्द्रह साल पहले जिंदगी अच्छी थी. इस हिसाब से तो नया दुश्वारियां ले कर आता है तो उसका स्वागत क्यों !?
फोन आ रहे हैं तो मित्रों को बताना ही पड़ेगा कि कैसे मना रहे हो ?.
  पुराना कोई लेखक लिखता तो उसकी पंक्तियां  होतीं कि भारत एक मनाऊ देश है, यहाँ लोग मनाने के लिए पैदा होते हैं. आदमी खाने से रह जाये मनाने से नहीं रह सकता है. जिन्हें मनाने का कारण नहीं पता होता है वो दूसरों को देख कर मनाने लगते हैं. जिन्हें कारण पता होता है लेकिन नहीं मनाना चाहते हैं, वे भी डर के मारे मनाने लगते हैं. जो सहमत होते हैं  वे सहमति के साथ मनाते हैं और जो असहमत होते हैं  वे अपनी असहमति के साथ मना लेते हैं. लेकिन मैं इतना पुराना नहीं हूँ, देखता हूँ कि यहाँ जो भी कुछ होता है व्यापक पैमाने में होता है. अब नया साल सामने है तो पैमाना छोटा कैसे हो सकता है. सरकार कहे , या वे ही क्यों न कहें जिनके हाथ में सरकार का रिमोट कंट्रोल है कि हमारा नया साल ये नहीं है, फिर भी नया साल पूरा देश मनाएगा. मनाने वालों को मनाने का बहाना चाहिए. आपने गौर नहीं किया होगा कि नया साल सेक्युलर है, हिंदू ,मुसलमान, गोरे-काले सबके लिए आता है. आमिर हों या गरीब, दोनों एक तरह से मनाते हैं, बोतल-ब्रांड का फर्क हो सकता है तो होता रहे.
फोन फिर आया, - हेलो, क्या यार अभी तक आपने बताया नहीं कि नए साल का क्या प्रोग्राम है ?
पूरे साल का प्रोग्राम कैसे बता सकता हूँ जबकि मैं तो पूरे दिन का प्रोग्राम भी नहीं बनाता. मैंने जानबूझ कर घुमाऊ सा जवाब दिया.
फिर भी, कुछ तो करोगे ? क्या सोचा है ?
सोचा तो कुछ भी नहीं, आप बताओ ?
पार्टी करेंगे और क्या ! कहो तो तुम्हारे यहाँ आ जाएँ ?
सोच कर बताता हूँ . कह कर फोन रखा. सोचने लगो तो कुछ भी विचार आ सकते हैं. अचानक मुझे मुर्गों का ध्यान हो आया जो नए साल में अपनी पुरानी काया छोड़ कर नया शारीर धारण करने के लिए प्रस्थान करेंगे. पता नहीं वे जानते हैं या नहीं नए साल के मायने. जिन्दा मुर्गे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. क्या तो उनकी किस्मत होती है, तमाम मुर्गियों के बीच अकेला मायकल जेक्सन सा अश्लील हरकतें करता कि देखने वाला रश्क कर जाये. नए साल में कितनी मुर्गियां विधवा होती होंगी पता नहीं. अभी कुछ दिन पहले तक शाहरुख नाम का एक सुंदर बकरा गली में बच्चों के साथ खेला करता था. पता नहीं अब कहाँ होगा. किसी सेलिब्रिटी के यहाँ पैदा हुआ होगा तो सीधे ब्रेकिंग न्यूज और हेड लाइन्स में जिन्दा हुआ होगा. गीता में कहा गया है कि आत्मा पुराने वस्त्र को छोड़ कर नए वस्त्र धारण करती है . क्या इन प्राणियों को आभारी होना चाहिए हमारा-तुम्हारा, नए साल के जश्न का. विडंबना ये है कि गीता वे नहीं जानते. गीता मारने वालों को प्रेरित करती है और जिन्हें मरना है उनके पक्ष में भगवान नहीं बोले. खैर ..... मुझे क्या ! मैं अक्सर गूढ़ प्रसंगों से मुंह छुपा लेता हूँ. समझदारों के बीच बैठो-उठो तो व्यावहारिकता के सारे गुण आ जाते हैं. और फिर मैं कौन सा यमदूत हूँ जो मरने-जीने का हिसाब किताब रखता फिरूं. संसार एक सराय है, जिसे आना है आएगा, जिसे जाना है जायेगा. कुछ फर्क नहीं पड़ता कि साल नया है या कि दिन नया. जब आखिरत होती है तो कुछ भी ठीक नहीं होता. बच्चन कह गए हैं,--इस पर प्रिये मधु है, तुम हो, ... उस पार न जाने क्या होगा.
पत्नी से पूछता हूँ. वो क्या है कि जब कुछ ठीक सूझ नहीं रहा हो तो समझदार लोग अक्सर पत्नी से पूछ लिया करते हैं. इसका लाभ यह होता है कि निर्णय गलत हुआ तो जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है. दूसरा ये कि निर्णय को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी से भी वे बच सकते हैं. तीसरा वे सभ्य समाज में नारी को बराबर का महत्व और सम्मान देने वाले प्रगतिशील पुरुष की हैसियत पा जाते हैं. और चौथा ..... अब छोडिये, इतने तो लाभ हैं और आप नहीं जानते ऐसा भी तो नहीं हैं. हाँ तो पत्नी से पूछा कि भई, नए साल में इस बार क्या करने वाली हो ?
कुछ देर बाद वे बोलीं –“ इस बार सत्यनारायण की कथा करवा लें तो कैसा रहे ?
फोन फिर बजा –“ हाँ तो क्या सोचा बे ?
सत्यनारायण की कथा करवाने की सोच रहे हैं.
अबे तू आदमी है कि पजामा .... उधर से फोन पटकने की आवाज आई .
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गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

बालों की चिंता में

साब जी, आपके बाल काफी कम हो गए हैं. पिछली बार और अब में बहुत अंतर है !! नाई, जिसे सब जानी बुलाते हैं, बोला.
ऐसा नहीं है कि बालों के झरने की चिंता अकेले जानी को ही है, थोड़ी बहुत मुझे भी है. किसी ज़माने में इन्हीं बालों की बदौलत देवानंदनुमा फीलिंग ने कितना खयाली रोमांस करवाया याद नहीं. बाद में राजेश खन्ना और अमिताभ के आने तक यही बाल समय के साथ यानी कदम से कदम मिला कर  चलते रहे. लेकिन बाद में पता नहीं क्या हुआ, वे रूठने लगे. शुरुवात शायद दो-चार से हुई हो, अब तो सौ पचास एक साथ पलायन कर रहे हैं. खोपड़ी नहीं हुई गाँव हो गया ठाकुरों का. यही हाल रहा तो कुछ दिनों में बंजर भूमि बिल्डरों के काम की हो जायेगी या फिर हेलीपेड बन जायेगा बाकायदे. इधर सुनाने में आया है कि सोफ्टवेयर कम्पनियां लड़कियों और गंजों को प्राथमिकता से नौकरी देते हैं. बाल न हों तो आदमी मन लगा कर काम करते हैं इसलिए तरक्की भी खूब मिलती है उन्हें. जब तरक्की होती है तो पैसा भी आता है. आप समझ सकते हैं कि जुल्फों वाले आदमी के पास जब दूसरी जगहों पर मन लगाने के अवसर हों तो वह काम में क्यों लगायेगा ! कहते हैं कि कमान से निकला तीर, जुबान से निकला शब्द और सिर से झर बाल वापस नहीं आते हैं. इसलिए कभी कभी सोचता हूँ जाने दो, इस उम्र में अब बालों का करना भी क्या है, ठीक से चले जाएँ तो कुछ साहित्य सेवा कर लें. एक कहानी भी ढंग से लिख ली तो जीवन गुलेरी हो जायेगा. हर चीज की कीमत चुकाना पड़ती है, पाने के लिए कुछ खोना भी पडता है. भगवान भी लिए बगैर देता नहीं है. अब किस्मत खुलने पर अमादा है सो खुल ही जाए तो अच्छा है. आधे तो कमबख्त सफ़ेद हो गए हैं, चुगलखोर कहीं के. आधे हैं जो जमानत देने की असफल कोशिश में मरे जा रहे हैं. आधी फ़ौज से पूरी लड़ाई लड़ना तो वैसे भी संभव नहीं है. ऐसे हालात में अंकल सुनाने की आदत किसे नहीं हो जाती है. हर समझदार आदमी परिस्थितियों में अपने को ढाल लेता है. केशव कह गए हैं अपना दुखडा—“ केशव केसन अस करि,जस अरि हु न कराए; चन्द्र वदन मृग लोचनी, बाबा कहि कहि जाय. अतीत में जीना प्रायः दुखदायी होता है. संत कह गए है कि बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध लेय. जानी चिंता व्यक्त कर रहा है और मुझे उसकी चिंता का इतना मान तो रखना ही है.
अब क्या करो भाई, जाने वालों को कौन रोक सकता है. आज बाल जा रहे हैं तो कल किसी दिन आधी रात से बाकी शारीर का भी लीगल टेंडर समाप्त हो जायेगा. उप्पर वाला छापता  ही इसलिए है कि कभी भी रद्दी कागज घोषित कर दे. इसीलिए कहा है जस की तस धर दीन्ही चदरिया.
ऐसा नहीं है साबजी, कोशिश तो करना ही चाहिए इंसान को. लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.
यार जानी !! तुम तो बड़े ज्ञानी हो ! कविता जानते हो !
कवियों की भी बनाते हैं ना साबजी,  हर तरह का नालेज जरुरी है हमारे धंधे में. यूँ समझ लो कि छोटा मोटा गूगल होता कटिंग आर्टिस्ट. .... तो साबजी कोशिश करो.
ऐसा है जानी इसमे अगर कोशिश काम करती तो कोई गंजा नहीं रहता. वो प्रेम कवि प्यारे मोहन अखंड हैं ना, कितनी कोशिश की उन्होंने !! लेकिन कुछ बचा क्या ! खोपड़ी इंटरनेशनल क्रिकेट का पिच हो गई सो अलग.
उनका बहुत दुःख है साबजी, हमारा एक ग्राहक और कम हो गया. अब छह-आठ माह में एक बार आते हैं झालर बनवाने. पुराने ग्राहक सब ऐसे ही होते जा रहे हैं, यह नहीं रुका तो हम झालर आर्टिस्ट हो कर रह जायेंगे.
जानी के मर्म को अब समझ रहा हूँ. घोड़े और घास की यारी का प्रश्न तो तभी है जब घास हो. कहा –“ तुम्हें क्या फर्क पड़ता है जानी, तुम्हारे आगे तो सब सिर होत एक सामान. कवि गए तो युवा ह्रदय सम्राट मिल जायेगें. आजकल तो गली गली में मक्खी मच्छरों की तरह पैदा हो रहे हैं. ... बनाते तो होगे इनकी भी ?
बनाना पड़ती है, .... धंधा ले कर बैठे हैं तो इनसे कोई बचा है क्या !! लेकिन कभी सुने हैं आप कि मक्खी मच्छर पेमेंट भी करते हैं !!
क्या करो भाई, देशभक्ति का रास्ता बड़ा टेढा है. सिर्फ इंसानियत से काम थोड़ी चलता है. लेकिन तुम्हारी बददुआ लगी तो ये भी गंजे हो जायेंगे एक दिन. देख लेना. मैंने तसल्ली दी.
मुश्किल है, .... ये लोग कई कामों के लिये आयुर्वेद का लाभ लेते है, उससे बाल भी ठीक हो जाते हैं. आप भी ले कर देखो.
तुम्हें कैसे मालूम कि आयुर्वेद में गंजेपन का इलाज है ?
आपने भगवानों के फोटू देखे हैं ना, आज तक एक भी भगवान गंजा देखा क्या ? सबके लंबे बाल हैं , यहाँ तक कि नारद जी के भी . इसका मतलब हुआ कि आयुर्वेद में इसका इलाज है.
भगवान लोग की तो दाढ़ी-मूंछे भी नहीं होती थीं, तो ... ?
साबजी हम लोगों का काम देवकाल से ही चलता आ रहा है ना. वो तो भगवान ने अवतार लिया तो बैधराजों के साथ हमारे पुरखों को भी आना पड़ा.
तुम तो गूगल हो ना, तुम्हीं बताओ क्या इलाज है.
गूगल तो सिर्फ रामदेव का पता बता सकता है. वो तो आप जानते ही हैं .
छोडो यार, अब आया बुढ़ापा, सीनियर सिटीजन हैं, थोड़ा लगना भी तो चाहिए वरना रेल यात्रा में टीसी सारे कागज देखने के बाद भी विश्वास नहीं करता है. फोकट चोर बनना पड़ता है.
इसी लापरवाही के कारण अब जवान भी गंजे हो रहे हैं. कभी सारे आदमी गंजे हो गए तो हमारे बच्चे भूखे मर जायेंगे. रहीम ने कहा है साबजी कि रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार ; रहिमन फिरि फिरि पोइए , टूटे मुक्ता हार.
मेरी कटिंग हो गई, उठते हुए जानी को भरोसा देता हूँ तुम्हारी बात ठीक है जानी, कोई अच्छा सा बैध हो तो बताना, कोशिश करके तो देखा ही जा सकता है.
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बुधवार, 30 नवंबर 2016

जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है

ज्ञानपति जी के मकान के पास खाली जमीन पड़ी है जिस पर काफी घास और तमाम तरह के पौधे उगे हुए हैं. जैसे आप ज्यादा नाप-जोख के चक्कर में पड़ें बगैर एक आदमी का सीना चौपन इंच से ऊपर मान लेते हैं, ठीक वैसे ही इस खाली जमीन को हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य का नजारा कह सकते हैं. कोई मेहमान जब ज्ञानपति जी से इस खाली जमीन, उसकी हरियाली और खुलेपन वगैरह को लेकर अच्छी टिपण्णी करता है तो वे बस इतना ही कहते हैं कि घर के पास इतना खुलापन हो तो लगता है स्वर्ग यहीं हैं. उन्होंने स्वर्ग नहीं देखा है, लेकिन कहा ना, कोई नाप-जोख के चक्कर नहीं पड़े तो स्वर्ग भी है. वे मानते हैं कि स्वर्ग में कुछ और हो न हो खाली जमीन अवश्य है. इसलिए ग्राम्य जीवन को वे स्वर्ग का जीवन मानते हैं. हालाँकि यहाँ उनके भक्त हैं जिनकी वजह से वे करीब करीब भगवान हैं. उनका स्वर्ग भक्तों के कारण है लेकिन श्रेय वे खुली जमीन को देते हैं. लेकिन अब भीड़ इतनी हो गई है कि कभी कभी उन्हें गुस्सा सा आने लगता है. जब भी वे किसी विवाह में जाते हैं तो बहुत मन करता है कि नवदंपत्ति को कहें कि बच्चा एक ही अच्छा. लेकिन जिसके खुद सात बच्चे हों वो अंदर से कितना कमजोर होता है ये वही जानते हैं. खैर, इस खुली जमीन के भरोसे ज्ञानपति जी ने एक गाय भी पाल रखी  है. वे मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी लोगों को पुण्य कमाने के अवसर प्रदान करना है. आज के समय में पाप इतने बढ़ गए हैं कि गाय को गुड-रोटी खिलाये बगैर मुक्ति नहीं हैं. यह बात लोग  समझते हैं. एक तो गाय, ऊपर से खुद ज्ञानपति जी की, ... जिधर से निकलती है सत्ताधारी विधायक की तरह निकलती है. यों तो यहाँ गायें और भी हैं, लेकिन ज्ञानपति जी की गाय को रोटी देना प्रकारांत में ज्ञानपति जी को भोग लगाना है. क्योंकि ज्ञानपति जी इसी के दूध की चाय पीते हैं. इसलिये घरों से निकल कर स्त्रियां गाय को रोटी देती हैं और हाथ जोड़ती हैं, कुछ तो गाय के पैर यानी खुर भी छूती हैं लेकिन गाय ज्ञानपति जी की तरह इस पर ध्यान नहीं देती है. उसका ध्यान सिर्फ रोटी पर होता है. रोटी तो वे कुत्तों को भी देती हैं लेकिन उनके हाथ नहीं जोडतीं है. रोटी में फर्क नहीं है लेकिन देने के इस फर्क को उपेक्षित कुत्ते नोट करते आ रहे हैं. किसी दिन उनकी सरकार बन गई तब हिसाब होगा. बहरहाल, गाय आसपास के तमाम घरों से रोटियां खा कर  खुली जमीन पर आ जाती है. अब यहाँ गुंजाईश निकल कर थोड़ी घास भी चरेगी ताकि उसमें गायपन बचा रहे, क्योंकि गायपन ही उसकी पूंजी है. ठीक इसी वक्त ज्ञानपति जी अपने वरांडे में बैठे पंचांग देख रहे होते हैं. जिस तरह गाय को गाय बने रहने के लिए घास चरना पड़ती है उसी तरह ज्ञानपति जी को ज्ञानपति बने रहने के लिए पंचांग देखते रहना पडता है. उन्हें पंचांग देखते हुए लोग देखें यह जरुरी है. पंचांग उनका हथियार है जिससे वे जीवन की हर जंग लड़ते आ रहे हैं. वे मानते हैं और जानते भी हैं कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. रोज रोज पंचांग देखते-दिखाते रहने से एक ऐसी पवित्र व्यवस्था कायम हो जाती है जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है और उसे वे ही खोज सकते है.
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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

हो गई पीर पर्वत सी *

उन्हें पिताजी ने समझया था कि बेटा सतरंगी तिजोरियों वाली इस दुनिया में पैसा एक मास्टर चाबी है. इससे धरती के ही नहीं स्वर्ग के ताले भी खुलते हैं. नगदी जेब का एक जिन्न है जो हर समय जो हुक्म मेरे आका कहता कुछ भी करने को तैयार रहता है. चाहे इससे न्याय खरीद लो या किसी के नाम की सुपारी दे दो. शिक्षा ले लो, स्वास्थ्य खरीद लो. नेता से लेकर चपरासी तक सब तुम्हारे. आसमान में जहाज उड़ाओ या जमीन से तेल निकाल लो. अच्छा हुआ कि वे सिधार गए वरना आज इस मरे जिन्न को बर्दाश्त नहीं कर पाते. स्मृतियों में वे पिघल रहे थे, क्या क्या नहीं करना पड़ा उन्हें इस करारे पर्वत को खड़ा करने के लिए. झूठ, फरेब, बेईमानी, दो नंबर ही नहीं तीन और चार नंबर तक सब किया तब कहीं जा कर पैसे का यह पर्वत बना. फावड़े से खींचते रहे थे लेकिन हमेशा विनम्रता से यही कहा कि भगवान दाल-रोटी दे रहा है. भगवान के नाम पर सरकारें बन जाती  हैं तो पैसा बनाने में भला काहे की दिक्कत. लेकिन अब जा रहा है तो दुःख भी पहाड़ सा है. अंदर गा रहा है कोई तेरा जाना .... दिल के अरमानों का लुट जाना.
नोटों का एक पूरा पर्वत समाया हुआ है उनके शयन कक्ष में. आँखों से देखो तो मृत्यु शैया पर पड़े नोट हैं .... और उनके अंदर देख सको तो पीर का पर्वत है. हम आप जितना देखते हैं उतना ही सोच पाते हैं. हमारे सोने का स्थान अव्वल तो इस काबिल ही नहीं कि उसे शयन कक्ष कहा जा सके, चलन है सो कह भर लेते हैं बस. डिब्बे में जूते पड़े हैं तो वह जूतों का शयन कक्ष तो नहीं हो गया. हम तो अपने शयन कक्ष में घुस पाते हैं . जहाँ तक पहाड़ का सवाल है ज्यादातर मामलों में हमें सिनेमा वालों ने दिखाए है. हाँ तो उनके शयन कक्ष में इस वक्त एक पर्वत है नोटों का जिस पर वे चढे बैठे हैं. हांलाकि शोक में बैठे हैं, लेकिन बैठे तन कर हैं, दूर से लग रहा है मानो साधनारत हैं . इस मध्य रात्रि में जब उनकी हवेली के तमाम फोटो के पीछे  रहने वाली छिपकलियाँ तक दुबक कर सो गई हैं वे अकेले नोटों के पहाड़ पर जाग रहे हैं. आज उनके लिए कालरात्री है और वे शव-साधना में लीन हैं. उन्हें रामकथा याद आ रही है. क्या तो कमाल था पुराने ज़माने में. लक्ष्मण इधर मूर्छित पड़े हैं, उधर हनुमान पूरा पर्वत उठाए चले आ रहे हैं. काश ऐसा कुछ अब हो जाये, तो इस पर्वत को ले कर वे उड़ जाएँ स्विजरलैंड की तरफ, या फिर किसी और देश में. आखिर हमारे प्रधानमंत्री ने दौड़-भाग के तमाम देशों से रिश्ते बनाये हैं तो किस दिन के लिए !! सावित्री ने यम से अपने पति के प्राण सुरक्षित कर लिए थे. आज वही मौका फिर आ पड़ा है. उनके प्राण नोटों में अटके है और नोटों के प्राण एक घोषणा से उड़े जा रहे हैं . सामने होते तो वे भी टांग पकड़ लेते यमराज की. साठ पार हो गए हैं, सोचा था कि सत्तर पूरे कर लें, कुछ करोड़ और कमा लें फिर कहीं मंदिर या स्कूल बनवा देंगे. बना चुके होते तो आज पहाड़ कुछ कम होता, लोग जय जयकार करते सो अलग. लेकिन कमाते समय सोचा नहीं. सच तो यह है कि सोचते तो कमाते कैसे !! ईश्वर ने ही यह व्यवस्था दी है कि सोच लो या फिर कमा लो. सोचने वाले जिंदगी भर सोचते रहते हैं कि कमाएँ या कि नहीं कमाएँ, ..... टू बी ऑर नॉट टू बी. लेकिन किस्मत देखिये ! इस वक्त मजे में सो रहे हैं कमबख्त. वह कमाने वाले थे सो जिंदगी भर कमाते रहे गधों की तरह और आज इस पहाड़ पर ठन्डे बैठे तप रहे हैं. कौन कौन नहीं आया उनके दरवाजे पर, पहले पता होता तो इन्हीं को कहते कि ले जाओ इस पहाड़ से कुछ गिट्टी मुरम, मंदिर वहीँ बनाएंगे. लेकिन मुद्दई सुस्त तो गवाह चुस्त कैसे ! उन्होंने माँगा नहीं, इन्होंने दिया नहीं. बड़े मंदिर बनाने चले थे, घर उजाड़ दिए. उन्हें अचानक अपने सलाहकार ज्योतिषी त्रिकालदर्शी जी याद  आ गए. आज लग रहा है कि जीवन भर वे मूर्ख ही बनाते रहे. साल की आधा दर्जन विशेष पूजाओं से पाप मुक्ति के नाटक से अपनी अंटी गरम करते रहे बस. आधी रात को जिस लक्ष्मी का आवाहन करते थे वही आधी रात को पीले पहाड़ से काले ढेर में बदल जायेगी इसकी कल्पना उन्हें क्यों नहीं थी.
उनका ध्यान अपने हाथों पर गया जिसकी हर अंगुली में ग्रहों को मजबूत करने वाली अंगूठियां हैं. नगीने सोने में जड़े नहीं होते तो तुरंत उतार के फैंक देते आज. उन्हें विश्वास हो गया कि त्रिकालदर्शी एक नबर का फ्राड है और वे महामूर्ख. सोच रहे है कि क्या राजनीति में तो कोई काला नहीं है ? वहाँ सब सफ़ेद हैं, साहूकार हैं ? दो ब्लेक यानी कालों के बीच तो रंगभेद नहीं होता है. एक काला दूसरे काले को आँखें कैसे दिखा सकता है !? इसी को कलियुग कहते हैं. सोचए तो जान लेंगे कि दोनों काले सगे भाइयों से कम नहीं हैं. चलो ना मानों भाई, जात तो एक ही मानों. वे कराह उठे, लगा कि उनकी पीठ में किसी ने छुरा घोंप दिया है. देखा रात के तीन बज रहे हैं.
 उन्होंने तो कहा था कि अच्छे दिन आयेंगे तभी से लग रहा था कि कुछ गडबड होगी. फिर सफाई और शौचालय में देश को हिलगा रखा तो सब भूल गए.  खुद वे ही नहीं समझ पाए कि आखिर गलती कैसे हो गई ! संतों ने कहा है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब. पल में परले होएगी, बहुरि करेगा कब. रटते रहे, मर्म नहीं समझा. हो गई पल में परले ! वे संत महान आत्मा  थे, उनका कहा सच हो गया. और तो और पत्नी भी पिछले पांच साल से कह रही थी कि कुछ नहीं तो स्विजर लैंड ही घुमा लाओ. उस बेचारी को लक्ष्मी-वाहन समझते रहे और नहीं सुनी. उसी की सुन लेते तो ठीक  होता, लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि. सोचा सरकारें ढोल बजाते आती हैं और चली जातीं है. मन हो रहा है कि हर नोट पर लिख दें सरकार ससुरी बेवफा है .
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*दुष्यंत कुमार की एक गज़ल से प्रेरित                                                                      

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

मरे नोटों की शव-साधना

इस वक्त रात के दो बज रहे हैं और उन्हें नींद नहीं आ रही है. वैसे तो नींद हर किसी को आती है, लेकिन वे हर किसी में शामिल कब थे जो अब होते. और होते तो सो ही रहे होते. उनके कक्ष में कुछ भी बदला नहीं है. उनका डबल बेड वही है जिसकी दराजों में नोटों की वही थाप्पियाँ अभी भी पड़ी हुई हैं. गद्दों और तकियों में भी उतने ही नोट हैं . सोते थे तो लगता था कि साक्षात् माँ लक्ष्मी की गोद में सो रहे हैं कमाऊ पूत. ऐसी कोई रात नहीं थी जब उन्हेंने सोने-चांदी से कम का सपना नहीं देखा हो. भरे मन से माता लक्ष्मी के चित्र को देखा जिसकी पूजा कुछ दिन पहले उन्होंने लोट-लोट के की थी. वे मुस्करा रहीं थीं. कोई और वक्त होता तो हाथ जोड़ते पर आज कूढ कर रह गए. खिन्नता से उन्होंने पलंग की दराज को खेंचा, लगा कि नोटों के बंडल नहीं हजारी शव पड़े हैं. क्या करते, लिपट के रो लिए. सगों से ज्यादा अपने थे, रोना तो आएगा ही. वैसे भी रो देने का बड़ा महत्त्व है आजकल, साख बन जाया करती है. पुरखे बोल गए थे कि मनुष्य जीवन धन कमाने के लिए होता है. जिसके पास धन नहीं वो मनुष्य ही नहीं है.
उनकी धारणाएं तेजी से बदल रहीं हैं, अभी तक मानते थे कि देने वाला छप्पर फाड़ के देता है, अब देख रहे है कि लेने वाला भी कम नहीं है. सोचते थे कि बुरे वक्त के लिए धन जरुरी है सो जोड़ते  गए. ये नहीं सोचा कि धन के कारण ही बुरा वक्त यों टूट पड़ेगा. जिस बिल्ली को टंगड़ी डालते आ रहे थे वही एक दिन अंटियों सी लाल आँखे दिखा कार म्याऊं करेगी ! पहले वाले असल संस्कारी थे, चंदा लेते थे तो काम भी करते थे. उन पर कभी धर्म संकट आया भी तो चवन्नी की बलि चढ़ा कर बरी हो गए. बेचारों ने भगवान से बुराई ले ली लेकिन यजमानों का हमेशा ध्यान रखा. लगता है राजनीति में यारी और वफ़ादारी के दिन लद गए. जिसे दक्षिणपंथी समझा था वो कामरेडों का काका निकला. मन में गुस्सा इतना कि चाय पीने भर से उल्टी होने लगती है.
अचानक उन्हें अपने डाक्टर का ध्यान हो आया, परेशनी में थे सो उन्हें फोन किया. कहा डाक्साब नींद नहीं आ रही है .
मैं क्या करूँ सेठ जी , मुझे भी नहीं आ रही है. वे बोले.
आप तो डाक्टर हो ! कुछ करो ना .
मैं नोटों के ढेर पर बैठा शव-साधना कर रहा हूँ . आप भी करो .
क्या इससे नोटों में जान आ जायेगी !?
नोटों में जान तो नहीं आएगी पर व्यस्त रहेंगे तो हमारी जान जरुर बच जायेगी .

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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

संत चौक की शाम

हाई-वे से लगे इस संत चौक पर दूसरे चौराहों की बनिस्बत कुछ ज्यादा आवाजाही लगी रहती है. एक तो आसपास इतनी कालोनियां बस पड़ी हैं कि लगता है लोग फसलों की तरह उग रहे हैं ! आबादी को लेकर जबसे देश में चिंता का चलन खत्म हुआ है लोगों में पैदा करने की झिझक कम हो गई लगती है. कहते हैं कि देने वाला जब देने पर आता है तो छप्पर फाड़ के देने लगता है. इसलिए जहाँ भी भगवान की देन होती है वहाँ छप्पर की समस्या भी होती है. समय बदल गया है, किसी जमाने में टीवी पर कितना कुछ अच्छा आता था, लेकिन अब  प्राईम टाइम में लोग संत चौक पर दिखाई देते हैं. यहाँ कुछ होटलें हैं जिनमें शाम से ही वन्दनवार की तरह बदनसीब चिकन लटका  दिये जाते हैं. आसपास कुछ दक्षिण पंथी कुत्ते इन वन्दनवारों पर निगाह जमाए बैठे हैं. दरअसल इन कुत्तों में परचेसिंग पावर नहीं है. जैसे कि आम लोग  अक्सर त्यौहार पर छप रहे विज्ञापनों को दिल थाम कर टूंगते रहते हैं. चिकन की आस में ये कुत्ते भौंकते-गुर्राते बाजारवादी व्यवस्था में अपने लिए गुंजाईश तलाश रहे हैं. याद आया, इन्हें देख कर एक पार्षद-पति बोले थे काश कि कुत्ते ही वोट दे पाते तो चुनाव में दारू का खर्च कम हो जाता. उस दिन उनके मन में कुत्तों के प्रति इतना प्रेम उमड़ा कि बिना खरीदे दो तंदूरी चिकन उनमें बाँट दिये.
संत चौक पर कुछेक शराबखाने भी हैं जिन्हें बार कहने से प्रायः भोले मन में आ रहा अपराध-बोध स्थगित हो जाता है. बोध होना बड़ी बात है, और बोध ना होना उससे भी बड़ी. लेकिन इन सबसे बड़ी बात है बोध न होने देना. संत श्रेणी के साधक सब करते हैं लेकिन बोध नहीं होने देते हैं. बार में प्रायः इसी श्रेणी के लोग होते हैं. यहाँ होटलों में बाहर रौशनी होती है जबकि बारों के बाहर अँधेरा रखा जाता है. यह इसलिए कि आने वालों को बाहर निकलने में असुविधा ना हो. लेकिन दोनों जगह अंदर अँधेरा ही रखा जाता है, इससे सुधिजनों को यह पता नहीं चल पता कि वास्तव में उनकी प्लेट या ग्लास में क्या है.  सब यह मान कर चलते हैं कि वे अपना दिया गया आर्डर खा-पी रहे हैं. इसके पीछे यह पवित्र भावना प्रबल होती है कि आत्मिक आनंद ही सब कुछ है और बिल चुकाने के बाद संसार मिथ्या है. हाइवे के कारण होटलों में बिस्तर और कमरों की व्यवस्था है जिनका आसपास वाले पीड़ित पुरुष कभी कभी कोपभवन की तरह भी इस्तेमाल कर लिया करते हैं. मेन रोड से लग के एक सिनेमा हाल है. वैसे तो उसका नाम चन्द्रिका है, लेकिन लोगों के बीच ठाटिया  टाकीज के नाम से मशहूर है. इस टाकीज की खासियत यह है कि इसके संचालकों और दर्शकों में एक तरह की अंडरस्टेंडिंग है, जैसी कि अक्सर सत्ता दल और विरोधी दल के बीच होती है. इसमे प्रायः भक्त प्रह्लाद टाईप फिल्म चलती है जिसके बीच में एक घंटा नीला-सिनेमा पूरे अनुशासन और इस विश्वास के साथ दिखाया जाता है कि देखने वाले, जिनमे ज्यादातर कच्ची उम्र के होते हैं, शिक्षा प्राप्त कर देश को अमेरिका से आगे ले जायेंगे. सिनेमा में गजब की भीड़ देख कर मिडिया ने कई बार रिपोर्ट बनाई है कि लोगों में अपनी संस्कृति और आदर्शों के प्रति बड़ा आकर्षण है.
इस तरफ, बांयी ओर जरा सा आगे बढ़ें तो एक नीम का पेड़ दिखाई दे रहा है. इसके नीचे एक प्याऊ बनी हुई है. जैसा कि आप जानते ही होंगे कि नीम का पेड़ लगाने और प्याऊ बनाने की हमारे यहाँ परम्परा है जिससे बड़े लोग प्रायः टेक्स बचाने के साथ अपना चेहरा भी धोने की कोशिश करते हैं. प्याऊ में सड़क की तरफ एक खिडकी है जिसमें पीतल की एक छोटी कोठी सी रखी दिखाई देती है. इसमें शायद पानी भी है, क्योंकि इस पर आइल पेंट से जल बचाएं लिखा हुआ है.  खिडकी के ऊपर की तरफ पगड़ी बांधे, बड़ी मूंछो वाली, खुदाई में मिली टाइप एक मूर्ति जड़ी हुई है. मूर्ति पर कबूतरों ने अपना सुलभ शौचालय बना कर इसे उपयोगी बनाया है और जनस्वीकृति की मोहर भी लगवाई है. नीचे लगे सफ़ेद पत्त्थर पर लिखा है कि समाजसेवी, राय बहादुर खूबसिंग की स्मृति में उनके चार बेटों ने इस प्याऊ का निर्माण करवाया है. हालात बता रहे हैं कि चारों बेटे प्याऊ बनवाने के बाद अकाउंट-पेयी पुण्य ही ले रहे हैं .पास में ही एक गुमटी है जिस पर पानी के पाउच बिक रहे हैं. आलावा इसके जो दर ओ दीवार को पहचानते हैं उन्हें यहीं पर कच्ची दारू के पाउच भी मिल जाते हैं. बरनियों में कुछ तीखा नमकीन भी है. लेकिन जिनकी साख है वही इस सुविधा का लाभ उठा रहे हैं . इसी से थोड़ा सा हट के पुलिस चौकी है. चौकी में महज पांच सिपाही और एक साहब हैं. साहब के लिए प्लास्टिक की एक कुर्सी और सिपाहियों के लिए दो बेंच हर समय मौजूद रखी गयी हैं. साहब ऊँची जात के नहीं हैं इसलिए प्रायः बेंच ही शेयर करते हैं और कुर्सी पर तभी बैठते है जब सिपाही गश्त पर होते है. अन्यथा ना लें, इसे आस्था व संस्कार कहते हैं. आप जानते ही हैं कि आस्था हमेशा कानून से बड़ी होती है और संस्कार सभ्यता से.
चौकी से करीब चार सौ फुट आगे गाँधी जी की मूर्ति लगी पड़ी है. संत चौक के नजदीक कहीं स्कूल नहीं पड़ता है इस वजह से गाँधी जी के गले में बरसों से फूलमाला भी नहीं पड़ी है. एक बार एक बारात इधर से गुजारी थी, दुल्हे की ही जिद थी शायद, एक माला तब बापू के गले में पड़ी और  महीनों तक आभार सहित लटकी रही. किसी वादे, जुमले या योजना की तरह वह बिखर कर कहाँ चली गयी, किसी को पता नहीं चला. बरातें तो उसके बाद भी आती रहीं पर संत चौक पर वैसा उम्रदराज दुल्हा फिर कभी नहीं आया. मूर्ति के नीचे गोल घेरा सा बना हुआ है जिसमें कभी फूल क्यारियां रहीं होंगी, लेकिन अब प्रायः यहाँ तीन-चार बकरे-बकरियां बंधी रहती हैं. ये बकरियां गाँधी जी की नहीं बल्कि पीछे मटन शाप वाले की हैं. गाँधी जी गर्दन जरा झुकी हुई है, लगता है वे बकरियों को देख रहे हैं, बकरियां मटन शॉप वाले को देख रही हैं, मटन वाला होटलों को तक रहा है , होटल मालिक ग्राहकों के इंतजार में है. खबर है कि ग्राहकों को एरियर और बोनस मिला है. इस खबर से बकरियों की जान सूख रही है.
यहीं, जरा सा लग के रिक्शा स्टेंड है. आने वाले से ड्रायवर पूछता है कहाँ चलना है बाउजी ?   अगर बाउजी कुछ तय नहीं कर पाते तो ड्रायवर तय कर लेता है कि उन्हें कहाँ ले जाना है. संत चौक के रिक्शा वालों की ख्याति है कि वे सही जगह पर ले जाते हैं. चलिए अब लौटते हैं. इधर कुछ ठेले हैं फल वाले. केले वाला यह नौजवान अपने मोबाईल से चेट कर रहा है. थोड़ी थोड़ी देर में वह सेल्फी भी लेता है. सामने की लाइन में कपड़ों की दुकान है, जिसे मालिक अपना शो-रूम कहता है, उसके ऊपर की मंजिल में खिडकी पर बैठी उसकी लड़की भी चेट कर रही है. लड़का अपना सब कुछ (यानी केले का ठेला और बूढ़े माँ-बाप) छोड़ कर उसके साथ जाने को तैयार है यदि लड़की भी अपने साथ बहुत कुछ लाने की हिम्मत करे तो. इस प्रस्ताव में बहुत सारे पेंच हैं जिन पर दिन में कई बार उच्च स्तरीय चेट-चर्चा होती रहती है. पूछने पर डिस्ट्रब होते हुए उसने बताया कि वह रोजाना पांच सौ केले  बेच लेता है. किसी ने चिढते हुए आम आदमी को मेंगो-मेंन कहा था कभी. यह नौजवान बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ टाइप लोगों को बनाना-पब्लिक कहता है. यहाँ जो घूम रहे हैं, सब केले हैं. वह केलों को केले बेचता है. उसने मुझे दस रूपये के पांच केले दिए और बोला - लीजिए, अब आप आधा दर्जन हो गए. मुझे नहीं पता कि उसने मेरा कद बढ़ाया या कि घटाया. लेकिन उसके इस विचार ने मुझे सोचते रहने पर विवश क्र दिया .
इस बात पर चल देने का मूड हो गया सो मैं रिक्शे वाले के पास जाता हूँ, वो पूछता है बाऊजी कहाँ जाना है ? मै जरा सा सोचने लगता हूँ, और वो कहता है  -- बैठिये बाउजी .

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सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

लाल बिल्ली


कामरेड उस मुकाम पर पहुंच गए थे जब आदमी एक लकड़ी और कुछ अलौकिक कामनाओं के सहारे चलने लगता है । यों देखा जाए तो कामरेड के पास क्या नहीं है । बेटे बाजार के बीहड़ में फावड़े से खींच रहे हैं और बोरियों में ला रहे हैं । बंगले में डाबरमेन, बाक्सर और लेबराडोर उस प्रतिष्ठा को बुलंद करते हैं जिसे कभी कामरेड ने सड़कों पर नारे लगा कर धूल में मिलाया था । अक्सर मोटे कपड़ों और सस्ते जूतों के सहारे वे सच का सामना करने की असफल कोशिश करते पाए जाते हैं । बावजूद बगल से उधड़ा कुर्ता पहनने के वे अपने पर लगाए प्रश्न चिन्हों को परास्त नहीं कर पाते हैं । उनका प्रतिप्रश्न होता कि कामरेड के गाल लाल नहीं हो सकते हैं ऐसा कहां लिखा है ! किसी के मोटा हो जाने से मार्क्सवाद पतला हो जाता है क्या ? कामरेड को उसकी लाल कार से नहीं उसके लाल विचारों से पहचाना जाना चाहिए । कामरेड ने कई दफा बार का छोटा-बड़ा बिल चुकाया है, लेकिन बावजूद इसके साथियों ने उन्हें कभी भी नीट-कामरेडनहीं माना। कभी पूंजीवादी सोड़ा तो कभी दक्षिणपंथी पानी मिला कर उसका असर कम करते रहे। आखिर एक दिन साफ साफ बात हो गई। साथियों ने कहा कि बिल का पेमेंट तो ठीक है लेकिन बैरे को मात्र दो-तीन रुपए की टिप दे कर उसका अपमान करते हो! ये पूंजीवदी आचरण और बुर्जुवा सोच है।
कामरेड सहमत नहीं हुआ- ‘‘ज्यादा टिप देने वाला कामरेड हो जाएगा क्या ? कैसी बातें करते हो ! ...... अपना भाई समझ कर उसे टिप देता हूं भले ही कम हो।’’
‘‘भाई टिप नहीं हिस्सा मांगते हैं कामरेड। ....... हम भी आपके भाई हैं, .... ये सोचा कभी आपने ?’’ पुराना साथी महेश  बोला।
‘‘देखो महेश, बुरे दिन किस पर नहीं आते हैं। न चाहते हुए भी मैं आज धनवान हूं। जबान का स्वाद भले ही बदल गया हो पर विचार तो आज भी वही हैं। लाल झंडा देख कर मैं भड़कता नहीं हूं, इसका क्या मतलब है ?’’ कामरेड रुका .... और दो सांस लेने के बाद फिर बोला- ‘‘उम्र के इस मुकाम पर कुछ भी हो सकता है ...... तुम्हें मैंने हमेशा अपना विश्वसनीय माना है ...... तुमसे एक गुजारिश है, ...... जब मेरी अर्थी निकले .... तुम .... तुम खुद ....मेरे लिए लाल सलामके नारे लगवा देना ..... वरना मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा।’’ कामरेड फफक पड़ा।
‘‘ अरे ! भावुक मत बनो कामरेड ! ..... ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि कामरेड़ों की आत्मा नहीं होती है, न पुनर्जन्म होता है और न ही मोक्ष । दक्षिणपंथियों की सोहबत में मार्क्सवाद को आपने चरणामृत में बदल लिया है ! ’’ महेश ने जेब से रुमाल निकाल कर उनके आंसू पोंछे और इस बात को याद रखने के लिए कहा कि वक्त और जरूरत पड़ने पर हम लोगों के बीच आंसू पोंछने की परंपरा अभी बची हुई है ।
‘‘ मैं जिन्दगी भर तुम लोगों के बीच रहा , यह जानते हुए कि तुम वो नहीं हो जिसका दावा करते रहे हो । ’’ कामरेड के आंसू फिर बह पड़े ।
‘‘ कामरेड, क्या आप अपनी गलती पर रो रहे हैं ? ’’
‘‘ गलती पर नहीं .... मूर्खता पर । मुझे नहीं पता था कि एक बार कामरेड़ हो जाने के बाद कोई विकल्प नहीं बचता है । ’’
‘‘ जो अपने लिए विकल्प की चाह रखते हैं वे कामरेड नहीं रहते हैं । ’’
‘‘ मैं जिंदगी के तीस साल भुलावे में रहा, ..... बावजूद इसके मुझे लाल सलामचाहिए । मुझसे वादा करो महेश  । ’’ कामरेड ने महेश  का हाथ पकड़ लिया ।
‘‘ देखिये, आप हमेशा बिल चुकाते रहे हैं ..... मैं कोशिश करूंगा । ’’ महेश  ने कहा ।
‘‘ कोशिश नहीं वादा करो । ...... और याद रखो ..... तुम्हारा वादा एक बार-साथी का वादा है । ’’
‘‘ ठीक है .... मैं वादा करता हूं । ’’
‘‘ शुक्रिया महेश  ..... अब मैं निश्चिन्त हो कर जा सकूंगा । ’’
‘‘ कहाँ जा रहे हो कामरेड !? ’’
‘‘ चार धाम की यात्रा पर । ...... पर कहना मत किसी से । ’’
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