रविवार, 19 अगस्त 2018

बेटा इसको केहते हैं विकास


दुनिया जिस ते़जी से बदल रही है उसे देखते हुए मानना पडेगा कि विकास हमारी मज़बूरी है. कोई चार लोगों के बीच बैठा हो तो उसे वही करना पड़ता है जो सब कर रहे हों. लेकिन जब वह करने लगता है तो मजा, मर्जी और जिम्मेदारी उसकी है. पड़ौसी के यहाँ बड़ा फ्रिज आया तो हमारे फ्रिज में जगह कम पड़ने लगती है. फ्रिज की इस सम्वेदनशीलता को आप क्या कहेंगे !? यह नयी तकनीक है, इसे आप उपकरणों का समाजवाद भी कह सकते हैं. पक्का है कि आप मानेंगे नहीं, लेकिन यह तकनीकी विकास है. जिन घरों में आज भी स्कूटर रखने की जगह नहीं है उनकी दो तीन कारें सड़क पर खड़ीं हैं. भले ही यह बैंकों की तालठोक लोन नीति का परिणाम हो,  पर यह विकास है. मोहल्लों में अब लोग कम कर्जदार कारें ज्यादा रहती हैं. लगता है बैंकों ने कारों के खेत बो दिये हैं. कृषि को उध्योग कहने के पीछे बड़े अर्थ छुपे हैं. किसी जमाने में लड़का लड़की से शादी करता था, अब असल में दहेज़ के सामान से करता है. नयी जिंदगी की बुनियाद में मुफ्त की उच्च जीवनशैली को प्राथमिकता देना हमारे शैक्षिक विकास का प्रमाण है. लेकिन जो नागरिक भाई अशिक्षित, जहिल और जान-वर किस्म के हैं  उनका ध्यान बलात्कार पर केंद्रित है, जिसके मध्यम से लगातार आँकड़े बढ़ाते हुए वे अपने राज्य को नंबर वन बना कर विकास की नयी परिभाषा लिख रहे हैं. आदरणीय अपराधी बंधु भी निर्भय हो कर पूरी गंभीरता से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं. पूछने पर पता चलेगा कि दो मर्डर, तीन दंगे, पच्चीस केस और पाँच करोड़ की प्रापर्टी. बेटा इसको केहते हैं विकास.
इनदिनों शाम को समाचारों के लिये टीवी खोल के बैठो तो पोलिटीकल मास्किटो जिन्हें कुछ लोग राजनीति के मच्छर भी कहते हैं, बहस करते दिखाई देते हैं. हर मच्छर दूसरे को डेंगू का मच्छर सिद्ध करने पर आमादा रहता है. हाल ये होते हैं कि बहस सुनते सुनते आदमी को ठंड दे कर बुखार चढ़ने लगता है. कोई और जगह होती तो कुनैन या पैरासेटामोल गटकने की जरुरत पड़़ जाती, लेकिन इधर टीवी बंद करते ही बुखार उतर जाता है. ये चमत्कारी  विकास है.  विकास को लेकर बहुत बातें हो रही हैं. लेकिन विकास किसी एक पार्टी का मुद्दा नहीं है. चुनाव के समय हर पार्टी का अधिकार है कि वह ठोक के  विकास की बात करे. झूठ अक्सर प्रिय लगता है, जनता को प्रिय लग जाये तो  वोट भी मिल जाते  हैं. जैसे यह सुनना कि मतदाता बहुत समझदार है, मतदाता जागरूक है, मतदाता सब जनता है, मतदाता देश का असली मालिक है, वगैरह. लोकतंत्र बड़ी चीज है, उसकी रक्षा के लिये एक दिन क्या, पूरे पाँच साल भी झूठ बोलना पड़े तो बोला जाना चाहिये. इसमें कोई हर्ज नहीं है.  लोकतन्त्र  को जिंदा रखने के लिये झूठ की एक आदर्श परंपरा रही है और उसमें लगातार विकास हो रहा है. आपको बता दें अंदर के लोग इसी को विकास की राजनीति कहते हैं.
आपको याद होगा देश जब आजाद हुआ था तब की बात है. हमारे पुरखे मात्र छत्तीस करोड़ थे. सत्तर साल में हम एक सौ छत्तीस करोड़ हैं. मतलब पूरे सौ करोड़ का शुद्ध इजाफा हुआ. देखिये आजादी के मामले में जनता बहुत सेंसिटिव है. कमाई पर भले ही जीएसटी लगा दो, पेट्रोल डीजल के भाव और बढ़ा दो, लेकिन आजादी के बीच में बोलने का नई.  इस आजादी पर जिस सरकार ने निगाह डाली वो समझो गई. चीन ने कहा बड़ी जनसंख्या हमारी ताकत है. भारतीयों ने दिल पे ले लिया. अब चीन के प्राण सूख रहे हैं, क्योंकि  पच्चीस साल में हमारी जनसंख्या उससे आगे निकल जायगी.  हो दम तो लगा ले बेटा रेस. तब देखना दुनिया भर के वैज्ञानिक हमारी ग़रीबी में छुपी ताकत पर कितना शोध करेंगे. चीन जैसे बड़े देश से आगे निकल जाना ठोस विकास नहीं तो क्या है.
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लेखन के लोह पुरुष


जब वे कुछ नहीं लिखते थे तब भी बहुत कुछ थे. जब कुछ लिखने लगे तो माना कि वे बहुत कुछ से बहुत ऊपर हो गए हैं. अपने यहाँ लेखन में सेल्फ असेसमेंट ऐसा ही है, कई बार तो पहली कविता लिखते ही आदमी अपने को महाकवि मान लेता है. आप कहेंगे कि खुद के मानने से क्या होता है ! दुनिया माने तो कुछ बात है. तो भाई साब दूसरी सारी फील्ड में ऐसा होता होगा, इधर लेखन में आदमी सबसे पहले अपना लोहा खुद मानता है. इसको कान्फिडेंस भी कहते हैं. कान्फिडेंस का ऐसा है कि वो हर किसी को नहीं आता है. राजनीति को ही लीजिये,  कोई जबरदस्ती राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है पर जरुरी नहीं कि उसमें कान्फिडेंस भी आ जाये. लेकिन लेखन में ऐसा होता है, कई बार तो कहानी बाद में खत्म होती है कान्फिडेंस लपक के पहले आ जाता है. यही वजह है कि हर लेखक अपने को दूसरे से बड़ा मानता है.
अब बात उनकी,  शुरू से वे छोटी कहानियां लिखते रहे थे. लेकिन उन्हें लगा कि छोटी कहानियां लिखने वाले छोटे होते हैं. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे उपन्यास लिखेंगे और उपन्यास के आलावा कुछ नहीं लिखेंगे. रोज अंडा दे कर आमलेट बनवाना उन्हें पसंद नहीं हैं. अगर अंडे ही देना हैं तो डायनोसार के दें. डायनोसार का अंडा एक दर्जन मुर्गियों से भी बड़ा होता है और सही हाथों में पड़ जाये तो इतिहास में दर्ज हो जाता है.  फटाफट उनका एक उपन्यास मैदान में है. कुछ प्रतियों के साथ आज वे मित्रों के बीच मौजूद हैं. इस समय वे बहुत ऊँचाई पर हैं. कोई उनके बराबर नहीं है. लिहाजा प्रोटोकोल की मज़बूरी कहिये कि वे ही कार्यक्रम के अध्यक्ष हैं, वे ही मुख्य अतिथि और वे ही संचालक. संयोजक तो खैर दूसरा कैसे हो सकता था. संचालन करते हुए उन्होंने पहले अपने बारे में तबियत से बताया. फिर उपन्यास के बारे में कि यह सचमुच में महान  कृति है। मानवीय रिश्तों को लेकर विस्तार इतना है कि महाभारत से आगे का मामला है. अगर इसे आलोचक पढ़ लेंगे तो उनके पास कुछ कहने लिखने की समस्या हो जाएगी. कुछ नामी आलोचकों से बातचीत हुई है, लेकिन उन्होंने पढ़ने से पहले ही हथियार डाल दिए हैं. यह उपन्यास की सफलता है. साहित्य के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब आलोचक किताब देख कर ही नर्वस हो गए हैं. हिम्मत तो छापने वालों की भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब उन्हें भरपूर हौंसला दिया तो वे तैयार हुए. साहित्य के लिए लेखक को ही तन मन धन से आगे आना होता है. लेखक की निजी जिंदगी भी लेखन प्रक्रिया में होम हो जाती है. सबसे पहले पत्नी को पढ़वाया तो चौथाई उपन्यास पढ़ते वह बीमार हो गयी. ईलाज में बहुत पैसा लग रहा था, लेकिन उसका त्याग देखिये, बोली पैसा बर्बाद मत करो मुझे तो भगवान ठीक कर देंगे, तुम पहले अपना उपन्यास छपवा लो. किसी लेखक की पत्नी का इससे बड़ा त्याग क्या हो सकता है !! मित्रों, लेखक बनना बहुत कठिन है. कबीर वैधानिक चेतावनी दे गए थे कि “जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ”, लेकिन भईया हम तो फूंक बैठे, हमको तो कीड़ा काटा था, पर आप लोग ये गलती मत करना. जो आनंद पाठक बनने में है वो लेखक बनने में नहीं है. किताब खरीदो और टाइम पास करो मजे में, जो ज्ञान मिले उसको झाड़ो चार लोगों के बीच. इस बात पर विचार करो कि लेखक की बर्बादी के ढेर पर बैठ कर पाठक कितना ऊँचा उठ जाता है.
अंत में उन्होंने निराशा व्यक्त की कि कोई मित्र फूल माला ले कर नहीं आया. अगर उन्हें पता होता तो वे खुद लेते आते. आजकल तो जनसंपर्क के लिए जाते हैं तो बड़े बड़े नेता भी फूल माला का अपना इंतजाम करके निकलते हैं. इसमें शर्म कैसी ! जहाँ इतना खर्च किया वहां दस बीस रुपये और सही. हालाँकि कार्यक्रम को गरिमा प्रदान करना लेखक के मित्रों का काम है. लेकिन कोई बात नहीं महंगाई बहुत है, मुझे बुरा नहीं लगा है, आप लोग भी बुरा मत मानिये. लेखक को कई बार अपमान के घूंट पीना पड़ते हैं. यह एक तरह की अंगार- साधना है, अपने को जलाना पड़ता है.
तभी संकोच करता एक श्रोता उठा, बोला - “सर, मैं एक फूल माला लाया हूँ छोटी सी. यहाँ कोई नहीं लाया तो संकोचवश मैंने सोचा ……”
“अरे इतनी देर से क्यों छुपाये बैठे थे भाई !! आप तो सच्चे साहित्य प्रेमी निकले. लाओ मुझे दो, मैं ही पहन लेता हूँ. आपने इतना कष्ट किया, अब आपको और कष्ट देना  ठीक नहीं है.” कहते हुए उन्होंने फूल माला अपने गले में डाल ली. गदगद हो उन्होंने कहा किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लें, उपन्यास के बारे में.
समझदार श्रोताओं ने कहा - हम क्या पूछें, आप ही बताये तो बेहतर है.
जवाब में वे बोले- बहुत कठिन काम है लिखना. जान का खतरा होता है इसमें. आजकल लोग बर्दाश्त नहीं करते हैं, इसलिए बड़ा सोच सोच कर लिखाना पड़ता है. एक दिन में ढाई सौ शब्द लिखता हूँ. इस उपन्यास में चालीस हजार दो सौ पचास शब्द हैं और कीमत देखिये तीन सौ रुपये मात्र. एक रुपये में लगभग एक सौ पैंतीस शब्द !! आप लोग लिख कर बताइए एक सौ पैंतीस शब्द, भगवान याद आ जायेंगे. इससे सस्ता कुछ नहीं है आज की डेट में. मैं आप लोगों की सेवा के लिए लिख रहा हूँ. अभी मेरे पास लाईन लगी है उपन्यासों की. एक प्रकाशक के यहाँ पड़ा है, दूसरे की पाण्डुलिपि तैयार है, तीसरा लगभग पूरा हो चुका है, चौथे की रुपरेखा तैयार है और पांचवा दिमाग में आकर ले रहा है.
कक्ष में मरघटी सन्नाटा पसर गया. कुछ देर वे खामोश रहे, कोई नहीं बोला तो उन्होंने ही ताली बजा दी. लोग जैसे होश में आये और सबने उनकी तालियों में अपनी तालियाँ मिला दीं.
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शनिवार, 30 जून 2018

राजधानी में आम का मौसम


 राजधानी में आम का मौसम बारहों महीने होता है. दरअसल पूरे प्रदेश का  आम राजधानी की ओर ‘ट्रेवल’ करता रहता है. महकमें और दफ्तर मानो आम की परमानेंट मंडी हैं. आम आ रहे हैं, आम जा रहे हैं. आम सीढियाँ उतर रहे हैं, सीढियाँ चढ़ रहे हैं. कोई आम लुढ़क रहा है तो कोई फुदक रहा है. बहुत से आम टोकरों के साथ हैं, उससे ज्यादा बक्सों के साथ हैं, कुछ झोलों- थैलों के साथ भी है. सब अपने इंतजाम से हैं. पहली बार आये कच्चे आम दूर से टुकुर टुकुर देख रहे हैं,  चपरासी उन्हें आते जाते फटकार रहा है कि जाओ तुम्हारा क्या आचार डालेंगे यहाँब्रोकर जानता है कि दस पांच बार आते जाते ये भी  पक जायेंगे. राजधानी केवल पके आमों की मंडी है. इतने पके कि कहीं से भी दबाओ तो आराम से दब जाएँ.
पहाड़ जैसे मंडी भवन में ठंडी ठंडी हवा चल रही है. कहीं कोई शोर, चिल्ला पुकार नहीं है. आम का मुंह नहीं होता है, जिनका होता है यहाँ बंद ही रहता है. किसी को किसी से कुछ भी पूछने की जरुरत नहीं पड़ती है. बड़ों की बात तो बड़े जाने यहाँ के चपरासी तक देख कर पहचान लेते हैं कि कौन आम अल्फ़ान्सो है और कौन दसहरी. यहाँ हर कोई आम का कीड़ा है. बड़े साहब का सख्त निर्देश है कि लंगड़ा -दसहरी इधर ना भेजें, समय खराब होता है. राजधानी में आम के आलावा सबका समय कीमती होता है. भीख मांगने वाले भी आदमी की सुस्ती बर्दाश्त नहीं करते हैं. बड़े साहबों का समय तो बहुत ही कीमती होता हैयों समझिये जीरो दिखाने के बाद पेट्रोल की तरह नपता है.  बात दरअसल ये हैं कि चूसने का समय गु्लगुलाने में नष्ट करना कीमती सरकारी समय का अपमान कारना है. इसलिए सरकार ने मातहत दिए है. वे आम को पूरी तरह गुलगुला कर साहब के सामने पेश करते हैं. वैसे गुलगुलाने का काम ब्रोकर ही करता है, लेकिन मंडी भवन में कोई किसी पर भरोसा नहीं करता है. कहते हैं कि अफसर का बाप भी सामने आ कर खड़ा हो जाये तो उस वक्त आम से ज्यादा नहीं होता है. इसलिए ब्रोकर द्वारा गुलगुलाये  आम को एक बार सरकारी हाथों से भी गुलगुला कर पक्के तौर पर चूसने लायक बना लिया जाता है. 
सुना है मंत्रीनुमा लोग अल्फ़ान्सो, आम्रपाली, मलीहाबादी वगैरह ही पसंद करते हैं. हालाँकि वोट वे लंगड़े, बादामी, नीलम और देसी- फेसी सब से ले लेते है. अब देखिये साहब आप भी मानेंगे कि पसंद अपनी जगह है, वोट अपनी जगह. बड़ा आदमी पसंद करता है तो करता है इसमें क्यों -कायको करने की जरुरत नहीं है. वैसे देखा जाये तो जो गूदेदार- रसदार नहीं हो उसे भी ज्यादा बड़े सपने नहीं देखना चाहिए. अल्फ़ान्सो और आम्रपाली की जो इज्जत है वो ऐसे ही नहीं है. बावन पत्तों में इक्का बादशाह भी होता है या नहीं.  
 हर किसी के पास टारगेट है. अधिकारीयों की नियुक्ति होती इसलिये  है कि वे आम से सेट हो जाएँ. सेट होने का कोई नियम या फार्मूला नहीं होता है. यह अधिकारी के विवेक पर निर्भर करता है कि वह कहाँ और कैसे सेट हो जाये. सिस्टम अधिकारी की कड़ी परीक्षा लेने के बाद उसके विवेक पर आश्वस्त होता है. 
विकास का ग्राफ आम की टोकरियों से बनता है. राजधानी से लौटती बसों ट्रेनों को देखिये, उसमें चुसे हुए आम लदे दिखेंगे. लेकिन उनमें ज्यादातर खुश बतिया रहे होते हैं कि भले ही चूसे गए पर एक रिश्ता तो बन गया महकमें से. आगे कभी काम पड़ा तो सीधे जा कर मुंह से लग जायेंगे साहब के. सरकार ने भले ही कहा है कि वह भ्रष्टाचार समाप्त करेगी. लेकिन विकास की जरुरत और परंपरा अपनी जगह है. आम संसार में आते ही हैं चूसे- काटे जाने के लिए. 
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सोमवार, 25 जून 2018

कवि के हाथ में अल्फ़ान्सो की महक



बाबूजी आम को दबा दबा कर मत देखो, खराब हो जायेंगे. आमवाले  ने वरिष्ठ कवि को टोकते हुए कहा तो वे पिनक गए, बोले- सूंघ कर देखूं या नहीं ! ये भी बता दे. लगता है तेरे आम खास हैं. 
ऐसा नहीं है बाबूजी, सब लोग दबा दबा कर रख देते हैं और खरीदते नहीं. ऐसे तो आम पिलपिले हो जाते हैं. 
ऐसे कैसे पिलपिले हो जाते हैं ! आदमी देख के बात किया कर, हम कवि हैं, प्रेम  से दबाते हैं. आम से प्रेम करने वाले देखे नहीं होंगे तूने !?
“बाबूजी खरीद लो और मजे से कितना भी दबाओ, कितना भी प्रेम करो कोई बोलेगा नहीं. …. कितना तौल दूँ  ?”
“तौलने की बड़ी जल्दी पड़ी है !! .. भाव क्या है ?”
“ये हजार रुपये किलो, और ये वाला तीन सौ रुपये किलो.”
“आम का भाव बता भाई, काजू बादाम का नहीं. कौन सा आम है ये हजार वाला ?”
“ये अल्फ़ान्सो है साहब.”
“और ये तीन सौ वाला !?”
“ये हापूस है.”
“कोई मिला नहीं क्या सुबह से !! हम कोई ऐरे गैरे हैं जिसको कुछ पता नहीं है ! एं ? अल्फ़ान्सो और हापुस एक ही होता है, जैसे गुड मार्निंग और नमस्ते.”
“गुड मार्निंग में जो बात है साहब वो नमस्ते में कहाँ ! और कम भाव में राम- राम भी हैं, इधर नीचे पड़े हैं, अधसड़े. पचास रुपये किलो.”
“अरे !! क्या अधसड़े ले जायेंगे हम !!”
“गलत समझ गए साहब, ये अधअच्छे हैं. यानि आधे अच्छे. सिर्फ कहलाते अधसड़े हैं. संसार में पूरा अच्छा कौन है ! बड़े बड़े लोग ले जाते हैं बंगले वाले, कार वाले, मेमसाब लोग आती हैं जिनके यहाँ किट्टी पार्टियाँ होती हैं. संत कह गए हैं कि ‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय. सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय.’
“बड़ा विद्वान् है रे तू तो !! कहाँ तक पढ़ा है ?”
“ ‘पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय.’ हमारी पढ़ाई से क्या होता है साहब, ग्राहक पढ़ा- लिखा और समझदार होना चाहिए. सब आम को दबा दबा कर पता नहीं क्या देखते हैं !
“हद करता है यार !! वो आम वाला भी तो है, उसके आम भी अभी मैंने दबा दबा कर देखे. उसने तो कुछ नहीं कहा !”
“उसके आम देसी हैं. देसी आम आमों में दलित होता है. उसका तो एक आम चूस के फैंक दोगे तो भी कुछ नहीं बोलेगा.”
“वो दलित हैं तो तेरे आम क्या हैं भाई !?”
“ये अल्फ़ान्सो देवता हैं, … बाईस बिसवा … और ये हापुस देवता हैं बीस बिसवा. बाबूजी हर कोई छू नहीं सकता इनको. ईमानदार टाईप लोग तो दूर से पालागी करते निकल जाते हैं.”
“और जो नीचे पड़े हैं वो क्या हैं !!?”
“हैं तो देवता ही, पर वो पढ़े लिखे दागी हैं, लेकिन बुराई कुछ नहीं है उनमें. आप ले जाइये … तौलूं ?”
“चल रहने दे, मेरे यहाँ जब कोई पार्टी होगी तब ले जाऊंगा. अभी तो मैं भी इन देवताओं को पालागी करता हूँ.” कविराज अपने हाथों को सूंघते आगे बढ़ गए. अभी भी उनके हाथों में अल्फ़ान्सो की महक थी.            
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शुक्रवार, 8 जून 2018

गली में ताबीज वाला ..


वे सारे लोग डरे हुए थे. डर में अक्सर लोग दुबक जाया करते हैं. ये भी घर में दुबके टीवी देखते रहते थे. लेकिन सारे टीवी चैनल एक ही खबर दिखाते रहते थे, जिससे उनका डर और बढ़ जाता था. मायनस मायनस प्लस होता है, इसी गणित को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सारे डरे हुओं को इकठ्ठा किया. वो कहते हैं ना ‘मरता क्या न करता’. संकट के समय यह नहीं देखा जाता कि कौन बाप का कातिल है और किसने किसकी भैंस चुरायी थी. सबको सबका पिछला याद है लेकिन यह समय पिछला भूलने का है. आदमी पिछला भूल जाये तो फिर से खड़ा हो सकता है. अचानक उन लोगों को लगाने लगा कि अब वे ताकतवर हो गए हैं. अन्दर ही अन्दर वे अपने से बोल रहे थे कि ‘डर के आगे जीत है’. मंच के पीछे गान हो रहा था ‘हम होंगे कामयाब एक दिन …. हो ओ ओ …. मन में है विश्वास ….’ .  असल में सब जीत के लिए ही इकठ्ठा हुए हैं. वे उस कहानी को भी याद कर रहे थे कि ‘एक अंधा था और एक लंगड़ा था. दोनों मेला देखने जाना चाहते थे …….’ अभी एक हो जाओ, आगे मेले में पहुँच कर देखेंगे.  गली में रीछ आया है, सब मिल कर स्वर- प्रहार करो. 
अब आइये, रीछ के बारे में भी जान लें. रीछ को स्वर- प्रहारों से कुछ फर्क पड़ता नहीं है. उसमें आत्मविश्वास है, वह जनता है कि वह रीछ है. उसे यह भी पता है कि आपस में लड़ते रहने वाले और आज अचानक इकट्ठे हो गए स्वर- प्रहारक वास्तव में क्या हैं. इसके साथ ही अपने बारे में उसे कोई मुगालता नहीं है. जनता है कि वह जंगल में नहीं है. फ़िलहाल किसी की सेवा में है और उसके इशारों पर करतब दिखाना उसका काम है. रीछ की असफलता केवल रीछ की नहीं होती, मदारी की भी होती है. मदारी को रीछ की नहीं अपने खेल की चिंता होती है. खेल से ही मदारी का पेट भरता है और रीछ का भी. इस बात को लेकर विश्लेषकों और रिपोर्टरों में भिन्न  राय हो सकती है,  कुछ मानते हैं कि रीछ मदारी को पालता है और कुछ का कहना है कि मदारी रीछ को. लेकिन जब खेल चल रहा होता है तो रीछ और मदारी एक होते हैं. दोनों के बीच एक टीम वर्क होता है. जाहिर है  खेल दोनों से बड़ा होता है. इतना बड़ा कि समय उसे व्यवस्था या सिस्टम कहने लगता है. सिस्टम के इस खेल को कुछ लोग राजनीति कहते है और कुछ लोग दुर्भाग्य. इस धंधे का सच यह भी है कि मदारी को रीछ से तभी तक मोहब्बत रहती है जब तक कि वह नाचता है. उसके बाद बूढ़े रीछ को छोड़ दिया जाता है. जंगल में बहुत सारे भूतपूर्व एकांत काट रहे हैं. 
‘तो भाई लोग बजाओ ताली, जो ना बजाये उसको पीटे घरवाली’. मदारी ने एक हाथ में बांसुरी और दूसरे में डमरू लिया और दोनों को साथ में बजाया. रीछ झुमने लगा. लोगों ने ताली बजायी. मदारी  खुश हो कर बोला - ताली बजाते रहो, सबको दो जीबी डाटा फ्री मिलेगा. लेकिन जो भी पेट्रोल की बात करेगा उसको कसम है उसकी माँ की. तमाशे के आखरी में सबको रीछ के बाल का ताबीज मिलेगा, बच्चों के गले में डालो, माता- बहनों को पहनाओ, कमजोर डरपोक की बाजू में बाधों, भूत- पिशाच पास नहीं आये, दंगे- फसाद का डर नहीं. जो ताबीज की बेकद्री करेगा इनकम टेक्स में फंसेगा.  तभी एक आगे आया, बोला - भईया, बीस ताबीज विपक्ष के लिए चाहिए, कितने में दोगे ?
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शुक्रवार, 4 मई 2018

शैर में टेम्पोरेचर चुम्मालीस

हाँ हलो, हलो... का हो बिंदा, ये क्या सुन रए हम ! तुमारे शैर में चुम्मालीस टेम्पोरेचर चल-रा हे ! ओर यहाँ तुमारी भौजी कल्लाई बैठी हे कि कब यहाँ धूप जमीन पकड़े और कब हम कुडलई, पापड़, बड़ी बना लें फटाफट. और तो और गेंहूँ में घुन लगे पड़े हैं  पर  धूप दिखाने का महूरत ही नहीं बन रहा है. घर में दस बीस किलो होएं तो छान फटक लें शैर वालों जेसा, पर इधर तो तीन कोठी भरी पड़ी हें !! करें क्या येई समज में नहीं आ रहा. एक तो धूप नहीं चटक रई ओर ऊपर से पेड़ और हरियाली इत्ती हे कि धरती जो हे गरम नईं हो रई. सारा दिन पेड़ों पे चिड़ियों की चें-चूं  लगी रेती हे सो अलग. शैर वाले बड़े समझदार हें पट्ठे, पेड़ सारे काट डाले ओर ऊँची ऊँची बिलडिंग होन बना ली मजे में. चिड़िया की चें-चूं का झंझट ही नहीं. देखो अब, विकास की सुन तो रये कि गाँव का भी होगा, पेड़ काटने लगें तो पक्का होए. इधर तो शाम सेई ठंडी हवा चलने लगाती है, लोगों के घरों में दहेज़ में मिले पंखे-कूलर पड़े खराब हो रए हें. तुम लोग तो सुना है कि एसी में सोते हो. ठाठ हैं भईया तुमारे, चुम्मालीस  टेम्पोरेचर के मजे तो बस शैर वालों के होते हें. यहाँ तो दही, छाछ, सत्तू है पर सब बेकार, तपन लगे तो पियें खाएं. भरी दुपहरी में जो अमराई में लेट जाओ तो आराम इतना कि यम के दूत आवें तो यहीं सो जाएँ ससुरे. तुमारी भौजी पूँछ रईं थीं कि पूछ लो बिंदा से कि ना हो तो एक दो बोरा आलू भेज दें, खूब निकले हैं अबकी. उधर चुम्मालीस  है तो चिप्स बना-सुखा के भेज देंगे और थोड़ा बहुत खुद भी रख लेंगे. बचपन में तुम्हें आलू की चिप्स कितनी पसंद थी ! हप्ता भर में तीन चार किलो तो अकेले खा जाते थे आराम से. पर छोडो तुम कहाँ बनवाओगे. जरा सी तो गैलरी है तुमारे फ्लेट में. एक बार सोये थे हम वहां, पांव लम्बे करने पर सिर टकराता रहा रात भर.
इस साल पंचायत वाले कोसिस कर रए हें कि सीमेंट वाली सड़क बन जाये. अब देखो क्या होता है. सुने हैं कि सीमेंट वाली सड़क बनाने में पैसा खूब खाने को मिलता है. इसीलिए उम्मीद हो गयी है, दबंग लोग लगे पड़े हैं. सुना है कि सीमेंट वाली सड़क अच्छी तपती है, लोग आमलेट तक बना लेते हैं उसपे. अभी तो यहाँ कच्ची सड़कें हैं, दिन ढलते ही ठंडी हो जाती हैं. तुम्हे तो पता है कि छोरा छोरी नंगे पांव यहाँ वहां दौड़ते फिरते हैं. शैर के लोग पढ़े लिखे हैं, वहां फुटपाथ  भी खुल्ला नहीं है. घर के बहार कदम रखो तो सीधे सीमेंट की सड़क. तभी न एक से बढ़ के एक जूता चप्पल पहनने को मिलता है लोगों को. यहाँ इतना सुख कहाँ, भरी दुपरिया में निकल जाओ तो ईनाम है जो पांव जल जाये. धिक्कार है, अबकी सोच समझ कर वोट देने का फैसला किया है हमने. एक प्रदुषण युक्त, हरियाली मुक्त विकास इधर भी होना सबको. 
तुम लोग वहाँ पर छोटे छोटे प्लाट पर मकान बनाये हो और हर घर में एक ठो बोरिंग भी छेदे हो. लेकिन यहाँ तो घिसी पीटी जोइंट फेमिली का चलन हे सब लोग एक कुंए से काम चला लेते हैं. सोच रहे हैं कि शिक्षित समझदार जैसा व्यवहार करें और सब भाई अलग हो जाएँ. अलग अलग बोरिंग करवा लें और पानी खीचें मजे में. ऊपर से गोरमेंट नल में पानी भी देती हे ! आजकल शैर में जितने इन्सान रहते हैं उससे ज्यादा मोटर कारें रहती हैं. सुना हे कि नल के पीने वाले पानी से कारें धोते हैं, कुत्ता नहलाते हैं और फुलवारी सींचते हैं !! शैर तो समझो स्वरग है, बिंदा हम तो केरए भईया गरमी गरमी अपनी भैंसे ले के आ जाएँ तुमरे शैर, नहा धो लेंगी बेचारी, आखिर दूध तो शैर वाले ही पीते हैं उनका.
और  हाँ, तुमे तो मालूम हे अम्मा को गठिया हे. बैध जी बोले हैं की गरमी पड़ेगी तो थोड़ा सुधर जायेगा. पर गरमी इधर पड़ ही नहीं रही ससुरी. हम कहे कि अम्मा शैर चली जाओ, वहाँ चुम्मालीस हे पर सुनती ही नहीं. सुना हे कि दिल्ली में बहुत गर्मी हे. होनई चईये, चुम्मालीस नहीं तो काहे की राजधानी. टीवी में देखे हैं कि दिल्ली वाले पट्ठे बहुत तेज चलते हें, लगता नहीं कि किसी को गठिया होगा. अम्मा को तुमी समझाओ जरा, न हो तो आ के ले जाओ. ... और सुनाओ बहू बच्चे ठीक हैं ? ..... क्या !! ..... रांग  नंबर हैं !! रांग  नंबर चल रहा था !! .... ठीक है .... चलो रखते हें.

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सोमवार, 23 अप्रैल 2018

वोटर बचाओ


देखिये भाई साब, बात को समझने की कोशिश कीजिये. लड़कियां जो शिकार हो रही हैं वो नाबालिक हैं. जाहिर है कि वे अभी वोटर नहीं हैं. लोकतंत्र में वोटर होने न होने का महत्त्व है और दिक्कत भी. जिन पर बलात्कार का आरोप है वे नागरिक बालिग हैं और वोटर भी. अब इसे संयोग ही कहिये कि सामने चुनाव भी सीना ताने खड़े हैं. चुनाव का तो आपको पता ही है, क्या से क्या हाल कर देते हैं सरकार का. जो कमर तनी तनी रहती थी मुई ऐसी फोल्ड हो जाती है कि पूछो मत. कभी कभी लगता है कि कोई तहा के पटक न दे किसी कोने में. पांच साल जो सूरजमुखी रहे चुनाव में हरसिंगार के फूल हुए जाते हैं. आत्मा ही जानती है जब ऐरों गैरों तक को जीजा फूफा कहना पड़ता है. ऐसे में किसी वोटर को नाराज करना खुद अपने गले में फंसी का फंदा डाल लेना है. किसानी छोड़ के तो इधर आये हैं, और यहाँ भी फांसी लटकना पड़े तो लानत है राजनीति पर. माहौल देखिये,  सारी पार्टियाँ कमर कस के मैदान में हैं. वो कहते हैं ना सावधानी हटी और दुर्घटना घटी. इसलिए वोटर कितना भी पापी क्यों ना हो चुनाव तक कनपुरिया गंगाजी की तरह पवित्र है. सच बात तो ये हैं कि चुनावी दिनों में खुद राजनीतिक दलों की स्थिति उन नाबालिक लड़कियों की तरह ही हो जाती है. जिस गली में जाओ इज्जत लुटने लगाती है, हाथ जोड़ते, पैर छूते, रोते गिड़गिगिडाते एक एक पल युग की तरह निकलता है. लोकतंत्र कमबख्त नगरवधु बना देता है. इसके बाद भी मजबूरी देखो कि उफ़ तक करना मना है. जब दिखो राजी दिखो. इसलिए यह कहना कि सरकार पीड़िता के दर्द को समझती नहीं है तो सरासर गलत है. लेकिन किसको कहने जाएँ, हमारी कौन सुनेगा !!  नेशनल पॉलिसी है कि सब सहना पड़ता है भईया. जो सह जाये समझो वो सुखी. जो न्याय मांगने निकलेगा उसे न्याय की भी कीमत चुकानी पड़ेगी. जानते ही होगे कि दुनिया बही खाते वाली है, यहाँ कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. 
आपको लग रहा होगा कि बलात्कार के पक्ष में बात जा रही है. हम यह नहीं कह रहे कि ‘लडकों से गलती हो जाती है’. वो तो दूसरी पार्टी वाले कहे हैं. हमारा कहना तो ये हैं कि लड़कियों का पश्चिमी पहनावा, फ़ास्ट फ़ूड, चाउमिन, पित्जा, तिरछी नजर वगैरह से एक तरह का एयर होस्टेस  नुमा माहौल बनता है और ये हो जाता है. अगर लडकियों को पकड़ पकड़ के बाल विवाह कर दिया जाये हर घर गंगा नहा ले. अपनी ममता दीदी की भी बात सही है, लडकियों को आज़ादी बहुत मिली हुई है और यही रेप का कारण है. लेकिन मुद्दे की बात यह है कि ईश्वर की मर्जी के बगैर कुछ नहीं होता है. जब तक धरती है ये होते रहेंगे. इसमें सरकार या मंत्री वंत्री कुछ नहीं कर सकता है. इसलिए मनुष्य को बीच में पड़ कर प्रकृति में बाधक नहीं होना चाहिए. टीवी वाले लगातार बहस करवा रहे हैं, अच्छी बात है. सारे दल अपने प्रवक्ता भेजते हैं. बलात्कार चाहे रुकें न रुकें, लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए बहसें निरंतर होना चाहिए, चाहे बहसों की निरंतरता के लिए रेप ही क्यों न होते रहें.
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शनिवार, 3 मार्च 2018

होली में स्कूटर

एक जमाना था, होली हो और लकड़ी का टोटा हो यह हो नहीं सकता था. आसपास इतनी लकड़ी होती थी कि ढाई क्विंटल में जल जाने वाले मुर्दे को भी पांच क्विंटल लकड़ी में फूंका जाता था. रोटी के लिए रोते भले ही मिल जाएँ लेकिन लकड़ी के नाम पर रोने वाले ढूंढे नहीं मिलते थे. रोने का ऐसा है कि इसमें सुरताल कोई नहीं देखता. आज भी सिचुएशन के हिसाब से कोई भी कभी भी रो सकता है. अधिकार के नाम पर जनता के पास बस यही एक अधिकार है कि भईया रो ले और छाती की आग ठंडी कर ले. रोने पर ना कोई टेक्स है ना कानून, उदार है सरकार. वरना देश को खुशहाल दिखाने के लिए यह कारगर तरीका हो सकता है. रोने वाला आधार की जद में तो है ही, रोते ही उसके खाते से अच्छा ख़ासा काटा जा सकता है. 
 होली का त्यौहार गिले शिकवे दूर करने और हिसाब किताब ठीक करने का मौका होता है. मसलन मोहल्ले का बनिया उधार नहीं देता है या ज्यादा दाम वसूलता है तो उसकी खटिया और तखत इस बार होली में नजर आना चाहिए. नत्थू पेलवान छोकरों को जब तब जुतियाते रहते हैं तो मटकी भर मैला उनके दरवाजे पर रात दो बजे फोड़ी जाना तय  है. जाहिर है नत्थू पेलवान रात दो बजे से पगलाएंगे तो पिच पर अकेले होंगे और मैच डे एंड नाईट चलेगा. मजा ये कि घंटों की हाय हुक्कू के बाद भी कोई उनकी पकड़ में नहीं आयेगा. 
लेकि अब वो जमाना कहाँ साहब ! घरों में लकड़ी के नाम पर एक बेलन मिल जाये तो समझो बहुत है. फर्नीचर लोहे और प्लास्टिक के हो गए, जलाने के लिए कुछ मांगने पर अख़बार की रद्दी निकालने लगते हैं. लेकिन बात जब होली की हो तो चोरी की लकड़ी का मजा ही कुछ और होता है. मानो न मानो चंदा भीख है, चाहे वह चुनाव लड़ने के लिए ही क्यों न माँगा गया हो. होली पर लकड़ी चुराना पुरुषार्थ का काम माना जाता था. हट्टे कठ्ठे लडके आधी रात को रस्सी और कुल्हाड़ी ले कर इस पुण्य कार्य के लिए निकलते. इरादे समाजवादी रहते, फिर चाहे खेत मामा का ही क्यों न हो, जिम्मेदारी तो आखिर जिम्मेदारी होती है. रात अँधेरी होती, हालाँकि आसमान में टेक्स पेड इनकम सा आधा अधूरा चाँद भी होता, जिससे समझ में नहीं आता कि रौशनी हो रही है या अँधेरा. लेकिन जब कोई नेक काम के लिए चोरी करता है तो ईश्वर उसका साथ देते हैं. समाजसेवी डाकू जब भी डाका डालते हैं या बैंक का पैसा लूटते हैं तो बाकायदा पूजा पाठ भी करते हैं. पूजा पाठ हो जाये तो ‘ऊपर वाला’ नीरव मोदी और माल्या के पक्ष में भी मजबूर हो जाता है. गीता में प्रभु ने कहा भी है कि “हे अर्जुन, जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ.” काम छोटा है आस्था का स्थान बड़ा है. रहा कानून का डर तो उसके लिए हमारे वकील साहब लोग हैं ही. कोई करुणा सागर किसी आदमी की हत्या करके आये तो ये कानून की हत्या कर इंसानियत को भी जन्नत नसीब करवा देते हैं.  जैसे छपक छपक चले आल्हा की तलवार, एक को मारे, दूजा मरे तीसरा डर से मर जाय. वकील कानून का एंटीबायटिक होता है. अनुभवी हत्यारे मानते हैं कि वकील कानून से बड़े होते हैं. ऐसे वकीलों को समाज सम्मान पूर्वक ‘अच्छा वकील’ कहता है और मानता भी है. खैर, बातें हैं बातों का क्या ! सवाल ये हैं आज अगर कोई लकड़ी चुराने निकले तो कहाँ निकले ! मजबूरन लड़कों को चंदा मांगने निकलना पड़ता है. 
रायबहादुर सेठ खदानचंद के सुपुत्र सेठ रतनचंद से पहला चंदा लिया जाना है. लड़कों की भीड़ देख कर वे खुद पोर्च में आ गए. चंदे की बात सुन कर बोले कि ये जो स्कूटर खड़ा है इसे किसी रात चुरा ले जाओ और रख दो होली में. यही चंदा मान लो मेरा. समर्थ आदमी प्रधान मंत्री न हो तब भी, कब और कैसी मजाक कर दे यह समझ में नहीं आता है. भले लड़कों ने मना कर दिया कि स्कूटर होली में कैसे जलाया जा सकता है सर ! और क्यों ? रतनचंद बोले होली गिले शिकवे दूर करने का त्यौहार है और गिले शिकवे दिलों में ही नहीं होते हैं, बाहर भी होते हैं. अगर तुम लोग चुरा कर नहीं ले जाओगे तो मैं ही किसी रात होली में रख आऊंगा. बस तुम इसे होली से बाहर मत निकलना. पता चला कि उन्हें गुस्सा इस बात का लड़के के दहेज़ में कार मांगी थी और उधर वालों ने स्कूटर पकड़ा दिया. स्कूटर क्या है उनके लिए दो क्विंटल लकड़ी है. होली में रख दे कोई तो उठती लपटों से छाती ठन्डी हो जाए. लड़कों को तसल्ली हुई कि अच्छा है उनका गिला शिकवा स्कूटर से है वरना बड़े लोगों में गिले शिकवे का रिवाज तो बहु से भी है.
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भांग के पकौड़े


भांग के पकौड़ों की खास बात यह होती है कि इसमें भांग होती है और यह बात सिर्फ बनाने वाला जानता है. जैसे बजट में क्या है यह बजट बनाने वाला जनता है. भांग का ऐसा है कि इसका सेवन करने वाला मस्त रहता है. जीएसटी के चिमटे से चाहे कोई उसके कपड़े तक खेंच ले जाये उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है. राजनीतिशास्त्र के फुटनोट में कहीं लिखा है कि जनता को भांग पिला कर राख लपेट दे और राजा  मस्त राज करे. भांग की खासियत है कि यह पिलाई जा सकती है और खिलाई भी जा सकती  है. पीना तो खैर पीना है, जैसे राजेश खन्ना ने जै जै शिवशंकर करते हुए पी डाली थी. लेकिन खाने का मामला थोड़ा अलग है. जो खिलाई जाती है उसे गोली कहते हैं. दक्ष मुखिया जानता है गोली कैसे देना है. ना ना, गोली से आप वो गोली मत समझ लेना जो आजकल हमारे गुंडे भाई भरे बाजार किसी को भी ठों से मार कर देश की जनसंख्या नियंत्रण नीति को अपना समर्थन और सहयोग देते हैं. ये गोली भांग की गोली है जो अंटी यानी कन्चे की तरह होती है. सफल नेता छाती चौड़ी करके मिडिया के मार्फ़त रोज एक गोली देश को खिला देता है.  भोलेनाथ के इस परसाद से भक्त झूमते रहते हैं. लेकिन चुनाव के पहले जनसभाओं में जो बांटा जाता है उसे भांग का अंटा कहते है. यों समझिये कि अंटा अंटी का पति होता है और पेकेज की तरह भरापूरा और मोटा होता है. अंटी व्यवस्था बनवाती है और अंटा बहुमत दिलवाता है. 
 युवा शक्ति इनदिनों पकौड़ों के माध्यम से अपना गौरवशाली इतिहास लिख रही है. शिक्षित व्यक्ति जो भी काम करता है सलीके से करता है. वह कम तेल में ज्यादा पकौड़े तल सकता है. आकार-प्रकार और मिर्च मसले का अनुपात तय कर वह पकौड़ों के चार वर्ण बना सकता है. हरा-पीला डाल कर हिन्दू-मुसलमाँ पकौड़े बना सकता है. उसे बताया गया है कि जब चाय बेचने से ये हो सकता है तो पकौड़ा बेचने से वो क्यों नहीं हो सकता है. भांग कई तरह की होती है, यानी ‘ये’ भी होती है और ‘वो’ भी हो सकती है.  भांग के पकौड़ों का मजा तलने वाले को आता है और खाने वाले को भी. कहते हैं कि राजनीति के कुंओं में भांग पड़ी हुई है. सुना है कि  दिल्ली का पानी ऐसा है कि उसे पीते - नहाते रोम रोम से लुच्चापन टपकने लगता है. अब आप नाराज मत हो जाइये प्लीज. जब धर्म को अफीम कहा गया तब भी उसका कुछ नहीं हुआ तो राजनीति को भांग कह देने से कुछ होना जाना नहीं है. डिब्बी और बोतल पर लिखा है कि ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ फिर भी न सिगरेट छूटती है न शराब. भांग के पकौड़ों की वेरायटी बहुत है, इधर विकास का पकौड़ा है, उधर बुलेट ट्रेन पकौड़ा, पकौड़ा मंदिर, पकौड़ा महंगाई, पकौड़ा भ्रष्टाचार, पकौड़ा कलाधन, पकौड़ा पाकिस्तान, पकौड़ा तीन तलाक, और भी बहुत कुछ. और खुश खबर, भांग के पकौड़ों को आधार से नहीं जोड़ा है, इसलिए बारबार खाते रहो, मस्ती भरे तराने गाते रहो. अंटा है, गोली है. बुरा न मानो होली है.
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