सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

लाल बिल्ली


कामरेड उस मुकाम पर पहुंच गए थे जब आदमी एक लकड़ी और कुछ अलौकिक कामनाओं के सहारे चलने लगता है । यों देखा जाए तो कामरेड के पास क्या नहीं है । बेटे बाजार के बीहड़ में फावड़े से खींच रहे हैं और बोरियों में ला रहे हैं । बंगले में डाबरमेन, बाक्सर और लेबराडोर उस प्रतिष्ठा को बुलंद करते हैं जिसे कभी कामरेड ने सड़कों पर नारे लगा कर धूल में मिलाया था । अक्सर मोटे कपड़ों और सस्ते जूतों के सहारे वे सच का सामना करने की असफल कोशिश करते पाए जाते हैं । बावजूद बगल से उधड़ा कुर्ता पहनने के वे अपने पर लगाए प्रश्न चिन्हों को परास्त नहीं कर पाते हैं । उनका प्रतिप्रश्न होता कि कामरेड के गाल लाल नहीं हो सकते हैं ऐसा कहां लिखा है ! किसी के मोटा हो जाने से मार्क्सवाद पतला हो जाता है क्या ? कामरेड को उसकी लाल कार से नहीं उसके लाल विचारों से पहचाना जाना चाहिए । कामरेड ने कई दफा बार का छोटा-बड़ा बिल चुकाया है, लेकिन बावजूद इसके साथियों ने उन्हें कभी भी नीट-कामरेडनहीं माना। कभी पूंजीवादी सोड़ा तो कभी दक्षिणपंथी पानी मिला कर उसका असर कम करते रहे। आखिर एक दिन साफ साफ बात हो गई। साथियों ने कहा कि बिल का पेमेंट तो ठीक है लेकिन बैरे को मात्र दो-तीन रुपए की टिप दे कर उसका अपमान करते हो! ये पूंजीवदी आचरण और बुर्जुवा सोच है।
कामरेड सहमत नहीं हुआ- ‘‘ज्यादा टिप देने वाला कामरेड हो जाएगा क्या ? कैसी बातें करते हो ! ...... अपना भाई समझ कर उसे टिप देता हूं भले ही कम हो।’’
‘‘भाई टिप नहीं हिस्सा मांगते हैं कामरेड। ....... हम भी आपके भाई हैं, .... ये सोचा कभी आपने ?’’ पुराना साथी महेश  बोला।
‘‘देखो महेश, बुरे दिन किस पर नहीं आते हैं। न चाहते हुए भी मैं आज धनवान हूं। जबान का स्वाद भले ही बदल गया हो पर विचार तो आज भी वही हैं। लाल झंडा देख कर मैं भड़कता नहीं हूं, इसका क्या मतलब है ?’’ कामरेड रुका .... और दो सांस लेने के बाद फिर बोला- ‘‘उम्र के इस मुकाम पर कुछ भी हो सकता है ...... तुम्हें मैंने हमेशा अपना विश्वसनीय माना है ...... तुमसे एक गुजारिश है, ...... जब मेरी अर्थी निकले .... तुम .... तुम खुद ....मेरे लिए लाल सलामके नारे लगवा देना ..... वरना मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा।’’ कामरेड फफक पड़ा।
‘‘ अरे ! भावुक मत बनो कामरेड ! ..... ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि कामरेड़ों की आत्मा नहीं होती है, न पुनर्जन्म होता है और न ही मोक्ष । दक्षिणपंथियों की सोहबत में मार्क्सवाद को आपने चरणामृत में बदल लिया है ! ’’ महेश ने जेब से रुमाल निकाल कर उनके आंसू पोंछे और इस बात को याद रखने के लिए कहा कि वक्त और जरूरत पड़ने पर हम लोगों के बीच आंसू पोंछने की परंपरा अभी बची हुई है ।
‘‘ मैं जिन्दगी भर तुम लोगों के बीच रहा , यह जानते हुए कि तुम वो नहीं हो जिसका दावा करते रहे हो । ’’ कामरेड के आंसू फिर बह पड़े ।
‘‘ कामरेड, क्या आप अपनी गलती पर रो रहे हैं ? ’’
‘‘ गलती पर नहीं .... मूर्खता पर । मुझे नहीं पता था कि एक बार कामरेड़ हो जाने के बाद कोई विकल्प नहीं बचता है । ’’
‘‘ जो अपने लिए विकल्प की चाह रखते हैं वे कामरेड नहीं रहते हैं । ’’
‘‘ मैं जिंदगी के तीस साल भुलावे में रहा, ..... बावजूद इसके मुझे लाल सलामचाहिए । मुझसे वादा करो महेश  । ’’ कामरेड ने महेश  का हाथ पकड़ लिया ।
‘‘ देखिये, आप हमेशा बिल चुकाते रहे हैं ..... मैं कोशिश करूंगा । ’’ महेश  ने कहा ।
‘‘ कोशिश नहीं वादा करो । ...... और याद रखो ..... तुम्हारा वादा एक बार-साथी का वादा है । ’’
‘‘ ठीक है .... मैं वादा करता हूं । ’’
‘‘ शुक्रिया महेश  ..... अब मैं निश्चिन्त हो कर जा सकूंगा । ’’
‘‘ कहाँ जा रहे हो कामरेड !? ’’
‘‘ चार धाम की यात्रा पर । ...... पर कहना मत किसी से । ’’
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

सब खाएंगे तो सोच बदलेगी

जिस वक्त देश में आतंकी हमला हुआ और हमारे जवानों के  शहीद हो जाने से लोग आहत थे, तब उनका बयान आया कि भईया, मेरे खिलाफ मुकदमा इसलिए दर्ज करवाए जा रहे हैं क्योंकि में देश के गरीबों, बेरोजगार युवाओं और  किसानों के हक के लिए लड़ रहा हूँ . किसी ने बीच में बोल कर याद दिलाया कि देश के हमारे सिपाही सीमा पर लड़ रहे हैं. आप क्या कहना चाहेंगे ?
वे बोले –“ आतंकी हमले हों या चुनाव सर पर हों, जवाबदार लोगों को लडना ही पड़ता है. दोनों इज्जत के लिए जी जान लगा देते हैं . लेकिन एक के साथ सरकार होती है, देश होता है और दूसरे के साथ पार्टी के लोग भी नहीं होते हैं . आसानी से समझा जा सकता है कि बड़ी लड़ाई कौन लड़ रहा है. .... देखो भईया, ऐसा है कि आपके प्रधानमंत्री जी करते तो बड़ी बड़ी बातें हैं लेकिन अभी तक अच्छे दिन आये नहीं हैं . आरोप नहीं लगा रहा हूँ, पूरे यकीन  के साथ कह रहा हूँ , मेरे तो नहीं आये हैं. आपकी आप लोग जानें. लेकिन पार्टी कार्यालय में किसी ने मुझे बताया कि जनता के भी अच्छे दिन अभी नहीं आये हैं. सच बात तो ये है कि हम भी नहीं चाहते हैं कि जब तक हम सत्ता में नहीं आते किसी के अच्छे दिन आयें . मम्मी कहती है कि एक बार तुम कुर्सी पर बैठ जाओ तो हमारे अच्छे दिन आ जायेंगे. रोज रोज के मुकदमों से वो भी बहुत तंग आ चुकी हैं. मम्मी को मैं कहता हूँ कि देखो भईया मै पूरे प्रयास कर रहा हूँ. प्रयास करना बड़ी बात है, हार-जीत तो जनता के हाथ  में होती है.
एक पत्रकार ने पूछा - कुंवर जी, गरीबों, बेरोजगारों और किसानों के लिए आपके पास क्या योजनाएं  हैं ?
देखो ऐसा है, गरीबों को हम कहेंगे कि भईया गरीब लोगों, तुम सबसे पहले अपनी सोच बदलो. जो लोग सोच नहीं बदलते वो आलरेडी गरीब होते हैं , गरीब बने रहते हैं. सोचने के लिए हम उन्हें चाकलेट की सुविधा देंगे. आप जानते होंगे कि चाकलेट खाने से सोचने कि छमता बढ़ जाती  है. ... आप मुझे देखिये , आज मैं जो भी हूँ चाकलेट के कारण हूँ. अगर हमारी सरकार बनी तो हम चाकलेट को टेक्स फ्री कर देंगे. गरीबों, किसानो और बेरोजगारों को चाकलेट फ्री बाँटेंगे ....
लेकिन सर, कुछ सरकारें लेपटाप और स्मार्ट फोन फ्री बाँट रही हैं !! किसी ने सवाल दागा .
देखो भईया, आप लोग भी अपनी सोच बदलो. लेपटोप और स्मार्ट फोन कोई खा सकता है क्या ? खाने से सोच बदलती है. जिनको खाने के बारे में ठीक ठीक ज्ञान नहीं है वही राजनीति को भी गन्दी कहते हैं. सब खाएंगे तो सोच बदलेगी, देश बदलेगा. जनता को हम खाना सिखाएंगे और इसकी शुरुवात चाकलेट से करेंगे. हमारा देश साधू-संतों और फकीरों का देश है. उनके पास  खाने पहनने को नहीं होता है लेकिन मस्त रहते हैं. ऐसा सोच के कारण होता है. एक बार पार्टी ने नारा दिया था कि गरीबी-हटाओ, अब हमारा नारा होगा अपनी सोच-बदलो.
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सोमवार, 26 सितंबर 2016

फटकार वही जो सुप्रीम कोर्ट लगाये


सुप्रीम कोर्ट घर में भी होती है और मौके-बेमौके फटकार भी लगती है . यहाँ बात की बारीकी को समझें जरा, जो लोग मौका देते हैं उन्हें मौके मौके पर फटकार लगती है लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो मौका नहीं देते हैं वे बकायदा बेमौके फटकारे जाते हैं. देश की सुप्रीम कोर्ट का काम भी इन दिनों बढ़ गया लगता है. लगभग रोज ही किसी न किसी को फटकारे जाने की खबर छप रही है. हाल ही में किसी बेसहारा हो चुके समूह के मुखिया अपने वकील समेत फटकारे जा चुके हैं. बड़ा आदमी फटकारा जाये तो ब्रेकिंग न्यूज बनती है. सुप्रीम कोर्ट की फटकार से छोटा आदमी भी फट्ट से महान हो जाता है तो फिर बड़े आदमी के क्या कहने. अखबार में उसकी कलर फोटो छपती है और लोग देखते हैं कि वह चमकीले दांतों के साथ मुस्करा भी रहा है. हमारे यहाँ ऐसे पहुंचे हुए बाबा हो चुके है जिनकी लात खा कर लोग सांसद तक बन गए. करोड़पतियों ने भी लात खाई और अरबपति हो गए. लेकिन गरीब ने लात खाई तो वह और गरीब हो गया. बाबा से शिकायत की तो वे बोले जिसके पास जो होता है उसे लात मार कर मैं और बढा देता हूँ. गरीब से कहो कि वह अपनी गरीबी ले कर नहीं आये. कुछ चोर-उचक्के किस्म के लात खा आये, उनमें से अनेक आज डान, भाई या बाहुबली नाम से पहचने जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट की फटकर लात से काम नहीं है, पड़ते ही जेल जाते आदमी की जमानत हो जाती  है और वो दो ऊँगली दिखता बहार आ जाता है.
इधर बिहार में तो फटकार आशीर्वाद का काम करती दिखाई देती है. किसी जमाने में परिवार नियोजन को लेकर दुनिया भर की फटकार सहेजने वाला आज अपने पूरे कुनबे के साथ राजनीति करते हुए जनता की सेवा कर रहा है. यह कोई छोटी बात नहीं है, होनहार वो देख लेते हैं जो दूसरे नहीं देख पाते हैं. अब देखिये, सुप्रीम कोर्ट ने इधर भी तेजपाल नाम के एक मंत्री को फटकार लगाई और नोटिस दिया कि उन्होंने अपराधियों को पाल रखा है, खासकर उन अपराधियों को जिन पर हत्या के आरोप हैं. सुप्रीम कोर्ट में विद्वान बैठते है, जमीनी हकीकत से वो दूर होते हैं. उन्हें यह नहीं पता कि नेता अपराधियों को पालते हैं या अपराधी नेताओ को पालते हैं . किसी नामालुमुद्दीन के बारे में सुना होगा आपने. बताइए जरा, उसे नेताओं ने पाल रखा हैं या कि उसने नेतटट्टे पाल रखे हैं. सुनने में तो यह आता है कि हर अपराधी की जेब में दो-चार नेतटट्टे पड़े रहते हैं. विद्वानों को क्या पता, न अपराधियों से उनका नाता, न ही नेताओं से. उनका काम फटकारना है सो फटकार दिया. इधर फटकार पड़ते छुटके से मंत्री बड़का गए और दन्न से बोल दिए कि हमको क्या पता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं. किसी के माथा पर तो लिखा नहीं होता है. हमारे साथ रोजाना ह्ज्जारो आदमी फोटू खिंचवाता है, हमको कोई याद रहता है कि कौन आ कर पास में खड़ा हो गया. पप्पाजी बयान सुने तो खुस हो गए, बोले लरिका एक्को फटकार में गियानी हो गया है, सुवास्थ मंत्रालय छोटा पड़ रहा है. मूखमंत्री नहीं तो कम से कम होम मिनिस्टर तो बनाना तो बहुते जरूरी हो गया है. सुप्रीम कोर्ट का फटकार ऐरे गेरे को नहीं ना पडती है.


रविवार, 18 सितंबर 2016

एक जिम्मेदार आदमी का अंतिम पत्र



पुलिस ने सुसाइट-नोट पढ़ा।
शुरू में लिखा था .....‘‘ प्यारी जोजो ....।’’
‘‘ ये जोजो कौन है बे !? ’’ साहब ने सामने खड़े व्यक्ति से पूछा।
‘‘ हमारी भाभी हैं, ..... भइया भाभी को जोजो नाम से ही बुलाते थे। ’’
‘‘ जोजो क्यों !? इस तरां का नाम तो होता नहीं है इधर !’’
‘‘ वो क्या है सर जी, भाभी हर बात में जो हेकि, जो हेकिबोला करती थी। इसलिए .....’’
‘‘ तुम्हारे भाई की राइटिंग अच्छी नहीं है ! तुम पढ़ सकते हो ?’’
‘‘ हां जी ।’’
‘‘ पढ़ के सुनाओ तो जरा।’’
हमाई पियारी जोजो,
हमें माफ कर देना, अब हम जा रए हें । जे दुनिया अच्छे आदमी के लाने तो हइये नईं। हमाई तो दुस्मन बनी पड़ी है, भर पाए हम तो। पर देखो तुम चिंता करना मती, और टैम पे खा-पी लिया करना नहीं तो बीमार पड़ जाओगी। घर में अम्मा लगी पड़ी हैं खाट से और दद्दा भी उठै-बैठै से टोटल-लाचार चल रए हैं। काम तो तुम बीमार पड़ै में भी कर लेती हो दिन-रात। पर तुम ठीक रहोगी तभी ना उनका ख्याल रख सकोगी अच्छे से। सास-सुसुर हैं तुमारे, सेवा का फरज तो बनतई है, ...... है कि नईं। खाबै के मामले में तुमाई आदत अच्छी नईं है। एक तो सबसे आखरी में खाती हो, इसलिए कम मिलता है, कभी कभी तो मिलताई नईं है। तुम तो हमें बताती नईं हो ....... पर हम जानते सब हैं। अब तुम तो जे नियम-घरम, सरम-वरम सब छोंड़ दो, ...... हमीं नईं रहे तो आखरी में खाबै का मतलब का है, बताओ  ? सई हैकि नईं ? हमाई  मानो तुम तो पहले खा लिया करो चुप्पे से। नहीं तो उप्पर स्वरग में हमें तुमाई बड़ी फिकिर लगी रहेगी। और जे तुम जान लो कि फिकिर में हम कोई आराम थोड़ी कर पाएंगे वहां। तुमै, पता नईं है, हमारे लाने स्वरग में भोत काम लगा पड़ा रैगा। उप्पर से तुमाई फिकिर। वहां तो मरै का मौका भी नईं मिलेगा, ये सोची हो तुम । बहुत मुस्किल जिनगी होती है मरै के बाद की। इत्ता तो जानती होगी .... कि नईं।
एसा नईं ना सोचना कि तुमको हम बेसहारा छोड़े जा रए हें। सात बच्चे हैं, जो आगे चल के तुमारा सहारा बनेंगे। चार ठौ मोड़े हें ..... राज करोगी तुम तो .... और तीन ठौ मोड़ियां हैं। तो जान लो कि अपनी सरकार भी कै रही है कि मोड़ा-मोड़ी सब बरोबर होत हैं। ...... खुस तो हो ना तुम ? ...... देखो भागवान, जित्ता हमसे बना उत्ता कर दिया हमने। ...... तो समझ लो कि सातों के सातों मोड़े हैं तुमारे। अच्छे इसकूल भेजना सबको। खूब पढ़ाना लिखाना, हाँ । फिर देखना बिरादरी में कित्ती इज्जत होती है तुमाई। बिरादरी वाले आदमी को देख के कल्लाते हें पर गरीब ओरत की तो बड़ी इज्जत करते हें। फिर तुम तो अब बिधवा हो जाओगी .... तो बैसेई पंच पियारी रहोगी।
जान लेओ कि छोटू और जग्गू की फिकिर हमको बहुत है। जरा कमजोर हैं। तुम ठीक से अपना दूध पिलातीं तो निकल आते ससुर के नाती, पर तुमने हमाई सुनी कब। चलौ जो हो गया सो हो गया, गलती इंसान सेई होती है। अब हो सके तो उनके लिए एक ठौ गइया पाल लेना। दूध पीयेंगे तो टनटना जाएंगे गबरू समान। .... हमै का, हम तो जा रए हें, तुमाए ही काम आएंगे। हम हमाए लाने तो कुछ कै नहीं रए।
और देखो रानी, ... गुलाबो और गेंदा दोनों का ब्याह टैम पे कर देना। जवान होने बाली हैं। तुम तो जानती हो आजकल जमाना अच्छा नईं है। दबंगों के लौंडे बहुत बिगड़े हुए हैं। उनके लाने गारी निकरती है मुंह से, हमैं तो उन लोगों ने दो कौड़ी का नईं समझा। पर तुम बड़ी हिम्मत वाली हो। मोर्चा ले लोगी उन सबही से। और देखो, ..... सादी-ब्याह की चिंता तो समझो कि हैयेई नईं, .... सरकार मामा है, करवा देगी मजे में। .... घर-बर अच्छा ढूंढना, ऐरे गैरे के पल्ले मत बांध देना। बिन बाप की लड़कियां हैं तो दयालू घर भी मिल जाएंगे आराम से। इतना तो नाम है हमारा। ... और जो भी सुनेगा कि फांसी लगा के मरे हैं तो पसीज जाएगा। अरे हां, फांसी से याद आया कि घिसिया की दुकान से हम रस्सी ले लिए हैं उधार, लटकने के वास्ते। उसका पैसा मांगे तो नईं देना, रस्सी लौटा देना। .... पर बापस करने से पहले एक बार अम्मा और दद्दा से पूछ लेना। पता नहीं रस्सी के लाने ही बैठे कल्ला रहे हों।
जोजो रानी, तुमाए से हमने कभी कुछ छुपाया नईं ..... पर अब जाते जाते बता दें कि तुमाए चांदी के कड़े जो तिपाई वाले कोने में तुम गाड़ रखी थीं वो हमने बहुत पहले खोद के बेंच दिए थे। रमईराम से कर्जा लिए हैं ये तो तुमैं पता है ना। अरे पचीस हजार बताए थे ना हम ? देखो तुम बरदास कर जाओ इसलिए पचीस बताए थे, सच्ची बात तो जे है कि पच्चास हजार लिए थे और अब बढ़ के दो लाख हो गया है। तुम जानती तो हो साहुकरों का ब्याज बट्टा। हमाए बस की बात नहीं थी और ना हम दोसी हैं इस रकम के। इसी चिंता में हम घुले जा रहे थे। पर तुम चिंता मत करना और रोना भी नहीं। .... बने तो धीरे धीरे चुका देना मजे में। लछमी हो तुम तो, ..... नहीं बने तो वो खुद ही घर ले लेगा, ..... हमने घर गिरवी लिखा दिया है, तुमको कुछ परेसानी नईं होगी। रकम से हमने दारू वाले का पूउरा चुकता कर दिया है, नईं तो वो बदमास तुमैं परेसान करते, मानते थोड़ी। हां, थोड़ी रकम जुए में चली गई है, सो उसके लिए हाथ जोड़ के माफी मांगते हैं। तुम अगर बरत-उपवास करतीं, पूजा-पाठ और नेम-धरम करतीं तो पासे हमारी तरफ गिरते और घर के दलिद्दर दूर होते, तुम और तुमाए बच्चा-बुच्ची आराम से रहते। पर ठीक है जैसी तुमाई इच्छा, हम तो जा रहे हैं अब, तुमाए मन में जैसा आए वैसा करो। हमारा कोई दखल नईं रहेगा किसी काम में। तुम खुस रहो और हमको क्या चहिए। येई फिकिर में मरै जा रए हैं हम।
हमारा-तुमारा साथ इत्ताई था, देखो रोना नईं ..... पर सुनो तनिक, ..... जे नईं रोने का बोल दिया तो लकीर की फकीर मती हो जाना, .... लोक दिखाबे के लाने थोड़ा रो लेना, नहीं तो मस्त हो जाओ ..... अरे हां, ....तुम ठहरी मजबूत औरत, कई दफे तो हमेई पीट चुकी हो। हमने बताया नहीं पर सच्ची कहते हैं तुमाए हाथन की बड़ी जोर की लगती है। वो तो हमई रहे कि जे बात किसी को बाहर पता नहीं चली, ...... तुमाई इज्जत की लगी रहती थी इसके लाने किसी के आगे मूं नईं खोला। सोच लो कोई और होता तो तुम तो बदनाम हो गईं होती। पिछले हप्ते पीठ पे जो लात तुमने जमाई थी, सच्ची अभी तक दुख रही है। हल्दी-चूना लगाया तो था पर तुमाए आगे हल्दी-चूना की कुछ चलती क्या ? पता नहीं तुमाई लात में ब्रहम्मा जी अपनी लात घुसाए देते हैं। अब उप्पर जा रए हें तो उनसे जे पूछेंगे जरूर।
तो अब चलैं जोजो रानी, सच्ची मन तो नईं हो रहा, पर मरद जात एक बार कुछ ठान ले तो पीछे हटै से हेटी होती है। तुम तो जानती हो छाती में  कित्ते सारे बाल हैं हमाए। असली मरद हैं, मौत से डर तो नईं जाएंगे। कल जब बात निकले तो मोड़ा-मोड़ी को हमाई बहादुरी के किस्से सुनाना। देखो अगर भूत बन गए तो तुमारी रच्छा जरूर करेंगे.... आखिर हमारा भी फरज है.... पीछे नहीं हटने वाले हैं हम, देख लेना अमावस की रात इमली के झाड़ के नीचे खड़े मिलेंगे तुमारे लाने। ...... और हांएक बात और कह दें, ... तेरा दिन बाद हमारा नुक्ता अच्छे से करना। पैसों की फिकिर मत करना, सरकार मुआवजा देती है लाख-दो लाख। नुक्ते में इससे ज्यादा नईं लगेगा। .... देख लो जोजो रानी, तुमपे कुछ बोझा छोड़े के नईं जा रए हैं हम। ..... अच्छा राम राम, ध्यान रखियो सबका। ...... तुमारा हिम्मत सिंग।
‘‘ बस इत्ताई लिखा है साहब। ’’
‘‘ कितना भला आदमी था रे तेरा भाई । अबे हमको रोना आ रहा है, जा जोजो को बुला ला, उससे लग के थोड़ा रो लें, सरकारी हुए तो क्या हुआ, कुछ जिम्मेदारी हमारी भी बनती है।’’

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

आदमी और पजामा

 देखने-सुनने में वे तमाम आदमियों की तरह आदमी ही लगते हैं लेकिन इधर लोग उन्हें पजामा कहते हैं. अपने यहाँ आदमी वही हो जाता है जो मान लिया जाता है. जैसे किसी को लोग टप्पू मान लें, उसे टप्पू कहने लगें, टप्पू के नाम से उसके चुटकुले बना लें तो मजबूरन वह टप्पू ही हो जाता है. अब उससे कोई चूक हो गई तो लोग कहेंगे टप्पू फेल हो गया, अच्छा कर दिया तो टप्पू पास हो गया. यानी अच्छा खासा संभावनाओं से लदा टाप क्लास आदमी बैठे बिठाये टप्पू हो जाता है. अब हो जाता है तो हो जाता है, कोई कुछ कर सकता है इसमें ?
खैर, बात पजामे की हो रही थी. आदमी का पजामा होना आदमी की शान के खिलाफ है, यह बात मेरी तरह उन्हें भी पता नहीं थी. कुछ इस वजह से भी लोग उन्हें पजामा मान रहे थे, कि जिस आदमी को पता नहीं कि वो पजामा है वह तो पजामा ही हुआ. यह बात अलग है कि पता होता भी तो वे क्या कर लेता. जहां तक मेरा सवाल है, मै भी नहीं जनता कि आदमी में पजामें का  क्या मतलब है, मैं तो यह भी नहीं जानता कि आदमी को  चड्डी या फुल्पेंट आदि कहना भी कोई अर्थ होता है. जब ये समस्या मैंने अपने मित्र को बताई तो उसने डाक्टर की तरह हिदायत दी कि ये बात मुझसे पूछ ली, चलेगा,  लेकिन किसी और से मत पूछ लेना. सारे लोग चड्डी या फुल्पेंट सुनने के बाद मित्रता निबाहने में विश्वास रखें यह जरुरी नहीं है.
चलिए यह बताइए कि आदमी पजामा कब होता है !? हमने चड्डी और फुल्पेंट दोनों को पूरी सावधानी से किनारे किया .
वे बोले, - अपने आदमी हो इसलिए तुम बस पजामे के बारे में जान लो. आदमी के रूप में पजामा दो प्रकार का पाया जाता है. एक नाड़ावान और दूसरा नाड़ा विहीन. नाड़ा विहीन पजामा पजामे के नाम पर बोझ होता है. यानी वो होता तो पजामा ही है लेकिन किसी काम का नहीं होता है. जैसे बिना राष्ट्रीयता के नागरिक..... नाड़ा राष्ट्रीयता है. अगर नहीं समझे तो जान लो कि तुम यही पजामा हो. दूसरा उदाहरण लो, जैसे नेताओं के चुनावी वादे, वे होते हैं लेकिन जनता समझ जाती है कि नाड़ा नहीं है. कभी भी खसक जायेगा. नेता को भी पता हैं कि नाड़ा नहीं हो तो राजनीति में पजामा समर्पण के परचम से ज्यादा कुछ नहीं है. नाड़ा  अपनी  जगह महत्वपूर्ण है लेकिन पजामे के बिना नाड़ा बिना विभाग के मंत्री की तरह होता है या फिर चुनावी घोषणा पत्र जैसा बेकार. नाड़ा  एक विचार है, नाड़ा सहित पजामा प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो आदमी को  कमर से बांधे रखता है. बंधा हुआ आदमी बंधे हुए पजामे की तरह होता है, यानी वह चाह कर भी खिसकता नहीं है. विदेशों में यही काम प्रायः टाई करती है. खूंटी पर टंगी टाई जब गले में बांध दी जाती है तो चेन का काम करती है. प्रतिबद्धता प्रेमियों के सामने जब भी कोई नया पजामा आता है वे सबसे पहले उसमें अपना नाड़ा डालने की कोशिश करते हैं. वे बताते हैं कि विचार बड़ी चीज है, आदमी तो आते-जाते रहते है. पुराने यानी सीनियर पजामे सिद्धहस्त होते हैं और वक्त जरुरत के हिसाब से नाड़ा खोलते बांधते रहते हैं. इसे आप मामूली काम मत समझिए, यह बहुत ऊँची कला है. क्योंकि नाड़ा खोलते  ही पजामा बिना आवाज किये प्रतिबद्धता सहित नीचे गिर जाता है और अचानक धोती प्रकट हो जाती है. धोती और पजामे के द्वन्द में फंसे आदमी को लोग प्रगतिशील कहते हैं. प्रगतिशील ऊपर से पजामा और अंदर से धोती होता है. पजामा जब आदमी को पहनता है तो नाडे को पजामे के आलावा एक कमर की भी जरुरत होती है. बहुत से लोगों की कमर और टाँगें नहीं होती हैं. जैसे कि ड्राइंग रूम में सजे फूलों की जड़ें नहीं होती. लेकिन कुछ लोग एक जगह ऐसे जम जाते हैं कि उनकी कमर का नाप नाडे से बड़ा हो जाता है. ऐसे लोगों को जबरिया सेवानिवृत्त करके घर  बैठा दिया जाता है.
अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया,  बोले- तुम्हारे पजामे में कौन सा नाड़ा है ?
मुझे लगता है कि मेरे पास पजामा नहीं है.
अरे तुम तो प्रबुद्ध पजामे हो इसलिए पता नहीं चलता कि असल में क्या हो. तुम्हारी कमर तो है ?
हाँ, है ना ... कमर है.
कमर है इतना काफी है, हमें सिर्फ कमर की जरुरत होती है सर की नहीं, शाम को आ जाओ पजामा पार्टी कार्यालय .... तुम्हें  नाड़ा  मिल जायेगा.

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शुक्रवार, 6 मई 2016

साथियों का कुंभ स्नान

           
  वैसे तो साथी लच्छू परंपराओं के विरोध की परंपरा से आते हैं, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि भारतभूमि मोक्षदायी है। जब वे वैचारिक परंपरा के अंतरगत होते हैं तब पूरी निष्ठा से होते हैं और धर्म को अलग रखते हैं। ईश्वर  को मानने या नहीं मानने के संबंध में लच्छू साथी का साफ कहना है कि दिन में दो-तीन घंटे मान सकते हैं, इसमें कोई हर्ज नहीं है। वे सैद्धान्तिक रूप से निजी संपत्ती और निजी ईश्वर  दोनों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि साथी जब ईश्वर  में अपना हिस्सा मागेंगे तो एक राम नहीं, एक कृष्ण नहीं पूरे तैंतीस करोड़ मागेंगे। उनके एक सवाल का जवाब अभी तक किसीने नहीं दिया है कि धार्मिक ग्रंथों को लाल झंडे यानी लाल कपड़े में क्यों बांधा जाता है ? आज जब मोक्ष की इच्छा से साथियों सहित वे कुंभ स्नान करने आए हैं  तो लाल गमछा सिर पर बांधे हुए हैं।
                           उज्ज्वल सनातन परंपरा का सम्मान रखते हुए साथियों में तय हुआ कि पहले नागा कामरेड बिना अपनी पहचान उजागर किए पूरे उत्साह से नहाएंगे। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भगवान उनसे डरें नहीं। हालांकि सबको पता है कि कुंभकाल में भगवान प्रायः नंगों से डरते नहीं हैं यदि वे बाकायदा घोषित भक्त हों। कामरेड चूंकि अधोषित भक्त होते हैं इसलिए वे और भगवान प्रायः संदेह की डोरी से बार बार बंधते-छूटते रहते हैं। विरोध करते हुए और नहीं मानते हुए भक्त हो जाना प्रगतिशीलता है जो साधना परंपरा में एक नया मार्ग है। जमाने में जिसे विचारधारा समझा जाता है वो साथियों के लिए एक कला है। निष्क्रियता की मुद्रा में सक्रिय हो लेने को और विरोध की ढपली के साथ आरती का घंटा ठोक लेने को जो साध ले वह साथी बड़ा कलाकार होता है। वैसे यहां कुंभ में भीड़ बहुत है और भीड़ में अवसर असीम होते हैं। नए-पुराने तमाम कलाकार कब भीग कर निकल रहे हैं ये किसी को पता नहीं पड़ रहा है। 
                               लच्छू साथी पुराने कलाकार हैं, यह उनका शायद दसवां कुंभ स्नान है। प्रगतिशीलता के आरंभिक गफलत भरे दिनों को छोड़ दें तो जब से उन्होंने वाकई होश  सम्हाला, कोई कुंभ स्नान नहीं छोड़ा है। बताते हैं कि शुरू में उन्हें किसी नें देखा नहीं, जिन्होंने देखा उन्होंने पहचाना नहीं और जिन्होंने पहचान लिया वे साथी साथ हो लिए।  किसी ने ठीक ही कहा है, ‘‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’’ । मोक्ष सबको चाहिए, अखाड़े इसी तरह बनते हैं, साथी-अखाड़ा भी बना। मैले कुर्ते-पैजामे का चलन अब खत्म हो चला है लेकिन लच्छू साथी आज इसी लिबास में हैं। महा-मार्क्स-सेश्वर   की प्रवेशवाई और पहला शाही स्नान भी शुभ मुहुर्त में हो चुका है। हालांकि यह सब धूमधाम से होता तो उसकी बात और होती लेकिन जनविचार के कारण बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ता है। अंदर ही अंदर मन कसक रहा है। किन्नरों तक ने बड़े गाजेबाजे से प्रवेशवाई की लेकिन उनके अखाड़े को छुपछुपा कर आना पड़ा। वैसे देखा जाए तो दिक्कत की कोई बात नहीं है। मार्क्स  ने धर्म को अफीम कहा है, शोषण का साधन भी कहा है लेकिन नहाने के बारे में कुछ नहीं कहा है, .......  और इतना काफी है। इधर नहाने से पाप घुल रहे हैं और साधु-संत तक अपने घो रहे हैं तो कामरेड किनारे खड़े देखता क्यों रहे। कल अवसरों को परखने वाली नई पीढ़ी सुनेगी तो मूर्ख ठहराएगी। यहां तो घाट खुल्ले हैं, कोई कह नहीं रहा है कि बड़े पापी पहले नहाएंगे या छोटे बाद में। फिर भी साथियों के मन में अपराधबोध नहीं आ जाए इसलिए रामघाट पर नहीं आमघाट नहाने का निर्णय लिया गया है और दो दो डुबकी मार्क्स -एंजेल के नाम की भी लगाई जा रही है। 

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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पहले पन्ने पर जूता

                   
       सुबह अखबार हाथ में आते ही मैं चौंकता हूँ. ये क्या !!!  पहला पन्ना, सबसे उपर अखबार का नाम, उसके बाद पूरे पृष्ठ पर एक जूता, अर्थात एक इकलौते जूते का फोटो। चार पांच मिनिट जब उस पर से नजर नहीं हटी तो पत्नी ने ब्रेक लगाया -- " क्या देख रहे हो !? ..... चांदी का है .
मैनें कहा -- लगता तो चमड़े का है.!
" चमड़े का लग रहा है .... लेकिन चांदी का नहीं होता तो पहले पन्ने पर नहीं होता ." वे बोलीं .
                     जूता कितना ही क्यों न ‘चल’ जाए दो कालम, तीन कालम से ज्यादा जगह नहीं ले पाया आज तक। जो चीज घिसने-रगड़ने की है, फैकने-मारने की है, अगर विस्तार में जाया जाए तो खाने-खिलाने की भी कही जा सकती है, लेकिन उस पहले पन्ने के लायक तो कतई नहीं जिस पर कभी वायसराय फैले होते थे और आज  टोपियों , पगड़ियों की उम्मीद रहती है, लेकिन तरक्की देखिए आज श्रीमान जूता जी मौजूद हैं। गौर से देखा कहीं नीचे ‘शर्तें लागू’ की पंक्तियां भी होंगी, लेकिन नहीं थी। पूरे पृष्ठ पर वे अकेले पसरे थे, ऐसे जैसे खरीद ही लिया हो सब। मुखपृष्ठ पर बहुत बड़े या बहुत छोटे काम करने वाले छपा करते हैं। जी हां, मैं जानता हूं, आप भी जानते हैं कि यह विज्ञापन होगा, लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो नहीं जानते हैं। उनके लिए पहला पन्ना, पहला पन्ना है, बस। जूता पहले पन्ने पर कैसे आया यह सब नहीं जानते। उनके लिए पहला पन्ना समय की रसीद होती है। अगर सब भगवान भरोसे भी हो तो रसीद में जूता !! मैं एक बार और जूते को घूरता हूं, लगता है जैसे मुस्करा रहा है, मानो वह भी बैंकों का विलफुल डिफाल्टर है और किसी के पांव पहन कर विदेश  भाग जाना चाहता है। चलो ठीक है कि पहले पन्ने पर आने के बाद मुस्काना बनता है, लेकिन वह ‘जूता’ है यह भूल रहा है. उसका मुस्कराना मुझसे बर्दाश्त  नहीं होता है। पहला पन्ना मुझे लगातार तनाव दे रहा है।
                        जब तनाव होने लगे तो उठ कर 10-20 कदम चलना चाहिए, मुंह पर पानी के छींटे मार लो और भी अच्छा। चश्में  को पानी से धोया और अपनी बनियान से पोंछते हुए सुखाया। ठंडे दिमाग और साफ दृष्टि के साथ मैं पुनः पहले पन्ने पर हूं। देखा जूता वाकई सुन्दर है। सुन्दर हो तो उसकी कीमत हमारे यहां हजार गुना बढ़ जाती है। दूसरे पन्ने पर जूते की भारी कीमत का जिक्र था। याद आया कि मेरी शादी का सूट इससे चौथाई दाम पर तैयार हो गया था और मात्र उस सूट के कारण सासूजी इतनी आश्वस्त हुईं कि बिदाई के समय मात्र रस्म के लिए जरा सा  रोईं थीं। दूसरी पंक्ति में लिखा था कि इसका तला यानी जिसे हिन्दी में आजकल सोल कहा जाने लगा है, नरम और मजबूत है। जैसा कि विकास का मुलायम सपना और अतिक्रमण की मजबूत सफाई। पता नहीं अंदर से नरम और बाहर से कड़क सोल वाले जूते भागने वालों की जरूरत हैं या पकड़ने वालों की। 
                                      चुनाव भले ही मंहगा होता है किन्तु सरकार टोपी तो सस्ती पहनती है। आम जनता ज्यादातर टोपी ही देख पाती है। जूते तो उनकी धोती के नीचे छुपे रहते हैं। कभी दिखे भी तो भोलेजन ‘पादुका’ मान कर उस पर माथा रख देते हैं। जिस तरह कानून के हाथ लंबे होते हैं उसी तरह सरकार के कदम कठोर होते हैं। कठोर कदमों के लिए ऐसा जूता ही मुफीद होता है जो उपर से बाकायदा और सुन्दर दिखाई दे। मुझे विश्वास  हो चला है कि यह सरकार का जूता है। इसमें पांव डालते ही पहनने वाला दो इंच ऊँचा  हो जाता है। कुछ लोग इन्हें हर्बल जूता मान कर धन्य भी हो सकते हैं, मुझे कोई आपत्ती नहीं है। 
                           आप देखिए कि सरकार जब कुर्सी पर बैठती है, एक पांव के घुटने पर दूसरा पांव रखती है और जूता सज्जित पंजा हिलाती है तो एक मैसेज अपने आप जाता है देश  और दुनिया के सामने कि सरकार मजबूत है और अभी अभी किसी बाहरी राष्ट्र्पति के साथ चैट करके बैठी है। चाय अपनी जगह है, जूता अपनी जगह है। क्वालिटी दोनों की बढ़िया होना चाहिए। पहले पन्ने का जूता दरअसल किसी तोप की तरह होता है। उसमें बारूद और गोला हो के ना हो, वह हर हाल में तोप ही होता है। यहां यह खुलासा जरूरी है कि सरकार वही नहीं होती है जो कुर्सी पर बैठी होती है। असल सरकार वो होते हैं  जो कुर्सी की व्यवस्था को अपने हित में बनाए रखते हैं। यों समझिये कि कुर्सी पर ठाकुर के हाथ हैं और पीछे गब्बर के तलवार वाले हाथ। अगर ज्यादा उलझन हो रही है तो यह देख लीजिए कि पहले पन्ने वाला जूता किसके पैरों में है।
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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

असहमतों के लिए राग बाबा-विलाप

               
        जो भक्त शिक्षा से दूऱ रहे वे हमेशा  धर्मगुरूओं के प्रिय रहे हैं। दुर्भाग्यवश पिछली सरकारों की गलत नीतियों के कारण शिक्षा का लगातार बढ़ रहा प्रतिशत धर्म के लिए चुनौती बनता जा रहा है। नकल की आदर्श  परंपरा से उत्तीर्ण यानी पास होने वाले ना हों तो समझो बाबाओं की दुकाने ही बंद हो जाएं। जिस काम के लिए मना किया जाता है लोग उस काम के लिए ताल ठोंकने लगते हैं। धर्म को सेल्फी की तरह लेने लगे हैं लोग,. अपनी मर्जी अपना क्लिक। अदालतों के दम पर भेड़-बकरियां भी सींग दिखाने लगी हैं। ऐसा है तो करो अपनी मनमर्जी, हमें क्या ! कल को रेप-वेप, चोरी, डकैती, हत्या-वत्या., सूखा, बाढ़, भूकंप, बढे़ तो हमसे ना कहियों कि ग्रहशांति  करवा दो।
                       मोमबत्तियां ले कर पुतलों के नीचे भीड़ बढ़ाने वालों को भारी पछतावा होना चाहिए था जब ये बात सामने आई कि रेप का असली कारण शनिपूजन है। महिलाओं को शनिमहाराज से दूर रहना चाहिए और महाराजों की शरण में आना चाहिए इसमें बुरा क्या है ? जब तक महिलाएं शनिमहाराज से दूर थीं उनके साथ कभी रेप नहीं हुआ। जो हुआ वो कानून के नजर में रेप रहा होगा लेकिन बाबाओं की नजर में पूजा के बाद हुआ रेप ही रेप माना जाएगा। जनता खुद अपने पैरों पर पूजा मारती है। कहा था कि सांई पूजन नहीं करो तो इसमें संदेह की गुंजाइश कहां थी ! किन्तु नहीं माने, अब देखिए सूखा पड़ गया। विष्वास नहीं हो तो गीले कपड़े तार पर डाल दो और सांई पूजन करने लगो, कुछ देर में पता चल जाएगा।
                  कुछ अधर्मी नास्तिक जन जबरन हा-हू कर रहे हैं और बाबा के बयान को बकवास बता रहे हैं। तो उन्हें याद दिलाया जाना जरूरी है कि सतिप्रथा पर रोक लगाई तो अंग्रेजों का भारत में कैसा अंत हुआ। कलयुग में सतयुग की मान्यताओं की स्थापना संतो की नहीं तो किसकी जिम्मेदारी है। सूखा पड़ा है तो बारिश करवाए कोई, लेकिन कोई नहीं जानता कि बारिश कैसे होती है। हमारे पास उपाय है, श्रद्धालू जानते हैं कि स्त्रियां निवस्त्र हो कर खेत में हल चलाएं तो वर्षा होती है। ये पवित्र भूमि विष्वगुरू ऐसे ही नहीं रही है। हमने ही दुनिया को बताया कि  चप्पल औंधी हो जाए तो झगड़ा होता है। तलाक का कारण औंधी चप्पल है। दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटका देने से बुरा करने वाले बेअसर हो जाते हैं, दरवाजा दुकान का हो तो आर्थिक मंगल होता है। सफलता तभी मिलती है जब दही खा कर निकलो। सूर्य को अर्ध्य  देने से नेत्र ज्योति बढ़ती है। बिल्ली रास्ता काट दे तो काम बिगड़ जाता है। सुबह सुबह विधवा का मुंह देख लो अमंगल होता है। चौराहे पर सिंदूर लगा कुछ चीजें रख आओ तो आपकी बला दूसरे के माथे चढ़ जाती है। रंगाने-पुताने के बाद मकान पर काली हांड़ी चितर के लगा दो तो मकान को नजर नहीं लगती है। दरवाजे पर घोड़े की नाल ठोंक दो तो जीवन बाधारहित होता है। सुबह बिस्तर से उठते ही दांया पैर जमीन पर रखने से बरकत होती है। नौ कुंवारी कन्याओं को एक बार लपसी-पूरी खिला देने से साल भर कल्याण होता है। दिवाली की रात जुआ खेलना भाग्यशाली बनाता है। चालीसा पढ़ लो भूत-पिशाच पास नहीं आते हैं। किसीके मरने के बाद सिर नहीं मुंडाओं तो यमराज अप्रसन्न हो जाते हैं। ब्राहम्णभोज करवाने से स्वर्ग मिल जाता है। शनिवार को काले जूते दान कर देने से शनि का कोप शांत  हो जाता है। दिन भर कितना भी स्वच्छंद रहो, गाय को चारा और कुत्ते को रोटी दे दो तो हाथ की कालिख साफ हो जाती है। जिसने भगवा कपड़ लपेट लिया वो संत है। संत के ज्ञान और समझ पर संदेह करना पाप है। बाबाओं के माथे पर लेपन और दाढ़ी देख कर आस्था प्रकट करना चाहिए। संतो पर संदेह करने वालों के लिए नरक का पासपोर्ट बन जाता है। नरक में पापियों को गरम तेल की कढ़ाई में डाल कर तला जाता है। घोर पापियों को सीधे आग में भूनने का प्रावधान भी है। स्त्री नरक का द्वार है और ताड़न की अधिकारी भी। भक्तों को आस्थावान होना चाहिए, आस्था हो तो आलू के बोरे को भी कल्याण करने वाला माना जा सकता है। 
                     
                     तो भक्तों, स्त्रियों को शनिपूजन से दूर रखें, संभव नहीं हो तो आपको क्या करना है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। धर्म की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। सूखे की समस्या से सरकार नहीं निबट सकेगी, आपको ही ‘कुछ’ करना है। लोग कहेंगे कि हमारा ध्यान चढ़ावे पर है, पर आप जानते हैं कि ऐसा नहीं है।

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गुरुवार, 17 मार्च 2016

हाथ में कीचड़, मुंह में आग

                         
जब से राजनीति में कपड़ा फाड़ने, कालिख पोतने और कीचड़ उछालने की उज्जवल परंपरा का विकास हुआ है तब से लोगों के लिए टीवी पर हर दिन होली है। जब देखो तब फाग, कुछ कालिख पोत रहे हैं कुछ धो रहे हैं। जिन्हें कीचड़ में लोटना आनंददायी लगता है वे होलियापा करने में जल्दी सफल होते हैं। हृदय सम्राटों को बारहों मास होली खेलने का सुख मिल रहा है। जिस तरह ‘‘सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत’’ उसी तरह ‘‘हाथ में कीचड़, मुंह में आग, लीडर की बाहर मास फाग’’। 
                    राजनीति की तरह, होली जलाने का त्योहार है और खेलने का भी। पुराने खेलने वाले पहले जलाते हैं उसके बाद लंबे समय तक खेलते रहते हैं। एक बुझती है तो फौरन दूसरी जला देते हैं। कुछ के लिए जलाना ही खेलना है। अक्सर उनकी जलाई हप्तों तक सुलगती रहती है और राजधानी के खबरखोर अधनंगे बच्चे तापते रहते हैं। जलाने का ऐसा नहीं है कि उठाई माचिस और लगा दी और हो गया। उसके लिए अनुभव और प्रतिभा दोनों चाहिए। होली जलाने और आग लगाने में बड़ा अंतर है। 
                               होली जलाने का महूरत होता है, तैयारियां भी खूब लगती हैं। सबसे जरूरी एक ‘डांडा’ होता है, जो एक झाड़ी विशेष  का यानी खानदानी होता है। डांडा भी सामान्य डंडे जैसा ही होता है लेकिन उसको डांडा कहते हैं। जैसे मुख्यअतिथी सामान्य आदमी जैसा ही होता है लेकिन उसे मुख्य अतिथी कहते हैं। यह डांडा हरा होता है, जाहिर है ताजा होता है, थोड़ा कच्चा भी होता है। यह लाठी की तरह न उपयोगी होता है न ही काम में लिया जा सकता है। लेकिन होली उसके बिना सजती नहीं है इसलिए वह सम्मानित डांडा होता है। होली सजाने वाले उसे ठीक बीच में स्थापित कर देते हैं, बिल्कुल अध्यक्ष या उपाध्यक्ष की तरह। माला वगैरह पहना कर उसका सम्मान भी कर दिया जाता है। यहां देखने वाली बात यह है कि डांडा कहने भर को डांडा होता है लेकिन उसमें कहीं से भी डांडापन नहीं होता है। सामने वाले को लग सकता है कि उसे जबरन डांडा बना कर खड़ा कर दिया है। डांडे की अपनी कोई इच्छा नहीं होती कि होली की जिम्मेदारी सिर ले ले और अपने को आग में झौंक दे। लेकिन परिस्थितियों के कारण वह विवष होता है। यों समझ लीजिये कि वह पकड़ में आ गया है बस। वो हमेशा  उहापोह में रहता है, डांडा बनूं या कि नहीं बनूं। लेकिन उसकी एक नहीं चलती है। जोष आ जाने पर कभी कभी वह कोषिष करता है कि खानदानी और आत्मविष्वास से भरा हुआ दिखे लेकिन सफल नहीं हो पाता है। स्थापित होने के दूसरे तीसरे दिन ही वह मुरझा जाता है। हालांकि टोले में ऐसे कई हैं जो बेहतर डांडे सिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे प्रहलाद के प्रतीक कैसे बनाए जा सकते हैं।  सो वे डांडा थे, डांडा हैं और डांडा ही रहेगे। 
                           इधर डांडा ने कार्यभार लिया और उधर मीडिया वाले अपनी पिचकारी भरने दौड़ पड़े। पूछा- ‘‘ सर लोग कह रहे हैं कि आपकी होली ठंडी है आप क्या कहेंगे इस बारे में ?’’
                            ‘‘ ये एक साजिश  है हमारे खिलाफ। सूट-बूट वालों को होली खेलने से डर लगता है। लेकिन हम होली के पुराने खिलाड़ी हैं। हमारी होली में लकड़ी कम है लेकिन देश  देख रहा है कि आंच और अंगारे ज्यादा हैं। आपको पता ही है कि हमारी होली इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। सब जानते हैं कि हमने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। आप लोगों को भी पता होगा ? और देखिए आजादी मिल गई।’’  डांडाजी ने तन कर कहा।
                              ‘‘ सर मनरेगा पिचकारी तो दूसरों ने छीन ली है, अब आप लोग होली कैसे खेलेंगे ?’’ बायीं तरफ से सवाल आया। 
‘‘ मायावती जी से बात चल रही है, वो नीले रंग पर अड़ी हुई हैं, ममता जी भी लाल खेलना चाहती हैं। .... कोषिष कर रहे हैं। आप देखेंगे कि हम अच्छी होली खेल पाएंगे। ’’ कह कर उन्होंने दायां ओर गरदन घुमाई।
                              ‘‘ सर, दूसरे लोग दावा कर रहे हैं कि उनके पास बहुत सारे डांडा हैं नागपुर से लगा कर दिल्ली तक। लेकिन इधर आपके अलावा कोई नहीं है !? ’’
                               ‘‘ वे झूठ बोलते हैं। यू टर्न लेने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। उनके पास डांडा नहीं है, हां डांडू बहुत सारे हैं। वे होली नहीं जलाते, बात बेबात पर भड़काउ बयान दे कर आग लगाते रहते हैं। लेकिन देष जानता है कि होली आपसी प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। बात बात पर आग उगलना होली नहीं है। ’’ अच्छे उत्तर पर पीछे से एक बुजुर्ग महिला ने पीठ थपथपा दी। वे मुड़ कर जाने लगे।
                        ‘‘एक अंतिम सवाल सर, प्लीज।’’ आवाज सुन कर वे रुक गए।
                        ‘‘क्या आप आगे भी कीचड़ से ही खेलेंगे ?’’
                       ‘ हां, बिल्कुल। हम जमीन से जुड़े हुए लोग हैं। .... और दूसरों पर इसलिए कीचड़ डालते हैं ताकि वे भी इस पवित्र माटी से जुड़ जाएं किसी तरह। ’’ बाय कहते हुए वे चल दिए।
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

पाकी के पास परमानू

                             
 
जब से बदरू ने सुना है कि पाकी ने परमानू बम मारने की घमकी दी है उसकी नींद उड़ गई है। बीवी तो बीवी है, उसकी चिंता ये है कि बदरू दो दिन से सो नहीं पाए हैं। जब वो नहीं सो पाए हैं तो जाहिर है कि वह भी नहीं सो पा रही है। जब दोनों नहीं सो पा रहे हैं तो क्या करेंगे सिवा बातों के। बदरू का ही एक शेर है कि ‘नींद जब न आए तो बातें कर, कोई न हो तो बदरू से कर’। बदरू जब जागते हैं तो खुद से ही बातें करते हैं। उनकी इसी आदत से परेशान घर वालों ने ही उन्हें अफीम की लत लगा दी। लेकिन आज बात अलग है, पाकी के पास परमानू है और उन्हें लग रहा है कि वो सीधे उनके उपर गिराने वाला है। यही चिंता उन्हें खाए जा रही है कि पाकी के परमानू से कौन कौन मरेगा। साइंस से सब कुछ मुमकिन है, अमरिक्का अपने घर में बैठे बैठे दूसरे मुल्क में किसी के ख्वाबगाह पर निगाह रख लेता है तो फिर क्या छुपा है किसी से। इतनी तरक्की के बारे में तो उन्होंने कभी सोचा नहीं था वरना आज चौदह बच्चों के बाप हो कर बेइज्जती के खतरे से सराबोर नहीं रहते। पता नहीं नामाकूलों ने क्या क्या नहीं देखा। चलो देखा सो देखा, उनको देखे से कुछ हमने सीखा और हमें देखे से वो कुछ सीख लेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन साइंसदानों कुछ इल्म और हाॅसिल करना था। पाकी वाले जो परमानू मारेंगे उससे बदरू नहीं मरें इसका कुछ इंतजाम होना चाहिए या नहीं। अगर यों उठा के मार दिया तो बिरादरान भी मारे जाएंगे ! साइंसदानों को कोई ऐसा बम बनाना चाहिए था जो धर्म-ईमान देख कर फटे। तब तो माने कि सही मायने में तरक्की हुई। पाकी कहता है कि हिन्दुस्तान में हमारे भाई रहते हैं और कल अगर परमानू मार दिया और भाई लोग ही फना हो गए तो !! बम तो बम है भई, बोले तो पक्का सेकुलर। मारने को निकले तो फिर कुछ देखे नहीं, न धरम न जात। आधे जन्नत जाओ, आधे सरग में और बाकी धरती पर पड़े सड़ते रहो। पाकी के हाथ में परमानू का मतलब है किसी बंदर के हाथ में उस्तरा। मालूम पड़े किसी दिन परेशानी की हालत में परमानू से ही सिर ठोक लिया उसने। जो नादानी में बंटवारा करके पाकी बना सकते हैं वो परमानू से सिर नहीं ठोक सकते हैं। 
                   अब आप जान गए होंगे कि बदरू को नींद नहीं आने का कारण वाजिब है। दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में हैं और उनका पड़ौसी, जिसका दावा है कि वो उनका खैरख्वाह है, भाई है, वही उन पर परमानू तरेर रहा है। माना कि सियासत में भाई का भाई नहीं होता है लेकिन बदरू को अपने चौदह बच्चों और दो बीवियों की फिक्र भी है। कल को परमानू सीधे आ कर उनके सिर पर गिर गया और दूसरी दुनिया नसीब हो गई तो पता नहीं बीवी-बच्चों को मुआवजा मिले या नहीं मिले। एक जिम्मेदार आदमी फिक्र के अलावा और कर भी क्या सकता है। और आप समझ सकते हैं कि फिक्रमंद आदमी को नींद कैसे आ सकती है। 
                          मुर्गे ने बांग दी, सुबह हो गई। बदरू ने बीड़ी सुलगाते हुए बीवी से कहा, ‘‘ पाकी के परमानू की चिंता में बदन गल सा गया है, आज इस मुर्गे को बना लेना’’।
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

देशभक्ति वाला खून .

                             डाक्टर ने रिपोर्ट देखते हुए कहा कि ‘‘आपके खून में चिकनाई बहुत है।  मेरा मतलब  है .... खाये से अधिक चिकनाई. ...... कभी भी सीबीआई का छापा पड़ सकता है।’’
          वे चिंतित हो गए। उनके चेहरे का रंग ऐसे उड़ने लगा जैसे दंगों की अफवाह उड़ती है। कोई और होता तो गिर पड़ता, लेकिन वे पहले से ही इतने गिरे हुए थे कि अब और संभावना नहीं बची थी। ऐसे आकस्मिक मिथ्यावार पर वे अक्सर चीखते हैं, झल्लाते हैं लेकिन यहां अभी कैमरामेन नहीं है, मीडिया नहीं है तो कोई फायदा भी नहीं है। कुछ देर पूरे ढ़ीठपन के साथ अपनी मजबूरियों की उन्होंने जुगाली की, फिर बोले -  ‘‘ चिकनाई-विकनाई का तो ठीक है डाक्साब, देशभक्ति कितनी है ये बताओ ?’’
                      ‘‘ देशभक्ति खून में नहीं होती है।’’ डाक्टर पर्चा रखते हुए बोले।
                   ‘‘ ऐसे कैसे नहीं होती है !! जब हुजूर ने कहा है कि उनके खून में देशभक्ति है तो  इसका साफ मतलब है कि खून में देशभक्ति होती है। ’’ हुजूर की इज्जत के लिए वे थोड़ा हुमके।
                     ‘‘ होती होगी, पर खून की जांच रिपोर्ट में देशभक्ति नहीं आती है। ’’ 
                    ‘‘ ऐसा कैसे !! आप फिर से टेस्ट करवाइये। जो चीज खून में है वो रिपोर्ट में बराबर आना चाहिए। वरना समझ लीजिए हमारा मौका आया तो डाक्टरी साइंस पर हमें जांच बैठाना पड़ेगी।’’
                    ‘‘ हो सकता है कि  हुजूर के खून में हो,.... आपके खून में ना हो ।’’ डाक्टर ने गुगली फेंकी ।
                  ‘‘ क्या बात करते हैं आप !! ऐसा कैसे हो सकता है कि  हुजूर के खून में है और हमारे खून में नहीं है।’’
                    ‘‘ आप  हुजूर के खानदान वाले हैं ?’’
                    ‘‘ नहीं, खानदान के नहीं पार्टी के हैं। ’’
                     ‘‘ पार्टी और खानदान में फर्क होता है।’’
                    ‘‘ दूसरों के लिए होता होगा, ...... हमारे लिए नहीं। छोटे हैं तो क्या हुआ, हुजूर मांई-बाप हैं हमारे।’’
                    ‘‘देखिए, हर आदमी का खून अलग अलग होता है। कोई ए, कोई बी, कोई एबी, कोई .....’’
                   ‘‘ हां हां, सब जानते हैं हम,... ए बी। ...... हमारी पार्टी में सबका खून सी-पाजीटिव है। हाई कमान से लेकर हमारे पार्षद पति की बीवी तक सब सी-पाजीटिव हैं।’’
                     ‘‘ सी-पाजीटिव !! .... खून में सी-पाजीटिव नहीं होता है श्रीमान जी। ’’
                    ‘‘ लेकिन पार्टी में होता है। आप ठीक से देखिए, मेरा भी सी-पाजीटिव होगा। ’’
                   ‘‘ माफ कीजिए, आपका बी-पाजीटिव है।’’
                   ‘‘ बी-पाजीटिव !! आप कहना क्या चाहते हैं। क्या मैं बीजेपी में हूं ? .... देखिए डाक्साब, ये अच्छी बात नहीं है। अगर मीडिया वाले यहां होते तो कल के कल में मेरा केरियर चैपट हो जाता। जानते हैं, बी-पाजीटिव वालों से हमारे हुजूर बात तक नहीं करते हैं।’’
                    ‘‘ और ए-पाजीटिव वालों से ? उनसे बात करते हैं ?’’
                    ‘‘ उनकी खांसी ठीक हो जाए तो बात कर सकते हैं, ..... वो अच्छा काम कर रहे हैं, दिल्ली के ही हैं। और भी कई कारण हैं जिसके चलते हुजूर ए-पाजीटिव वालों को एकदम नापसंद नहीं करते हैं। ....... अच्छा एक बात बताइये, क्या ए और बी पाजीटिव खून में भी देषभक्ति होती है ?’’
                      ‘‘ रिपोर्ट में तो नहीं देखा आजतक ।’’
                     ‘‘ सही कहा, ..... रिपोर्ट में कैसे आएगा जब खून में देश भक्ति होगी ही नहीं। ...... लेकिन डाक्टर साब, प्लीज, ये बात बाहर नहीं जाना चाहिए कि मेरे खून में क्या है और क्या नहीं है।’’ 
                      ‘‘ आप चिंता मत कीजिए, हम सारी रिपोर्टें गोपनीय रखते हैं। वैसे भी आपके खून में चिकनाई के अलावा और कुछ नहीं है। ’’
                       ‘‘ क्या करो डाक्साब, राजनीति में चिकनाई के लिए ही तो जाता है आदमी। चिकनाई ना हो तो देशभक्ति के मायने क्या हैं। ’’
                                                                               ----

बुधवार, 20 जनवरी 2016

हरेभरे ठूंठ !

                     
       नए राजा को लाल मैदान में अपनी सत्ता का परचम लहराना था, इसलिए वे बघ्घी पर सवार हो कर गुजरे। दूसरे दिन अखबारों में राजा की फोटों के साथ खबर बनी कि राजा जी बघ्धी पर पधारे, झंडा फहराया और लाल मैदान को पीला मैदान बनाने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक दुकान’ ने घोड़ों के फोटो छापे, और लिखा कि ‘लाल मैदान की ओर जाते घोड़े’। लाल मैदान से ‘दैनिक दुकान’ को भले ही चिढ़ हो पर घोड़ों से प्यार है। घोड़े न हों तो उसकी खबरें ही नहीं बनें। अक्सर वो घोड़ों को सूत्र कहते हैं। जो घोड़े राजा को ढ़ो रहे हैं वे दरअसल वे कई दुकानों का जरूरी हिस्सा भी हैं। आमजन इन्हें लग्गू के नाम से जानते हैं । यदि व्यवस्था बघ्घी है तो लग्गू उनके घोड़े हैं। ऐसे में खबर बघ्धी की हो तो घोड़ो का महत्व ‘सवार’ से ज्यादा हो जाता है। यहां ‘शर्तें-लागू’ हैं, यानी घोड़ा वही जो बघ्धी में लगा हो, बाकी को आप कुछ भी मानने के लिए स्वतंत्र हैं, गधा तक। 
                       तो असल बात लगने या लगे रहने की है। व्यवस्था कोई भी हो, कामयाब वही होते हैं जो लगे रहते हैं। सच्ची बात तो यह है कि कामयाबी लता की तरह होती है और समझदार को ठूंठ की तरह उससे लगा रहना पड़ता है। एक बार अगर ठूंठ ठीक से लग जाए तो लता के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लता की मजबूरी ही सफलता है। अब लगे रहने को देखें तो यह इतना आसान काम भी नहीं है कि आए और लग लिए मजे में। बिना ठूंठ हुए आदमी कहीं लग भी नहीं सकता। दिक्कत यह है कि दुनिया ठूंठ को ठूंठ मानती है और लगे हुए को लगा हुआ। दोनों ही मामलों में तिरस्कार की भावना प्रधान होती है। समझो कि आग का दूसरा दरिया है और इसमें भी डूब के ही जाना है। एक तरह की बेशरम जांबाजी की जरूरत होती है। लेकिन उम्मीद एक बहुत पौष्टिक चीज है, वह जानता है कि एक बार लता लिपट गई तो वह भी उपर से नीचे तक हरा ही हरा है। तो भइया आप समझ ही गए होंगे कि आजकल  इतिहास वही बनाते हैं जो ठूंठ या घोड़े होते हैं। 
                            लाल मैदान के पीछे आज एक समारोह हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि वे हैं जो किसी जमाने में रेल्वे स्टेशन  पर कविता करते हुए काला दंत मंजन बेचते थे। मंजन पता नहीं कहां गया पर कविता ने उन्हें मंच दिखा दिया। लगे रहे तो मंच भी सध गया, वे एक बार डायस पकड़ लें तो श्रोताओं के साथ माइक भी पानी मांगने लगे। आयोजकों पर बीतने लगी तो उन्हें मुख्य अतिथि बना कर बैठा देने की युक्ति आजमाई गई। अब वो बाकायदा आदरणीय है, साहिबे महफिल है, माला पहन रहा है। वह हराभरा है और भूल जाना चाहता है कि असल में वह ठूंठ है। ठूंठ को आड़ा पटक कर जब चादरें चढ़ाई जाने लगती है तो वह पीर मान लिया जाता है, लोग उससे मन्नतें तक मांगने लगते हैं। प्रेक्टिल आदमी सफलता इसी को कहते हैं। 
                           लगना या लगे रहना एक बहुआयामी साधना है। जैसे रेडियो या टीवी सेट में कई चैनल लगे होते हैं उसी तरह एक लग्गू भी कई मोर्चों पर लगा रहता है। जैसे कोई मंत्री के साथ लगा और मीडिया के साथ भी लगा है। लोग ताड़ नहीं पाते कि मंत्री के साथ लगा है इसलिए मीडिया से लगा है या मीडिया से लगा है इसलिए मंत्री से लगा है। प्रतिभाशाली लग्गू मंत्री से ज्यादा काम का होता है, इसमें अब कुछ भी रहस्यपूर्ण नहीं है। मंत्री तो बस एक मूरत है, लग्गू पुजारी है। मूरत को तुलसी के पत्ते पर भोग लगता है, चढ़ावे की थाली पुजारी को मिलती है। लगा रहे तो लग्गू इतना ताकतवर हो जाता है कि जिसके सिर पर हाथ रख दे वो भस्म। नहीं क्या ?
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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कदम कदम, पदम पदम !

                 
 गुरूदेव ने मेरा हाथ पकड़ा और खेंचते हुए सीढ़ियों तक ले गए, बोले- ‘‘ बस बारहवीं मंजिल तक चढ़ जाओ एक सांस में ..... फिर देखना, तुम्हारे हाथ क्या लग जाता है।’’
                  सोच में पड़ा देख वे जान गए कि ये प्राणी अल्पज्ञानी है। इधर मैं डर रहा था कि इतनी उपर चढूं और किसी ऐसे के हथ्थे चढ़ जाऊं जो उपदेश  देते हुए बारहवीं मंजिल से नीचे फैंक दे तो भविष्य  के साथ अतीत भी गया समझो। अरमानों का चौबे जब गिरता है तो कई बार दूबे भी नहीं रहता। बंधी मुट्ठी लाख की और चढ़ गए तो खाक की। संकोच में देख बात साफ करने के लिए वे फुसफुसाए, -‘‘ उपर पद्मश्री है, लपको वत्स, ..... कोई बुला कर नहीं देगा अब। इंतजार करोगे तो आरजू में ही कट जाएगी बची हुई भी । बढ़ा के हाथ जिसने उठा लिया, जाम उसका है। संत भी संकेत कर गए हैं कि ‘अप्प दीपो भव !’ वरमाला भी बहुत प्रयास के बाद गले में पड़ती है। समय की जरूरत है कि आदमी स्वयंसिद्ध होना चाहिए। गांधीजी भी कह गए हैं कि व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना चाहिए। जो काहिल होते हैं वही दूसरों से आशा  रखते हैं। ’’
                    मैंने हाथ जोड़ दिए, -‘‘ आप की बातें सही हैं गुरूवर, लेकिन मैं पद्मश्री के योग्य नहीं हूं।’’ 
                ‘‘ इसीलिए तो !! ...... इसीलिए कह रहा हूं सीढ़ियां चढ़ो। जो योग्य नहीं होते हैं सीढ़ियां उन्ही के लिए होती हैं। योग्य तो सक्षम होते हैं, वे पीछे की पाइप लाइन पकड़ कर चढ़ जाते हैं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, कीमत चुकानी पड़ती है। यही आज के समय का रिवाज है, इसलिए विलंब मत करो वत्स, पद्मश्री की पोटली लिए ‘वह’ अभी बारहवीं मंजिल पर बैठा है पता नहीं कब ताव या भाव खा जाए और बीसवी मंजिल पर जा बैठे तो !! ’’
                    ‘‘क्या यह शर्मनाक नहीं होगा गुरूदेव ?!’’
                  वे बोले - ‘‘ जिसने की शरम उसके फूटे करम। हर सुख के पहले शरम रास्ता रोकती है किन्तु वीरपुरुष रुकते हैं क्या ? शरम है क्या ! मिथ्या आवरण ही तो। विद्वान कह गए हैं कि सार सार गह ल्यो, थोथा देओ उड़ाय। समाज समृद्धि और सफलता की सराहना करता है बिना यह देखे कि इन्हें प्राप्त कैसे किया गया है। चलो, अपने पायजामें को उपर खेंच कर कमर में खोंसो और अपने पद श्री की ओर बढ़ाओ। ’’ 
                      ‘‘ बात ये है गुरूदेव कि आज के युग में कौन किसी को इज्जत देने के लिए पद्मश्री देखता है। बल्कि मुझे तो यह लगता है कि इससे तो मित्र भी अमित्र हो जाते हैं।’’ मुझे नहीं मालूम कि पद्मश्री में व्यवस्था क्या क्या ले लेती है और क्या टिका  देती है। 
                   ‘‘ हे संदेही नर, तुम्हारी बात किंचित सही भी है। दो पद्मश्रीवान एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि  से नहीं देखते हैं क्योंकि वे ‘जानते’ हैं। नेता, अधिकारी और कुछ औद्योगिक घराने भी ‘जानते’ हैं। किन्तु तुम क्यों भूल जाते हो कि यह सवा सौ करोड़ लोगों का देश है जिनमें से नब्बे प्रतिशत लोग नहीं ‘जानते’ हैं। अज्ञानतावश  वे तुम्हारी भी  इज्जत कर सकते हैं, संभावना अनंत है। सफल व्यक्ति प्राप्ति उजागर करता है प्रक्रिया नहीं। अब चलो, बहुत हो गया। ’’
                     ‘‘गुरूवर, यदि उन्होंने सीसीटीवी के फुटेज दिखा दिए और सरे- नागपुर मुझे डस लिया तो !!’’
                      वे बोले, - ‘‘ चिंता मत कर चेले, अगर चुनाव न हों तो उनके बयानों पर कोई ध्यान नहीं देता है।’’ नेपथ्य से आवाज आने लगी, ‘ कदम कदम, पदम पदम, ......  कदम कदम, पदम पदम, चढ़ चढ़ अमर,  डर मत, हसरत कर,  पदम पर नजर रख, चल चल  अमर’।
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रविवार, 27 दिसंबर 2015

आमआदमी के कंधों पर सवारी

                          अखबारों में सुर्खियां लगी कि वे आमआदमी की तरह ‘पेश ’ हुए हैं।  वे बताना चाहते हैं कि आमआदमी मासूम होता है और उसकी पेशी  अकारण होती रहती है और यही उनके साथ हुआ है। वे भोले हैं, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं, उनका पिछला रेकार्ड देखा जा सकता है, वे कुछ करते ही नहीं। वे मानते हैं कि उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जितना पहले वालों ने कर दिया वही उनके लिए बोफोर्स है। इसी से देश को मान लेना चाहिए कि लोगों ने षडयंत्र पूर्वक उन्हें फंसाने की कोशिश  की है। जिस तरह आमआदमी पर अत्याचार होते हैं और उसकी कोई सुनता नहीं है उसी तरह की पीड़ा से वे भी गुजर रहे हैं। खूब ना नुकुर की मगर जबरिया पेशी  हो गई। इससे बड़ी असहिष्णुता भला क्या होगी ?
                    आमआदमी की ‘तरह’ वाली इस बात में जब कुछ खास नहीं है  तो यह खबर बनी क्यों ! क्या उन्होंने पेश  हो कर न्यायालय पर कृपा की !? कहीं उन्होंने यह उम्मीद तो नहीं लगा रखी थी कि जमानत का नजराना लिए न्यायालय खुद पेश  होगा उनके दरबार ! वे ऐसा क्यों जताते रहे कि न्यायालय ने खुद जुर्म कर दिया है उन्हें पेश  होने का आदेश  दे कर !! या ये उम्मीद रही होगी कि देश  की सवा सौ करोड़ जनता उनके पक्ष में खड़ी हो जाएगी हाय हाय करते हुए। वक्त जरूरत सब करना पड़ता है, किया ही  है  राजनीति में। मन मार कर किसी गरीब के घर रोटी भी तोड़ना पड़े तो तोड़ी  हैं। अपनी उबकाई रोकते हुए अधनंगे सेमड़े बच्चे को उठा कर चूमना पड़े तो चूमते ही हैं, लेकिन ऐसे वक्त की उम्मीद में ही।  प्रजा विश्वास  पर चलती है प्रमाण पर नहीं। वे चाहते हैं कि माहौल बने और न्यायव्यवस्था प्रजा की भावना का न केवल सम्मान बल्कि अनुकरण भी करे। मीडिया कह रहा है कि जमानत का जश्न  मनाया जा रहा है ! जबकि  वे चाहते रहे  कि एक बार वातावरण बन जाए तो हल्दीघाटी मचा के रख दें। 
                       अब मुद्दे की बात, अदालत तो अदालत है, उसके सामने आम क्या और खास क्या। जब पेशी  है तो है, नखरों की गुंजाइश  पार्टी की अदालत में हो सकती है वहां नहीं। वैसे किसी खास को जब पेश  होना पड़ता है तो वह आमआदमी की ‘तरह’ ही पेश  होता है। आजकल खीजे हुए पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं, वे अपनी वाली पर आ जाएं और किसी खास को नहीं पहचानें । इसलिए आमआदमी होना किसी मायने में सुरक्षित होना भी है, हाथ जोड़ो और निकल्लो चुपचाप। आपने देखा होगा कि ऐरेगैरे और चोर उचक्केे पेश  होते वक्त विक्ट्री की दो अंगुलियां दिखाते हैं, मुस्कराते हैं, जिससे अक्सर लोगों को उनके खास आदमी होने का भ्रम होता है। ऐसे में खास आदमी की तरह पेश होना जोखिम भरा भी है। इधर खास आदमी जब आम आदमी बनता है तो अपनी कालिख सब में बांट देता है। राजा काना हो तो आम जन को एक आंख ढंकने के लिए कह कर अपने कानेपन में वह सबको शामिल कर सकता है। लेकिन लोकतंत्र में दिक्कत यह है कि आदेश  केवल न्यायालय दे सकता है और वह भी पेशी  का। आमआदमी के नेहरू चाचा होते हैं , और खास आदमी के नाना-परनाना, तो आमआदमी से उनके घर के संबंध हुए, ..... अड़े-भिड़े में हक तो  बनता ही है। तरह तरह से पेश होने में उनकी मास्टरी भी है। चुनाव पूर्व जो राजा की ‘तरह’ जीवन जीते हैं चुनाव में वे सेवक की ‘तरह’ पेश  आने लगते हैं। खैर, आप दिल पर मत लेना, बड़ी बड़ी कोर्टों में इस तरह की छोटी छोटी बातें होती रहती हैं। वे जफ़र से बड़े बदनसीब तो कतई नहीं है।
                                                                         
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