बुधवार, 17 जून 2015

लेखन एक खुजली

                    रचनात्मकता के बिना लेखन एक खुजली है। माना जाता है कि खुजली स्वातःसुखाय होती है, जितना खुजाओ उतना बढ़ती है। जिन्हें हो जाती है उनके लिए खुजाना ही रचनात्मक होना है। इसलिए वे आड़े-तिरछे हो कर, खादी-रेशम पहन कर, नहा-धो कर यानी सब तरह के टोटकों से खुजाता है। खुजली के न नियम होते हैं, न सलीका और न ही व्याकरण या परिभाषा। खुजली बस खुजली होती है मीठी मीठी, बस ऐसी जगह बैठ जाइये जहां दूसरों की नजर में आ रहे हों और खुजाने लगिये। कुछ दिनों में देंखेंगे  कि लोग आप पर दृष्टि रखने लगे हैं। बस समझ लीजिए कि सफलता मिल गई। अब जितना खुजाते जाएंगे लगेगा कि इज्जत बढ़ रही है। इज्जत का ऐसा है कि जिनके पास करने को  कुछ नहीं होता है  वे टाइमपास  के लिए दूसरों की इज्जत करने लगते हैं। गीता में लिखा भी है कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए। इज्जत करने से धर्म-कर्म दोनों की पूर्ति हो जाती है और व्यस्तता  भी बनी रहती है । इसलिए इज्जत की चिंता नहीं करना चाहिए, वो तो मिलनी ही है। अगर नौकरी धंधा करते हैं तो मान लें कि यह खुजलीकर्म में बाधक है। ऐसे में वीआरएस ले लेने का चलन है, दुकान हो तो बंद कर सकते हैं, खेतीबाड़ी हो तो मुक्त हो लें। खाज-संसार में फ्रीलांस-खुजली का आपना महत्व होता है। बायोडेटा में फ्रीलांस लिख दो तो बीए एमए की डिग्री पर भी भारी पड़ जाता है। लोग उनका लोहा मानते हुए दीदे फाड़ कर देखते हैं कि मात्र खुजा-खुजा कर वे जीवन यापन कर रहे हैं। अक्सर न चाहते हुए भी उनके हाथ जुड़ जाते हैं, दूसरी सफलता मिली।
                               आमतौर पर खुजावक के पास खुजाने का कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। पूछने पर गंभीर हो कर कहा जा सकता है कि प्रतिभा के कारण खुजा रहे हैं, कुछ प्रेरणा के कारण भी खुजाने का दावा कर सकते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग नाखून घिसते देखे जाते हैं। बहुत से लोग यह बताते हैं कि खानदान में कभी कोई खुजाया करता था, मसलन पिताजी, दादाजी, नानाजी टाइप कोई, सो देख देख कर वे भी खुजाने लगे हैं। इस तरह अपनी खुजली को पारिवारिक परंपरा की खुजली कह कर अतिरिक्त सम्मान की रचना की जा सकती है। खुजलीवान उन लोगों के बीच विशिष्ट  होता है जिन्हें यह बीमारी नहीं होती है। लोग आंखें गोल करके मिलते हैं - ‘‘ अरे भई  आप तो बड़े खुजलीकार हैं !! आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई। खुजाना बड़ा कठिन काम है साहब, उपर वाला जिसको नैमत देता वही खुजाता है। अब समाज में हैं ही कितने खुजाने वाले। ’’ लीजिए आज का दिन सार्थक हुआ, फिर सफलता मिली। 
                       कबीर ने कहा है कि ‘ सुखिया सब संसार, खावै और सौवे, दुखिया दास कबीर, जागै और रौवे। इसे फार्मूला मान कर अनेक खुजलीकार रात में खुजाते हैं । कहते हैं खुजाना एकांत में ही संभव है। दिन में खुजाने वाले भी एकांत की तलाश में रहते हैं। 
                 किसीने पूछा - ’’ आप अंग्रेजी में खुजाते हैं या हिन्दी में ?’’
              ‘‘अंग्रेजी में खुजाने से पैसा अच्छा मिलता है, लेकिन मैं तो हिन्दी में खुजाता हूं क्योंकि हिन्दी में स्पेलिंग मिस्टेक का खतारा नहीं रहता है।’’ वे बोले।
               ‘‘ ऐसा कैसे !! ये दिक्कत तो हिन्दी में भी होती होगी। हर भाषा में होती है।’’
              ‘‘ इसके दो कारण हैं, एक तो हिन्दी हमारी अपनी मातृभाषा है सो हर तरह का अधिकार बनता है हमारा। दूसरा हिन्दी वालों का दिल खासा बड़ा होता है। वे अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते हैं। दूध को चाहे ‘दुध’ लिख दो चलेगा, पर भाव सही होना चाहिए। हिन्दी वाले भाव के भूखे होते हैं ... कविता में भी ‘भाव’ सबसे पहले देखा जाता है, चाहे पतली या पनेली कैसी भी हो।’’
                  ‘‘ कविता भी आप स्वयं ही खुजाते हैं ?’’ 
              ‘‘ और नहीं तो क्या ..... जहां तक हाथ पहुंचता है खुद ही खुजाते हैं वरना पीठ तो हर किसी को दूसरे से ही खुजवाना पड़ती है । ’’
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शुक्रवार, 5 जून 2015

आशंका का मौसम

               
    हमारे यहां आशंकाएँ  व्यक्त करने का एक विभाग है जो खासतौर पर मौसम के मामलों में हस्तक्षेप करता दिखाई देता है। समय समय पर कुछ घोषणाएं कर देना उसकी ड्यूटी है। कोई  विभाग अपना काम करे इससे ज्यादा किसी को और क्या चाहिए। घोषणाएं कभी कभी सही भी निकल जाती हैं जिसकी जिम्मेदारी विभाग की नहीं नेतृत्व के सौभाग्य की होती है। नीचे विभाग और उपर मौसम, छेड़छाड़ चलती रहती है। विभाग कहता है बारिश  अच्छी होगी, मौसम मुंह  चिढ़ा देता है। जब कहता है वर्षा कम होगी तो बादल झूम के बरसते हैं। दरअसल मौसम विभाग का काम है आशंका व्यक्त करना और यह काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। बहुत खर्चीला काम है जी। बड़े बड़े वैज्ञानिक और अफसर इस काम में मुस्तैदी से लगे होते हैं। एक पूरा महकमा है जिस पर सरकार करोड़ों खर्च करती है तब कहीं जा कर मानसून के पहले एक अदद आशंका व्यक्त हो पाती है। मौसम आखिर मौसम है, गरीब की जवान छोरी नहीं कि जरा जबान हिलाई और आशंका व्यक्त कर दी। 
                  कुछ लोग हर चीज को गंभीरता से ले लेते हैं, मजाक तक को भी। कुछ मारे डर के दुबक जाते हैं, जैसे केन्सर के अंदेशे  में तम्बाकू-सिगरेट छोड़ देते हैं और शराब पीने लगते हैं। क्यों न पियें, सरकार तम्बाकू-सिगरेट पर प्रतिबंध लगा रही है और शराब की दुकान हर दूसरी गली में है तो डाक्टरों से पूछ कर ही खुलवाई होगी। भरोसा है सरकार पर, खुद जनता ने जिम्मेदारी से चुनी है। लेकिन ऐसे भी कम नहीं हैं जो मानते है कि जन्म और मृत्यु उप्परवाले के हाथ में है, उपर वाला जन्म-मृत्यु मसलता रहता है और नीचे वाला बेफिक्र तम्बाकू-चूना। अपना अपना काम करो भई, डू नाट डिस्टर्ब। जब आना हो आ जाना, बुलाना हो बुला लेना।
              आशंका के बारे में आपको पता ही होगा कि वो कहीं भी, कभी पैदा हो जाती है। पैदा हो जाने के बाद आमतौर पर आशंका को दबाए जाने का चलन है। लेकिन यहां भी विज्ञान के नियमानुसार जितना दबाया जाता है आशंका उससे दुगनी ताकत के साथ बाहर आ जाती है। गीता ज्ञान है कि जो जन्मा है वो मरेगा भी। आशंका पैदा होती है तो उसे व्यक्त भी होना ही है। अगर दक्षता पूर्वक आशंका के बीज बोए जाएं तो सत्ता की हरी हरी फसल भी लहलहा सकती है। लेकिन इधर जब से मौसम विभाग ने सूखे की आशंका व्यक्त की है तो रियल किसानों के प्राण सूख गए हैं। जिन्होंने आत्महत्या स्थगित कर रखी थी वे पुनर्विचार की मुद्रा में आ रहे हैं। अब तक अपने मदारी को देख देख कर शेयर बाजार बंदरों जैसा उछल रहा था, आशंका सुनी कि पट्ट-से लुढ़क गया। अच्छे दिनों का ढोल भी मजे में बज रहा था कि अचानक एक तरफ का चमड़ा फट गया। जो दलहन-तिलहन बाजार में ढ़ीले थे आनन फानन टाइट हो कर गोदाम का रुख करने लगे। चारों ओर तेजी की लाठी के साथ पथसंचलन शुरू हो गया। गिनती की कौडी लाने वाले तमाम घर मुरझा गए। मौसम विभाग पर यों तो किसी को विश्वास  नहीं है लेकिन क्या भरोसा काली जुबान का। इधर विभाग मानता है कि कर्म किये जा फल की चिंता मत कर। बिना वैधानिक चेतावनी के उसने आशंका व्यक्त कर अपना अनुष्ठान पूरा कर दिया है अब आप मानो या न मानो आपकी मर्जी। 

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शुक्रवार, 22 मई 2015

तबादला-नीति

                   
  भड़कते सूरज और पिघलती सड़कों के बीच सत्ता के गलियारों में कहीं तबादलों का मौसम भी रेंग रहा है। घरों से वही लोग निकल रहे हैं जिनके हाथ में ‘चलो बुलावा आया है’ के संदेश  हैं। हर कोई एक ही दिशा  में बढ़ रहा है और उसका नाम है हिमाला भवन। सुना है सरकार यहीं बैठती है। वैसे देखा आए तो सरकार है कहीं भी बैठ सकती है। बैठे ही यह जरूरी भी नहीं है, बैठे बैठे, नहीं बैठे नहीं बैठे। हालांकि मुनादी तो आठ घंटे बैठने की है लेकिन आपको पता ही होगा कि सारे सरकारी काम बैठ कर थोड़ी होते हैं, कुछ के लिए उठना भी पड़ता है। उठने में शक्ति खर्च होती है, अब शक्ति खर्च होगी तो रीचार्ज भी कराना ही पड़ेगा। समझ रहे हैं ना आप, इतना समझ लेने के बाद ही आदमी राजधानी का टिकट कटाता है। 
             यों कायदे से वे जयकिशन हैं लेकिन हिमाला भवन में जेकीचेन नाम से सिक्कों की तरह बिन्दास चलते हैं। तबादलों के इस मौसम में वे जनसेवा के पुण्य कार्य में व्यस्त हैं। ईश्वर  के चार हाथ होते हैं। या यों कह लीजिए कि उसके चार हाथ हैं इसलिए ईश्वर  है। वह एक से दरवाजा बंद करता है तो दूसरे से खोलता भी है। सरकार के आठ हाथ होते हैं आक्टोपस की तरह। एक हाथ से पकड़ती है तो दूसरे किसी हाथ से छोड़ती भी है। जानकारों का कहना है कि पकड़ती इसलिए है कि छोड़ सके। पकड़ने और छोड़ने के बीच कुछ और हाथ भी होते हैं और सब बिना चूक अपना काम करते हैं। 
              जेकीचेन के सामने एक नए नए विधायक उपस्थित हैं जो अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि रौब गांठें या कि धिधिया कर काम निकालें। उनके हाथ में पांच नामों की एक सूचि है जिनका तबादला वे चाहते हैं। 
           ‘‘जी, मुझे पता है कि आप खुद विधायक हैं। आपके ये पांचों नाम मैंने उपर पहुंचा दिए थे। आप चाहें तो खुद उनसे बात कर लें।’’ जेकीचेन ने बहुत सफाई से विधायकजी के सामने चुनौती रख दी कि हो हिम्मत तो बात कर लो। 
              आजकल हालात अच्छे नहीं हैं। सरकार दो-तिहाई बहुमत के साथ चल रही है और अपने विधायकों को भी तबेले की भैंसों से ज्यादा कुछ नहीं मानती है। ऐसे में उपर बात करना अपना कुट्टी-चारा करवाना हो सकता है। लेकिन तब जरूरी हो जाता है जब पीछे पांच बंदे उम्मीद के साथ खड़े हों । 
             ‘‘ सरजी मैं पार्टी का विधायक हूं, पांच नाम आपकी सेवा में दिए हैं ये तो आपको करना ही पड़ेंगे सरजी। आखिर मुझे भी इलाके में मूं दिखाना है सरजी ।’’ 
               ‘‘ फोन पे ये बात नहीं हो सकती है। आपको पता होना चाहिए कि तबादले नीति के अनुसार होते हैं।’’ उधर से आवाज आई, विधायक को पता नहीं था कि मंत्री बोल रहे हैं या उनके पीए का पीए।
                     ‘‘ देखिए सरजी, ये तबादले तो आपको करना ही पड़ेंगे चाहे कैसे भी हों। आखिर ये हमारी इज्जत का सवाल है सरजी।’’
              ‘‘राजनीति में इज्जत का क्या काम विधायकजी ? और पार्टी को किसीकी इज्जत से क्या लेना देना !? आप पता कर लो, तबादले नीति के अनुसार ही होते हैं। ’’ उधर से दोबारा नीतिराग बजा।
              ‘‘ सरजी देखिए मैं कोई उल्टा-सीधा बयान दे मरूंगा । फिर मत कहियो कि पार्टी की छबि खराब कर दी।’’
                ‘‘ देखो जी मुर्गी जब बीट करती है तो वो उसकी निजी बीट होती है और जब अंडा देती है तो वह पोल्र्टी का होता है। हाईकमान राजनीतिक के सेलीब्रिटी शेफ हैं, बीमार मुर्गी को बिरयानी में बदल देते हैं। आप नाराज न हों नीति के संबंध में गौर करें तो ठीक होगा।’’
                   अब जेकीचेन के मुंह खोलने का वक्त हो गया था। बोले - ‘‘ जब वे बोल रहे हैं कि तबादले नीति के अनुसार होगें तो आप ऐसा करें ..... पांचवे माले पर कमरा नंबर पांच सौ पचपन में मैडम नीति राजपाण्डे से मिल लें।’’
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रविवार, 10 मई 2015

गांधीजी के छोड़े काम

                      देखो भइया ऐसा है कि गांधीजी के नाम से गुजारा भत्ता मिल रहा था और पार्टी चल रही थी मजे में ये कोई छोटी बात नहीं है। पार्टी वाला कोई कुछ करे न करे, गांधीजी के किए का टेका आज तक काम आया है। और सच्ची बात ये है कि नोटों पर गांधीजी इसीलिए हैं कि जनता को कुछ याद रहे न रहे उनका चेहरा जरूर याद रहना चाहिए। गरीब की फटी जेब से लेकर अमीर की तिजोरी तक सिर्फ 'गांधीजी ' का ही आना-जाना है। दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद शाम को मजदूरी लेनेवाले और देनेवाले के बीच में  कौन 'मोहन' है ? पार्टी जानती है कि उसके कार्यकर्ता राजनीति में गांधी-निष्ठा के कारण ही आते हैं। जो काम किसी से नहीं होता वो गांधीजी से ही करवाया जाता है। श्रद्धा की यह गंगा उपर से नीचे की तक सबको भिगोती आई है, सब पवित्र हैं। साठ साल में पार्टी की रग रग में गांधी की गंध बस गई है। कुछ छातीकूट विरोधी इसे गलतियों में शुमार करते आए हैं तो उन्हें याद दिला दें कि गांधीजी ने साफ साफ कहा था कि -‘‘आजादी का कोई अर्थ नहीं है यदि इसमें गलतियां करने की आजादी शामिल न हो।’’ जनता ने आजादी का मजा लिया पार्टी ने गलतियों का। 
                  इधर पार्टी का संकट बढ़ गया है। गांधीगण गांधीजी को भूल गए और गांधीछाप के फेर में ऐसे पड़े कि बार बार धरे गए। जनता गांधी विरोधियों के बहकावे में आ गई और अपने आगे-पीछे सहित उनकी हो गई। अब वे राजनीति को बीहड़ और सत्ता को घोड़ा समझे मूंछ मरोड़ रहे हैं। गुजरात में मुर्गी अंडा देती है तो वो अंडा मुर्गी का नहीं गुजरात का माना जाता है। बापू का जनम गुजरात में हुआ तो वे किसी और के कैसे हो सकते हैं। खासकर घर वापसी के इस मौसम में उन्हें उस पार्टी से इस पार्टी में लाना जरूरी था। जब जब भी जरूरी समझा गया उन्होंने गांधीजी का पहले भी खूब आदर किया है। ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध भी उन्हें स्वर्ग की उंचाई प्रदान की। 
                     बापू को वो पूरी तरह से खींच ले गए और पुरातन पार्टी खड़े खड़े गुबार देखती रही। बाद में जनता के सामने जा कर कहा कि गांधीछाप लूटने और गांधीजी को लूट ले जाने में बड़ा फर्क है, लेकिन किसीने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद पटेल पकड़े गए, सुभाष उठाए, शास्त्री और नरसिंहराव भी खेंच लिए। एक एक कर सबकी घर वापसी होने लगी। अब बचे हुए चेहरों को बचाना एक समस्या हो गई। बिना मुआवजे के चेहरों का अधिग्रहण हो रहा है। पार्टी की युवाशक्ति छुट्टी मना कर लौट आई है, अब देखना इस लूट का विरोध। अरे भई जो गांधीविरोधी रहे हैं वो गांधीवादी कैसे हो सकते हैं ! ठोक के पूछेंगे कि कैसे पूरे करोगे गांधीजी के छोड़े काम ? 
                उधर जवाब में वे मानते हैं कि बड़ी जिम्मेदारी है उनके कंधों पर और वे पूरे करेंगे गांधीजी के छोड़े काम। किसी को सिखाने की जरूरत नहीं है और न ही कोई टोकाटाकी करे। बापू ने सत्य बोला और झूठ छोड़ा है। उन्होंने अहिंसा को अपनाया और हिंसा को छोड़ा है। शांति को रखा क्रोध को छोड़ा, बुरा देखना छोड़ा, बुरा सुनना छोड़ा और बुरा बोलना छोड़ा। उन्होंने जो छोड़ा है उसे हमने पहले से ही अपना रखा है।
                 एकता एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए जरूरी है कि समाज टुकड़ों में बंटा रहे। लोग भले ही सांप्रदायिक कहें, दक्षिणपंथी कहें तो कहते रहें, लेकिन एकता की प्रक्रिया गांधीजी की इच्छा के अनुसार ‘सतत’ चलाई जाती रहेगी। उन्होंने ब्रह्मचर्य का महत्व बताया है। उसके बारे में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है, सब जानते ही हैं। बापू बोले थे - ‘‘ व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित प्राणी है, वो जो सोचता है वही बन जाता है।’’ किन्तु सच्चाई आपके सामने है, सोचा तो कइयों ने होगा लेकिन जो बनना जानता  है वही बना।
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शनिवार, 9 मई 2015

दिव्य-नगर के दीवाने

                     पहले अच्छी तरह समझ लो, स्मार्ट सिटी यानी दिव्य-नगर। दिव्य-नगर में हर चीज दिव्य यानी बड़ों के कायदे से होगी। जैसे दिव्य नागरिकों की सुविधा के लिए हर दिव्य-नगर में स्विसबैंक की एक लोकल शाखा रात-दिन काम करेगी। दिव्य नागरिक लोग वोट नहीं सिर्फ आशीर्वाद यानी चंदा देंगे। सरकारें ब्रेल लिपि में उनके संदेश पढ़ने में दक्ष होंगी और इषारों को पहले से अधिक समझेंगी। विकास की योजनाएं दिव्य-नगर के दफ्तर से अनुमोदित होंगी। मंत्री शपथ लेते ही मंदिर से पहले दिव्य-नगर जाएंगे, हालांकि वहां ना कोई धर्म होगा न ही ईश्वर, फिर भी पूजा होगी और वफादारी की चादर चढ़ाई जाएगी। समय समय पर हरे-पीले झण्डों का उपयोग किया जाएगा लेकिन लाल झण्डे पूर्ण प्रतिबंधित रहेंगे। सामाजिक जीवन प्रतिस्पर्धापूर्ण होगा। विवाह नहीं होंगे, लिव-इन संबंधों का दिव्य चलन होगा। बेटियां पैदा नहीं होंगी, किन्हीं आरामदेव बाबा की बूटी से बेटे ही पैदा होंगे। देवियां खुद गर्भवती नहीं होंगी, किराए की कोख का अधिग्रहण होगा। अस्पताल में मरीजों से ज्यादा डाक्टर और उससे भी ज्यादा नर्सें होंगी। दिव्य नागरिक बीमा वसूलने के लिए समय निकाल कर बीमार होंगे। स्वस्थ होने पर उन्हें प्रमाणपत्र मिलेगा जो राष्ट्रिय  सम्मानों के चयन में मान्य होंगे। 
                  दिव्य-नगर में सिर्फ दिव्य लोग रहेंगे। भारतीय संस्कृति वाली ‘धोती-साड़ी पब्लिक’ ढीलीढ़ाली और लजाऊ होती है, एक तरफ से नीची करो तो दूसरी तरफ ऊंची हो जाती है। स्मार्ट पब्लिक सब तरफ से ऊंची होती है। देखने वाला ‘इंटरेस्ट’ के साथ दीदे फाड़ कर देखता है और विकास की भावना से चाहता है कि और थोड़ी ऊंची हो जाए। सरकारें भावनाओं की कद्र करना चाहती है। दिव्य-नगर में कोई आम रास्ता नहीं होगा, हर रास्ता दिव्य रास्ता होगा। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है कि जो लोग टोले-तबेले में रहने के आदी हैं उनका प्रवेश प्रतिबंधित होगा। 
                  सरकार पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है, पर्यटक झोपड़पट्टियों में गरीबी के और अधनंगों के फोटो खींचने लगते हैं। एक गलत इमेज जाती है दुनिया में हमारी। कुछ दिव्य-नगर होेंगे तो माहौल बनेगा विकास का। विकास हो ना हो माहौल होना चाहिए। माहौल विकास से भी बड़ा होता है। लोकतंत्र में तो माहौल किसी करिश्मे से कम नहीं है। एक बार महौल बन जाए तो सरकार भी बन जाती है। भूखे, नंगे, गरीब माहौल की हवा से गुब्बारे की तरह फूल सकते हैं, दिव्य-नगर एक हवा है। 
                  यों देखिए तो क्या नहीं है देश में। हवाई जहाज हैं, एसी ट्रेनें हैं, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं, करोड़ों की लागत वाले लेट हैं, बड़े अस्पताल और बहुत काबिल डाॅक्टर हैं, कारों की तो पूछो ही मत। सब है, लेकिन कितने लोगों की पहुंच में हैं। पूछोगे तो पता चल जाएगा कि ये बेजा सवाल है। गोद में बच्चा रोता है तो आसमान में उड़ता हवाई जहाज दिखा कर बहला लेते हो, इसका पैसा तो नहीं लगता। हुआ ना हवाई जहाज आपकी पहुंच में, रहा सवाल बच्चों का तो उसके बारे में पार्टी के जिम्मेदार तय कर ही रहे हैं कि कितने पैदा करो। इसी तरह जब बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं  देखोगे, तेज भागती ट्रेनें देखोगे तो फटी आंखों से देखते रह जाओगे। बिना पैसा खर्च किए स्वर्ग देखने का मजा कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। यह अटल सत्य है कि ईमानदारों को हमेशा  दो रोटी मिला करती है, स्वर्ग तो मिलता नहीं है। भोलेभाले सच्चे संस्कारीजन स्वर्ग की कामना भी नहीं कर पाते हैं, वे कर्म करते हैं और करते ही रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। इसी तरह जो स्वर्ग भोग रहे हैं वे भोगते रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। दिव्य-नगर बनेंगे तो दोनों वर्गों की दूरियां कम होगी।
                    आप जानते हैं कि राजनीति के अलावा सब जगह ईमानदारों की मांग रहती है। बड़े बड़े कामों में बेईमानी एक कायदा है, दरअसल बेईमानी अपने आप में बड़ा और सामंजस्यपूर्ण काम है। बड़े काम के लिए बड़ा आदमी ही उपयुक्त होता है। संत साफ साफ कह गए हैं कि ‘समरथ को कोई दोस नहीं गुसाईं’। छोटा आदमी ‘बड़ा काम’ करे तो व्यवस्था बिगड़ती है। इसके लिए जरूरी है कि व्यवस्था को पुष्ट करने वाले स्मार्ट नागरिक थोड़ा हटके यानी दिव्य-नगर में रहें।  

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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मार्च का भूला अप्रेल में

               
     देखो भइया बात का बतंगड़ बनाना ही हो तो किसके मुँह पर ताला पड़ा है, बोलो चाहे बको लोकतंत्र है वरना मार्च का भूला अप्रेल में आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। आदत खराब है आपकी, इसमें अब देर-अबेर को मत घुसेड देना। अपने यहां कौन सा काम टाइम पे होता है ! रेलें तो रेलें अब हवाई जहाज भी लेट हो जाते हैं ऐसे में आदमी की क्या कहें, वो भी कुवांरा। यहां से वहां तक ढ़ोल पीट रखा है कि आजादी है, आजादी है ! क्या खाक आजादी है ! राजा बिटवा पूछ कर छुट्टी पर क्या गया, करोड़ों का धंधा कर लिया मीडिया वालों ने हाय मेरी अम्मा हाय मेरी अम्मा करके। सरकार तक यहां वहां झांकने लगी मानो उनकी लंका में हनुमान घुस आए घासलेट और माचिस ले के। सब जानते हैं कि एक उम्र होती है जिसमें बहुत कुछ निजी रखना होता है। कहीं जाना-आना तक। राजनीति में आ गए तो क्या सारा का सारा सार्वजनिक कर डालें। कल को कहोगे खुले में शौच जाओ तो सोच का क्या होगा। माना कि आमतौर पर राजनीति अपने निजी बच्चों के लिए की जाती है, लेकिन कुछ होते हैं जिन्हें अपने बाप-दादा के कारण भी करना पड़ती है। अपना अपना फील्ड है भई, लेकिन कहते तो सब यही हैं  कि देश  सेवा है। अब तुम जैसे आर्डिनरी यानी कामन मैन कहेंगे कि डाक्टर ने बोला था कि राजनीति करो। तो डाक्टर क्यों बोलेगा जी ! और बोला भी होगा तो फीस ले कर बोलेगा इसमें गलत क्या है  जी ? जिस घर में सुबह से शाम तक काम की कोई बात नहीं हो बस राजनीति ही होती रहे तो अगली पीढ़ी सिवा राजनीति के करेगी क्या। बच्चा किसी और काम के लायक रह पाता है। जमीनों को यहां वहां करें तो करने नहीं देंगे विरोधी कहीं के । सारे लोग इस तरह घूरते हैं कि बच्चे प्रपर्टी ब्रोकर तक नहीं बन सकते। न सामने आने देते हो न छुपने देते हो, और दावा करते हो कि आजादी है। खेलने खाने के दिन खत्म नहीं हुए और खड़ा कर दिया गामा पहलवान बनाके। किसी भोले-भाले भले आदमी को हुर्र हुर्र करके लड़वा देना और उम्मीद करना कि नंबर वन पर आ जाएगा, तो ज्यादती नहीं है क्या ! बंदा लड़े तो हाड़ तुड़वाए नहीं लड़े तो मरे।
                 विपश्यना  के बारे में पता है तुम्हें कुछ ? कैसे पता होगा, अनुलोम-विलोम से फुरसत मिले तब तो। देश  को सांस खींचने और छोड़ने में लगा कर अगला कुर्सी खींच ले गया और किसी को पता नहीं चला। पुराने अखाड़ेबाज खड़े खड़े गुबार देखते रहे, नगद मिला नहीं उधार देखते रहे। और तो और सूरज-चांद को नमस्कार करने में लगा दो तो लोग मंहगाई-गरीबी तक भूल जाते हैं। जनता को भागवत और किसानों को गरूड़ पुराण सुनाने से सुलगती आत्माएं ठंडी हो जाती हैं। बाकी कुछ अंगारे रह जाएं तो भंडारे उन्हें भड़कने नहीं देते। ऐसे में विपश्यना के अलावा करने को क्या रह जाता है। दूर चले जाओ, बोले तो एकांत टाइप भीड़ में। शांति  के साथ बैठो अगर हो तो, पालथी मार के जमीन पर। आंखें बंद करो, महसूस करो कि सांस आ रही है, सांस जा रही है। भइया ये सांसें बड़ी उपलब्धि है खास कर तब जब दस परसेंट सीटें भी न मिली हों, और उनकी नाकामयाबी भी जिन्हें आजकल सरकार कहते हैं। वरना उन्होंने पुरानी पार्टी-मुक्त भारत बनाने का आहव्वान किया था। दम होता तो सारे साघु-संत, तांत्रिक-मांत्रिक लग पड़ते यज्ञ-हवन में। लेकिन जो धंधा 'छू' और 'फू' का हो वो अपने दम पर नहीं मार्केटिंग के दम पर चलता है। तो आप समझ गए होंगे कि विपश्यना से आत्मविश्वास बढ़ा है। खुद अपने होने का पता चला, सीख के आए हैं, ताजपोशी  हो जाए तो पार्टी को सिखाएंगे। पार्टी जनता को सिखाएगी, जनता भालू है, सीख जाती है तो तामाशे  के काम भी आती है। जनता एक बार विपश्यना करने लगे तो सारी समस्याएं खत्म। आवै जब संतोष धन, सब धन घूर समाना। वोटर का मन भी शांत  होना चाहिए। शरीर और संसार के मोह से मुक्त होना चाहिए। समदृष्टि का विकास हो, अमीरी-गरीबी का विचार मिथ्या हो, भूख-प्यास विचलित न करे, मरने को जीना और जीने को मरना समझे, अपना जीवन महज चार दिन का माने, न आरजू की जरूरत हो न इंतजार का टंटा। इसका नाम असली विकास है और तब वे राज करें तो इतिहास बने। बने कि नहीं बने ? बोलो ना।
                                                                     

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दाम सरकारी, गोदाम सरकारी

‘‘ अरे ! तुम्हारा नाम भी नारायन !! पूरे गांव ने एक ही नाम रख लिया है क्या !? कोई रामनारायन, कोई सतनारायन, कोई हरनारायन ! तुम लोग आदमी हो या आरटीओ के नंबर ! सही बताओ तुम्हारा नाम क्या है ?’’ कोआपरेटिव सोसायटी में गेहूं खरीदी के तमाम रजिस्टरों के बीच सजे साहब बोले।
‘‘ जपनारायन लिख लो साहेब।’’
‘‘ जपनारयन , .... और ये क्या !! चालीस बोरी गेहूं लाए हो !? दद्दा ये कोआपरेटिव सोसायटी है बनिए की दुकान नहीं कि इत्ता-उत्ता जित्ता भी हो बटोर लाए। ’’
‘‘ जित्ता था सब लाया हूं मालिक। बढ़िया किसम का गेहूं है। एक बार देख लेते ....’’
‘‘ देखेंगे क्यों नहीं ! देखना तो पडै़गा ही। ऐसेई थोड़ी लै लेगी सरकार। बड़ी सख्त ड्यूटी है महाराज। सरकार मेहनत और ईमानदारी से काम करने का पैसा देती है, कोई मजाक नहीं है! इत्ती गरमी में यहां बैठे हम पसीना हेड़ रए हें तो किसके लिए ? सरकार की सेवा के लिए ..... और गेहूं क्यों नहीं लाए ? ’’
‘‘ इत्तई पैदा हुआ साहेब। सारा लै आए हैं। जमीन कम है। हम छोटे किसान हैं। ’’
‘‘ अरे महाराज ! कित्ते जनम तक छोटे किसान बने पैदा होते रहोगे ! कुछ पुन्न-उन्न किए होते तो तुम बड़े किसान के घर में पैदा होते और औलादें भी बड़े किसान की कहातीं। सारी गलती तुम्हारी है। हम पाण्डे हैं, ....... सब्जी-भाजी पैदा करते हो ? आलू-कांदा कुछ ?’’
‘‘ आप गेहूं देख लेते ..... एक एक दाना चमकदार है। ’’ किसान ने ना में सिर हिलाते हुए गुजारिश  की ।
‘‘ चमकदार होने से क्या होता है !? पीसने से आटा ही बनेगा, बिजली तो बनेगी नहीं ! एं ?  ………  भैंस पाली होगी ? घी-वी होता है ?’’
‘‘ पांच पानी का गेहूं है साहेब, देख तो लेते ।’’ किसान ने फिर सिर हिलाते हुए कहा।
‘‘ तो सेम्पल लाओ ना .... अब मैं जाऊँगा क्या तुम्हारे ट्रेक्टर  के पास, ..... सरकारी आदमी उपर से पाण्डे ?’’
किसान सेम्पल ले कर हाजिर होता है, साहब बोले-‘‘हूं ....गेहूं तो अच्छा है! पहले बताना था ना।’’
‘‘ कह तो रहे थे कि देख लेते एक बार।’’
‘‘ ठीक है दद्दा, ऐसे तो सब कहते रहते हैं। .... चालीस बोरे हैं ना ?’’
‘‘ हां पूरे चालीस हैं। ’’
‘‘ देखो एक आदमी साथ कर देते हैं। दस बोरी मेरे यहां पटका दो, दस-दस हमारे बड़े साहबों के यहां और दस बैंक वाले साहब के यहां ।’’
‘‘ पैसे कौन देगा !?’’ किसान चिंतित हो गया।
‘‘ पैसा !! ....... तुमको सरकार पर भरोसा नहीं है तो आए क्यों यहां ?’’
‘‘ हम तो इसलिए बोले साहब कि अनाज तो सरकारी गोदाम में जाता है !’’
‘‘ तो हम क्या सरकारी आदमी नहीं हैं !? ....... सरकार के गोदाम कोई एक जगह होते हैं !……  अब यहां तुम्हारे लिए एक लिस्ट टंगवाए क्या, कि ये-ये बंगले सरकारी गोदाम हैं। .... सुबह-शाम कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हो क्या ?’’ साहब ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ गलती हो गई साहब ..... हम समझे सरकारी गोदाम एक ही होता है। ..... तो पैसा आप लोग ही देंगे ना दस-दस बोरी का ?’’ किसान की शंका अभी भी बनी हुई थी।
‘‘ अरे यार !! …… कहां से आ गए तुम !! ……  महाराज सरकारी गोदाम अलग अलग होते हैं पर सरकारी जेब एक ही होती है। पैसा यहीं से मिलेगा तुमको । ’’
‘‘ ठीक है साहेब, हमें क्या करना है, .... पैसा चाहिए बस ।’’
‘‘ साइन करोगे या अंगूठा लगाओगे ?’’
‘‘ दसखत करेंगे साहब, पुराने जमाने की चोथी पास हैं।’’ किसान थोड़ा तन कर बोला।
‘‘ चैथी पास !! अरे वाह .... चलो ठीक है, दस्तखत करो यहां .... यहां ...’’
‘‘ ये क्या साहब !! आपने तो 400 बोरी लिख दिया ! हम तो 40  ही लाए हैं !’’
‘‘ 400  लिखा है तो क्या 400  का पैसा लोगे !! बड़े भ्रष्ट हो तुम तो ! भगवान से तो डरो जरा !’’
‘‘ राम राम, हम कहां चार सौ का पैसा मांग रहे हैं!! …।   इतनी अंधेर कहीं मची है ! भगवान सब देख रहा है। ’’
‘‘ तो भगवान को देखने दो ना। तुम इधर उधर क्यों देख रहे हो। तुमको ईमानदारी से चालीस बोरी के पैसे मिलेंगे। इसमें कोई दिक्कत है क्या ?’’
‘‘ चालीस के मिल जाएं यही बहुत है, समझो गंगा नहा लिए साहब। ’’
‘‘ तो फिर आंख मींच के साइन करो फटाफट और गंगा नहाओ।’’
                                                                           ----

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

प्रेम के विरोधी, बच्चों के आग्रही !!

                     ऐसा है बाउजी कि अब अपनी गांठ में कुछ है नहीं किसीको देनेे के लिए, देख ही रहे हो कि हिन्दी का लेखक दो कौड़ी का नहीं रहा इस ‘बे-चना’ जोर-बाजार में, जिम्मेदारियों के मैदान में दम टूटा सो उसकी क्या कहें, ऐसे में बाबा बन जाना अपुन का भी अधिकार है। जन्मसिद्ध है या नहीं इस पर सरकार के दो मत हो सकते हैं लेकिन अधिकार तो है। असफल और निराश  लोग गुफाओं कंदराओं में घुस कर एक नई संभावना को जन्म देते रहे हैं। जानकार बताते हैं कि वस्त्र त्यागने की अपनी पुरानी फिलाॅसफी है। आपत्तियों के बावजूद नंगों के नौ ग्रह आज भी वैधानिक रूप से बलवान होते हैं। अगर एक मौका नाचीज को भी मिले तो किसीको भला क्या दिक्कत हो सकती है। लोकतंत्र में सबको दांवमारने का मौका है। अच्छी बात यह है कि सब ये बात जानते हैं और इसी का नाम राष्ट्रिय चेतना है। 
                    बड़े बड़े नहानों से पता चलता है कि प्रतिस्पर्धा बहुत है और बाबालैण्ड चोर, उचक्कों, यहां तक कि हत्यारों से भी भर गया है, फिर भी आलसियों, मक्कारों के लिए कुछ जगह तो निकलती ही रही है। जबसे राजनीति में नाकाराओं के लिए स्थान और मौके बने हैं बाबाओं ने भी झंन्नाट अंगड़ाइयां लेना शुरू कर दिया है। अपने यहां बारह साल में कूड़े-कचरे के दिन भी फिरने का रिवाज है तो बाबाहोन को कब तक नजरअंदाज किया जा सकता था। सपना तो ये हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसद में कामरेडों को छोड़ कर सब बाबईबाबा होंगे। चुन्नी भाई आप नाराज क्यों होते हो जी, सपना तो सपना है, दिखाने वाले दिखाते रहते हैं भले ही पूरा एक न हो। इधर अबकी बार भी पांच-दस बाबे आ गए हैं अपने हठयोग से और चौपन इंच की छाती पे मूंग जैसा कुछ दलने की जीतोड़ कोशिश में हैं। बावजूद इसके बाबाजियों को लग रहा है कि उन्होंने अभी तक देश के लिए कुछ किया नहीं सो कुछ करना चाहिए, लेकिन खुद ढंग का कुछ कर सकते तो बाबा बनने की नौबत क्यों आती। 
               साहब को बच्चा बच्चा पार्टी का होना मांगता। उनका कहना है कि सदस्य बनाओ वोट बढ़ाओ। सो राजनीति में आने के बाद वोट बढ़ाना उनकी प्राथमिक विवशता है। बाबे मान रहे हैं कि भारतीय जच्चाएं बच्चे नहीं वोट पैदा करती हैं। उनके आहव्वान पर सारी की सारी ‘वोट’ जनने लगें तो संख्याबल पर सतयुग आ जाएगा। उन्हें भगवान पर पहले भी भरोसा नहीं था, अब भी नहीं है इसलिए बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। जो कभी कहा करते थे कि बच्चे भगवान की देन हैं वे अब कह रहे हैं कि खुद पैदा करो। जो प्रेम के विरोधी हैं वे बच्चों के आग्रही हैं!! प्रेम करने से संस्कृति नष्ट होती है बच्चे पैदा करने से वोटबैंक मजबूत होगा। दो से देश का विकास होने में देर लग रही है इसलिए जल्दी करो, चार करो भई। थोक में करो जी, सरकार अपनी है इसलिए डरो मत आठ-नौ-दस करो। कुत्ते-बिल्ली से सीखो या फिर बकरी से ही प्रेरणा ले लो। विकास करना है तो अब इंसान बने रहने की कोई जरूरत नहीं है। भीड़ का मतलब ताकत है, इसलिए भीड़ बढ़ाओ, मक्खी-मच्छर की तरह बढ़ो। जनसंख्या विस्फोट हमारी ‘विकास नीति’ हैं। भारतमाता को पोल्र्टीफार्म समझो। बच्चे राजनीति का ‘राॅ-मटेरियल’ हैं। 
                      उनके विकास की यही स्मार्ट-राजनीति है जिसमें विकास आगे बढ़ाने का नहीं, पीछे लुढकाने का नाम है। स्मार्टनेस के नाम पर पामेरेरियन पिल्ले को चूमने वाले इतनी जल्दी में हैं कि उन्हें दिख ही नहीं रहा कि उसका मुंह किधर हैं। पैंसठ साल में पैंतीस करोड़ से एक सौ पच्चीस करोड़ हो गए हैं। पता नहीं जनसंख्या है या रक्षा बजट जिसे बढ़ते जाना मजबूरी है। किन्तु सौभाग्य से देश जानता है कि उससे क्या गलती हो चुकी है। ‘भेडिया आया’ की राजनीति ने भोलेभाले लोगों को अब समझदार बना दिया है। 
                माफ कीजिए आप तनाव में आ रहे हैं। शांत  हो जाइये और देखिए कि वे मान रहे हैं कि बच्चे खुद आपकी देन ही नहीं आपकी जिम्मेदारी भी हैं। भगवान बरी हुए, आज खुश तो बहुत होंगे वो।
                                                                          -----

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

सुनो जगदीश्वर !


आधी रात को अपने असलहे के साथ कवि ने उस वक्त मंदिर में प्रवेश किया जब वहां कोई नहीं था। हृदय की अंतिम गहराइयों से लगाकर आकाश के आखरी छोर तक फैली अपनी अनंत श्रद्धा के साथ उसने जगदीश्वर के सामने शीश नमाया। घूप-अगरबत्ती के घूंए और फूलों व जल की सीलन से भरा पूरा गर्भगृह कवि की सच्ची भक्ति भावना से गमक उठा। ऊबे-अलसाए बैठे जगदीश्वर में ऊर्जा का संचार हुआ, यंत्रवत उनका हाथ आशीर्वाद के लिए उठा लेकिन उनका ध्यान कवि के थैले पर अटक गया। आराधना का तांडव समाप्त कर कवि ने थैले का मुंह खोला और एक लंबी कविता निकाली, बोले-कृपया इरशाद कहें जगदीश्वर, कुछ कालजयी कविताएं पेश करता हूं, आशीर्वाद दीजिएगा, मेरी पहली  कविता है मंजर में खंजर
‘‘ ठहरो कवि, ये क्या हो रहा है !! जानते नहीं हो कि मंदिर में किसी भी व्यसन के साथ आना मना है ! बाहर सूचनापट्ट पर भी साफ साफ लिखा हुआ है।’’ जगदीश्वर ने आरंभ में ही आपत्ती लेना आवश्यक समझा।
‘‘ ये तो मेरी पूजा का हिस्सा है प्रभु ।’’
‘‘ किसने कहा कि पूजा कविता सुना कर की जाती है,  तुम यहां कविता नहीं सुना सकते हो। ’’ जगदीश्वर ने आज्ञा नहीं दी ।
‘‘ ऐसे कैसे नहीं सुना सकता हूं !! सारा संसार जानता है कि जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी भगवान सुनता है। इस हिसाब से मेरा हक बनता है। ’’ कवि ने तर्क दिया।
‘‘ वो प्रार्थना के संदर्भ में कहा गया है। और यहां मैं केवल आरती सुनता हूं।’’
‘‘ आपको सुनना पड़ेगी जगदीश्वर, आपकी मर्जी के बगैर पत्ता भी खड़कता है। आपने ही मुझे कवि बनाया है, अब भुगतेगा कौन ’’
‘‘ पत्नी को सुनाओ ना, भारतीय हो , उस पर तो तुम हर तरह के अत्याचार कर सकते हो। ’’जगदीश्वर ने सुझाया।
‘‘ आपका सूचना तंत्र ठीक नहीं है जगदीश्वर । किसकी पत्नी सुनती है !! सुनती होती तो इतने कवि बनते,खरी-खोटी सुनी होगी पहले कवि ने, आह से निकला होगा खण्ड-काव्य। मुझे तो आश्चर्य है कि आप कवि क्यों नहीं हो गए अब तक !! ’’ कवि ने जगदीश्वर को लपेटा तो वे थोड़े नरम पड़े।  कविराज मैंने कानबहाद्दुर भी तो बनाए हैं। थोड़ा प्रयास करो, थोड़ा खर्च करो। एक भी मिल गया तो काम चल जाएगा। ’’
‘‘ आप एक नहीं हो क्या !, ..... अफवाह तो यह फैला रखी है कि ईश्वर एक है ! ..... अगर किसीकी सुनोगे नहीं तो हर कोई अपना अपना भगवान बना लेगा। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो आपका बाजार बिगड़ेगा। आपकी लापरवाही के कारण अब लुच्चे-लफंगे तक भगवान हो रहे हैं। ’’ कवि ने जगदीश्वर को डराना शुरू किया।
‘‘ जहां तक मुझे याद आ रहा है तुम तो कामरेड हो कवि। ’’ जगदीश्वर ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ तो इससे आपको क्या ! देर रात आता हूं, अंधेरे में आता हूं, गेट से नहीं कंपाउन्डवाल फांद कर आता हूं, अपना नगर छोड़ कर आता हूं, लेकिन आता हूं, ..... सारा रिस्क मेरा है। मैं किसी भी दक्षिणपंथी से ज्यादा विश्वास करता हूं आप पर, आपको तो प्रसन्न होना चाहिए मेरी काली-श्रद्धा से। ’’ कवि ने पूरे आत्मविश्वास  से उनकी बात खारिज कर दी।
‘‘ देखो कवि, .....  मैं थका हुआ हूं और अब सोना चाहता हूं। तुम अपने श्रोताओं को पकड़ो।’’
‘‘ कवियों के लिए श्रोता अब बचे ही कहां हैं, सब प्रधानमंत्री को ही सुनते हैं। नगर में कवियों के छत्ते के छत्ते हैं जो गुस्साए बैठे हैं। आपको एक एक कवि के पीछे कम से कम पांच पांच कानसेन भी बनाना चाहिए थे। ......  आप मेरी दो-तीन सुन लो वरना मैं अफवाह फैला दूंगा कि भगवान ने अब कथा सुनना बंद कर दिया है और  आजकल कविता ही सुन रहे हैं । ’’
‘‘ एक तो तुम आधी रात को आते हो, इस वक्त तो हरकोई थक-हार कर सो रहा होता है। ऊपर से धौंस देते हो !! ..... तुम मुझे क्षमा करो कामरेड। .... मैं तुम्हें एक ऐसा जीवित श्रोता देता हूं जिसे तुम चौबीस घंटे कविता सुना सकते हो। ये लो उसका फोन नंबर और जाओ प्लीज।  ’’जगदीश्वर ने हाथ जोड़ दिए।
मजबूर कवि ने नंबर लिया और अँधेरे में कंपाउन्डवाल की ओर चल दिया। जाते जाते बोला-‘‘आपकी कोई बात विश्वसनीय नहीं है जगदीश्वर । बाहर तो अफवाह है कि जगदीश्वर अब किसी की बलि नहीं लेते हैं !! ’’
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सोमवार, 5 जनवरी 2015

बाजार में नंगे

           
                 
बाजार अकच्छ ( नंगे ) संस्कृति के प्रभाव में है। बेटों को बाप समझा रहे हैं कि जिसने की शरम उसके फूटे करम। अकच्छ इकोनाॅमिक्स का बाजार पर कब्जा है। कहते हैं कि नंगों से भगवान भी डरते हैं, शायद इसीलिए वे बाजार से दूर रहते हैं। संसार में सब कुछ भगवान के भरोसे है। सिर्फ बाजार ही बेशरमी के भरोसे है। नंगापन जहां भी होता  है वहां अपने आप एक बाजार तैयार हो जाता है। आकाश  में कोई दर्जी नहीं है इसलिए स्टार नंगे  होते हैं। बाजार अगर कोई नंगा है तो समझिये कि वह स्टार है। स्टार बनने के लिए हर कोई उतावला है। बस एक मौका चाहिए, जाहिर है कि मौकों की अपनी कीमत है। आज नंगे हो कर  चुकाइये कल नंगई से ही वसूलिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोने का मंत्र बाजार ने ही दिया है। नंगई  से ही कीमत तय हो रही है। मुनाफा बाजार की जान है। बाजार रक्तबीज की तरह है, जिस भी जमीन को छूता है वहां एक नया बाजार खड़ा हो जाता है। किसी जमाने में बाजारों का मुकाम शहर होते थे अब गांव गांव खरीद फरोक्त हो रही है। रामनामी औढे बाबा इठ्यान्नू-निन्यानू-सौ जप रहे हैं । पिछली पीढ़ी ने जिस घरती को माता कहा, बाजार के कारण अगली पीढ़ी को उसके ‘रेट’ बताना पड़ रहे हैं। हर नजर सौदों की संभावना से भरी लगती है। ईश्वर  ने केवल मनुष्य को मुस्कान दी है लेकिन बाजार ने मुस्कराने के अर्थ बदल दिए हैं। पहले जिन होठों पर प्रेम की चहल कदमी होती थी अब वहां बाजार की छम्मकछल्लो ठुमक रही है। आदमी का हर अंदाज सौदा है और कोई सौदा सच्चा सौदा नहीं है। किसी जमाने में बाजार जरूरतों की पूर्ति किया करते थे, अब वे जरूरतें पैदा करते हैं। एक शायर ने कहा है कि बाजार से गुजर रहा हूं पर खरीदार नहीं हूं। बाजार ने ऐसे लोगों के लिए ही अब सीसी-कैमरे लगवा रखे हैं। 
                   बाजार में हर चीज बिकती है, नंगे  न बिकने वाली चीजों को भी बेचने का हुनर जानते हैं। कूड़ा-कचरा तक बेचा जा सकता है, खरीददार हर समय पैदा किए जा सकते हैं। सुनार का कचरा बाकायदे अच्छे भाव में बिकता है। उसके यहां झाडू लगाने वाला उस कचरे से सोना-चांदी निकालता है। एक कवि के यहां काम करने वाली महरी को कवि के कचरे का "अकच्छ ग्राहक" मिल गया। आज वह ग्राहक महाकवि है हालाॅकि कवि अभी अख्यात ही हैं। कुछ लोग मिट्टी उठाते हैं और सोना बना लेते हैं। बाजार  इसी को टेलेन्ट कहता है। 
                      जिनके पास भेड़-बकरियों का झुण्ड होता है वे खेत में एक रात झुण्ड को ठहराने की खासी कीमत लेते हैं। क्योंकि रातभर की मेंगनियां और पेशाब खेत की उपज बढ़ा देती हैं। अगर हमें मालूम पड़ जाएं कि हमारा एक एक अंग बाजार की मूल्य सूचि में शामिल है तो शायद  हम घर के बजाए लाॅकर में रहना पसंद करें। जिस तरह बाजार किसान की इज्जत नहीं करता है लेकिन अनाज से पैसा कमाता है उसी तरह रचनाओं से कमाने वाले प्रकाशक वगैरह लेखक की इज्जत नहीं करते हैं। साहित्य का क्षेत्र भी "अकच्छ बाजार" से अछूता नहीं है। कहानी, उपन्यास, नज्म, गजल सब लिखा लिखाया मिल सकता है। खरीदिये, छपवाइये और फटाफट साहित्य के ‘बड़े मिंया’ हो जाइये। कुछ ‘खां-साहबों’ के बाड़े में लिखने वाले गाय-भैंसों जैसे स्थाई रूप से पलते और ‘दूध’ देते हैं। अक्सर प्रसिद्ध गीतों के बारे में मालूम होता है कि कोई अनाम गीतकार का लिखा हुआ है जो दो-चार सौ रुपयों में नामचीन कलमकार ले गए थे। लेकिन नंगों का  बाजार बकरा बेचने के बाद उसकी खाल देख कर रोने की इजाजत किसी को नहीं देता है। आज नगद गिनो और कल दूसरा गीत लिखकर लाओ, वरना अपना सायकिल रिक्षा चलाओ। अकच्छ बाजार में जेबकटाई भी खूब होती है। एक लेखिका ने मुस्करा कर अपना उपन्यास अधोवृद्ध रचनाकार को सुधारने के लिए दिया। वे अपनी बकरी को उनसे ऊंट बनवा कर ले गईं, और अब बाकायदा ऊंट उनका है। अधोवृद्ध कुछ दिन चीखे चिल्लाए फिर खांसी की दवा खरीदने लगे। कहीं खबर छपी थी कि पीएचडी लिखने वालों का ‘मार्केट’ खूब फलफूल रहा है। क्यों न हो, बाजार ज्ञान का नहीं डिग्री का होता है। और जिसका बाजार होता है वही बड़ा होता है, और जायज भी। पैसा मिले तो कोई काम छोटा नहीं है, बशर्ते पुलिस वगैरह की पकड़ में न आएं।
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                   

जो कभी बीमारी घोषित थे , सत्ता में आने के बाद इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही सिस्टम के लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकलवा कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, नहीं हुआ तो संस्कृति रक्षक खराब क्र देंगे.  गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलने दिया जायेगा जो चौघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, यानी पक्के तौर पर होगा ही। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलना होंगे, मनना होगा कि  विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है।
               इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख,  भविष्य में डर,  वह मान लेती है कि दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में सांस लेते हैं उसी में बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं। हरेक को आजादी है,  वो चाहे तो शान्तिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से।
           “ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
   ‘‘ क्या बताऊ, हप्ताभर से उछल रहे हैं, डाक्टर कहते हैं युवा-हृदय-सम्राट हो गया है।’’
   ‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेशा गेटआउट लगा के रखती हूं।’’
   ‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
   ‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेक्शन होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
   ‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर थर्ड स्टेज लीडरी का हो जाता।’’
    ‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
    ‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा खाली महसूस होता है.....।
     ‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
     ‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’
            जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे नेता इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि डाक्टर से बचना है तो घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं,  इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं।

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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ठीकरे मांग रहे सिर

                 
हारने के बाद हार का ठीकरा सामने आता है। हार जितनी बड़ी होती है ठीकरा भी उतना बड़ा होता है। परंपरा ये है कि जितनी जल्दी हो किसी के सिर पर ठीकरे को फोड़ देना जरूरी है। आदर्श राजनीति में चाकू पीठ में ही घोंपा जाता है, उसी तरह ठीकरा सिर के अलावा और कहीं नहीं फोड़ा जा सकता है। ठीकरा कोई तिजोरी में रखने की चीज नहीं है, न ही पार्टी कार्यालय में मोमेंटो यानी स्मृति चिन्ह की तरह सजाया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि ठीकरा चाहे जहां फोड़ा भी नहीं जा सकता है। उसके लिए बाकायदा एक सिर लगता है, यानी एक बाजिब सिर। ये नहीं कि किसी रास्ते चलते को पकड़ लिया और उसके सिर पर फोड़ दिया दन्न से। पुराने जमाने में अघ्यक्ष के सर को यह सम्मान दिया जाता था, जिस पर नारियल से ले कर ठीकरा तक, सब कुछ फोड़ा जा सकता था। लेकिन हाल के बरसों में कुछ गलतफहमियों ने जड़े जमा लीं। अध्यक्ष के गले में पड़ने वाली मालाओं का ध्यान रहा, ठीकरों को भूल गए। अगर दूरदृष्टि से जोखिम का ध्यान रखा होता तो न सही अध्यक्ष, कम से कम उपाध्यक्ष तो किसी शोषित-पीड़ित बेनाम कार्यकर्ता को बनाया होता तो आज आराम से काम आ गया होता। जिसने दस साल से अपने सिर पर सब कुछ लिया, अगर उसी को जरा सा श्रेय देते तो वह ठीकरे भी अपने सिर पर फुड़वा लेता। अब क्या हो सकता है, गलती हो गई। ठीकरे हर राज्य से थोक में चले आ रहे हैं। पार्टी कार्यालय का पिछवाड़ा गोदाम की तरह ठीकरों से भर गया है। जो अपनी गरदन तक भेजने का दावा कर रहे थे अब ठीकरे भेज रहे हैं। इधर जिन्होंने सारी शक्तियां एक जगह केन्द्रित करके रखी हुई थी उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ठीकरों का विकेन्द्रीकरण कैसे हो! लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता। ठीकरे मुंडेर पर उगे पीपल की तरह रोज बढ़ते जा रहे हैं। समस्या ये है कि यदि समय रहते इन्हें किसी सिर पर नहीं फोड़ा गया तो ये ईंट ईंट बिखेर देंगे।
पार्टी के कुछ उपेक्षित जनों ने विज्ञापननुमा बयान दिये हैं कि वे ठीकरे फुड़वाने के लिए अपना सिर प्रस्तुत करते हैं। लेकिन ठीकरों की तुलना में उनके सिर बहुत छोटे हैं। अगर फोड़ने की कोशिश की गई तो सिर के मुआवजे उपर से गले पड़ जाएगें। फिर इसमें त्याग और बलिदान की बू आ रही है। वे जानते हैं कि इस वक्त कोई ठीकरे फुड़वा लेगा तो कल उसके गले में उन्हें खुद माला डालना पड़ेगी, इज्जत का एक आसन देना पड़ेगा, बावजूद इसके क्या गैरंटी कि कल वंश परंपरा के दावों को भी वह स्वीकार कर लेगा।
कहने को पार्टी में जगह जगह हार के कारणों पर चिंतन बैठक चल रही है। किन्तु वास्तव में उनकी चिंता उपयुक्त सिर की तलाश है। बच्चों को जोखिम में नहीं डाल सकते, उन्होंने तो अभी अभी सिर उठाना सीखा है। अभी तो उन्हें ठीकरों का मतलब भी मालूम नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे फूटते कैसे हैं। पता चलेगा तो शायद वे राजनीति से दूर ही रहना
चाहें। अगर कहीं ऐसा हो गया तो भी दिक्कत होगी।
पार्टी जिन्हें अपना चाणक्य कहती आई है, उन्हें बुलाया गया। पूछा कि – आप ही रास्ता बताइये .... कि ठीकरे भी फूट जाएं और शीर्षस्थ
सिर भी बच जाएं।
बहुत विचार के बाद वे बोले – हमें इतिहास में से कोई सिर ढूंढ़ना चाहिए। हमारा इतिहास महत्वपूर्ण सिरों से भरा पड़ा है। ठीकरों की तुलना में ये सिर बड़े भी हैं। समय समय पर हमने उन्हें श्रेय दिया है, उनके माथे पर पगड़ी बांधी है, गले में माला पहनाई है। आज समय
आया है कि वे बुरे वक्त में पार्टी के काम आएं।
‘‘ ये नहीं हो सकता। इतिहास में तो वंश है। उचित व्यक्ति ने
आपत्ती की।
‘‘ वंश  के अलावा भी हैं इतिहास में ।
‘‘ वो पार्टी का इतिहास नहीं है। बाकी किसी को हम इतिहास नहीं
मानते। आप कोई और रास्ता बताइये।
‘‘ मीडिया के सिर फोड़ दीजिए। चाणक्य बोले।
दुकान बंद नहीं कर रहे हैं हम। उचित व्यक्ति ने नाराजी से कहा।
फिर तो एक ही तरकीब है, जनता के सिर फोड़ दो। आम आदमी
हर समय काम आते हैं।
‘‘ ठीक, आम आदमी का सिर सही रहेगा। एक पत्थर से दो
शिकार। ....

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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

एक क्विंटल के बाउजी

सब उन्हें बाऊजी कहते हैं, वैसे उनकी दिली इच्छा तो बापजी कहलाने की रही है, पर क्या करें लोकतंत्र है। इसके कारण जब तब खींसें निपोरना पड़ती है, जिन्हें जूतों से हड़काया था कभी उनके हाथ तक जोड़ने की आदत डालना पड़ी है। हुजूर, सरकार, मांईबाप सुनने की चाह थी लेकिन कान में पड़ता है पिलपिला बाऊजीमन करता है कि थप्पड़ लगा कर मुर्गा बना दें अगले को। लोकतंत्र गले की हड्डी हो गया ससुरा, बड़े बड़े अनारकली हो के रह गए, मरण की मुश्किल  में जिए जा रहे हैं या जीने की कोशिश में मरे जा रहे हैं। शुरू शुरू में दिक्कत बहुत हुई, लेकिन बाद में उन्होंने मन मार के बाऊजी से काम चलाना सीख लिया। दिल को समझा लिया कि बाऊजी भी बाप ही होता है रे,  कान इधर से पकड़ो या उधर से, एक ही बात है।
                 आप सोच रहे होंगे कि उन्हें बाप बनने की ऐसी क्या पड़ी है, वो भी सबके !! तो जिस तरह भइया "जन-धन योजना" सरकार की प्रतिष्ठा है उसी तरह "बाप-बन योजना" उनकी निजी प्रतिष्ठा है। ये बात अपने दिमाग की हार्डडिस्क में अच्छे से 'सेव' कर लो कि बाप से संबोधित होना उनका एक खानदानी व्यसन है। पुराना समय होता तो इस मामले में कोई प्रश्नवाचक सिर झुका के भी प्रवेश नहीं कर सकता था उनके दरबार में। अब व्यसन है तो है, खानदानी हैं इसलिए जरूरी है कि दस-बीस व्यसन भी हों। व्यसन आन-बान-शान होते हैं खानदानी लोगों के। आम लोगों को तो परंपरा-रवायतों वगैरह का ज्ञान होता है नहीं,  सड़क किनारे कोई पड़ा दिखा नहीं कि पट्ट से बोल दिया एवड़ा-बेवड़ा कुछ भी। अगर लोकतंत्र नहीं होता तो आपको अपने आप समझ में आ जाता कि बापजी पड़े हैं। पड़े क्या हैं अपनी राज्य-भूमि को प्यार कर रहे हैं कायदे से। वो दिन होते तो झुक के सात सलाम और पांच पा-लागी अलग से करते लोग। लेकिन अब क्या है, अदब कायदों का तो अकाल ही पड़ गया। बासी, सल पड़ा काना आलू सा बाऊजी मिल जाए तो बहुत है।
                        बाऊजी जब राजनीति में आए थे तब काफी जवान थे। बल्कि ये कहना ठीक होगा कि जवानी के बल पर ही राजनीति में आए थे। उनके दिमाग में बात साफ थी कि राजनीति वो न जनता के लिए करते हैं और न ही देश के लिए। वे जो करते हैं खुद के लिए करते हैं। राजपाठ के दिन भले ही लद गए हों पर कोशिश करने वालों को सफलता मिलती है। आज भी राजा होने के लिए प्रजा चाहिए परंतु ये लोकतंत्र कमबख्त है और जनता ढीठ। प्रजा बनाओ तो बनती नहीं है। वे बार बार लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहते हैं लेकिन जनता को कुछ समझ में नहीं आता, बहुत हुआ तो नारा ठोंक देती है कि "जब तक सूरज-चांद रहेगा, बाऊजी का नाम रहेगा"। वे दुःखी हो जाते हैं, मन तो होता है कि छोड़ दें ऐसी राजनीति जो श्रीमंत को बाऊजी बना देती है लेकिन कोई जमीन हो तो नाव से उतरें भी।
                       खैर, बात में से बात निकलती जा रही है और असली बात छूट रही है। जनता भी पक्की राजनीतिबाज है उसने नेताओं को तौलने का फैशन चला रख़ा है। किसी जमाने में चांदी से तौला करते थे लेकिन मंहगाई है तो आलू-प्याज और टमाटर से तौल देते हैं। ये भी मंहगे हुए तो कर्णधार केलों से तुलने लगे, बाद में घर जाने के भाव में कद्दू, फूल गोभी, तरबूज वगैरह का नंबर लगा। हर तुलाई के बाद फोटू छपती, खबर बनती है। बाऊजी का भी मन होता था कि काश कोई उन्हें भी तौल दे। साठ किलो के शरीर से उन्होंने राजनीति शुरू की थी, तौलने के हिसाब से वजन ठीक था। उस वक्त पट्ठे नहीं थे, होते तो चांदी से तुल जाते। अब सौ किलो के हो गए हैं और तरबूज-खरबूज से तुलने का मन नहीं हो रहा है। चाहते हैं कि चांदी ना सही, तुलें तो कम से कम अनाज से तुलें। पट्ठों ने अनाज मंडी में जा कर खबर की कि बाऊजी अनाज से तुलना चाहते हैं, तौलो।
                 ^^ सोयाबीन का सीजन चल रिया हे, धंधा करें कि फ़ोकट की तौला-तौली करें भिया !! छोटे-बड़े बांट-वांट भी नीं हैं, इलेक्ट्रानिक मसीन से काम होता हे यां-पे। बिजली कभी आती हे कभी जाती हे। पेले इ प्रेसन हेंगे, केसे करेंगे, आप लोग ही सोचो।" मंडी अध्यक्ष ने समस्या बताई।
               ^^ बाऊजी पूरे सौ किलो के हैं। ना सौ ग्राम ज्यादा ना सौ ग्राम कम। सोयाबीन की भरती के बरोबर। बोलो अब क्या दिक्कत है " -
               ^^ क्या सचमुच पूरे सो किलो हेंगे "
               ^^ पूरे सौ किलो । "
               अध्यक्ष ने हम्माल को दौड़ा कर मदनसेठ को बुलवाया। वे भागे आए,- ^^ अरे मदन सेठ, तोल की व्योवस्था हो गई क्या तुमारी "
              ^^ अब्बी कां ।"
              फौरन से पेश्तर बाऊजी को लेकर आए पट्ठे। बाऊजी बड़े से तराजू के एक तरफ बैठे हैं और दूसरे पलड़े पर सोयाबीन की बोरियां एक एक कर रखी-उतारी जा रही हैं। तालियां बज रहीं हैं और हार डाले जा रहे हैंबताया जा रहा है कि बाऊजी तुल रहे हैं। बाऊजी भी मान रहे हैं कि वे ही तुल रहे हैं। किसान खुश है कि उसकी सोयाबीन तुल रही है। व्यापारी खुश  है कि बाऊजी को दो किलो फूलमाला पहना कर उन्हें क्विंटल पीछे दो किलो सोयाबीन ज्यादा मिल रही है। 
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