बुधवार, 30 जून 2021

नये अंधों का हाथी


 

अंधे वे भी होते हैं जिनकी आंखे होती हैं . जैसे खोपड़ी होने का यह मतलब नहीं कि आदमी में दिमाग भी होगा ही . कहते हैं अनुभव से आदमी सीखता है . अंधे स्पर्श से अनुभव करते हैं . इस समय आपको अंधों का हाथी याद आ रहा होगा . लेकिन अब हाथी देखने को नहीं मिलते हैं . बहुत पहले जंगल में हुआ करते थे फिर सर्कस में सूंड उठाने लगे अब सुना है राजनीति में आ गए हैं . राजनीति में सारे हाथी नहीं होते हैं, घोड़े, गधे, लोमड़, सियार ही नहीं मेंढक भी होते हैं. राजनीति अगर ठीक से खेली जाए तो मेंढक ही आगे चल कर हाथी हो जाता है . ऐसे में दो तरह की समझ वाले लोग हमें मिलते हैं . एक वे जो हाथी होने के बावजूद हाथी को मेंढक ही मानते हैं . दूसरे वे जो राजनीति में टर्रा रहे मेंढकों को हाथी मान कर उस पर अड़े रहते हैं . वे सम्भावना से भरे होते हैं और संगठित हो कर मेंढकीयत का अभ्यास करते रहते हैं . आज विशेष दिन है जिसमें अंधों को अपने हाथी यानी लीडर को जानना है . सबको बताना है कि आप अपने लीडर को कैसे और कितना जानते हैं .

पहला अँधा हाथी को दीवार की तरह महसूस कर बोला – मेरा लीडर बड़े बड़े पोस्टर में होता है . कहीं वो दो उंगली दिखाता है कहीं एक . मन का मार्केट एक का दो, एक का दो होने लगता है . पेट्रोल पम्प हो या किराने की दुकान पोस्टर देखते ही दिल में टर्र-टर्र का संगीत गूंजने लगत है और महंगाई का पता ही नहीं चलता है. आकाशवाणी होती है कि महंगाई एक तरह का वहम है . लीडर का स्मरण करो तो वहम के सारे भूत भाग जाते हैं . मन उमंग की हुमक में फुदकता रहता है तो समझ जाता हूँ कि यही मेरा लीडर है .

दूसरा अँधा हाथी के पाँव से टिका फोन में घुसा था . हिलाया जगाया तो बोला – मेरा लीडर इंटरनेट मिडिया में चलने वाला खनकता सिक्का है . इधर से आलू-मेसेज डालो तो उधर से समर्थन का सोना निकलता है . वाट्सएप की हर पोस्ट उसके इरादों, कारनामों का बूस्टर डोज है . अगर दस मिनिट अपने लीडर की नई पोस्ट नहीं देखूं तो बीमार पड़ने लगता हूँ . जब कोई पोस्ट  कहती है ‘जागो जागो, देखो अंधों देखो’ तो मुझे ऐसा लगता है जैसे सब दिख रहा है . कैसे लोग तरक्की कर रहे हैं दनादन . कैसे आक्सिजन और दवा के बिना भी बहादुरी से जिन्दा बच रहे हैं. नौकरियां जाने के बाद भी कैसे सीना चौड़ा किये आत्मनिर्भर बने खड़े हैं . यही मेरा लीडर हाथी का पैर है नहीं हिलेगा .

तीसरा अँधा सूंड पकड़े टीवी देख रहा था . बोला - हर चैनल पर चौबीस घंटे जो खबरों में रहे वही मेरा लीडर है . उसका दृढ़ विश्वास है कि टीवी झूठ नहीं दिखाता है . मेरा लीडर तो देश में एक ही है बाकी सब दाढ़ी के बाल हैं जो जरुरत के हिसाब से काटे-छांटे या ट्रिम किये जा सकते हैं . नागरिकों को मनोरंजन का अधिकार है और सपने देखने का भी . मेरा लीडर जब बोलता है तो ये दोनों काम हो जाते हैं . इसलिए मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई .

‘दुनिया चले अगाड़ी तो मैं चलूँ पिछाड़ी’, चौथा अँधा हाथी के कान पर धिन ता-ता ता करने में मस्त है . उसे चार सौ साल पीछे जाना है . अभी शुरुवात है . उसका लीडर कार की हेड लाईट जला कर रास्ता आगे का दिखाता है और गाड़ी रिवर्स में चलता है . इस काम में उसे लीडर का विराट रूप दिखाई देता है जैसा अर्जुन को दिखा था . अगर स्वर्ग पीछे है तो आगे बढ़ने का मतलब पीछे जाना है . जिसने यह रहस्य जान लिया है वही मेरा लीडर है .

हाथी की पूंछ पकड़ उसे चाबुक समझ रहा पांचवा अँधा डरने वाला और जरा भावुक किस्म का है . मानता है कि मेरा लीडर कभी झूठ नहीं बोलता है . अगर बोलना ही पड़े तो सच की तरह बोलता है . जिसका झूठ भी सच लगे वही सच्चा लीडर होता है . जब वह कहता है कि सब अच्छा है तो सबको मान लेना चाहिए कि सब अच्छा है . जो शंका करके शगुन बिगाड़ेगा वह देशद्रोही माना जाएगा . लोग कहते हैं कि लीडर निपूता ही अच्छा होता है . पांचवा बिना किसी सवाल के मान लेता है . वह बैल को बाप भी मान लेता है और बन्दर को मामा . चाबुक से उसे डर लगता है .

शिक्षा – लोकतंत्र में अंधों का बहुमत हो तो हाथी अपनी पहचान बदल बदल कर लम्बे समय तक राज कर सकता है .

 

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शनिवार, 26 जून 2021

भरोसे की भैंस


 

भगोड़ा आदमी सही मायने में भरोसेमंद आदमी होता है . बैंक से लेकर बाज़ार तक सब उस पर भरोसा करते हैं . इसलिए हम भगोड़ा को भगोड़ाजी कहेंगे . उम्मीद है आपको कोई आपत्ति नहीं होगी, और होगी तो होगी आप सभ्यता और संस्कृति से बड़े थोड़ी हो . भरोसा भगोड़ाजी के लिए च्यवनप्राश होता है . भरोसा जितना दमदार होता है भगोड़ाजी उतना मेराथन भागते हैं  . भगोड़ाजी के पीछे बैंक भागती है, बाज़ार भागता है, पुलिस और अगर मिडिया कवर कर रहा हो तो नेता भी भागते हैं . अंत में शरमा शरमी सरकार भी भागती है . सब भागते हैं लेकिन भगोड़े जी किसी को नहीं मिलते हैं . वह सिर्फ मिडिया को मिलते हैं और ‘राष्ट्रहित सबसे ऊपर है’ कह कर फिर भाग जाते हैं . वह खुद को बैंक, बाज़ार और यहाँ तक कि देश का चौकीदार कहते हैं . उनके हाथ में मास्टर-चाबी होती है, वह हर तरह का ताला खोलना जानते  हैं  . वह चिराग का जिन्न हैं  लेकिन चिराग अपनी बगल में दबाये रहते हैं . मौकों पर हुकुम मेरे आका कहते  हुए हाजिर होते हैं और कुछ हजार करोड़ समेट कर भाग जाते हैं . वह उड़ने वाला डायनोसार हैं, लोग बताते हैं देखते देखते उड़ जाते हैं . उन्हें गायब होने का जादू आता है . कई बार पुलिस की आँखों के सामने से गायब हुए हैं . वह सब कुछ कर सकते हैं . सरकार बना सकते हैं और सरकार की योजनायें भी . योजनाओं में वे इस तरह होते हैं कि उनके गायब होते ही योजनायें भी गायब हो जाती हैं .

पिछली बार उन्होंने कहा था कि वे देश की मिट्टी में जिये हैं और इसी में मरेंगे . यह भी कि माँ से बड़ी मातृभूमि होती है तो उनकी बातों का बड़ा असर हुआ था . भरोसे की जड़ें और गहरी हो गयी थीं . बैंकों ने खुद डम्परों से भर भर कर रुपया उनके गोदामों में भर दिया था . आप कह सकते हैं कि इसमें भगोड़ेजी की कोई गलती नहीं है . सरकार ने भी कह रखा है कि बैंकें विवेक को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए निर्णय लें . लेकिन विवेक ने काफी समय हुआ वीआरएस ले लिया था . भगोड़ेजी को यह बात पता चली तो उन्होंने विवेक को अपने यहाँ नौकरी पर रख लिया . अब विवेक भगोड़ेजी का नौकर है और पेंशन बैंक से लेता है .

भगोड़ाजी अभी कहाँ हैं पता नहीं . घोटाले के हजारों करोड़ रुपये कहाँ हैं ये भी किसी को मालूम नहीं . इधर की सरकार उधर की सरकार से पूछती है कि हमारा भगोड़ा क्या तुम्हारे पास है ? जवाब मिलता है कि हमारे पास हमारा नागरिक है तुम्हारा भगोड़ा नहीं . उनसे कहा जाता है कि घोटाले की रकम ही दे दीजिये . वे कहते हैं भूल जाओ रकम को, उसीसे तो नागरिकता और सुरक्षा ली है उसने . जैसे ही यह खबर फैलती है बाज़ार ‘हाय तेरा नास जाए’ टाईप आक्रोश व्यक्त करता है, कुछ छाती कूटते हैं कुछ रोते हैं और कुछ बाबा बंगालियों से काला जादू और छू-छा करवाते हैं . पता चलता है कि भगोड़ा जी उनसे बड़े जादूगर हैं और छू-छा के मामले में बाबाओं के बाप हैं . इधर बैंकों को ज्यादा चिंता नहीं है . क्योंकि बैंक में जनता का पैसा जमा होता है . लोकतंत्र में एक दिन को छोड़ कर जनता को कोई कुछ समझता नहीं है . जनता गाँव की गरीब जवान विधवा है . उस पर सैकड़ों पाबंदियां और हजारों निगाहें हैं . इसके साथ वो भाभी भी सबकी है, जिसका मन जब भी हो होली खेल लेता है . बैंक में पैसा जमा करने के बाद थकी हारी जनता भी सो जाती है . भगोड़ा जी कर्मयोगी हैं, जागते रहते हैं . यही नहीं वे लोरी भी खूब गाते हैं . जो नहीं सोए हैं वो भी सो जाते हैं . अख़बारों में हेड लाइन छपती रहती है, सरकारें आती जाती रहती हैं, और सुना हैं भगोड़ा जी भी आते जाते रहते हैं .

 

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बुधवार, 9 जून 2021

वेक्सिन का सीज़न है ... भर लो



 

                         


लोग सुख-दुःख बांटे न बांटे, ज्ञान को गति तो मिलती ही है . वे बोले –“ वो क्या है भाई साब, अपने तो बाप-दादे के ज़माने से येई चला आ रहा है . यों समझ लो कि परंपरा है खानदानी . सामान सीजन में अच्छा और सस्ता मिलता है तो सब भर लेते हैं अपन . गेंहूँ के सीज़न में साल भर का गेंहूँ, चावल, दाल, तेल, शकर, मिर्च-मसाले सब . बाद का कोई टेंशन नहीं . ... सोना जब बीस-बावीस के भाव का था तब अपन ने भर लिया था . आज देखो ... जिन्ने नहीं भरा वो पछता रहे हैं . “

“पुराने लोग बहुत सोच समझ कर चलते थे .” हमने सहमति जताई .

“अभी वेक्सिन का सीज़न चल रहा था तो वेक्सिन भर लिए . स्टाक तो कर नहीं सकते थे इसलिए लगवाना पड़े .”

“दोनों डोज लगवा लिये आपने ? ... ये अच्छा किया .”

“दो नहीं चार डोज लगाव लिए हें अब्बी तक . घर में भी सबको तीन तीन डोज हो गए हैं .” उन्होंने छाती चौड़ी करते बताया.

“तीन तीन चार चार !! ये तो संभव ही नहीं है !? कैसे लगवा लिए !?! ... और क्यों लगाव लिए ?”

“जिनके इरादे पक्के होते हैं ना भाई साब उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं हैं अपने देश में . रहा सवाल कि क्यों लगवाए,  तो हमारे यहाँ परंपरा है भरने की .“

“अरे नियम-कायदा, सरकार किसी का तो ख्याल किया होता !!”

“सरकार तो खुद ही कहती है कि लोग परम्पराओं का सम्मान करें .”

“वो दूसरी परम्पराओं के बारे में कहती है ... लेकिन वेक्सिन !! ... आप महान हैं .”

“हमने तो रेमडीसिविर भी भर लिए थे . और टोसी भी .” वे महानता पर मोहर लगते हुए बोले .

“रेमडीसिविर कितने भरे थे !?”

“घर में तेरह मेंबर हैं . सौ इंजेक्शन थे अपने पास .”

“अगर तेरह को ही कोविड हो जाता तो भी आपके लिए अस्सी काफी थे . फिर सौ क्यों !?”

 “हमारे दादा कहते थे कि हमेशा जरुरत से थोडा ज्यादा ही भरना चाहिए . बरकत रहती है घर में . गेंहूँ मैं पंद्रह क्विन्टल भरता हूँ, जरुरत से दो तीन ज्यादा . इसलिए रेमडीसिविर भी थोड़े ज्यादा ही रखे. आदमी को पूरी सावधानी रखना चाहिए . “

“सावधानी रखना ही तो अच्छी बात है . मास्क और सेनेटाईजर का उपयोग करें तो डरने की कोई बात नहीं है .”  

“तो आप क्या समझ रहे हो हमने इस पर ध्यान नहीं दिया !? भाई साब दस हज़ार मास्क की पेटी ले ली थी हमने और सेनेटाईजर के तीन ड्रम भरे पड़े हैं अभी भी . अपन तो बेफिक्र हैं अब तीसरी लहर आए या चौथी ... कोई टेंशन नहीं .”

“भगवान न करे आपको कुछ हो, लेकिन अगर कुछ हो ही गया तो ...”

“तो आक्सीजन के सिलेंडर भी भरे हैं, तीन बेड भी हैं हाईटेक वाले. और क्या चाहिए ?”

“अब तो बस थोड़े डाक्टर और नर्स भर लेते तो कोई कसर बाकी नहीं रहती.”

“अरे ये तो सोचा ही नहीं मैंने !! अभी देखता हूँ कहीं से मिल जाएँ . सुना है कुछ डाक्टर नर्सों को सस्पेंड किया है सरकार ने “.


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सोमवार, 7 जून 2021

सरकारी तोप से भी बड़ी होती है कोपभवन की तोप


 

            कोपभवन घर के उस स्थान को कहा जाता है जहाँ कोप को खाद-पानी दे कर पुष्पित पल्लवित किया जा सकता है . हमारी कुछ किताबों में, किस्सों वगैरह से यह गलतफहमी जड़ें जमा चुकी है कि कोपभवन केवल स्त्रियों की जरुरत का स्थान है . कुछ जानकार और अनुभवी कोपभवन को स्त्रियों का हथियार तक कह देते हैं . वे यह शायद नहीं जानते कि स्त्रियों को प्रायः हथियार की जरुरत नहीं होती है . उनकी जुबान छूरी से तेज होती है और कभी कभी तलवार से भी अच्छा काम करती है . दरअसल कोपभवन स्त्रियों का अहिंसक असहयोग आन्दोलन है . जिसके जरिये गाँधी जी ने जालिमों को कई बार झुकाया है तो एक पालतू बन्दे को सूर्य नमस्कार के लिए आढ़ा-टेढ़ा करना कौन सा बड़ा काम है . हिम्मत-ए-जानना, मदद-ए-जमाना . कोशिश करने वालों की कानून भी मदद करता है . लोग गबन-घोटाले, यहाँ तक कि हत्या करके भी बाइज्जत बरी हो जाते हैं . कोपभवन कल्चर की एक खास बात यह है कि मामला कितना ही बिगड़ा क्यों न हो एक दो दिन में सुलट जाता है . क्योंकि स्त्रियाँ कुदरती तौर पर समझदार होती हैं . वे कोप उतना ही करती हैं जितने में उनकी सुन्दरता को आंच नहीं आए . इसलिए सुविचारित कोपभवन में आइना नहीं होता है . कोपभवन वास्तु-विशेषज्ञ के अनुसार फलदायी कोपभवन के लिए आग्नेय कोण यानि पूर्व-दक्षिण कोने पर गद्दा लगा बिस्तर होना चाहिए जिसमें साधिका अपने केश खोल कर और यथासंभव फैला कर औंधी पड़ी रह सके . पूर्व दिशा में कोई खिड़की हो तो उसके पट बंद हों और गहरे रंग के परदों से पटे हों, ताकि सूर्य देवता की परछाई भी न पड़े . अच्छा है कि इन दिनों घरों में रौशनदान नहीं होते हैं इससे कोप के दृढ़ निश्चय भाव को लम्बे समय तक स्थिर बनाए रखने में सहायता मिलती है . दृढ़ निश्चय कोप को तोप में बदल देता है . अकबर इलाहाबादी ने कहा है “खींचों न कमानों को, न तलवार निकालो ; जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो. “ यहाँ जिस तोप का जिक्र है उसे छोटी तोप समझें पाठक, यानी तोप की छोटी बहन ‘साली तोप’ . जो अख़बार में अपना फोटो देख कर पट सकती है  . कोपभवन की तोप सरकारी तोप से भी बड़ी होती है . एक बार सरकारी तोप फुस्स हो सकती है लेकिन कोपभवन की तोप के गोलों में डबल बारूद भरी होती है .

                 कई बार केस बिगड़ जाते हैं और मामला फेमिली कोर्ट तक पहुँच जाता है . इस तरह के मौकों पर मोहल्ले के एक नीलेपीले नाम के वकील साब मददगार बन कर हाजिर होते हैं . हालाँकि महीने में दो तीन बार खुद उन्हें कोपभवन की जरुरत पड़ती है . नीचे श्रीमती नीलेपीले का अपना निजी कोपभवन है लेकिन लेडीज कोपभवन में जाना एडवोकेट नीलेपीले की शान के खिलाफ है . एक दो बार किसी होटल के कमरे में कोपशांति कर आए लेकिन ज़माने का मुंह खुलने लगा . सो घर की दूसरी मंजिल पर छत खाली पड़ी थी, सोच अपना भी एक निजी कोपभवन हो तो कोप का मस्त मजा आ जाए . सो उन्होंने एक बढ़िया सा कमरा तैयार करवाया . सब अंदर ही बनवाया यानी अटैच्ड टॉयलेट, किचन, क्रोकरी, गैस टंकी, मसाले, बियर-विस्की, टीवी, फ्रिज, म्यूजिक सिस्टम वगैरह वगैरह . एक लेंड लाइन फोन भी, क्योंकि कोप काल में प्रोटोकोल के हिसाब से मोबाईल फोन स्विच ऑफ रखना जरुरी है . कोप पीड़ित के लिए कोई चेक-इन चेक-आउट टाइम तो होता नहीं . एक बार गए तो गए . तीसरी मंजिल का कोपभवन हवादार होता है जिससे फेफड़े भांगड़ा करने लगते हैं और छाती जो है छप्पन-सत्तावन इंच के बीच ठुमकने लगती है . कोपभावनों को स्टार देने की न तो परंपरा है न इजाजत, पर नीलेपीले साहब ने अपने इस निर्माण को ‘पांच सितारा नवजीवन कक्ष’ नाम दिया है .

                      पैसा बहुत लग गया है निर्माण में लेकिन किसी पार्टी के भक्त होने के कारण उनके लिए महंगाई स्वीकारना ऐसा है जैसे अपने हाथों, अपने जूते से अपना सर पीटना . कोप के मजे लेने निकले थे अब दुखने लगा . पैसा बड़ी कुत्ती चीज होता है, ज्यादा खर्च हो जाए तो आदमी कटाने दौड़ता है . लेकिन संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई हल नहीं . एडवोकेट नीलेपीले ने एक परचा छपवा कर आसपास के मोहल्लों तक में बंटवा दिए हैं कि ‘लक्जरी कोपभवन उपलब्ध है ‘ . साथ में एक शेर भी छपवाया है की ‘जब तोप मुकाबिल हो तो एक पर्सनल कोपभवन में आइए’ . सी द डिफ़रेंस . मरदाना कोपभवन तीसरी मंजिल पर होता है .  

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*जवाहर चौधरी 

BH26, सुखलिया (भारतमाता मंदिर के पास )

इंदौर- 452 010  


शनिवार, 5 जून 2021

जिन्हें चिंता है हिंदी की



जिन लोगों को चिंता-डायन खाये जा रही है कि हिंदी और हिंदी साहित्य का आगे क्या होगा, उन्हें जान कर शायद अच्छा लगे कि हिंदी में अब लेखकगण गरम कढ़ाही में बूंदी की तरह ‘छन’ रहे हैं . एक घान खपता नहीं है कि दूसरा लाल-पिला हो कर झारे में झूलने लग जाता है . जिधर देखो उधर ज्ञान के लड्डुओं की लुड़कन है, इतनी कि साहित्य प्रेमियों को खिड़की खोलने से पहले इंसूलीन याद आ जाए . था कोई जमाना जब लेखक गूलर के पेड़ पर फूला करते थे . अब अभिमन्यु कविता का व्याकरण जान-समझ कर पैदा हो रहे हैं . पुराने समय की बात और थी साठ साल आदमी हिन्दी-सेवा का संकल्प लेने में खर्च कर देता था . सेवानिवृत के बाद वे इसलिए लिखने लग पड़ते थे कि उन्हें एक तो कलम घिसने की  आदत रही होती है, दूसरे दफ्तर से पार की गई स्टेशनरी का कुछ तो भी कर लेना उनकी जिम्मेदारी थी वरना अपराधबोध होता . साठ वर्ष का तपा-पगा आदमी दो चार साल में पांच-दस बोतल स्याही बर्बाद करके मुक्तिधाम गामी हो जाता है तो हिंदी प्रेमियों का चिंता होना स्वाभाविक है . लेकिन अब ऐसा नहीं है, बच्चा मानो शेर कहता हुआ पैदा होता है . अपने राजकुमार होते तो कहते – ‘आपके पैर बहुत सुन्दर हैं, इन्हें जमीन पर मत रखियेगा वरना दस बीस लड्डू पिचक जाएँगे .

चलिए एक बाबा-लड्डू की बात बताते हैं . वे सुबह पौने चार बजे उठ जाते हैं और फारिग हो कर बाकायदा लम्बी वाक पर निकल जाते हैं . उनकी साहित्य साधना में ‘सुबह का’ मार्निंग वाक बड़ा सीरियस मैटर है . इसलिए कि सुबह के अँधेरे में देसी कुत्ते और देसी गुंडे कब लपक लें पता नहीं . लेकिन बाबा अपनी पर्सनल सेहत के लिए नहीं लेखन की सेहत के लिए कुछ भी करेगा, मतलब करता है . मान लीजिये उन्हें सड़क के किनारे उच्चशिक्षा वाली प्रसिद्द कुतिया सोई पड़ी मिली तो उसे दन्न से पत्थर मार देंगे . पहले लात मारा करते थे लेकिन अब अपनी सरकार है, विकास फटाफट हो रहा है तो अब वे हर कहीं स्वदेशी पत्थर को प्राथमिकता देते हैं . बहरहाल, पत्थर लगते ही कुतिया ‘कविता...आ-कविता...आ’ चिल्लाती दुम दबा कर भाग जाती है . बस बाबा का मैटर तैयार सट्ट से, आज की साहित्य साधना बिंदास नक्की . घर पहुँचते ही कुतिया की आह से उनका गान निकल पड़ेगा जैसे बड़े बड़े वादों के पेट से सॉरी निकल पड़ता है . एक बार उनको मरी गाय दिखाई दे गई . बाबा को झटका लगा, मरी गाय को देखता सोचता खड़ा रहा . आधा घंटे में उनके साहित्यिक बाड़े में मरी गाय विचार बन कर जिन्दा हो गई . अब बाबा दिन भर इसको दुहते रहेंगे और शाम तक पनीर तैयार कर लेंगे . किसी की हो न हो गाय आज बाबा की माता है . बाबा आल सीजन कुछ भी करेगा, गोबर उठाना  पड़े तो उठाएगा . जय माता दी .

लड्डू गोल होता है, धरती गोल होती है, अमीरी गोल होती है, कानून गोल होता है, रूपया गोल होता है, लड्डू के चक्कर में बड़े बड़े गोल होते हैं .  .... तो ... सो जा राजकुमारी सो जा ... चांदी का बंगला ... सोने का जंगला ... सो जा राजकुमारी सो जा . ...

 

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मंगलवार, 1 जून 2021

हरिया को डर लगता है !


 

“ अबे तू कायको किच किच करता है रोज रोज सूबे सूबे !! गरीब हे तो गरीब के माफिक रेना चईए ना तेरे को ! रोज भेजा खाता हे एकी बात के लिए कि नेतेलोग ईमानदार होना चईए ! कायको होना चईए रे ईमानदार ?!  तेरे को मुनीम रखना है क्या अपनी फेक्टरी में ? “ पेलवान हरिया पे सटक लिए ।

“आपी लोग केते हो पेलवान जी कि देस के लिए अच्छा सोचो तो मेने सोचा कि इस्से अच्छी बात ओर क्या हो सकती हे कि नेतेलोग  ईमानदार हों ।“

“ तेरे को क्या लगता हे कि नेतेलोग ईमानदार नि हें !?”

“ मेरे को क्या मालूम ! वो इसको चोर बोलता हे ये उसको ! अब तो लोग डाकू तक बोल रे हें ! “

“ तू मगज़मारी मत कर । तेरे को क्या मतलब ऊंची पोलटिक्स से ? तू वोट दे देना, बस । ... समजा कि नि समजा ?

“ पेलवान कल को अगर इन्ने देस लूटा तो पुलिस हमको पकड़ के अंदर कर देगी कि तुमने गलत आदमी को वोट दिया । ... फिर !?

“ अबे ! ऐसा कहीं होता है !!”

“ होता हे ना .... एक बार मेरा छोरा छोटी सी चोरी कर के भाग गया तो पुलिस ने हमको अंदर कर दिया । बोले छोरा खराब निकला तो ज़िम्मेदारी तुमारी भी हे !! ...डर लगता हे पेलवान ।“


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गुरुवार, 27 मई 2021

पहलवान रोया, ... चाँद रोया तारे रोये साथ साथ


 

वह बड़ा पहलवान है, ओलंपियन कहते हैं उसे, दुनिया भर में ताल ठोकता घूमता रहा है . उसने अपने से छोटे को पप्पू समझ खूब पीटा, इतना कि उसकी मौत हो गई . खबर है कि गिरफ़्तारी में फफक फफक कर रो रहा है . पुलिस तक की पत्थर दाल पसीज रही है . चाय-पानी का पूछती है तो वो रोने लगता है . पहलवान जान गया है कि उसे जो भी मिला है अब तक सब छिनने वाला है . यह सोच सोच कर वह रात रात भर रोता है . उसके साथ चाँद रोया, तारे रोये साथ साथ . उसके रोने की खबर ब्रेकिंग न्यूज में भड़भड़ाई तो लोगों में सहानुभूति की लहर सांय-सांय करती बहने लगी . महिलाओं का तो ऐसा हैं कि रोते हुए आदमी को देखती हैं तो तपे मोम सी पिघलने लगती हैं . पहलवान क्या रोया देश की आधी आबादी दो नैनों में आँसू भरे निंदिया से दूर चली गई . नौजवानों ने देखा तो पहले पैग के बाद ही सोच में पड़ गए, पहलवानी में जाएँ या नहीं जाएँ,  टू बी इन पहलवानी ऑर टू बी इन पकौड़ा बिजनेस ! कोई अगर लाईव पांच-सात मिनिट धार धार रोए तो सहज ही सोचना पड़ता है कि उसने रात भर में रो रो कर कितने तकिये गीले कर दिए होंगे ! अकेला आदमी बेचारा, वो भी पहलवान ! कैसे रोया होगा ! कायदे से रोने के लिए मिनिमम एक कन्धा लगता है . किसी शायर ने कहा है – “आपके पहलू में आ कर रो दिए ...” सो कुछ लोग रोने के लिए पहलू पसंद करते हैं . यों देखा जाए तो जिसके पास पहलू होता है उसी के पास कन्धा भी होता है . एक के साथ एक फ्री . वो तो अच्छा है कि मीडिया  ‘दिशाहीन’ नहीं है वरना दीपक रसिया कन्धा खोजता और ब्रेकिंग न्यूज में पहलू दिखाता . पहलवान की बिगड़ी को और बिगाड़ देता . या फिर दो तीन शामें इसी बात को लेकर बहस बैठती कि बिना पहलू के कोई पूरी रात कैसे रोया होगा ! और आखिर में बहस इस बात पर कि ‘सदी का रोतला पहलवान’ कौन है !?

आप में से कईयों को यह प्रश्न अवश्य सता रहा होगा कि आखिर दहाड़ने वाला पहलवान रोया क्यों ? जो मामूली गुस्से में हड्डियाँ तोड़ दे वो रोने के लिए आँसू किधर से लाया आखिर ! बात इस पर होनी चाहिए . तो जान लीजिये कि पहल करने वाला पहलवान होता है . और पहल करने के लिए कोई काम छोटा नहीं होता है . कई बार छोटे छोटे काम बड़े काम के होते हैं . लोग जब आपके काम के कारण लगातार कुपित हो रहे हों तो रुदन से ही अपनी सफाई दी जा सकती है . समय समय पर रो कर रुदन को गरिमा प्रदान करना भी बड़े पहलवानों का काम है . रोना सिर्फ काम नहीं कला भी है . सच बात तो यह है कि रोना एक दांव भी है . सही मौके पर सही मात्रा में कोई दांव लगाये यानी रोये तो दो चार आंसू हड्डी तोड़ पहलवान को आर्थोपेडिक सर्जन का सम्मान दिलवा सकते हैं . टीवी वालों ने माइक आगे कर पूछा – “ आपने रोने की यह कला कहाँ से सीखी है ?”  पहल-वान बोला –“जीवन की कसरत सब सिखा देती है . बूढ़े उस्तादों से खूब सिखने को मिला है . दांव सही लग जाए तो पूरे देश को चित किया जा सकता है .”

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बुधवार, 19 मई 2021

लांग लिव सुल्तान

 


   शिकार से लौटने के फ़ौरन बाद सुल्तान ने मारे गए जानवरों के लिए शोक व्यक्त किया . दरबारियों ने कहा जो मर गए वो तो मुक्त हो गए लेकिन जो बचे हैं सुल्तान का शोक उनके लिए एक भरोसा है . राजनीति में भरोसा गले में  बंधा ताबीज होता है जिसमें चूहे की लेंडी भरी हो तो भी सुरक्षा का भाव पैदा हो जाता है . सुल्तान जब भी किसी को मारते हैं या मरने के लिए छोड़ देते हैं, बाकायदा शोक व्यक्त करते हैं . उन्हें पता है कि शोक व्यक्त करने से रियाया में उनके प्रति आदर बढ़ जाता है . इसलिए एक अन्तराल से शोक व्यक्त करते रहना उनकी सियासी जरुरत है . अपने शोक को रियाया तक मुकम्मल तरीके से पहुँचाने का उनका पुख्ता इंतजाम है  . कैमरा मेन से लगाकर चैनल मालिक तक उनके शोर-संचार माध्यम हैं  . वे सुल्तान के शोक को मुल्क के लिए हर बार गैर मामूली घटना की तरह पूरे चिल्ला-चिल्ली  के साथ पेश करते हैं . कई बार महज शोक व्यक्त करने के लिए सुल्तान को जानें लेना पड़तीं हैं . बिना किसी के मरे या मारे शोक व्यक्त करना व्यावहारिक भी तो नहीं है . आज उन्होंने अपने शोक सन्देश में कहा कि जान इन्सान की जाए या जानवर की, उनके लिए एक बराबर है . सुल्तान का दिल बहुत बड़ा और मिज़ाज बहुत नरम है, वह इन्सान और जानवर में कोई फर्क नहीं करता है . जब कभी भी जानवर मारे गए उन्होंने समझा जैसे कि इन्सान मारे गए हों . और जब जब इन्सान मारे गए उन्होंने माना कि जानवर मारे गए . चाहने वाले सब सुल्तान से इत्तफाक रखते हैं, लेकिन उनके खानसामा की राय कुछ अलग है . वह रसोई में सिर्फ और सिर्फ जानवरों को ही पकाता है . इस वक्त भी जब सुल्तान शोक व्यक्त कर रहे हैं खानसामा अपने काम में व्यस्त है .

सुल्तान के दिल की बात कोई नहीं जानता है . जब भी मुल्क से ‘दिल की बात’ के नाम पर वह कुछ कहता है तो दिल अपनी सेक्रेटरी के पास मंथली मेंटेनेंस के लिए छोड़ आता है . बात अपनी जगह, दिल अपनी जगह . दिल के जरिये मोहब्बत की जा सकती है, राजनीति अच्छे बुरे दिमाग का मामला हैं . फिर भी मिडिया के मार्फ़त समझाया गया कि जब जब सुल्तान दिल की बात करते हैं तो इसका मतलब रियाया यह माने कि वे मोहब्बत कर रहे हैं . ऐसे में रियाया को चाहिए कि मोहब्बत में सच-झूठ, सही-गलत, वादा-सौदा वगैरह कुछ नहीं देखे . दुनिया जानती है कि जंग और मोहब्बत में सब जायज होता है . सुल्तान अगर मोहब्बत में कोड़े भी लगवाए तो रियाया को इसमें दर्द नहीं मजा महसूसना चाहिए . यही सुल्तान प्रेम है और सुल्तान प्रेम ही देश प्रेम है .  शायर जिगर मुरादाबादी ने कहा है – “ये इश्क नहीं आसां इतना समझ लीजै ; एक आग का दरिया है और डूब के जाना है “. इधर इश्क में जब सुल्तान मुकाबिल है तो आग का दरिया नहीं, आग का समन्दर है . सुल्तान मादक बांसुरी बजा रहा है और मुल्क में उसके प्रति इश्क उफान पर है . रियाया इतनी बड़ी तादाद में कुर्बान हो रही है कि दफन के लिए सवा गज जमीं भी नसीब नहीं है . एक कब्र में दो दो मुर्दे नामालूम पड़ौसी बने दफ़न पड़े हैं. जो कभी शिकायत करते थे कि पैर फैलाओ तो सर टकराता है उन्हें मालूम पड़ गया कि सिस्टम में मुर्दे फोल्ड भी किये जा सकते हैं . सुल्तान की मोहब्बत के ये बीमार जांनिसार हैं . महंगाई से, बेकारी से, कंगाली से, कर्ज से, मर्ज से या लाठी-डंडे-गोली से चाहे मर जाएँ मगर जब भी दुआ करनी हो हाथ उठा कर यही कहेंगे ‘लॉन्ग लिव सुल्तान’ .



             

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

बेमारी-बाज़ार में राम-देसी-वीर

 


                             

चार-पांच बार फोन लगाया तब कहीं जा कर घंटी बजी . और बजी तो ऐसी बजी कि बजती ही रही . आखिर उधर से किसी ने फोन उठाया, -‘हेलो ..’

“हाँ हेलो, ... हऊँ गनपत बोल रियो हूँ खजूर खेडी से ... जे राम जी की तमारे. में कंईं के रिया हूँ कि अपने इन्जेसन चिये, वो कंईं केवे राम-देसी-वीर, कोरोनो को इन्जेसन. वाटसेप पे तमारो नंबर आई रियो हे कि तम बेचीं रिया हो भाव का भाव में. भोत अच्छो काम करी रिओ हो तम .”

“मिल जाएगा, पेशेंट कहाँ भर्ती है ?” उधर से आवाज आई.

“भरती काँ करी रिया हें !! जागो-ई नी हे कंईंपे . ओर तम देखो के अस्पताल में बेड-ई मिले हे बस . इलाज तो कोई हे नि करोनो को. खली बेड काई पईसा ले रिया हे सबे. तो बेड तो अपना घरेज हे. तम तो इन्जेसन को भाव बोलो. कितरा को हे ?”

“पच्चीस हजार का है.”

“अरे भई !  सेकड़ा का भाव बतई रिया हो कंईं ! !”

“सेकड़ा का नहीं एक का भाव है.”

“तमारे मेसेज में तो लिख्यो थो कि भाव का भाव मेंई दई रिया हो !  ...”

“पच्चीस हजार में खरीदा है दादा हमने, भाव के भाव में ही दे रहे हैं. कोरोना बाज़ार में आओ तो पता चलेगा तुमको भाव ... पैंतीस हजार में भी नहीं मिल रहा है .”

“एक के साथै एक फीरी हे कंईं ?”

“ये तेल-साबुन नहीं है दा साब, इंजेक्शन है रेमडेसिविर. जिंदगी बचती है इससे. संजीवनी बूटी है.”

“अरे मारकीट में सब जागो पे मिल रिया हे हो. तम ठीक भाव लगाओ तो लई लाँ, असो कंईं करो. ठीक भाव लगाव तम .”

“ भाव ठीक है दादा, पच्चीस का ही मिलेगा .”

“म्हारा छोरा होन जाए सेर में रोज, भाव मालम हे मके. इत्तो भाव नी हे.”

“तो जहाँ ठीक भाव में मिल रहा है वहाँ से ले लो, मेरे पास नहीं है .” फोन कट गया.

घरवाली पास ही बैठी थी. गनपत बोले –“लुटेरा होन हें सेरवाला. आपण बी जावां सेर में तो अपनो नाज ओर सब्जी भाजी कम भाव में लई ले ओर काटी पिटी ले तो पईसा बी कम मिले ! चोट्टा होन बड़ी बड़ी बिल्डिंग बनई ने बैठ्या हे पन पेट नी भरयो.”

“सबके देखि रिया हे राम जी. अपने कईं करनो, जो करेगा वो भरेगा.” पत्नी ने तसल्ली दी .

“देखजे अबी फिर करेगा फोन कि ले लो बीस में. ... बीस में दे तो ले लाँ कंईं ?”

“हूँ कंईं केऊँ ... जसा तमारी समज पड़े. ... एक इन्जेसन में हुई जायगो ? ... कम तो नी पड़ेगा ? ... बेन-बेटी होन के बुलावगा तो सबे आयगा फिर . ”

“पुर जाएगा हो... यां अपने सरकारी अस्पताल की नरस को बोल दांगा कि लगई दे थोड़ो थोड़ो सबको. कोरोनो माता हे ये तो, हाथ जोड़ लांगा, माथा टेकी दांगा, मानी जाएगी. देवी देवता होन फूल नी फूल की पाँखडी से-ई राजी हुई जाए. मनक में सरदा होनी चिये बस .” गनपत ने ऊपर देख कर हाथ जोड़े.

“पांच छोरी अने पांच जंवई दस तो येई हुई ग्या. ओर बच्चा होन को ले के अई ओर उनके नी लगवावगा तो बुरा मानेगा सब .सबके लगवाई रिया हो तो उनके बी लगवाई दो .”

“गेली की गेली रेगी तू तो, रोज टीवी देखे पन समजे कुछ नी. चिल्ला चिल्ला के बोली रिया कि पेतालीस से उप्पर वाला को लगवानों जरुरी हे . अट्ठारा साल से कम के बच्चा होन को जरुरत नी हे इन्जेसन की .”

“ अब म्हारे कंईं मालम ! क़ज़ा कसी बेमारी बनई हो भगवान ! उम्मर देखी ने चेंटे ओ बई ! ... दो जन अपन बी तो हाँ, अपने नी लगेगा कंईं ?” घरवाली ने पूछा .

“अपने कईं करनो अब ! नाती-पोता सब देखि लिया, अब कईं काम अपनो ! ...एं ?”

“लगी जाए तो लगई लो, तीरथ करी लांगा संगे संगे ... पुरी जाएगा एक इन्जेसन ?”

“तू फिकर मत कर ... नरस से बोली दांगा के पानी मिलई दे थोड़ो सो. अपनों ब्योहार अच्छो हे उके संगे. अरे परसाद जसो हुई जायगो न वा. करोना माता का मान राइ जायगो तो अपनों घर छोड़ी देगी और कंईं. धरम को काम सोची समजी ने करनो पड़े. घर की बात हे कोई हिसाब तो देनो नी हे सरकार को.”

“दस दस में देता तो अपन दो लई लेता मजे में, भाई-भावज को बी बुलवाई लेती में तो .”

“ फोन तो आयो नी अब लक ... फिर लगाऊं कंईं ?”

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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

दिमाग प्रतिबंधित है पार्टी में

 






                       
“हमारी पार्टी को लेकर ऐसा क्या लगा आपको कि कार्यकर्त्ता बनना चाहते हैं ?” अध्यक्ष जी ने सदस्यता लेने आए पवन कुमार विश्वबिहारी से पूछा .

“पार्टी के बारे में काफी सुना है मैंने इसलिए मैंने सोचा सर ...”

“सर नहीं श्रीमान या महोदय कहें .” अध्यक्ष जी ने टोका .

“जी महोदय, ... मैंने बहुत सोचने के बाद तय किया कि आपकी पार्टी सबसे अच्छी है . देश प्रेम आपकी पार्टी में कूट-कूट के मार-मार के भरा हुआ है . और अनुशासन भी गजब का है . आप बन्दे को जिस कुर्सी पर भी बैठा देते हो वो उस पर ही बढ़िया काम करने लगता है, चाहे उसमें उस कुर्सी की योग्यता हो के न हो . ये चमत्कार किसी और पार्टी में देखने को नहीं मिलता है इसलिए मैंने सोचा कि ...”

“सोचते बहुत हो !! ... खुद ही सोचते हो अपने आप या कोई बौद्धिक देता है ?” अध्यक्ष जी ने नाक पर चश्मा  चढाते हुए पूछा .

“जी महोदय, मैं ही सोचता हूँ . मतलब विचार करता हूँ . विचार करना मुझे बहुत अच्छा लगता है . विचार करने से तरह तरह के विचार आते हैं . बहुत से विचार राष्ट्रीय भी होते हैं इसीलिए मैं राजनीति में आना चाहता हूँ .”

“राष्ट्रीय सोच लेते हो ! ऐसा कब कब सोचते हो ?”

“वैसे तो सोचता ही रहता हूँ ... जैसे मछली का पता नहीं होता है कि वो कब पानी पीती है वैसे विद्वानों का भी पता नहीं चलता है कि कब सोचते हैं . यों समझिये कि चलता ही रहता है .”

“सोचने की फेक्ट्री हो ! पार्टी के बारे में कब से सोच रहे हो ?”

“अभी दो तीन महीने से सोच रहा हूँ कि आपकी पार्टी ...”

“एक बार सोचना शुरू करते हो तो कितनी देर तक सोचते रहते हो ?”

“यों समझिये कि स्टेशन से गाड़ी छूटती है तो फिर नॉनस्टॉप चलती है , सुपरफ़ास्ट ..”

“नॉनस्टॉप ! सुपरफास्ट ! ... सोच कर बताओ . कैसे सोचते हो .”

“महोदय ! ... वो क्या है ... मुझे कुछ ठीक से ... जैसा आप समझें ... मतलब मेरा ... इस समय कुछ पक्का नहीं है .”

“हिंदी में सोचते हो या अंग्रेजी में ?”

“ सोचते तो अंग्रेजी में हैं किन्तु बोल नहीं पाते इसलिए फाइनल ड्राफ्ट राष्ट्र भाषा में ही निकालते हैं .”

“सोचने के आलावा और कोई काम करते हो ? ... नौकरी वौकरी ?”

“नौकरी अब कहाँ है महोदय ! ... गए ज़माने . चाय का ठेला लगता हूँ .”

“फिर क्या दिक्कत है !”

“दिक्कत कुछ खास नहीं... सोचता हूँ कि चाय बेच रहा हूँ तो पार्टी भी ज्वाइन कर लूँ . परम्पराओं  का सम्मान करने वाली है आपकी पार्टी .”

“ फिर सोचा !! हर समय सोचते ही रहते हो !!”

“हाँ ... चाय बनाने में दिमाग तो लगता नहीं है . चाय उबलती है उसके साथ ही विचार भी .”

“आगे क्या चाय बेचना छोड़ दोगे ?”

“महोदय मैंने तय किया है जब तक दूसरा कुछ बेचने को नहीं मिलेगा चाय ही बेचता रहूँगा .”

“सोचते हो और तय भी कर लेते हो !!”

“जी महोदय ... एक बार सेवा का मौका दें .”

“देखो युवक, शरीर को मजबूत बनाओ, बलशाली बनों लेकिन सोचने के चक्कर में मत पड़ो .”

“महोदय मेरा दिमाग तेज है पार्टी के काम आएगा.”

“ये तुम सोचते हो लेकिन पार्टी को दिमाग और दिमाग वालों की जरुरत नहीं है . खोपड़ी अगर ठोस यानी ठस्स हो और ऊपर सींग उगे हों तो ले सकते हैं पार्टी में .”

“फिर दिमाग का क्या करूँ महोदय !”

“मंदिर जाते हो तो जूते बाहर उतारते हो ना ?

“मंदिर तो नंगे पैर जाता हूँ ... आजकल जूते चोरी बहुत होते हैं ना .”

“हूँ ... पार्टी में जब भी कोई आता है नंगे-दिमाग आता है . ये बात समझ लो युवक .” पार्टी को तुम्हारा शरीर चाहिए दिमाग नहीं.”

“सिर्फ शरीर की भर्ती करते हैं आप !?”

“हाँ ... वो भी तब तक, जब तक कि रोबोट पर्याप्त मात्र में बनने नहीं लगते . दिमाग प्रतिबंधित है इसलिए हमारी पार्टी मजबूत है.”

“महोदय मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है ... सोच कर बाद में बताऊंगा .”

“ फिर सोच !! तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता, तुम चाय बेचते रहो .”

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सोमवार, 29 मार्च 2021

अश्वत्थामा हतौ ...

 




           किसी ज़माने में झूठ बोलने वाले को राजा दरबार में सबके सामने छड़ी से पिटवाया करता था . गुनाह यह होता था कि झूठ उसने क्यों बोला . झूठ ऐरे गैरों के बोलने की चीज नहीं है . मामूली मुँह झूठ के वजन से खुद ही पिचक जाता है . आम आदमी सीधा-सच्चा और चरित्रवान होना चाहिए . चरित्र एक तरह का बारकोड होता है, ऊपर से कुछ भी समझ में नहीं आए लेकिन अन्दर एक एक लेनदेन दर्ज होता है . लोग घरों में रहते दिखाई देते हैं लेकिन असल में वे बाज़ार में रहते हैं . बाज़ार की पहली शर्त सफलता है . चिंता की बात यह है कि हर कोई झूठ बोलने लगेगा तो झूठ की मार्केट वेल्यू क्या रह जाएगी . घार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धा पूर्वक पचा लिया . इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं . लोगों को पूरे विश्वास के साथ झूठ पर कान देना चाहिए. झूठ सुनना और उस पर सहमत रहना देशभक्ति है . जो झूठ को झूठ मानते हैं वे गलत तरीके से शिक्षित हैं और कम्युनिस्ट भी हैं . देशभक्ति को गरिमा प्रदान करने के लिए इनसे सख्ती से निपटने की जरुरत है . हाथों में लाल रुमाल ले कर, सच के नाम पर आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ने की इजाजत इन्हें नहीं दी जा सकती है .

              कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं . जिस राज्य में झूठ विकलांग रह जाता है वहां की सरकार निकम्मी कहलाती है . झूठ को पैर लगाने का काम राजनीतिक कौशल से ही संभव होता है . जब चलते धर्मयुद्ध में कहा गया कि “अश्वत्थामा हतौ ...” तभी से राजनीति में झूठ को दौड़ने वाले पैर मिल गए . जिस झूठ में प्रभु का समर्थन हो वो संसार का नियम हो जाता है ... और नियमों से ही व्यवस्था बनती है . जो व्यवस्था में नहीं हैं वो कितने ही बड़े क्यों न हों डस्टबिन के लायक हैं . हरी नीली बास्केट में कितने सफ़ेद हाथी अपने पीले दांत बगल में दबाए पड़े हैं किसी को पता है !?

             समझदार कह गए हैं की शिखर पर पहुँच तो सकते हैं लेकिन शिखर पर बने रहना बहुत मुश्किल है . लोकतंत्र के चलते राजा बने रहना तो और भी कठिन है . हर दूसरी सभा में छाती ठोक के ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ कहना पड़ता है . इसके लिए सवा किलो का कलेजा लगता है . वक्त जरुरत जब बयान देना हो, कोई वादा करना हो, कोई आंकड़ा बताना हो यानि विकास वगैरह का,  तो झूठ के बिना बड़ी दिक्कत हो जाती है .  हर मौके के लिए अलग रंग, अलग ढंग का, अलग वजन का झूठ चाहिए होता है ! कहीं सफ़ेद झूठ, कहीं ग्रे, कहीं काला, हरा, पीला, लाल झूठ . कभी इतिहास का, कभी वर्तमान का और कभी भविष्य का झूठ . कभी धर्म का, कभी विज्ञान का, कभी भूख, कभी गरीबी, कभी दान, अनुदान का . ज्ञानी कह गए हैं कि संसार मिथ्या है तो इसके मायने अब समझ में आ रहे हैं . राजनीति का बड़ा सच छोटे से राजनीतिक-झूठ में छुपा हुआ होता है . राजनीति में झूठ एक परफोर्मिंग आर्ट है . जनता भी वोट देने से पहले परफोर्मेंस देखती है . कोई चीख कर, चिंघाड़ कर, मटक मटका कर, अंडे को कबूतर में और आदमी को गधे में बदल देता है वही अव्वल आता है . झूठ का जादू मिडिया में चढ़ कर बोलता है . इसीलिए जनता को यानि हम लोगों को नेता नहीं जादूगर चाहिए . जी बोल दे ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ और पूरी बाज़ी पलट जाए .

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सोमवार, 15 मार्च 2021

दुखी होने का क्या लोगे ?

 

         


                    

                 पुराने चावल कहाते रहे तो पन्नों में बासमती दर्ज हो गए . सम्हाल ठीक से नहीं हुई तो इल्लियाँ पड़ गयीं और कब बास मरने लगे पता ही नहीं चला . राष्ट्रीय पार्टी का ठप्पा होने के कारण उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है . विपक्ष में हैं और उनके रहते  जनता दुखी न हो यह डूब मरने की बात है . इतिहासकार लिखेंगे पार्टी इसलिए डूब गई कि वो जनता को दुख का अहसास नहीं करा सकी ! हालाँकि उनके पास पीढ़ियों का अनुभव है कि दुःख में से सुख कैसे निकला जाता है . कहा जाता है कि डर के आगे जीत है . इसका राजनितिक मतलब है जो डराने में सफल हो जाता है वही जीतता है . विडम्बना ये है कि डरा वही सकता है जो खुद डरा हुआ नहीं हो . महापुरुष गब्बर सिंग प्रवचन दे गए हैं कि जो डर गया वो मर गया . लेकिन इससे डर ही बढ़ता है निडरता नहीं आती . उस पर एक एक करके जय और वीरू पाला बदलते जाएँ तो सीने का नाप बदल जाता है, इधर भी और उधर भी . दाढ़ी बढ़ाने से आत्मविश्वास बढ़ता है लेकिन सुना है कम्बख्त गर्लफ्रेंड नहीं मानती . जिन्हें पहाड़ जैसा कुछ चढ़ना है उन्हें किसी भी तरह की यानी पार्ट टाइम या फुल टाइम गर्लफ्रेंड से दूर ही रहना चाहिए . अनुभवी बताते हैं कि उसका रिचार्ज करवाते करवाते अच्छा भला आदमी पचास का हो जाता है . कोई शायर कह गए हैं कि “खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए;  रहा दिल में हमारे ये रंज-ओ–अमल, न इधर के हुए न उधर के हुए ” .  लेकिन अनुभव जलेबी है उज्जैनी मावे की, खाए बगैर कोई मानता भी नहीं है . गुरु कहते हैं कि राजनीति भरवाँ बैंगन नहीं हैं दादी के हाथ के, कि आए बैठे और मजे ले के डबल सटका  गये . इतना आसन भी नहीं है कि जनता से सीधे पूछ लें कि भईया दुखी होने का क्या लोगे !  आजकल लोग सयाने हो गए हैं, ज्यादा कुरेदो तो शेरवानी और लाल गुलाब दिखाने लगते हैं .

                  इधर जानता अपने को सुखी महसूस करने पर अमादा है . औंधा लटका के कोई खाल भी खिंच ले तो थेंक्यू कहने पर उतारू . पता चलता है हर आदमी जबरा फिलासफर है . मानता है सोचो तो संसार में दुःख ही दुःख है नहीं सोचो तो सुख ही सुख . सारी दिक्कत सोचने की वजह से है . सोचने का सम्बन्ध ज्ञान से है और ज्ञान दुकान पर मिलता है . दुकान का नाम टीवी और इंटरनेट है . ये सुख करता दुःख हरता हैं . राजनीतिशास्त्र में लिखा है कि  इन्हें नेवेद्य लगाओ तो प्रसन्न होते हैं या फिर इनकी नाक दबाओ तो मुंह खुलते हैं . राजनीति नकार को स्वीकार में बदलने की कला है . सो पूरी टीम को व्यवहारिक होना चाहिए . नाच मेरी टीवी-बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा . जिसे लोग चैनल समझते हैं वो दरअसल चीयर गर्ल है . उधर बल्लेबाज झूम के शाट लगाते हैं इधर गर्ल्स चेयर से उछल उछल जाती हैं . दर्शकगणों  आप सोचो मत, कोई पूछे तो बताओ कि मजे में हो . यह समझ लो कि खुश रहना ही देशप्रेम है . टीवी वालों का क्या है ... रस्सी, डमरू और डंडा सरकारी; नाचे कूदे बंदरिया, खीर खाए मदारी . तो सब लोग बजाओ ताली, जो न बजाए उसको मारे घरवाली.

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बुधवार, 10 मार्च 2021

लाल कोबरा का डिस्को डांस

 


                         लाल कोबरा अपने बिल से बाहर निकला तो जंगल की बदली रंगत देख कर उसकी फूंक निकल गई . चारों ओर सरसों और टेसू फूले हुए थे . माहौल में ग़जब का उछाल था और जमीन से आसमान तक कहीं केसरिया तो कहीं पीला दमक रहा था . वह सोच में पड़ गया कि क्या गजब अनसोचा सीन है !! उसके मुंह में जितने डॉयलाग पड़े हुए थे सारे सकते में आ गए . अभी तक तो सब तरफ लाल था कहाँ चला गया ! वह लाल से ही होली खेलता आ रहा था . जब लोग लाल से होली खेलते थे तो लगता कि पार्टी का प्रमोशन हो रहा है. लाल उसका इतना प्रिय कि खुद अपने खून से उसे ‘कामरेड, कोई शक’ की आवाज सुनाई देती है .  उसने  गरीबों का मसीहा बनने के लिए डंडा पकड़ा था . स्कूल में जब परेड होती थी तो वह लेफ्ट-राइट को अनसुना कर देता था और उसकी जगह लेफ्ट-वन लेफ्ट-टू सुनता . लेफ्ट ही उसका राइट था और राइट हमेशा लेफ्ट . उसने लाठी को उठा कर उसका वजन कूता और हाईकमान को फोन लगाया, -“साहब  इधर तो सब मोसंबी-नारंगी है ! मेरा लाल किधर गया ? होली है सर होली ! सारा लाल साफ कर दोगे तो होली कैसे खेलेगी पब्लिक ! थोड़ा लाल जरुरी है कल्चर के वास्ते.”

                “नवजात ... भूल जाओ लाल को, याद रखो लाल को देखते ही भड़क जाना अब तुम्हारी ड्यूटी  है .” साहब ने याद  दिलाया .   

               “लेकिन साहब मैं लाल कोबरा हूँ .”

               उधर से आवाज आई - “कोबरा नहीं तुम डांसर थे और अब सांड हो . कोई डांसर अपने आपको कोबरा-फोबरा कुछ भी समझता रह सकता है लेकिन पार्टी का अपना आकलन होता है .  पार्टी अनुशासन को फ़ॉलो करो, लाल को देखते ही तुम्हें फ़ौरन भड़क पड़ना है . कोई शक ?”

                “नहीं साहब, ... जी साहब, जिधर भड़काओगे भड़क जाऊंगा साहब .  लेकिन होली का क्या ? वो तो लाल से ही ....”

                 “अनुशासन को प्राथमिकता दो डांसर, यहाँ डिस्को नहीं भारतनाट्यम सिखाया जाता है . सुबह जल्दी उठो, प्रार्थना करो और व्यायाम भी . वरिष्ठजनों  से ज्ञान  लो उसके बाद मुंह खोलो . और होली है तो टेसू के फूल चुनने जाओ.  कुछ दिन रहो हमारे साथ , अच्छा लगने लगेगा.  वैसे कोबरा जी, आप चिंता मत करो उचित समय आने पर आपको दूध भी पिलाया जाएगा.” साहब ने फोन बंद कर दिया .

                  कोबरा ने अपने को ऊपर से नीचे तक देखा, एक लहर सी उठी और लगा कि उसका अस्तित्व एक दुम में तब्दील हो गया लग रहा है . उसने ऊपर देखते हुए अपने आप से सवाल किया कि एक कोबरा दुम कैसे हो सकता है !! आकाशवाणी हुई, प्रभु बोले - ‘ वत्स, लेफ्ट से राइट हो चुके हो तुम . विकास के इस मायावी पथ पर अनेक रंगबिरंगी दुमें साथ चलीं जो अब ब्लेक कोबरा हैं .  तुम भी विकास पथ पर आगे बढ़ चुके हो तो दुम क्या चीज है, कुछ भी हो सकता है . वैसे सांड होना भी बुरा नहीं है. प्रमोशन समझो इसे. सोचो भगवान के गले में लिपटे पड़े होने से उन्हें पीठ पर ले कर चलना अधिक सम्मानजनक है. सो अब उठो, चाय-वाय पियो, केंचुली बदलो फटाफट और लाल रंग देख कर भड़को.  ...   क्या पता कल को सीएम ही बना दिये जाओ ...  नई  जिम्मेदारी है, इसमे कोई शक नहीं होना चाहिए ? ”

                  वह बुदबुदाया “भालो पोरभो ... आमि इक्ता कोबरा , इक चोबोल-ई छोबि .”

 

 

 

 

 

 


शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है

 




जब चूल्हा नहीं जलता है तो पेट जलता है. लेकिन जले तो दुनिया का जले, आपका क्यों जले. आइये आज आपको चूल्हे के मामले में आत्मनिर्भर बनने का उपाय बताते हैं. बिजली और गैस की चिंता से मुक्त हो जाइये और समय के साथ चलिए. संकोच मत कीजिये, जहाँ से चले थे वहीँ पहुंचना प्रकृति के साथ चलना है. खाली हाथ आना और खाली हाथ जाना यही ईश्वर की मर्जी है. विकास भी एक परिधि के रूप में गति करता है.

चूल्हा बनाने के लिए हमें सिर्फ छः ईंटों की जरुरत है . मज़बूरी ये है कि ईंट किराने की दुकान पर मिलती नहीं हैं. ऑनलाइन मिल सकती है लेकिन पक्का नहीं है . सबसे अच्छा यही है कि किसी बनते मकान से ले आयें . आसपास देखिये कहीं मकान बन रहा हो तो वहाँ से छः ईंटें लाइए . ईंट आजकल बहुत महँगी है, सस्ती के ज़माने में रूपए की पांच मिल जाया करती थीं . अब सात रूपए की एक मिलती है . बैंकें लोन देने लगें तो चीजें महँगी होने लगती हैं . घ्यान रहे बनते मकानों पर चौकीदार रहता है . लेकिन आप समझदार और  शहरी हैं, काम निकालना जानते हैं . उसे मुस्कराते हुए भईया कहें और दैन्य भाव से छः ईंटें मांगे. गरीब आदमी जल्दी पसीजता है, सम्भावना यही है कि वो दे देगा क्योंकि उसके बाप का क्या जाता है. किन्तु ये भी हो सकता है कि मना कर दे, लेकिन आप कोशिश जारी रखिये. देश और दुनिया के हों न हों अक्सर मकान के चौकीदार ईमानदार होते हैं . दरअसल ईमानदारी के आलावा उनके पास कुछ होता नहीं है . इसलिए लोग उनसे सबसे पहले ईमानदारी ही खरीदते हैं . आप पढ़े लिखे हैं और जानते हैं कि चूल्हा जलाने की समस्या उसके सामने भी है. किसी गरीब के साथ पहली बार डील थोड़ी कर रहे हैं. दस का नोट दीजिये और उसी के सर पर रखवा कर छः ईंटें घर लाइए. आपके मन में स्टार्ट-अप जैसी फिलिंग आएगी जो कि इस वक्त जरुरी है.

आप जानते ही होंगे कि गैस चूल्हा संसार में बहुत बाद में आया . पहले वो चूल्हा आया जो आप अब बनाने जा रहे हैं. ऐतिहासिक चीजों को जानना और अनुभव करना बहुत गौरवपूर्ण होता है. जब लगेगा कि आप संस्कृति की और लौट रहे हैं तो छाती अपने आप चौड़ी होने लगेगी. चौड़ी छाती बड़े काम की होती है . चौड़ी छाती वालों को दहेज़ तगड़ा मिलता है. बैंक वाले चौड़ी छाती देख के लोन फटाफट दे देते हैं . और तो और चौराहों पर लाल बत्ती में इनको रुकने की जरुरत नहीं पड़ती है. खैर, आपको क्या करना है इन सब बातों से, आप चौड़ी छाती से चूल्हा बनाइये. हाँ तो अच्छी समतल जगह देख कर यू शेप में तीन ईंटों को जमाइए, उसके ऊपर तीन और रख दीजिये. लीजिये फटाक से आपका चूल्हा तैयार है. गौर से देखिये, लगेगा जैसे पुलिस के बेरिकेट्स तीन तरफ से लगे हैं और आग चाहे जिसकी हो रोटी सेकने तक यहीं कैद कर ली जाएगी. आग जलाइये और मजे में रोटी सेकिये. चूल्हे की अवधारणा यही है, जलाओ और सेको. अब आपको कुछ सूखी लकड़ियाँ चाहिए जो लोकतंत्र में विरोधी दलों की तरह जल्दी आग पकड़ सकें. वाम लकड़ियाँ जल्दी आग पकडती हैं लेकिन उनके जंगल सूख गए हैं. आजकल देखने को भी मिलती नहीं हैं. कोई बात नहीं आप चिंता नहीं करें. शुक्र है ऊपर वाले का, अभी श्मशान में लकड़ियाँ मिल जाती हैं. वहीँ से ‘मेनेज’ कर लीजिये. मुर्दे को पांच किलो लकड़ी कम मिलेगी तो शिकायत करने नहीं आएगा. अपना चूल्हा जलाने के लिए जागरूक नागरिकों को कुछ तो नया करना ही पड़ता है. तो चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है ... .

 

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