मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

लोकतन्त्र और बकरियाँ




शाकाहारी लोग बकरी को एक प्राणी मानते है । अन्यजन इसे मात्र चौपाया समझते हैं और उन्हें जानकर आश्चर्य होता है कि वे दूध भी देती हैं । विशेषज्ञों के अनुसार बकरियाँ दोपाया भी होती हैं और जरूरत पड़ने पर वोट देती हैं । बकरियाँ मानती हैं कि  वे प्रोटीन-विटामिन के साथ बहुत ताकतवर हैं । गांधी जी की सूखी टांगों में जान उन्हीं ने डाली थी । गांधी जी अगर राष्ट्रपिता हैं तो कोई माने न माने वे मानती हैं उन्हें दूध पिलाने वाली बकरी राष्ट्र-दादी हुई । गांधी जी कह गए थे कि बकरिम्मा जिस तरह मुझे जिंदा रखा तुम लोकतन्त्र को भी टनाटन रखना । लेकिन अफसोस कि अभी तक देश ने बकरी-डे या बकरी-दिवस तक घोषित नहीं किया ।
बकरियाँ पालतू भी होती हैं और जंगली भी । पालतू बकरियाँ पाले जाने की मोहताज होती हैं । उन्हें मुफ्त दानापानी, दवा, बिजली वगैरह मिलता है । जंगली बकरियाँ दरअसल बकरियाँ होती ही नहीं है । बकरी की खाल के नीचे असल में वे क्या हैं इस पर शोध की जरूरत है; जो संभव नहीं है क्योंकि शोध पर धन प्रायः वे ही खर्च करती हैं । जंगली बकरियों की एक विशेषता यह होती है कि वे वोट नहीं देती हैं । दूसरा, वे वोट देने वाली पालतू बकरियों से नफरत करती हैं और उनसे अपने को श्रेष्ठ मानती हैं । तीसरा यह कि मांसाहारी होती हैं और जमाना जिन्हें जंगल का राजा कहता है मौका पड़ने पर उसे भी खा जाती हैं । गांधी जी का जमाना और था तब जंगली बकरियाँ भी दूध दे देती थीं । फिर देश आज़ाद हो गया और गांधी जी भी नहीं रहे । जंगली बकरियां मोटी होने लगीं ।  उनके पास काफी धन होता है लेकिन किसी को पता नहीं पड़ता है कि इतना धन आया कहाँ से ! अपनी खाल बचाने के लिए वे कानून के बड़े कीड़ों को जिल्द सहित संविधान चाटने के काम में लगा देती हैं । बेकवर्ड बकरियाँ को देखें तो वे गरीब होती हैं और वोट देने के अलावा हांडी के काम आती हैं । बैकवर्ड बकरियों के बच्चे महाबेकवर्ड होते हैं और जंगली बकरियों के बच्चे महाजंगली । महाजंगली अपनी भूख मिटाने के लिए अक्सर सरकारी बंगलों के गार्डन चर जाते हैं । ताज्जुब कि तब भी उनकी भूख नहीं मिटती है । बैकवर्ड बकरियों की मेंगनी से उम्दा खाद बनती है जबकि जंगली बकरियों की मेंगनी से सरकारी च्यवनप्राश । इस अंतर को ही टीवी वाले विकास बताते हैं ।  
 बकरियाँ मोहब्बत भी करती हैं और प्रायः इसके अंजाम पर रोती हैं । वे परिवार नियोजन का विरोध नहीं करती लेकिन पालन भी नहीं करती हैं, इसलिए बच्चे भी ज्यादा पैदा करती हैं । वे मानती हैं कि हर बार बच्चे दो ही अच्छे । इससे दुनिया में कम बच्चों का संदेश भी जाता है और उनकी मनमानी भी परवान चढ़ती है । आंकड़े बताते हैं कि सन सैंतालीस में इतने करोड़ बकरियाँ थी जो अब कुल मिला कर इतने सौ करोड़ हो गई हैं । लोकतन्त्र में बकरी पालन एक लाभकारी धंधा है । बकरियों को लगता है कि पालन का सिस्टम उनके हक में है और पालने वाले मानते हैं कि उनके । जब भी कोई उन्हें भाइयो और बहनो क़हता है तो बकरियाँ मैं – मैं कहते उछलने लगती हैं । कभी कभी कोई बकरी खुद राजनीति करने का सोचती है लेकिन सफल नहीं होती है । क्योंकि बकरियाँ संगठन का महत्व नहीं समझती हैं । लखनऊ की बकरी भी हम नहीं बोलती, हमेशा मैं बोलती है । ऐसे में भला कोई बकरी कभी नेता बन सकती हैं !? ...... देखिए आवाज आ रही है मैं मैं
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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

मंदी पर अफलातून



“इधर मंदी का सुन रहे हैं जी । कहते हैं कि आ रही है, आपने भी सुना होगा” ? चिंतित सिक्का जी बोले ।
“मंदी !! .... कहाँ से आ रही है ?” अफलातून चौंके ।
“कहाँ से !! ... ये तो नहीं पता । जहाँ होगी वहीं से आ रही होगी । जैसे लड़कियां आती हैं मायके ।“ सिक्का ने मजाक किया ।
अफलातून अपने रौ में थे,-  “लड़कियां तो ससुराल से आती हैं ... बल्कि भाई लेने जाते हैं तब आती हैं । ... मंदी को लेने कौन गया ?”
“मैं नहीं गया भियाजी, मंदी मेरी बहन नहीं है ।“
“फिर देखो यार, किसकी बहन है । मंदी का आधार कार्ड तो होगा ही ।“
“आप गलत समझ रहे हो । मंदी का आधार कार्ड नहीं बनता है !!”
“तो पासपोर्ट बनता होगा ? पता तो चले किधर से आ रही है ।
“किसी के घर नहीं आती है, बाज़ार में आती है मंदी ।“
“बाज़ार में ! ... अकेली आती है क्या ?! आजकल बाज़ार में पैर रखने की जगह नहीं होती है ! सोने तक की दुकान पर भीड़ इतनी होती है कि लगता है फ्री में बंट रहा है ।“
“ऐसा नहीं है , जानकार बताते हैं कि जब मंदी आने वाली होती है तब सोने की बिक्री बढ़ जाती है ।“
“तो यों कहिए ना कि मंदी बहू है नवेली । परंपरा है अपने यहाँ, शादी ब्याह के मौसम में सोने की खरीदी बढ़ जाती है । चार साल पहले हमारे यहाँ बड़ी वाली आई थी तब दो लाख का सोना खरीदा था हमने और पिछले साल छोटी मंदी के टाइम तीन लाख का । लेकिन मंदी किसी की भी हो ईज्जत होती है घर की । उसे अकेले दुकेले बाज़ार में नहीं आना चाहिए । पूरा शहर हृदय सम्राट गुंडों से भरा पड़ा है ।“
“अरे अफलातून जी आप कहाँ से कहाँ निकल जाते हैं ! ...आपने अर्थशास्त्र पढ़ा है क्या ?”
“अर्थशास्त्र नहीं दूसरे कई शास्त्र पढ़े हैं । क्यों क्या बात है !?”
“इसीलिए आपको समझ में नहीं आ रहा है । जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है मंदी का मामला उनके लिए है ।“
“ये तो गलत बात है ! लोकतंत्र में मंदी सबके लिए होना चाहिए । गरीब क्या सिर्फ वोट देने के लिए होता है !! माखन माखन संतों ने खाया, छाछ जगत बपराई’, अब ये नहीं चलेगा ।“ वे बोले ।
“मंदी माखन नहीं है भाई । .... कैसे बताएं आपको .... मंदी जो है आती है और छा जाती है बस .... जैसे बादल आते हैं और छा जाते हैं । जब वो ठीक से छा जाती है तो सरकार को चिंता करना पड़ती है ।“
“पूरी सरकार चिंता करती है या उनका कोई चिंता-मंत्री होता है ?”
“सब करते हैं ... पूरी सरकार करती है रात दिन ।“
“चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर ; पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए दस कबीर” ।
“चिंता-मंत्री ही करते हैं चिंता । दरअसल अंदर से वो चिंता-मंत्री होता है लेकिन उसको कहते वित्त-मंत्री हैं । जैसे जो ऊपर से सेवक कहलाते हैं दरअसल वो अंदर से मालिक होते हैं । जैसे हम आप जनता कहलाते हैं लेकिन अंदर से प्रजा होते हैं ।“ सिक्का जी ने समझाया ।
“तो प्रजा को क्या करना है ? अभी करना है या मंदी छा जाए तब करना है ।“
“कुछ नया नहीं करना है जी । राजा की जैजैकार करते थे वही करते रहिए बस ।“
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शांतिवन में प्लास्टिक



शांतिवन में सब संतोषप्रद चल रहा हैं । लोग खुशहाल हैं, सबके पास रोजगार है, फेक्टरियों में भारी उत्पादन हो रहा है । बाज़ार में गज़ब की रौनक हैं । लोग सोना भी भाजीपाले की तरह खरीद रहे हैं । और भाजीपाले का तो पूछो मत, किसानों की उम्र लंबी हुई जा रही है । टेक्स ऐच्छिक होने के बावजूद भरपल्ले जमा हो रहा है । देश की सीमाओं से शहनाई की आवाज़े आती हैं । स्त्रियाँ सुरक्षित हैं, बलात्कार शब्द डिक्शनरी से हटा दिया गया है । खुले में बच्चा भी शौच करे तो उसे शालीनता से स्वर्ग पहुंचाया जाता है । जनता को शांतिवन सरकार से कोई शिकायत नहीं है । जिन्हें शिकायत होती भी है तो वे उसे कन्या-भ्रूण की तरह पैदा होते ही मार देते हैं । जिधर निकल जाते हैं हुजूर-हुजूर के नारे लगाने लगते हैं । शांतिवन से और क्या चाहिए हुजूर को !! .....  तभी दूध में मक्खी ! हुजूर ने देखा कि माहौल में प्लास्टिक की मार ज्यादा है । खुद उनकी पार्टी प्लास्टिक नेताओं से भरती जा रही है । चुनाव के समय डिस्पोसेबल कार्यकर्ताओं की भरमार रही । सोचा था यूज एण्ड थ्रो माटेरियल है कोई सिरदर्द नहीं रहेगा । लेकिन अब देखिए ! यहाँ वहाँ बिखरे शांतिवन का पर्यावरण खराब कर रहे हैं । प्लास्टिक के हृदय-सम्राटों से पार्टी के दिल पर लोड पड़ने लगा है । जाहिर है प्लास्टिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । मन ही मन उन्होने तय किया कि प्लास्टिक को चलन से बाहर करना ही पड़ेगा ।
(देखिए भई, पहले चेतावनी जैसा कुछ सुन लीजिए । तकनीकी विकास ने दुनिया को इतना छोटा और एक-सा बना दिया है कि आप पीपलपुर की बात करो तो वह नीमनगर पर भी पूरी उतरती है । नाइजीरिया का आदमी भी लगता है जैसे पड़ौसी है अपना । हुजूरों को देखें तो सिर्फ नाम ही अलग होते हैं, मिजाज में सारे इतिहास के पन्नों में टंके राजे रजवाडों से कम नहीं हैं ।  बात कहीं से भी शुरू की जाए लगता है वहीं जा रही है जहां दिमागी परहेज किए एक भीड़ तैयार बैठी है । लब्बोलुआब यह कि कोई गलतफहमी अगर पैदा होती है तो ज़िम्मेदारी श्रीमान आपकी है । इधर जुलूस जो है खंबा बचा के चल रहा है ।)
हुजूर ने प्लास्टिक को लेकर बैठक आहूत की । बोले कि प्लास्टिक के कारण शांतिवन के पर्यावरण को बिगड़ने नहीं दिया जाएगा । पार्टी गीला-सूखा, बूढ़ा-जवान कचरा अलग अलग करने के प्रति गंभीर है । वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि सूखा कचरा यानि प्लास्टिक की उम्र बहुत लंबी होती है । वह कुछ नहीं करे, काम नहीं आए तो भी शांतिवन की धरती पर उसका बना रहना पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है । नीचे के लेबल पर ज़्यादातर सिंगल यूज थैली या डिस्पोज़ेबल कप प्लेटें होती हैं । सुना है ये एक पार्टी से दूसरी पार्टी में रिसायकल हो जाती हैं ! प्लास्टिक जितना रिसायकल होता है उतना पर्यावरण को हानि पहुँचता है । जमीनी जुड़ाव की अब चिंता नहीं है । टीवी और रेडियो से हुजूर खुद सीधे वोटर तक अपनी पहुँच बना लेंगे । शराब भी बांटना पड़ी तो प्लास्टिक में नहीं कुल्हड़ में दी जाएगी । प्लास्टिक चाहे किसी भी रूप में हो अब प्रतिबंधित रहेगा ।
“सारे प्लास्टिक प्रतिबंधित मत कीजिए हुजूर ।“  पार्टी प्रवक्ता गोलू बतरा जी ने टोका । बोले- हमारी राजनीति प्लास्टिक पर ही चल रही है । टीवी पर पार्टी की ओर से प्लास्टिक बहसें, हुजूर के प्लास्टिक-वादे, शांतिवन कल्याण की प्लास्टिक योजनाएँ कैसे सुर्खियों में आएंगी, तमाम प्लास्टिक घोषणाओं और जुमलों के बिना हमारी तो मुश्किल हो जाएगी । युवाओं की ताजा फेसबुकिया-वाट्सएपिया पीढ़ी प्लास्टिक सपनों के सहारे खड़ी है । उनका क्या होगा ? इसके अलावा पूरा समाज अब प्लास्टिक सम्बन्धों में जी रहा है । धर्म, आस्था, विश्वास; घर, परिवार, पड़ौस, अपने पराए सब तो प्लास्टिक है !! और तो और हमारा वोटर भी तो प्लास्टिक है हुजूर, बरसों तक वापरेंगे ... सड़ेगा नहीं ।
हुजूर ने कहा - “प्लास्टिक पर्यावरण के लिए जरूरी है” ।
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शनिवार, 31 अगस्त 2019

हमारा बैंक, हमारे लोग



इन दिनों जबसे शून्य बेलेन्स वाले खातों की सुविधा हुई है बैंकों में ग्राहकों की आमद में तेजी से इजाफ़ा हुआ है । लेकिन उतनी ही तेजी से ग्राहकों के सम्मान में गिरावट भी दर्ज की जा रही है । किसी जमाने में पढ़ालिखा रसूखदार आदमी बैंक का ग्राहक होता था । बैंक वाले उसकी इज्जत वगैरह भी किया करते थे । इज्जत मतलब बैठने को कुर्सी, और वगैरह में पीने को पानी-चाय तक पूछ लिया करते थे । क्या दिन थे वो भी ! बैंक जाने वाला अपने को सेमी-वीआईपी समझता था । बावन इंची ग्राहक प्रायः छ्प्पन इंची हो कर निकलता था । लोग बैंकों को हमारी बैंक कहा करते थे । कुछ हमारी पर इतना ज़ोर देते थे कि बैंक न हुई पिताश्री की तिजोरी है । एक रिश्ता सा बन जाता था, इतना कि शादी ब्याह के अवसरों पर दूल्हे के साथ बैंक स्टाफ को भी जनवासा नसीब था । आज जमाना मशीनों का है । टाइलेट जितनी जगह में कुबेरचंद खड़े हैं उनके कान में कार्ड डालो और केशवान भव । पुराने सिस्टम से नगद निकालने या पासबुक में इंट्री करवाने जाओ तो स्टाफ की नई पीढ़ी ऐसे घूरती है कि लगता है जैसे बैंक नहीं किसी थाने में घुस आए हैं । वो तो अच्छा है कि जीरो बेलेन्स क्लास में बेइज्जती बर्दाश्त करने का पुश्तैनी धैर्य  होता है वरना एक फटकार में वो फट्ट से कटे पेड़ सा गिर जाता ।   
आज मुझे भी बैंक आना पड़ा है । वजह यह कि खाते को पेन और आधार से लिंक करवाना है । घर से चलते वक्त मन में एक तरह की खुशी थी कि अपने पुराने बैंककर्मी मिलेंगे, न भी मिलेंगे तो अपनी बैंक देखने को मिलेगी, बहुत दिन हो गए ।  इधर आ कर काउंटर पर खड़े दो तीन मिनिट हुए हैं । कुर्सी पर एक मैडम जी हैं जो फिलहाल मोबाइल पर शायद जीडीपी चेक कर रही हैं । अचानक उन्होने सिर उठाया और मोबाइल को कागज से छुपते हुए क्या बात है ! का भाटा मारा ।  मैंने सोचा कि बिना बात कोई क्यों नाराज होगा वो भी अपने सम्मानजनक ग्राहक से ! जरूर उन्हे गलतफहमी हुई है कि मैंने उनका मैसेज पढ़ लिया है । सो स्पष्ट करना जरूरी था, चश्मा दिखाते हुए कहा – मैंने मैसेज नहीं पढ़ा मैडम । इतनी दूर का मैं नहीं पढ़ सकता हूँ ।
“काम क्या है ये बोलो ।“  उन्होने आंखे अंतिम संभावना तक चौड़ी की । पहली नजर में वे लगभग डरावनी लगीं लेकिन दूसरी नजर में सुंदर । मैंने पहली नजर को शॉटअप कहा और दूसरी नजर को कैरिओन । कहा - “ जी , बैंक से मेसेज आया है कि पेन और आधार से खाता लिंक करवाइए । “
“ पासबुक लाये हो ?”
“ जी, ये रही ।“
“ इसमे फोटो नहीं है ! कैसे पता चलेगा कि खाता तुम्हारा है ?”
“ हस्ताक्षर देख लीजिये, आप हस्ताक्षर देख के चेक भी तो पास करती हैं ।“
“ऐसे नहीं चलेगा, घर की बैंक नहीं है । पासबुक में फोटो लगा कर सील लगवाओ । “
“हओ, फोटो लगा लूँगा अगली बार । आज ये पेन और आधार ......
“ ये पड़े हैं फार्म , उधर बैठ कर भरो ।“ मुझे सुनाई दिया उधर बैठ कर मरो । बावजूद इसके मुंह से निकला जी और फॉर्म के साथ किनारे हो लिए । तजुर्बे से कह सकता हूँ कि मैडम के पति कवि होंगे । पत्नी अगर क्रूर, क्रोधी और अंगार उगलने वाली हो तो कोई भी साहित्य में अपना करियर बना सकता है ।
फार्म भर कर दूसरे महोदय के पास गया, सोचा ये ले लें तो अच्छा हो मैडम से मधुर संवाद की सजा से बचेंगे । लेकिन उन्होने मना कर दिया । मजबूरन मैडम के पास जाना पड़ा ।
“ फार्म का क्या करूंगी मैं !! पेन और आधार की फोटोकोपी लगा के लाओ  । “
“ दोनों फोटो कॉपी लगी है । “ मैंने उन्हें दूसरी नजर से देखते हुए कहा ।
‘‘ ओरिजनल कहाँ हैं ! ओरिजनल बताओ  । “
“ ओरिजनल तो नहीं लाया हूँ ।  सब जगह फोटो कॉपी ही लगती है । मोबाइल पर इमेज दिखा दूँ क्या ?”
“ ओरिजनल के बिना नहीं होगा ।“ कह कर उन्होने फार्म लगभग फैक दिया । “
“ ठीक है कल ओरिजनल ले कर आता हूँ ...”
“कल नहीं परसों आना । “
“ठीक है परसों आ जाऊंगा …. कल बैंक बंद है क्या ?! “
 नहीं ..... परसों मैं छुट्टी पर हूँ । “
......

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

भ्रष्टाचार खत्म हो गया है



“देखिए जी, लेन देन की कोई बात नहीं करें । भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म हो गया है । आप निश्चिंत रहें, महकमें में आपसे कोई रिश्वत नहीं माँगेगा  मुस्कराते हुए गोवर्धन बाबू ने कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बैठने की अनुमति प्रदान की । दो साल पहले इन्हीं से काम पड़ा था तो हजार रुपए लिए बगैर फाइल को छूआ तक नहीं था इन्होंने । और तेवर तो ऐसे थे मानो सरयू पार वाले समधी हों । खैर, बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेई । आज बात कर रहे हैं तो अपने से लग रहे हैं । कहा – “लेकिन चपरासी ने अभी दो सौ रुपए लिए मुझसे, तब आई फाइल आपके टेबल पर !!”
“गोपाल ने लिए होंगे । दरअसल वो रिश्वत नहीं है । भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म हो गया है ।  देखिए जगह जगह तख्ती भी लगी है कि रिश्वत देना और लेना मना है । उसने बताया नहीं कि दो सौ रुपए गऊ चारे के लिए हैं !?  .... यू नो, गाय हमारी माता है । निबंध तो लिखे होंगे आपने पाँचवी कक्षा में ? ... कहाँ तक पढ़े हैं ?”
“गऊ माता तक ... मतलब समझिए पाँचवी तक” ।
“फिर क्या दिक्कत है ! धरम का काम है । जहाँ भी मौका मिले पुण्य संचय करना चाहिए । पता नहीं कब बुलावा आ जाए । ऊपरवाला भी टेबल कुर्सी ले कर बैठा है । चलिए ... बताइये क्या काम है ?”
“छोटा सा काम है जी । एक आर्डर रुका हुआ है । पता चला कि फाइल आगे नहीं जा रही है । आपके यहाँ से ओके हो जाए तो ...”
“बिलकुल हो जाएगा । कागज पूरे हैं आपके ...मतलब फोर्मेलिटी कंप्लीट है । बस भगवान चाहेगा तो कोई दिक्कत नहीं है । ... भगवान ...” ।
“बड़ी मेहरबानी आपकी” । कह कर हाथ जोड़ दिए ।
“अरे हाथ मत जोड़िए, हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं है । लोग देखेंगे तो समझेंगे कि रिश्वत मांग रहा हूँ । भ्रष्टाचार एकदम खत्म हो गया है । भगवान उधर हैं ( काली लकड़ी के छोटे से सुंदर मंदिर में गऊ सहित बांसुरी बजाते भगवान मौजूद थे ) वहाँ पाँच सौ के तीन नोट चढ़ा दीजिए । हमने भी पाँच गौएं पाल रखी हैं । समय की मांग है कि गौ पालन में सब योगदान करें । धरम का काम है, .... वैसे कोई जबर्दस्ती नहीं है । आपकी फाइल यहाँ सुरक्षित है जब गो-प्रेम जागृत हो तब चले आना, ... जल्दी नहीं है” । कह कर उन्होंने फाइल बंद की ।
“गो-प्रेम जागृत है जी, ... भला ऐसा कौन है जो गो-प्रेमी नहीं है आज के समय में” । उसने नोट चढ़ा दिए । गोवर्धन जी ने ड्राज से निकाल कर कुछ दाने शकर के हाथ पर धर दिए । बोले “प्रसाद है, लीजिए । मन प्रसन्न होना चाहिए, आस्था बड़ी चीज है, संसार तो आनी जानी है । ... गऊ का महत्व जानते हो ना । पुंछ पकड़ लो तो वैतरणी पार हो जाती है । फाइल की भला क्या औकात कि एक टेबल पर अटकी रहे ! .... लीजिए हो गया आपका काम । .... जय गऊ माता । ” ।
“धन्यवाद आपका । अब बड़े साहब को तो ... मेरा मतलब है कि पुण्य संचय उधर भी करना पड़ेगा ? कोई मंदिर है क्या उनके कक्ष में भी ?”
“है क्यों नहीं ! आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए धरम करम से मुक्त नहीं है । वे एक गोशाला के ट्रस्टी हैं ।” 
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मंगलवार, 9 जुलाई 2019

ईमानदारी के पक्षधर



कुर्सी पर ठीक से काबिज होने के बाद वे ईमानदारी के पक्षधर हो गए । राजनीति भी कहती है कि  पक्षधर होना ईमानदार होने से ज्यादा फायदे की बात है । सफल आदमी फ्रूट मर्चेन्ट की तरह पेड़ का पक्षधर होता है  लेकिन पेड़ लगाना उसके लिए जरूरी नहीं है । जब भी मन हुआ वह किसी भी हरे में जा कर अपनी पक्षधरता का जश्न मना सकता है । जैसे पक्षधर यहाँ वहाँ धर्म पताकाएँ तान आते हैं और जब अपने निजी में प्रवेश करते हैं तो हरी पीली लुंगियों में घूमते हैं । लड़ाई झगड़ों, युद्ध या दंगे- फ़सादों के पक्षधर अकसर सुरक्षित स्थानों  पर चौपड़ और पाँसे लिए बैठे होते हैं । ईमानदारी का पक्षधर मन, वचन और कर्म से दृढ़ता पूर्वक दूसरों को ईमानदार देखना चाहता है । यही उसका सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण काम है । वह जानता है कि ईमानदार आदमी को कुछ नहीं मिलता है । देश के करोड़ो गरीब दरअसल ईमानदारी का ही प्रतीक हैं । वो यह भी जानता है कि गरीब के कंधों पर लोकतन्त्र एक लदान है । इसलिए लोकतन्त्र को बनाए रखने के लिए गरीबों की रक्षा जरूरी है और गरीबी बनाए रखने के लिए मजबूत ईमानदारी की । गरीब लोकतंत्र का हल खींचने वाले बैल हैं जिनके मुंह पर जाली बंधी होती है । वे गर्व से अपने को लोकतन्त्र का सिपाही घोषित करते हैं ।
बिजली की तरह अगर ईमानदारी की भी मीटर रीडिंग हो सकती तो पता चलता कि जो जितना ईमानदार वो उतना गरीब है । यदि ऐसा हो सकता तो हम किसी को गरीबी के आंकड़े बताते हुए शर्मिंदा नहीं होते बल्कि ताल ठोंक कर ईमानदारी के लिए गिनिस वर्ल्ड रेकर्ड वालों की नींद उड़ा देते । दुनिया वाले भी गरीबों के आधार कार्ड देख कर हमारे दावे को सहज स्वीकारना पड़ता । हालांकि शेष रहे कुछ उलटापंथी विचारक यहाँ भी पाकेट साइज़ लाल झण्डा ले कर हाय हाय करने से बाज़ नहीं आते । उनके चिंतन का यह विषय हो सकता है कि लोग ईमानदारी के कारण गरीब हैं या गरीबी के कारण ईमानदार । लेकिन लोकतन्त्र में हाय हाय को भी रामलीला मैदान दिया जाता है । सब अपना काम करें इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । जल्द ही सबको स्मार्ट फोन दिए जाएंगे । जिनके पास काम नहीं होगा वह भी व्यस्त हो जाएगा । व्यस्तता विकास का प्रमाण है । फेसबुक में आम राय है कि जो व्यस्त है वही मस्त है । जन्म-मरण, हानि-लाभ तो ऊपर वाले के हाथ में है । भाग्य का लिखा टलता नहीं और समय से पहले व भाग्य से ज्यादा मिलता नहीं । सो भाई सबके दाता राम ।  वाट्सेप से फेक न्यूज के जरिए सिस्टम के हाथ मजबूत कर देश सेवा करना छोटा काम नहीं है । हर नौजवान को डेढ़ जीबी डाटा में लगाए रखने की मंशा पक्षधर पार्टी की है ।
एक दिन पक्षधर पार्टी ने आदेश निकाला कि सब लोग हर हाल में सफाई रखें । यानी जो आधा पेट खा रहे हैं वे भी सफाई पूरी रखें । दुनिया भर के लोग अभी भी हमारे यहाँ की गरीबी देखने में रुचि रखते हैं । पर्यटकों को पुरातन गरीबी होना लेकिन स्वच्छता के साथ । देश तेजी से विकसित हो रहा है और गरीब अगर साफ सुथरे होंगे तो पर्यटन उद्योग में बूम आएगा । इसलिए खुले में शौच नहीं जाएँ क्योंकि खुले के नाम पर अब सड़कें, गार्डन, स्कूल और धार्मिक स्थलों के परिसर ही बचे हैं । बच्चे ज्यादा पैदा करें ताकि देश गरीबी तथा  ईमानदारी के मामले में आत्मनिर्भर बना रहे और लोकतन्त्र को भी लंबी उम्र मिल सके । सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाएँ और राष्ट्रभाषा का गौरव बढ़ाएँ । अंग्रेजी गुलामी की भाषा है लेकिन हमारे गरीब गुलामी के लिए इसके मोहताज नहीं हैं । दुनिया जानती है कि हमारी आदर्श व्यवस्था हमेशा गरीबों के साथ बैठी है । बावजूद इसके यह भी याद रखें जिसका कोई नहीं होता है उसका भगवान होता है, इसलिए मंदिर भी बनाएँगे । एक बड़ा कदम उठाते हुए बिना किसी पैसे के बैंकों में खाता भी खुलवा दिया गया  है । अमीरों की तरह अब गरीब भी सेम टू सेम पासबुक वाले हो गए हैं । इसे आप लोग ईमानदारी कि पासबुक कह सकते हैं । बेलेन्स ज़ीरो के बावजूद आपको अभूतपूर्व गर्व की अनुभूति होगी । किसी जमाने में हवेलियों के आगे बंधे हाथी से उतना गर्व नहीं होता था जितना गर्व गरीब के घर पिंजरे में बंद दूध रोटी बोलने वाले तोते से हो सकता है । पासबुक यही तोता है ।
बहुत से राजनीति प्रेरित लोग शराब के पीछे पड़े हैं । जिन्होंने शराब बंदी की है उन्हें पछताना पड़ेगा । सामाजिक समरसता के लिए यह एक बहुत जरूरी चीज है । कहते हैं शराब पैसे वाले को ऊपर उठती है और गरीब को नीचे ले जाती है । तो साफ है कि दोनों के बीच पर्याप्त दूरी बढ़ती है और वर्ग संघर्ष की संभावना समाप्त हो जाती है । आपको याद होगा कि मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को अनिवार्य कहा है लेकिन हमारे पक्षधर उनसे बड़े विचारक हैं । आगे बढ़ाने के लिए आपसी संघर्ष नहीं शांति चाहिए । लोग क्रिकेट देखें और शराब पीएं, शराब पीएं और क्रिकेट देखें यही शांति का सर्वोच्च है ।
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उत्तरगीता



युद्ध में भारी पराजय के बाद राजा को वैराग्य हो गया । उसे लगा कि संसार मिथ्या है । उसके मन में तरह तरह के सवाल आ रहे थे । जैसे कि मैं लड़ा ही क्यों !? अगर राजा की नियति लड़ना है तो राजा हुआ ही क्यों ! यदि राजकुल में पैदा होना इसका कारण है तो उफ़्फ़, इस वक्त मुझसे बड़ा अभागा कौन ! उसे दुख इस बात का है कि अभी भी शेष रह गए सूरमा अस्तबल में अपने घोड़ों कि खुर्रा मालिश में क्यों व्यस्त हैं ! राजा को अब समझ में आय कि वह अकेला युद्ध लड़ रहा था । पराजय के बाद पता नहीं क्यों उसे इस विचार से राहत मिली । किताबों में अकेले लड़ने वालों को बड़े सम्मान से याद किया जाता है, भले ही वो पराजित हुए हों । उसे दरबारी कवि की याद आ गई । काश कि इस मौके पर वह कुछ लिखता जिसे सुन सुना कर वे सहानुभूति जुटा पाते । जैसे – “लेकर कारवां चला था जनिबे मंजिल मगर, लोग छुटते चले गए, अकेला मैं रह गया । “  उसके मन ने कहा युद्ध से पहले अर्जुन को बहकने वाले की तरह काश कोई आ जाए ।
रात गहरा गई थी, टीवी का सारा ब्रेकिंग टूट कर बिखर चुका था । राजा दफ्तर में अपनी बहुत बड़ी सी पीएम नुमा कुर्सी पर निढाल पड़ा था । उसका मन हो रहा था कि काश वह कुछ देर के लिए अचेत हो जाए ताकि इसी बहाने कुछ सो ले । लेकिन जब ऊपर वाले ने मनोकामना पूरी नहीं करने की ठान रखी हो तो कोई क्या कर सकता है । अचानक राजा को लगा कि यह पराजय ईश्वर की है ! ईश्वर लोकतन्त्र का रक्षक भले ही न हो भक्तों का रक्षक तो है ही । जरा सा विवेक पैदा कर देते लोगों में तो बहत्तर हजार किसने बाप के थे ! लेकिन ईश्वर भी क्या करता । दूघ के जलों को छाछ पर भरोसा नहीं हुआ । सामने सोफ़े पर नब्बे बरस के स्पाइडर मेन ऊँघते ऊँघते अधलेटायमन हो चले थे । राजा की दादी ने इन्हें अपनी अलमारी में जगह दी थी, पापा ने पढ़ा और अब वही पुरानी कमिक्स उसके माथे पड़ी है । कई बार सोचा रद्दी में निकाल दें लेकिन कार्यालय पुराना और बड़ा है । जगह कि कोई कमी नहीं है इसलिए पटक रखा है कि कभी भांजा भांजी के काम आ सकते हैं ।
रौशनदान विहीन दफ्तर में आकाश दृश्यमान नहीं था इसलिए पाँच एसी में से किसी एक से आवाज आई – “राजन , पराजय एक भ्रम है , मूल बात है युद्ध लड़ना । लड़ना तुम्हारा कर्तव्य था जो तुमने पूरा किया । तुम इससे अधिक कुछ नहीं कर सकते थे । ....”
“अरे प्रभु तुम !! ... ये क्या सुना रहे हो मुझे ! “
“हे वीर, ये उत्तरगीता है । पराजय के बाद इसका श्रवण वैराग्य को सरल बनाता है । तुम पद छोड़ रहे हो ना ?”
“ हे मधुसूदन, पराजय की ज़िम्मेदारी मेरी है लेकिन नहीं भी है । मैं पद छोड़ रहा हूँ लेकिन नहीं भी छोड़ रहा हूँ । अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं है पर रखना तो पड़ेगा । जो कर्मठ हैं उनकी जरूरत है लेकिन उन्हें बुलाऊँगा नहीं । मैं पद उसको देना चाहता हूँ जो सदा पद में शोभित रहे । “
“ हे बाहुबली, तुम राजनीति में पारंगत हो । शिखंडी की ओट से अर्जुन ने गंगापुत्र भीष्म को मारा था । तुम्हारा प्रयास अच्छा है । सफलता कितनी मिलेगी, यह समय बताएगा । “
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मंगलवार, 21 मई 2019

पछताइये कि इंसान हैं आप


पछताना मनुष्य होने का प्रमाण है । यह बात मुझे बचपन में तब पता चली जब पिताश्री ने किसी मसले पर पहले हाथ साफ किये और बाद में गला । बोले –“ तुम्हें अपने किये पर जरा भी पछतावा नहीं है !! तुम इंसान हो या ढोर !?” यहाँ नये जमाने वालों को बता दूँ कि चौपाये और प्रायः पूंछवान प्राणियों को ढ़ोर कहा जाता है । कहीं कहीं ढोर के साथ डांगर बोलने का विवेकपूर्ण चलन भी दिखाई देता है ।  ढोर-डांगर एक साथ बोलने से अगले को साफ हो जाता है कि बात वाकई चौपायों के बारे में है । सभ्य समूह में सिर्फ ढोर कहने से सन्देश जाता है कि बात किसी दोपाये की हो रही है जो इस समय यहाँ अनुपस्थित है ।  खैर, ठुकाई-पिटाई से किसी प्रतिभाशाली बच्चे को कोई दिक्कत नहीं होती है, मुझे भी नहीं हुई थी । लेकिन प्रतिदिन ढोर घोषित होना उसका ही नहीं ईश्वर का भी अपमान है । वह भी सिर्फ इसलिए कि वह पछताया नहीं !! देश की भावी पीढ़ी को मवेशी दर्ज किया जाने लगेगा तो चारा खाना मौलिक अधिकार हो जायेगा ! यह सोचा है किसी ने कि इससे कानून व्यवस्था को कितनी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा !!

लेकिन ज़माने का क्या करो, उसे तो अपने दस्तूर की पड़ी है । लिहाज़ा पछताना इंसानीसिफ़त के लिए जरुरी फ़र्ज हुआ । आदमी घोषित रूप से गलतियों का पुतला हो और पछताए नहीं ! ये कैसे हो सकता है । ऊपर वाले ने आला दिमाग दिया है तो इसलिए कि वक्त जरुरत इस्तेमाल कर लिया जाये ।  अच्छी बात ये है कि इस पर जीएसटी भी नहीं लगता है, और क्या चाहिए भाइयो-बहनों । पछताता हुआ आदमी हर किसी को अच्छा लगता है । देवालय में जा कर बन्दा धुटने टेक ठीक से पछता ले तो ईश्वर भी उसकी कोई फ़ाइल पेंडिंग न रखे । नादां आदमी के हाथ में जाम हो तो उसे जन्नत की फ़िक्र और जब जन्नत की तलबगारी सर चढ़े तो जाम की कसक जोर मारे ।  इस बहाली में एक पछतावा ही है जो आदमी को इन्सान बनता है । किसी शायर ने कहा है- “रात को पी, सुबह तौबा कर ली ।  रिंद के रिंद रहे, जन्नत भी नहीं गई । ”

लेकिन हर किसीको जन्नत-पकड़ तौबा की जरुरत नहीं है । मध्यवर्गीय, संस्कारवान और भले किस्म के दोपाये दर्जनभर केले या एक किलो लौकी ले कर भी अच्छी तरह पछता सकते हैं कि मंहगी ले ली । आप यों मानिये कि पछताना एक किस्म का पैदाइशी हुनर है । लेखकों की पत्नियाँ अक्सर सूर्योदय तक किसी भी बात पर माथा ठोंक कर कह देतीं हैं कि “मेरी किस्मत फूटी थी कि .....” . बस ! अब दिन भर के लिए वे इंसान हैं और लेखक बेचारा खांमखां जानवर । वो कवि, छिपकली को देख कर भी सौन्दर्यबोध जगा लेने वाला, दिन भर सोचता रहता है कि आखिर पछताए तो किस बात पर!!

निराश होने से पहले आप चाहें तो लोकतंत्र की सराहना कर सकते हैं । जो व्यवस्था पछताने के अधिक अवसर देती है । लोग वोट किसे भी दें पछताते जरूर हैं । सुनते आ रहे हैं कि देश में सवा सौ करोड़ भाई-बहन हैं । इस समय सारे इस या उस कारण से पछता कर दोहरे हुए जा रहे हैं । गिनिस बुक वालों के पास अवसर है, वे चाहें तो एक साथ सवा सौ लोगों के पछताने का वर्ल्ड रिकार्ड दर्ज कर सकते हैं ।
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सोमवार, 22 अप्रैल 2019

घोड़े घास से दोस्ती नहीं करते



रामदास चारघोड़े आते ही भड़के-  “भाऊ तुम तो कहते थे कि सबके वोट की कीमत बरोबर होती है ! पर देखो इधर क्या चल रहा है ! कोई पाँच सौ दे रहा है कोई हजार नगद । किसी को साड़ी कंबल किसी को दारू चिकन । ...लेकिन अपन को क्या समझते हैं ये लोग ! अपना वोट मंडी का फोकट माल है क्या ?! अपने सामने पार्टी के लोग आते हैं और हाथ हिला के चले जाते हैं । कभी अपन को भी देखना चाहिए कि इस टाटा में कितना घाटा है ।“
दरअसल हुआ यह कि रामदास चारघोड़े की महरी ने आज सुबह ही मिसेस शिखा चारघोड़े को कहा कि वो अब अक्खा दो दिन छुट्टी मारेगी । कायकू पूछने पर बोली - “पारटी वाले आके बोले कि दारू चिक्कन बाँटेंगे सबकू, घर पेई रेने का । मरद लोगू को बाटली बी दे के जाएंगे बोलते । बच्चों को मिठाई के वास्ते नोट बी देंगे बोले, करारे कड़क । गए चुनाव में कुक्कर मिला सबको, मईने चालीस नंबर वाली सुकला बाई को बेचा आदी किम्मत में । बाई सीजन का टेम है, करनाईच पड़ता है । चुनाव रोज रोज तो होते नई ना ... दो दिन तुम फटका बर्तन कर लोगी तो तुमरा बी हात पेर खुल जाएगा । वैसे बी बदन थोड़ा हल्का हो जाए तो बिलकुल करीना लगती तुम । ......  हय कि नई । “
जिस दिन महरी छुट्टी पर हो उस दिन हर मालकिन बारूद का चलता फिरता ढेर होती है । उस पर मामला दूसरे के वोट की कीमत का हो तो आग लगना ही है । पहले भभके में रामदास झुलस गए । नॉटकरणी ठंडा पानी लाएँ इसके पहले वे फिर बोले- “ सर्विस क्लास होना पाप हो गया भाऊ ! सारी जिंदगी इलेकशन ड्यूटी कर-कर के निकल गई । सोचा कि चलो देश सेवा है कर लो और नौकरी भी बचा लो । कलेक्टर लोग को पवार भी इतने होते हैं कि जान निकलती थी । .... चलो हो गया, पर पार्टियों को तो सोचना चाहिए कि नहीं । उधर सस्ता अनाज, सस्ता घासलेट, सस्ती बिजली, सस्ता इलाज, भोजन भंडारे । बेटी की पैदाइश और शादी का मुआवजा अलग से । अब वोट के लिए दारू चिकन और पाँच सौ का नोट भी ।      उधर लोकतंत्र उत्सव और इधर लोकतंत्र ड्यूटी । ये कैसे चलेगा !”
“तुमको सरकारी पक्की नौकरी भी तो थी भाऊ । तनखा और महंगाई-भत्ता अलग से मिला, बंगला-गाड़ी सब बनाया कि नहीं दस से पाँच में ? बैठो शांति से .... पहले ठंडा पानी पियो ।  नॉटकरणी  ने कहा ।
पानी पी कर बोले-  “चाय में शकर कम डलवाना और भाभी जी को कहना कि बिस्किट दो ही लूँगा । ज्यादा मत निकालना, सील जाते हैं ।“ चारघोड़े जी ने अपने चारे का इंतजाम किया ।  
“चुनाव के दौरान कुछ भी बाँटना गैरकानूनी है । तुम अफवाहों पर ध्यान मत दिया करो ।“ नॉटकरणी ने समझाया ।
“क्या बात करते हो !  हमारी रामरती बाई से पूछ लो । हर चुनाव में उन लोगों को रुपये मिलते हैं ।“
“ये देखना प्रशासन का काम है  ... और फिर हम लोग पार्टियों से पैसा मांगेंगे तो अच्छा लगेगा क्या ?”
“इसमें अच्छे बुरे का सवाल क्या  है ? चुनाव में ऊपर से नीचे तक कितना अच्छा बुरा हो रहा है यह किसी से छुपा है ? सुना है उम्मीदवार घसीटासिंग ने एक ट्रक बकरों का आर्डर दिया है !! हम बेवकूफ केटेगीरी वाले चुनावी बहस करते रहें और उधर बकरे-मुर्गे सरकार बनवा दें !! हम शिक्षित समझदार हैं तो क्या सिर्फ आयकर का फार्म नंबर सोला भरने और टीडीएस कटवाने के लिए ! ..... ये नहीं चलेगा, अपन को आवाज तो उठानी पड़ेगी । घोड़े घास से दोस्ती नहीं करते । “

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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

चुनावी चुल - बुल और गरीबी हटाओ -3



पिछले दिनों दबंग -3 की शूटिंग देखने के चक्कर में पचिसों धक्के और दो दो डंडे खा कर लौटे चुल और बुल उदास बैठे थे और सलमान को बीड़ी पीते हुए रिजेक्ट कर रहे थे ।  तभी कुछ पार्टीबाज़ हुजूम में आए और उन्हें पर्चे पकड़ा गए । लिखा था गरीबी हटाएँगे । किसी जमाने में दादी ने कहा था, पापा ने भी कहा था, अब ये कह रहे हैं ।

 पर्चा देखते हुए चुल बोला – “चल जाएगी ?” 

बुल ने पूछा- “क्या दबंग -3 ?”

“नहीं रे, गरीबी हटाओ -3 । “

“काठ की हांडी कितनी ही मजबूत क्यों न हो तीसरी बार नहीं चढ़ती है । “ बुल ने मुहावरा जड़ा जो चुल को समझ में नहीं आया, बोला – “किसको वोट दें समझ में नहीं आ रहा है ! “

“अरे इसमे दिक्कत क्या है !! जो चुनाव में खड़े हैं उनमें से किसी एक को दे मरो । “

“बहुत कंफूजन है यार ! जो खड़े हैं उनके लिए कोई वोट मांग नहीं रहा है । कहते हैं वोट भले ही इनको दो वो जाएगा ऊपर ही । “ चुल ने पर्चे को गौर से देखते हुये कहा ।

“तो जाने दे ऊपर । कितनी बार वोट दिये हैं कुछ पता चला उनका क्या हुआ ! अपने हाथ से एक बार निकला वोट किधर जाता है इससे अपने को क्या ?”

“ है क्यों नहीं !? गरीबी हटाने की कै रहे हैं । अगर हट गई तो हमारे भी सुख चैन के दिन आ सकते हैं कि नहीं । दद्दा मर गए सपना देखते देखते । पता नहीं अब भी सपना देख रहे हों कहीं पैदा हो के । हम सोचते हैं कि अबकी सही जगो पे वोट दे दें तो क्या पता गरीबी जो है दारी हट ही जाए । बहुत परेसान कर लिया । “ चुल उम्मीद से भरने लगा ।

“अबे पागल है क्या ! गरीबी कोई सब्जी मंडी का अतिक्रमण है जो कि सरकार के कहे से पुलिस डांडा ले के हाँक देगी और वो हट जाएगी !” बुल नहीं माना ।

“देख ले ! बहत्तर हजार देने का बोले हैं । सबको मिलेगा । सस्ता अनाज, सस्ता अस्पताल, सस्ता स्कूल, सस्ता घर सब देंगे तो कहाँ रहेगी गरीबी । मैं तो काम वाम छोड़ दूंगा । मजे में बैठ के खाऊँगा सुबे शाम पऊवा लगा के । और क्या चाहिए अपने को । नेता नहीं राजा महाराजा हैं ये लोग ।“ पर्चे में लिखी घोषणाएँ दिखा कर चुल बोला ।

“राजा महाराजा नहीं रे मूरख, राजनीति में भी चुलबुल पांडे होते हैं बड़े वाले । हाथ हिलाते निकल जाएंगे और आखरी में जब पिक्चर खतम होगी तो हमारे हाथ में आधा फटा हुआ टिकिट  रह जाएगा बस । उसी से मिटा लेना अपनी गरीबी । .... देख कचरा गाड़ी आ रही है, पूछ लेना इस पर्चे को गीले में डालना है या सूखे में । “
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बुधवार, 10 अप्रैल 2019

दोनों कान का इस्तेमाल सीखो



क्षेत्रीय दल के प्रधान थाने के सामने हुजूम के साथ मौजूद थे । उनकी शिकायत यह कि केंद्र सरकार ने पिछली बार तमाम वादे किए थे लेकिन उनमें से ज़्यादातर पूरे नहीं किए । इसलिए चार-बीस का केस दर्ज कीजिये फटाफट । थानेदार पुराना था और चोरी बलात्कार जैसी घटनाओं की शिकायत भी नहीं लिखने के लिए मशहूर था । उसका मानना था कि सरकार उसे रिपोर्ट नहीं लिखने का वेतन देती है । थानों पर रिपोर्ट लिखवाने की मंशा होती तो सरकार थानों में कागज-कार्बन, पेन और पढेलिखे स्टाफ की भी नियुक्ति करती । थानों की व्यवस्था और पैमाने अलग हैं । प्रथम श्रेणी थानेदार वही होता है जो एक मिनिट में कम से कम साठ गलियाँ दे सके । जब हाथ उठाए तो पहले कमर पर रखे और इससे काम नहीं चले तो डंडे का इस्तेमाल करने का उसे बाकायदा संवैधानिक अधिकार है । पुलिस पहले पुलिस होती है बाद में आदमी । थानेदार ने साफ माना कर दिया कि इस तरह का केस दर्ज नहीं हो सकता । चुनाव के बाज़ार में वादों के सिक्के उसी तरह चलते हैं जिस तरह वाट्सएप में बधाइयों के साथ केक और मिठाई की प्लेटें चलती हैं । कोई थाने में यह रिपोर्ट लिखने आ जाए कि मुझे आभासी मिठाई दे कर चीट किया गया है तो थानेदार बोलेगा भईया खा मत, डिलीट कर दे अगर पसंद नहीं आ रही है तो । लोकतन्त्र को पौन सदी हो रहा है और बच्चा बच्चा जानता है कि चुनावी वादा दरअसल वादा होता ही नहीं है । वादा अलग चीज है और चुनावी वादा अलग । जैसे लोग संत महात्माओं के प्रवचन सुनते हैं, ईमानदारी, सच्चाई, दया और प्रेम की तमाम बातें होती हैं, लेकिन भक्त एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं । कोई गांठ बांध के घर ले आए तो गलती किसकी ? केस किसपे दर्ज करना चाहिए ? इसीलिए विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत में लोग अभी लोकतन्त्र के लिए परिपक्व नहीं हैं । ऐसे लोगों को क्या कहा जाए जो चुनावी वादों पर तो लपक पड़ते हैं लेकिन सरकार ने पाँच साल तक क्या किया इस पर ध्यान नहीं देते । जो मछली चारा देखा कर फंस जाए उसे समझदार मछली कौन कहेगा । अच्छे नागरिक बनाना है तो दोनों कान का इस्तेमाल सीखो ।
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सोमवार, 8 अप्रैल 2019

कबीरा झूठा सब संसार, कोऊ न अपना मीत




कहा जाता है कि झूठ के पाँव नहीं होते हैं । लेकिन इन्टरनेट के जमाने में अब पाँव से चलता कौन है ! झूठ मुआ स्मार्ट हो गया है । डेढ़ जीबी डाटा में झूठ दिन भर ऐसे छाती ठोक के आता जाता है जैसे सच का बाप हो । चुनाव का मौसम है और विशेषज्ञ बिना किसी झिझक के मानते हैं कि झूठ का मौसम है । दिल्ली झूठ की राष्ट्रीय मंडी है । पुराने दिल्लीबाज़ कभी किसी पर विश्वास नहीं करते हैं । उनका तजुरबा है कि जो जितनी लंबी लंबी छोड़ता होता है उसकी पतंग उतनी ऊंची ऊंची उड़ती है । कहते हैं झूठ हजार बार बोला जाए तो उसका सिक्का सच की तरह चलता है । तकनीकी विकास ने झूठ के बाज़ार को पंख लगा दिये हैं । इधर से झूठ का आलू डालो और उधर से सच का सोना निकालो । हर हाथ में फेक्ट्री है और हुनर तो दे ही रखा है उप्पर वाले ने । एक झूठ पंद्रह मिनिट में सच की फसल हो जाता है । आज की जनता जिसके अंदर रियाया होने जींस अभी भी बल खा रहे हैं, मानती है कि महाराज पीढ़ी दर पीढ़ी ईश्वर के प्रतिनिधि हैं । मतलब बावजूद जनतंत्र के महाराज की ही जय हो । देने वाला श्री भगवान होता है, चाहे वो देने का वादा करे और न भी दे । संत कह गए हैं कि जगत मिथ्या है तो राजपाठ भी मिथ्या है, वोट भी मिथ्या है । जीवन चार दिनों का, वह भी समझो भ्रम है । गालिब ने कहा है कि दो आरजू में कट गए दो इंतजार में, हासिल कुछ भी नहीं हुआ । जब गालिब को नहीं हुआ तो बाकियों को क्या होगा ।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ; मैं बपुरा बूरन डरा, रहा किनारे बैठ । तो फिर खोजें  सत्य क्या है !? आवाज आई बच्चा राम नाम सत्य है, बड़ा सत्य परलोक है । शरीर झूठा है आत्मा सच्ची, जब मौका मिले निकल्ले । सपनों से बड़ा कोई सुख नहीं और जो सुखदाई है वही सच है । सपना चाहे जन्नत में बहत्तर हूरों का हो या बहत्तर हजार रुपए सालाना मुफ्त खाते में आने का हो, सुखदाई है । झूठ के व्यापार की जमीन हमेशा हरी होती है । गधे आँखें बंद करके इस इरादे से चरते हैं कि सारी की सारी मैं ही चर लूँगा । और आश्चर्य की बात यह कि बिना चारा वे मोटे भी होते रहते हैं । इधर तो सबकी आँखें बंद हैं । किसी का ये खतरे में है तो किसी का वो खतरे में है । लेकिन खतरे का सच यह है कि कोई खतरे में नहीं है । हर पार्टी डर और विश्वास के बीच अपना अपना इंसुलीन बेच रही है । वह माने बैठी हैं कि उनके प्रति एक भरोसा है सबके दिमाग में । इस फर्जी भरोसे को उन्हें बस जिंदा रखना है चुनाव तक । उसके बाद लोगों की आँखें खुलती हों तो खुल जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ।

 लोहे से लोहा कटता है । फर्जी सामग्री की काट फर्जी सामग्री है । इधर फर्जी तो उधर भी फर्जी । वोटर को जब तक समझ में आएगा तब तक लीडर चुग जाएगा खेत । बस आप खामोश रहिए । जनसंख्या एक सौ पैंतीस करोड़ है लेकिन यह सच नहीं है । गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी सच नहीं है । हत्या और बलात्कार भी सच नहीं हैं । बेईमानी, भ्रष्टाचार तो कतई सच नहीं हैं । रेडियो पर कोई गा रहा है  “कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो ।  क्या कहना है, क्या सुनना है । मुझको पता है, तुमको पता है । समय का ये पल, थम सा गया है और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ । बस एक तुम हो

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

फर्जी सब संसार



तकनीकी रूप से जैसे जैसे समाज तरक्की कर रहा है वैसे वैसे फर्जी सूचनाओं का बाज़ार गर्म हो रहा है । चुनाव के इस माहौल में अनेक फर्जी चुनाव विशेषज्ञ मीडिया के कप में मक्खी की तरह तैर रहे हैं । आँख खुली हो तब प्रश्न पैदा हो कि आँखों देखी मक्खी कोई निगले या नहीं निगले । पर इधर तो सबकी आँखें बंद हैं । पार्टियां माने बैठी हैं कि उनके प्रति एक भरोसा है सबके दिमाग में । इस फर्जी भरोसे को उन्हें बस जिंदा रखना है चुनाव तक । उसके बाद लोगों की आँखें खुलती हों तो खुल जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । इसी चक्कर में सूचनाओं का फर्जीवाड़ा अपनी दुकान चलाने में कामयाब होता नजर आ रहा है । खबर है कि फेसबुक ने हाल ही में ग्यारह सौ से अधिक फर्जी सामग्री वाले पेज बंद किए जिसमें लगभग सात सौ पेज कांग्रेस के थे । इस तरह की फर्जी दुकान के लिए फर्जी अकाउंट बनाना पड़ते हैं । किसी ने कहा कि फर्जी अकाउंट बनाना और फर्जी सामग्री प्रसारित करना गैरकानूनी है । लेकिन जिम्मेदार मानते हैं कि चुनाव कानून से ऊपर होते हैं । जंग, मोहब्बत और चुनाव में सब जायज होता हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो ट्रंफ आज अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं होता । जो चीज अमेरिका में जायज है वो यहाँ भी है । रहा सवाल दूसरी पार्टियों का तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है । लोहे से लोहा कटता है । फर्जी सामग्री की काट फर्जी सामग्री है । इधर फर्जी तो उधर भी फर्जी । वोटर को जब तक समझ में आएगा तब तक चिड़िया चुग जाएगी खेत ।

जो लोग बेरोजगारी जैसी समस्याओं को लेकर छाती कूटते हैं उन्हें देखना चाहिए कि फर्जी सूचनाओं के व्यवसाय में कितनी मांग है प्रतिभाशाली लोगों की । कुछ स्वच्छतावादी फर्जी सामग्री बनाने वाले कलाकारों को असामाजिक तत्व कहते हैं तो घ्यान न दें । सच्चा कलाकार वही होता है जो जमाने की कहा सुनी पर कान नहीं दे और अपने काम में लगा रहे । महात्माओं ने संसार को मिथ्या बहुत सोच समझ कर कहा है तो मन में किसी प्रकार का अपराधबोध रखने कि जरूरत नहीं है । घर बैठे फर्जी का फर्ज पूरा करो मजे में और दाम ले जाओ हाथों हाथ । जनता की चिंता करने कि जरूरत नहीं है । उसका ट्रेक रेकार्ड है कि वह फर्जी बातों पर हजारों साल से भरोसा करती आई है और आगे भी करती रहेगी । हमारे यहाँ कोई कानून भी नहीं है जो फर्जी सामग्री बनाने के मामले किसी को अपराधी बनाए । किसी की मानहानि पर जरूर कानूनी अड़चन आती है लेकिन देखिये कि लोकतन्त्र में चुनाव का समय कीचड़ उछलने का समय होता है । जो दो एक दूसरे की बेइज्जती में चूकते नहीं है वे चुनाव के बाद सब भूल कर गले मिल लेते हैं । ऐसे मौकों पर कानून थैंक्यू के अलावा और क्या कह सकता हैं !!
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