रविवार, 11 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्राश – 7 ( दारू कब बांटेगी )



“पता चला,कब बांटेगी ?”
“अभी तो कोई रमूज नी लगी हे । पर बांटेगी जरूर । “
“ अभी बांटना चिए यार । अपने को कोई दिक्कत नी हे पर कारकरता दिनभर टप्पे खाता रेता हे । थकान हो जाती हे तो दूसरे दिन उठ नी पाता हे ।“
“भिया भी क्या करें यार । अभी बांटना सुरू कर दें तो बजट बिगड़ जाएगा । अभी तो अठरा दिन बाकी हें ।“
“ कारकरता खिसक लेंगे पेलवान इस स्यानपत्ति में । सुना हे कि सामने वाले ने बांटना सुरू कर दी हे । “
“ कोन सी वाली बाँट रा हे ?!”
 वोई , कुत्ता छाप । क्वाटर मिल रा हे हरेक को  ।“
“ फिर तो लोग खिसक लेंगे जेसे जेसे पता चलेगा !! “
“ येई तो ! येई चार दिन होते हें कारकरता की जवाईं की तरे पूछ होती हे , वरना बाद में तो चूसी हड्डी भी नी डालता हे कोई । “
चुनाव में दारू बांटना पड़ती है । जैसे फसल लेने के लिए पौधों को सींचना पड़ता है । पुलिस को पता होता है, कुछ पेटियाँ पहले उनको भी पहुंचाई जाती हैं । आखिर पुलिस भी इंसान है, थकते वो भी हैं । गरीब के लिए तो दारू सम्मान है । मिल जाए तभी उसको लगता है कि इज्जत हुई । पिछली बार तो आखरी दो दिन मुर्गे भी बांटे गए थे ।  वो तो मोटा भाई को टिकिट नहीं मिला इस बार, वरना एक ट्रक बकरों का आर्डर दे रखा था । महीने भर से लोगों की हंडियाँ उम्मीद से हो गईं थीं ।  मोटा भाई दारू के साथ पाँच सौ का नोट भी बांटता है । लेकिन मेनेजमेंट सही नहीं था इसलिए पिछले दो चुनाव हार गया ।
पोपसिंग जादो का मेनेजमेंट बढ़िया है । सुबह का समय थोड़ा खाली रहता हैं । कार्यकर्ता लेट आते हैं । सबको जमा होने में नौ बजता है और प्रचार के लिए निकलते निकलते दस । इसबीच पोपसिंग भिया कुछ घरों में पर्सनली मिल आते हैं । आज भी वे सिविल लाइन की मनाकर फेमिली में पहुंचे हैं । सुरेश मनाकर गमलों में पानी दे रहे थे । और उनकी पत्नी जयश्री मनाकर किचन में थी ।
पोपसिंग भिया ने गाड़ी से उतरते ही हांक लगाई –“ और क्या सुरेश जी, क्या हो रहा है ?”
“ कुछ नहीं गमलों से जनसम्पर्क कर रहा हूँ , आइये । “
पोपसिंग उत्तर के विस्तार में जाते इसके पहले जयश्री दिख गईं । -“ नमस्कार भाभी जी, आज नास्ते में क्या बन रहा है ? सोचा आज आपके हाथ का ही खाऊँगा । “
“ अभी तो कुछ नहीं बन रहा है भाई साहब । दिवाली का पड़ा है बहुत सारा । मेरा इनका पेट खराब है , बनाने का कोई फायदा नहीं है । “ जयश्री मनाकर ने साफ मना कर दिया ।
“ तो आज सुरेश जी को नास्ता नहीं मिलेगा क्या ? चलो सुरेश भाई आज मैं आपको नास्ता करवा के  लाता हूँ । भाभी जी के लिए भी ले कर आते हैं बढ़िया जलेबी पोहा । “
 “ अरे ऐसा कैसे ! तुम कुछ बनाने वाली थीं ना  ? सुरेश जी ने अर्थपूर्ण संवाद किया ।
“ शाम की रोटियां बची हैं , उन्हीं को चूर के बघारना है बस । “
“ अरे वाह !! बासी बघारी चूरा-रोटी !! ये तो मुझे बहुत पसंद है । बनाओ बनाओ । “ पोपसिंग को पता है कि जयश्री मोहल्ला भगिनी मण्डल  की अध्यक्ष है । “
और क्या सुरेश जी ?”
“ वोट तो आपको ही देना है । सामने वाली पार्टी ब्लेक डॉग का आफ़र दे रही थी । मना कर दिया हमने तो । कहा कि अगर ब्लेक डॉग ही लेना होगी तो अपने भिया से ले लेंगे । घर की बात है ।“ सुरेश मनाकर ने अपनी मांग रखी ।
“ अरे इसमें क्या है ! आपको एक बोतल पहुंचा दूंगा । “
“ सामने वाली पार्टी दो दे रही थी पर मैंने मना कर दिया .....”
“ ठीक है, कोई दिक्कत नहीं है , दो भेज दूंगा ..... पर ....?”
“ आप बिलकुल चिंता मत करो । वाइफ भगिनी मण्डल सम्हाल लेगी और बाकी मैं देख लूँगा । “
जयश्री प्लेट मे बघारी रोटी-चूरा ले आई । "घर में दूध नहीं है वरना चाय भी बनती ।"
" कोई बात नहीं भाभी जी , आपके लिए भी वोड्का भिजवाता हूँ आज । "
" एक तो गले में ही अटक जाती है भाई साब । "
" आपके लिए दो भिजवाता हूँ भाभी जी । "

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शनिवार, 10 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्राश – 6 .... ( ढम ढम बाजे ढ़ोल )




पोपसिंग जादो भिया के पट्ठों ने शहर भर के ढोलियों को बयाना दे कर बुक कर लिया । इरादा ये कि अगर टिकिट नहीं मिला तो किसी और को भी बजवाने नहीं देंगे । सारे ढोलियों को अखाड़े के आंगन में बैठे रहने का पैसा देंगे । और अगर मिल गया तो हमारा ही बजेगा किसी और का नहीं बजने देंगे । गनीमत यह रही कि पोपसिंग जादो भिया को टिकिट  मिल गया और जैसा कि तय था खबर के साथ ढोलियों को जोत दिया गया है । ढोलियों की खास मांग पर सबको एक एक अंटा भांग का भी दिया गया है, साथ में यह हिदायत भी कि पहले दौर में सब बजाएँगे और एक घंटे तक हाथ रुकना नहीं चाहिए । पल झपकते ही माहौल जानलेवा बन गया । लगा जैसे आसमान फट पड़ा हो शोर का । सबसे पहले कुत्ते बिल्लियाँ भाग कर दुबक लिए कहीं । माताओं से छोटे बच्चे चिपक लिये । बूढ़े बीमार जो आलरेडी भगवान को याद कर रहे थे, उन्हें लगा कि प्रभु विराट रूप के साथ प्रकट हो रहे हैं । जैसे स्टेशन पर ट्रेन आते ही लोग अपना लगेज थामने लगते हैं, कइयों ने गंगा जल मुंह में डाल लिया है । अभी गगन भेदी माहौल बना ही था कि पोपसिंग जादो भिया की माँ घबरा कर अचेत होने की ओर कूच कर गईं । तत्काल ढ़ोल बंद कराये गए । हवा में सवाल तैर गया “गईं क्या ?!” उछल कूद रही पोप पलटन गियर बदल कर छती कूटने और विलापने को तत्पर होने लगी । लेकिन किसी ने आ कर कहा कि अभी इसकी जरूरत नहीं है । खैर ।
ढ़ोल आज की राजनीति में नेता का घोषणा पत्र है । ढ़ोल में जितनी पोल होती है उतना ज़ोर से बजता है । चुनाव में सुर की नहीं शोर की जरूरत होती है । इसलिए उम्मीदवार जब जनसम्पर्क पर निकलते हैं तो विशेष सावधानी रखते हैं कि कहीं जनसम्पर्क हो न जाए । जनता को संपर्क में नहीं शिकायतों में रुचि होती है । नेता दो मिनिट को भी हाथ लग जाए तो पाँच साल का पिटारा खोल कर बैठ जाते हैं कंबखत । पकड़म पाटी के इस खेल में नौसिखिये नेता अक्सर फंस जाते देखे गए हैं । पोपसिंग भिया के साथ भी इस समय ढोलियों का जरूरी इंतजाम है । खुद उनके कार्यकर्ता लोग आपस में सुन नहीं पा रहे हैं, लेकिन मान रहे हैं कि मजा आ रिया हे । वोटर अलग प्रजाति का नहीं है, उसने कान बंद कर लिए हैं और इस चक्कर में मुंह भी बंद ही है ।  यही ढ़ोल वोटर ने पाँच साल पहले भी सुने थे । पहले पाँच ढोली थे आज बीस हैं । तरक्की तो हुई है । नेता जो कहते हैं वो करते भी हैं । लेकिन लोग समझे तब ना । वो तो अच्छा है कि सामने वाली पार्टी भी ढ़ोल ले कर निकलती है और जनता को कुछ अल्लम गल्लम समझा नहीं पाती है । वरना लोगों को महंगाई, बेरोजगारी, अपराध जैसी रूटीन की और फालतू बातें याद दिलाने में देर लगे क्या !! सरकार ने समझाया है कि चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है । और उत्सव में कुछ सोचा नहीं जाता है, सिर्फ मनाया जाता है ।
जनसम्पर्क में एक भीड़ साथ चल रही है जिनमें से अधिकांश मौका मिलते ही खिसकाना चाहते हैं लेकिन अपने अपने कारणों से फंसे हुए हैं । कुछ लोग कल सामने वाले के जनसम्पर्क में शामिल थे और पोहा जलेबी के साथ एक एक लीटर पेट्रोल को भी याद कर रहे थे । कुछ माने हुए हैं कि मिलेगा । पोपसिंग भिया की जेब उनके कुर्ते में नहीं होती है, उनकी जेबें शहर भर में फैली हुई हैं । यह समय जादू-समय है, बड़ा आदमी इस समय थैली या जेब हो जाता है । आज एक खाली करेगा तो कल दो भरेगा । उम्मीद पर दुनिया के अलावा सिस्टम भी टिका हुआ है ।
काफिला एक जगह थमा तो सारे ढोली सुस्ताने बैठ गए । अंदर नाश्ता बाँट रहा था । कार्यकर्ता एक प्लेट ले कर खाते हुए दूसरी के लिए वितरण स्थल की ओर लक्ष किए थे । कुछ को चाय का प्लास्टिक कप भी हाथ लग गया था । ढोलियों ने मांगा तो उन्हें पानी मिल गया, बाकी के लिए वे संभावना शेष थी ।
“भिया, थोड़ा  नाश्ता  देओ ना हमको भी ।“ एक ढोली ने कहा ।  
“ पहले पार्टी वाले खा लें यार ..... फिर देखता हूँ .... । “
“ नाश्ता मांग रहे हैं भिया वोट नहीं । “
“ हाँ हाँ , देखता हूँ । रुको तो । “  कह कर वो गया तो केलेण्डर का पन्ना हो गया ।
अचानक जनसम्पर्क फिर शुरू हो गया । ढोलियों को लगाना पड़ा । सारे एक सुर में ढ़ोल पीटने लगे, धुक्कड़  धेइई  ... धेइईधान धेइई ,  धुक्कड़ धेइई... धेइईधान धेइई  जनसम्पर्क चल रहा था , ढोली मुस्करा रहे थे । उनके ढ़ोल चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे “भुक्कड़ हैं, बेईमान हैं , भुक्कड़ हैं, बेईमान हैं” । मानो गूंगे का गुड़ था जिसका मजा वे ढोली ही ले रहे थे ।
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मंगलवार, 6 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्राश – 5 ( असिस्टेंट भीड़ मेनेजर )


पार्टी कार्यालय के पास जय भवानी टी स्टाल पर इन दिनों राजनीति का क्रेश कोर्स सा चल रहा है । कोई गुरु है कोई उस्ताद और कोई फ्रेंड, फ़िलासफ़र, गाइड है । नए पुरानों से और पुराने नयों से सीख रहे हैं । इसी चक्कर में पुराने टी शर्ट  में और नये आधी बांह के कुर्ते में नजर आ रहे हैं । पचहत्तर पार वाले टी शर्ट, हेयर डाइ और काले चश्में के सहारे अपने को युवा हृदय सम्राट की पटरी पर घसीट रहे हैं । छोटों का दावा ये कि वे बड़ों के रेले जानते हैं और बड़े छोटों कि नस नस से वाकिफ हैं । वोटरों के पैर छू छू के जिनकी आत्मा पर छाले पड़ गए हैं वे अब नयों से घुटने छुलवा कर चन्दन सा कुछ लगवा रहे हैं । यहाँ चाय का मतलब कट चाय है और भिया का मतलब तो आप जानते ही हैं । साधारण लोग जिसे लोकतंत्र समझते हैं दरअसल वो भियातन्त्र है । भिया इसलिए लीडर हैं क्योंकि वे सपने दिखाना जानते हैं । लोगों के हाथ में काम नहीं है लेकिन आँखों में सपना है, वो भी भिया बनने का । महापुरुष कह गए हैं कि सपने देखना बंद मत करो । पूरे हो ना हों सपने देखते रहने से टाइम अच्छा पास होता है । पाँच साल कब निकल जाते हैं पता ही नहीं चलता है । एक जमाना था जब नौजवान लोग भगतसिंग-आज़ाद बनने का सपना देखा करते थे । लेकिन नयी पीढ़ी गलतियाँ ढ़ोने की बजाए सुधारने की हामी हैं । वे मानते हैं कि पुराने लोगों से सीखेंगे तो कुछ हासिल नहीं होगा । जमाना बादल गया है, हासिल करना ही सफलता है । इसलिए राजनीति के इस स्कूल में भिया-दर्शन, भियावाद, भियाचिंतन, भिया-एक्शन, भिया-रिएक्शन, भिया-कलेक्शन सिलेबस में हैं । जिसने समझ लिया, रास्ते उसके लिए खुल्ले हैं । चाय बेचो या शराब, इरादे मजबूत होना चिए  । दुनिया करमचंदों की है शरमचंदों की नहीं ।
  “देखो पेलवान,  क्या हे कि हर किसी को अपना अपना काम ठीक से करना चिए । सास्त्रों  में लिखा है कि काम कोई भी छोटा नहीं होता है । अपन नोकरी के भरोसे बैठे रहते तो आज भी बैठे ही रहते । अपन जग्गा बापू हैं क्या । नाम तो सुनाई होगा ? आज जग्गा बापू का नाम चलता है ऊपर से नीचे तलक तो ऐसई नहीं । “
“ जग्गा बापू !!! आप  तो ......च च !”
“हाँ , चोरी का बिजनेस है अपना । क्या हे कोई काम छोटा नहीं होता है और कोई काम बुरा भी नहीं होता है । भावना अच्छी होना चिए बस । पर लोग होन जो काम कर नहीं पाते हैं उसको बुरा बोलने लगते हैं । अब माल्या लोन लेके भाग गया तो हर कोई उसको गाली दे रहा है । इनमें से किसी को भी हजार करोड़ दे दो फिर देखो ये कहाँ मिलते हैं । ... तुम क्या करते हो ?  जग्गा बापू ने पूछा ।
“ अभी तो असिस्टेंट भीड़ मेनेजर हूँ । पोपसिंग यादो भिया ने बोला है कि चुनाव का टाइम है, भीड़ बनो बनाओ, नारे-वारे भी लगाना । ... पर पता नहीं पेमेंट देंगे या नहीं । “
  “ पढे लिखे हो क्या !?” बापू ने धीरे से पूछा ।
“ हाँ, इंजीनियर हूँ । घरों के नक्शे बना सकता हूँ ....लेकिन....ये करना पड़ रहा है ।“
“ सही रास्ते पर हो । काम कोई छोटा बड़ा या अच्छा बुरा नहीं होता है । पोपसिंग यदो ने ठीक किया, लोकतंत्र से कुछ हासिल करना है तो सबसे पहले भीड़ बनना चिए । सरकार पर भीड़ का कर्ज होता है । इसलिए हर मौके पर वो भीड़ के समर्थन में होती है । भीड़ को छोटा मत समझो, जो काम कानून से नहीं हो सकता है वो भीड़ से हो जाता है । और ये बात भी ध्यान रखो कि बिना भीड़ के नेता नहीं होता है ।“
“ लेकिन चुनाव के बाद क्या करूंगा बापू ?”
“ ये पोपसिंग यदो भिया का हेडेक है तुम्हारा नहीं । तुम बस भीड़ बने रहो । शेर के साथ लगे रहने वाले को हड्डी का टोटा नहीं रहता है । .... चाहो तो मेरे साथ लग जाना । अपने हाथ के नीचे भी चार आदमी काम करते हैं । आजकल पासवर्ड के मार्फत चोरी होती है, तुम पढे लिखे हो तो अपनी कंपनी बड़ी हो जाएगी ।“
“अरे बापू !! में ये नहीं कर पाऊँगा । पकड़े गए तो जिंदगी बर्बाद हो जाएगी । “
“ऐसे कैसे पकड़े जाएंगे !! भिया का काम नई कर रये ! भिया का हाथ है अपने उपर । फिर पुलिस, वो सब जानती है, और मानती भी है । सब एक दूसरे के लिए जरूरी हैं और सारे एक ही हम्माम में खड़े हैं ।“
बापू मानते हैं कि पुलिस डाइरेक्ट जनता की सेवक है और उनके जैसे लोग इंडाइरेक्ट सेवक है । पिछली बार भिया को फंड की जरूरत पड़ी थी तो बापू ने बैंक के तीन एटीएम तोड़े थे । लोकतन्त्र की रक्षा के लिए हर किसी योगदान देना पड़ता है । 
 अभी देखो, भिया ने बोला है कि बापू एक महिना चोरी बंद, बस पार्टी का काम करो । जैसे पुलिस ड्यूटी करती है वैसी अपनी भी है । पहले सरकार बन जाए, विभाग तय हो जाएँ, भिया लोग काम सम्हाल लें उसके बाद व्यवस्था बहाल हो जाएगी ।
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सोमवार, 5 नवंबर 2018

चुनावी चवनप्राश –4 ....... (जब तक सूरज चंद रहेगा ! )




देर रात घर आने वाले गब्बू पेलवान सरे शाम घर पहुँच गए । साथ में दो चार पट्ठे भी थे । पेलवानिन ने सुना तो बिखर गयी, -- “आपको टिकट नहीं दे रए !! इनका नास जाए, बिना तनखा का चपड़ासी बना के रखा है क्या !! समझते क्या हैं अपने आप को भूतनी के  !! .... तुम बात करो दूसरी पार्टी से ...., राजधानी में रात दिन मेंढक तुल रहे हैं, अकेले तुमको ही वफादारी का कुत्ता बनाने से क्या मतलब !! भले ही तुमको कुछ नहीं बनना होगा पर हमें तो विधायकिन बनना है । “
आज गब्बू भिया अंदर तक घायल थे, ब्रेड की स्लाइस तरह कई पीस में कटे हुए । बीवी का मॉरल सपोर्ट मिला तो हिम्मत आ गई । चेले से फोन लिया, शुरुवाती संवाद के बाद मुद्दा खुला, उधर से बोले - अगर आप कुछ दिन पहले हमारी पार्टी में आ गए होते तो आपका टिकट पक्का था । अब टिकिट तो बहुत मुश्किल है । लेकिन पार्टी में आपका स्वागत है । मैं बात करता हूं, ...  प्रदेश अध्यक्ष जी अपने दौरे के दौरान आपको पार्टी में समारोह पूर्वक ले लेंगे ।“
“ बिना टिकट आपके यहां आने का क्या मतलब है !! रोड शो की भीड़ तो मैं यहां भी हूं ही । आप जानते हो मेरे पास दो सौ कार्यकर्ता  हैं । चंदा हम लोग बढ़िया करते हैं सालभर, बिना रसीद के । हमारे भंडारों की बड़ी साख है शहर में । वोटरों ने हमारा इतना नमक खा लिया है कि वो अब किसी और को वोट दें यह हमें बर्दाश्त नहीं होगा । पिछले भंडारे में तो हमने नुकती की जगह गुलाब जामुन खिला दिए हैं  !? देखिए भाई साहब, आप ऊपर बात कीजिए । उन्हें कहिए कि गब्बू पेलवान ने कहा है कि  तुम मुझे टिकट दो, मैं तुम्हें सीट दूंगा” ।
“ आप समझने की कोशिश करो भाई साहब । हमारे अध्यक्ष अभी नए नए हैं ।  पहली बार बड़ी मुश्किल से उन्होंने टिकट बांटे हैं, जिसमें बड़ी कुश्तम कुश्ता हुई है । रहा सवाल किसी का टिकट काट कर आपको देने का तो उनको अभी इसका आईडिया नहीं है । पुराने लोगों की बात और थी । उन्हें चुनावी बकरा मंडी का अच्छा अंदाज रहता था ।  बढ़िया माल वे छोड़ते नहीं  थे । लेकिन अब साहब कंप्यूटर देख कर मुंह खोलते हैं । पहले वाले थैली देखकर खोलते थे । ..... थैली वैली अब नहीं चलती है, थैले का इंतजाम किए हो या नहीं ?”
गब्बू भिया ने बिना जवाब दिये फोन बंद कर दिया,- “टिकिट की बात नहीं कर रहे, थैला चिए ....!”
“ भिया बहन जी की पार्टी भी ठीक है, ... उधर बात करके देखो...”
उधर फोन मिलाया - “ हां जी भाई जी, बताइए, बहन जी क्या पॉलिसी है ?”
“ आप आ जाइए पार्टी में, आपका टिकट पक्का है, हो जाएगा । ... बहन जी खुद आपका वेलकम करेंगी और सफ़ेद गुलाब की एक कली भी देंगी । लेकिन आपकी तरफ से क्या तैयारी है ?”
“ पूरी तैयारी है, चुनाव लड़ेंगे और जीतेंगे भी ।“
 वह तो ठीक है, पर पार्टी को क्या देंगे ?”
“ टिकिट दे रहे हो तो पार्टी को भी एक थैली दे देंगे । “
“ थैली नहीं चलती इधर । .... यह बताओ कि गुलाबी नोटों की कितनी माला है पहनाओगे ? एक माला में पाँच हजार नोट होते हैं ।
“ ठीक है सोच कर बताते हैं । “
“ जल्दी सोचिए टिकट आपका पक्का है,  बहुत से लोग माला लिए इंतजार भी कर रहे हैं ।“
 पट्ठा बोला - “लगे हाथ साइकिल छाप पार्टी से भी बात करके देख लो उनका दृष्टिकोण शायद अभी भी कुछ मुलायम हो । “
“अरे एमपी में साइकिल वालों का क्या काम !!  सड़कें भले ही अमेरिका जैसी हों पंचर साइकिल पर कोई डबल सवारी बैठता है क्या ।“  
“ भैया लाल झंडे वाले भी खाली बैठे हैं वे तो छोटी थैली मैं भी मान जाएंगे । “
“ अरे चुप, गरीबों का देश होने के बावजूद जो अपनी सूरत सम्हाल नहीं कर पाए  वो दूसरे के चेहरे का मेकअप क्या करेंगे । इससे तो अच्छा है कि निर्दलीय लड़ा जाए । ..... चलो निर्दलीय लड़ेंगे, वो खिलाएँगे नहीं तो अपन खेल बिगड़ेंगे । “
पट्ठों ने नारा लगाया “जब तक सूरज चंद रहेगा .....”
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शनिवार, 3 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्राश --3 (अच्छाई हुआ टिकिट नी मिला)



“देखो यार ऐसा है कि अपुन टिकिट के वास्ते राजनीति करते-ई नी हें । मेरा तो मन-ई नी था । मेने तो मांगा-ई नी था किसी से । वो तो तुम लोग बोले तो सोचा चलो ठीक हे । आपना क्या हे , आपन तो फकीर आदमी हें । झोला उठा के चल देंगे कंई भी ।“ गुलाब सिंग उर्फ गब्बू भिया घर में उदास बैठे हैं । इस बार उम्मीद थी कि मिलेगा । ज़ोर भी खूब लगाया था । लेकिन जिस साँड की दुम पकड़ कर वैतरणी पार कर रहे थे उसी ने मँझधार में लात मार दी । अब बीच धार में कोई दूसरा साँड तो मिलने से रहा ।
पट्ठे भी उदास थे, एक बोला –“ गब्बू भिया आपकी कसम, देख लेना अबकी बार अपन साँड के लिए काम नी करेंगे । बड़ा चुनाव तो उसीको लड़ना हे । उसके झंडे-डंडे कोन उठता हे .... अपन-ई उठाते हें ना गधे कि तरे ! अबकी उसको पता चल जाएगा कि कार-करता क्या चीज होता हे । “
“अरे ठीक हे रे कानिया । तू लोड मत ले । अपने को कायकी कमी हे । अच्छाई हुआ टिकिट नी मिला, मिल जाता तो लोगों के पाऊँ छू छू के कमर दो दिन में तीन तलाक बोल देती । यूं समझ ले कि टिकिट नी मिला तो इज्जत बच गई । इज्जत टिकिट से बड़ी चीज होती हे बेटा ।“ पता नहीं गब्बू भिया ने अपने को तसल्ली दी या कनिया को ।
“क्या बात कर्रे हो भिया !! टिकिट मिलता तो आपको किसी के पाऊँ छूने देते क्या हम ! भिया आपके असिरवाद से इत्ती रंगबाजी तो हेगी कि आपको लेके जिधर से भी निकाल जाएँ लोगबाग अपने दरवज्जे बंद कल्लें फ़्ट्ट से । किसी की हिम्मत नी हे कि आपके सामने टांग खोल के खड़ा हो जाए । भिया थाली में रख के आपके जूतों का जनसम्पर्क करवा दें तो सामने वालों की जमानत जप्त हो जाएगी । आपके पसीने की एक बूंद पे पब्लिक का लोटभर खून कुर्बान करने में देर थोड़ी लगेगी ।“
“ठीक हे यार, चुनाव लड़ना जरूरी हे क्या ! गांधी जी ने कभी चुनाव नी लड़ा तो क्या वो देश के नेता नी हें ? ... अपुन तो अच्छई सोचो ना । पार्टी को भविस के लिए एक नया गांधी चिए होगा । राजनीति में पास की नी सोचना चिए, हमेसा दूर की सोचना चिए ।“  चेले गब्बू भिया के ऊंचे विचार सुन कर लट्टू हो गए । सोचने लगे वो दिन भी क्या होगा जब भिया का फोटू नोटों पे छ्पेगा ।  खुशफहमी में पट्ठों ने नारा लगा दिया “ देश का नेता केसा हो, गब्बू भिया जेसा हो” 
भिया ने फौरन रोका, - “अबे नारा मत लगाओ बे , लोग समझेंगे कि टिकिट मिल गया । फोकट केन हो जाएगी । खाया पिया कुछ नई, गिलास फोड़ा बारा आना । “
“भिया एक बात मान्नी पड़ेगी आपको । अबकी अपन साँड सिंग को सबक जरूर सिखाएँगे । भोत हो गया । सारी जिंदगी उनकी दरी उठाते बिछते रहोगे क्या !! हमेशा पालतू बने रहे, दुम हिलाते रहे और आज टिकिट के टैम पे मिला क्या !! ... सब लोग कसम  खाओ हाथ में जल ले के कि अब साँड का काम नी करेगा कोई ।“  कनिया ने कसम  दिलवा दी । तभी रिंगटोन बज उठी गोली मारो भेजे में ...
गब्बू भिया ने फोन लिया –“ हाँ भिया ..... नहीं भिया ...... ऐसी कोई बात नी हे भिया ...... टिकिट की दोड़ में तो अपन थेई नी ..... । नई मिला तो नई मिला .... । हाँ , करेंगे ना ..... हाँ हाँ , अपने सारे छोरे करेंगे ..... ठीक हे भिया .... बिलकुल भिया .... जेसा आप बोलोगे भिया .... हओ भिया । “
“साँड सिंग का फोन था ..... बोलो क्या करे ?” गब्बू भिया ने कनिया कि तरफ देखते हुए पूछा ।
“जेसा आप बोलो भिया । “  कनिया के साथ सब बोले ।
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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्राश – 2 ...... (रजवाड़ी रजवाड़ी)



खबर है कि पार्टी के दो बड़े नेता भिड़ पड़े ! कुछ का कहना है कि हाथापाई की नौबत आ गई, कुछ का कहना है कि हो गयी । मीडिया ने बताया है कि एक वानपृस्थ के दरवाजे पर हैं दूसरे सन्यास आश्रम के द्वार पर । दोनों की जवाहर जेकेट में रजवाड़ी च्यवनप्राश और वसंतकुसुमाकर रस की डिब्बी है । दोनों रसायनों के बारे में आयुर्वेद कि चेतावनी है कि तय मात्रा से अधिक लेने पर यह विकार पैदा करती है । रोगी में उन्माद के लक्षण पैदा हो जाना आम बात है । लेकिन फिलहाल यहाँ के दृश्य पर चर्चा करना बेहतर है । मामला यह है कि दोनों महारथी अपने अपने पट्ठों को चुनाव लड़वाना चाहते हैं । क्योंकि पट्ठे हैं तो वे हैं । बाहर लड़ने वालों की भीड़ जमा है । किसी कवि ने बहुत पहले बहुत ठीक कहा है कि ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का । आजकल कंपनियाँ अलबेलों मस्तानों को जॉब नहीं देती हैं । इसलिए मजबूरी भी कोई चीज होती है, वरना हर कोई मोटी चमड़ी का नहीं हो पाता है । हरेक लड़ने का इच्छुक अपने साथ सिविल ड्रेस में पाँच सात बाउंसर लिए खड़ा है । वे दूरदृष्टा और समझदार हैं । मूरखों की तरह नहीं कि प्यास लगे तब कुंवा खोदने कि जुगत करें । जैसे ही जरूरी होगा महाभारत की आदर्श परंपरा को सम्मान दिया जाएगा । प्रेम , युद्ध और टिकिट के झगड़े में सब जायज है ।
पार्टी मुख्यालय के प्रांगण में गांधी जी की प्रतिमा लगी हुई है जिसके हाथ में लाठी भी है । प्रतिमा के कंधे पर बैठे कबूतर ने अभी तक शांति की उम्मीद नहीं छोड़ी है और लग रहा है जैसे वह गुटुर गूँ के साथ वैष्णव जन तो तेने कहिए गा रहा है ।  
“गांधी जी की गाइड लाइन के हिसाब से हमें भी यहाँ लाठी ले कर आना चाहिए था ।“ टिकिटार्थी यानी भिया के साथ आए चेले ने कहा ।
“ऐसा नहीं है रे, गांधीजी के पास जेब नहीं थी इसलिए वो चाकू नहीं रख पाते थे । वरना जो बकरी का दूध पिये और मिलों तक तेजी से पैदल चले उसे लाठी लेने कि क्या जरूरत है !! ..... तुम चिंता मत करो, हम गांधीवादी ही हैं ।“  भिया ने चेले को दीक्षित किया ।
“गांधी जी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी, टिकिट की लड़ते तो पता चल जाता कि असल लड़ाई क्या होती है । पाँच साल हो गए पार्टी में दुम हिलाते ..... अब इच्छा हो रही है कि भँभोड़ डालूँ दो चार को । “ भिया पिन्नाए ।
“जब तक अंदर से छू का इशारा नहीं मिले शांत खड़े रहो भिया । पीछे मीडिया वाले भी कैमरा ले कर तैयार खड़े हैं । “
तभी अंदर से दो बयान बाहर आए कि “हम नहीं लड़े, खबर झूठी है । पार्टी एकजुट और मजबूत है । “
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गुरुवार, 1 नवंबर 2018

चुनावी च्यवनप्रश -- 1 (मार्केट में मामाजी के कज़िन)



इनदिनों अच्छे भले जिम्मेदारों को कनफ़्यूजन हो रहा है । रहा आमजन का सवाल तो भईया ऐसा है कि कन्फ़्यूजन उसके लिए मल्टीविटामिन की तरह है । सुबह शाम एक एक बार कन्फ़्यूजिया नहीं ले तो सेहत बिगड़ने लगती है । सत्तर साल हँसते मुस्कराते ऐसे ही नहीं काट लिए हैं उसने । हफ्ते भर से राजधानी मार्ग पर कारें दौड़ रही हैं , आज कुछ ज्यादा ही । पहले तो लगा कि रैली वैली है और कोई रोड शो के चक्कर में देश का कीमती पेट्रोल फुँकवा रहा है । पूछा तो पता चला कि सारे टिकिटार्थी हैं और राजधानी लपक रहे हैं । एक रेस सी लगी है, मानो जो पहले पहुंचेगा टिकिट उसका ।
हर टिकिटार्थी कार में अपने साथ मामाजी का एक कज़िन ले कर बैठा है । इस समय मामाजी के कज़िनों का मार्केट हाई है । यो समझिए कि राजनीति के बाज़ार में सिक्कों से ज्यादा कज़िन-सिक्के चल रहे हैं ।  जैसे बरसात के मौसम में जुगनू या मेंढक निकल आते हैं वैसे ही जगह जगह मामाजी के कज़िन निकल रहे हैं । सबके कंधों पर कुर्ता जेकेट और नाक पर चश्मा है । बहुत से कज़िन कज़िन कम क्लोन ज्यादा लग रहे हैं । होने से ज्यादा लगना महत्वपूर्ण है । जो जितना लग रहा है उतनी उसकी साख है । साख पर ही आर्थिक गतिविधियां चलती हैं । सब जानते हैं कि आर्थिक गतिविधियां नहीं हों तो कोरी राजनीति तालाब में पड़ी  काई है । प्रकट रूप में जो राजनीतिक गतिविधि है वो अप्रकट रूप में आर्थिक गतिविधि ही है । जो इस रहस्य को समझ लेता है वो राजनीति की पकड़म पाटी में शामिल हो जाता है और जो नहीं समझता वो कभी नोटा को खुजाता, कभी वोटा को सहलाता, चिड़िया उड़ काऊवा उड़ खेलता रहता है ।
ढाबे पर एक बड़ी सी यानी काफी बड़ी सी कार रुकी । कार क्या है  आप यूं मानिए कि मिनी बस की कज़िन है ।  पंद्रह सोलह लोग उतरे ।
“मामाजी पहले फ्रेश हो लो, टाइलेट उधर है । “ एक बोला ।
मामाजी जाने लगे तो दूसरे ने रोका - “ बंसी जरा देख के आ कि टाइलेट साफ है या नहीं ।“ बंसी लपका, तुरंत रिपोर्ट लाया कि टाइलेट साफ है ।
“अब जाइए मामाजी ।“ मामाजी चले गए । आसपास वाले समझ गए कि वही टिकिटार्थी है । अब वो पट्ठों को बता रहा है कि ये मामाजी के खास वाले कज़िन हैं । जब छोटे थे तो मौसी बुआ के लड़कों कि शादी में पंगत को लड्डू चक्की परोसते थे दोनों मिल कर ।  कज़िन मामा ने उनसे कभी किसी के लिए कुछ कहा नहीं पर आज जिंदगी में पहली बार अपने टिकिट के लिए कहेंगे । और देखना मामा तो क्या मामी भी उनकी बात टाल नहीं पाएँगी ।
कज़िन मामा बाहर निकले ।
“मामाजी चाय या काफी कुछ ?”
“चाय काफी बाद में , पहले कचोरी समोसा कुछ ?” दूसरा बोला ।
“पोहा जलेबी भी है । “ तीसरी आवाज ।
“कोक फ्रूटी भी दिख रही है । “
“है तो खमण फफड़ा भी । “
मामाजी सोच रहे हैं , विकल्प ज्यादा हों तो दिक्कत होती है । एक को चुनना आसान है लेकिन बाकी को खारिज करना कठिन ।
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शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

नए महात्मा नया संदेश


“देखो कायदा तो ये है कि जब चुनाव सिर पर हों तो सत्य-अहिंसा को सफ़ेद कपड़े में बांध कर टांड़ पे सरका देना चाइए । येई समझ में नई आता है कि पार्टी जब नए खून और युवा शक्ति को आगे लाना चाहती है तो बीच में फच्चर मारने सत्य-अहिंसा कहाँ से आ गए !! अब तुम बताओ टिकिट कि कित्ती तो मारा मारी मची है पार्टी में । बायोडाटा में एक सच के साथ हजार झूठ लिखना पद रहे हैं । और साथ में सौ चक्कूधारी नहीं हों तो पोलटिक्स में युवा हिरदे समराट बनाने की बात तो दूर आदमी किसी से पिल्ला-मूजोरी भी नहीं कर सकता । सत्य-अहिंसा का बाजा बजाएँगे तो दूसरी पार्टी वाले सिर पे नाचेंगे । चुनाव लड़ना अंग्रेज़ भगाना नहीं है, ये बात हाईकमान को समझना पड़ेगी ।“ टिकिट के लिए संघर्षरत युवा हृदय सम्राट पिन्ना रहे थे । दरअसल हाईकामन के दफ्तर से एक आदेश आया है कि पार्टी सत्य-अहिंसा को लेकर जितना भी प्रचार प्रसार कर सकती हो करे । डिबेट हो, चर्चा भाषण हों, बयान-तूफान-धमाल जो भी संभव हो किए जाएँ । जब दूसरी पार्टियों का मुख्य आचरण असत्य और हिंसा हो तो सत्य-अहिंसा हमारी पार्टी की मेन लाइन होना चाहिए । 

पंडिजी नाम से पुकारे जाने वाले बुजुर्ग नेता बोले – “देखो भिया, ज्यादा लोड लेने की जरूरत नहीं है । सत्य-अहिंसा हमारी पार्टी के आजमाए हुए जुमले हैं । जुमले समझते हो ना ? पूरा देश समझता है अब । जुमले आज कि राजनीति का सच है । राजनीति के सत्य और डिक्शनरी के सत्य में जमीन आसमान का अंतर होता है । राजनीति का सत्य वह सत्य है जिसे जानते सब हैं लेकिन बताता कोई नहीं है और डिक्शनरी का सत्य बताते सब हैं पर जनता कोई नहीं है । ..... पार्टी जब सत्य-अहिंसा के मार्ग पर चलने को कह रही है तो इसे राजनीतिक तौर से समझने कि जरूरत है महात्मा गांधी के बताए अर्थ से नहीं ।.... हालांकि महात्मा गांधी हमारे मार्गदर्शक हैं , पार्टी के आदर्श भी हैं ।“

“ये क्या के रये हो पंडीजी ! जिसका डर था वोई हो गया क्या  !! अब्बी तो कैलास मानसरोवर की यात्रा करी ! और अब्बी महात्मा भी हो गए फटाफट !! ताक में बैठी सामने वाली पार्टी तो चट्ट से खेंच लेगी और उनको यूपी का मुख्य मंत्री बना देगी दन्न से और सारा मामला देखते देखते भूतपूर्व हो जाएगा ।“

“ अरे यार युवा हिरदे जी जरा ब्रेक भी लगाया करो । कभी बापू का नाम नहीं सुने हो क्या ? .... ना ना .... और किसी बापू का नाम मत लेना, अपने वाले बापू जो नोटों पर छ्पते हैं, वही ।“

“पंडीजी अपनी पार्टी में कनफुजन भोत है । पुराने महात्मा, नए महात्मा ! येई समझ में नई आता कि फॉलो किस्को करें, ओरिजनल कौन है !”

“राजनीति में समय का बड़ा महत्व है । इस वक्त जो भी है वही पार्टी का मुकद्दर है ।  मजबूरी में प्लास्टिक महात्मा ही असली महात्मा है । जो ओरिजनल महात्मा है वो सबके पर्स में तो है लेकिन सोच में नहीं है । ओरिजनल महात्मा जेब में आता है दिल में नहीं आता है समझे । हमारे लिए जो कुर्सी पर है वही असली है, उसी को फॉलो करो ।“

“चलो ठीक है पंडीजी, हमें क्या । हमें तो टिकिट से मतलब, लेकिन इस सत्य और अहिंसा का क्या करें !? कोई रूपरेखा हो , कोई उदाहरण तो हो ।”

“ चुनाव का समय है युवा हिरदे समराट, लोगों के गले लगो और आँख मारो । इसमे सत्य और अहिंसा दोनों कवर हो जाते हैं । नए महात्मा का नया संदेश यही है ।

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'मातारानी' ! मुझे बनावाओ प्रधानमंत्री



मैं प्रधानमंत्री बनने को तैयार हूँ । ऐसा सोचना मेरा जन्मना अधिकार है । आपको पता होगा कि सोचने देने के बारे में संविधान मौन है । मतलब साफ है कि आप मर्जी हो जितना सोच सकते हैं, या फिर मर्जी हो तो उतना नहीं भी सोच सकते हैं । बड़े लोग कह गए हैं कि आदमी को ऊँची सोच रखना चाहिए । कुछ ने तो सपने देखने को भी कहा है । आज अगर कलाम साहब होते तो मेरी पीठ अवश्य थपथापते । उन्होंने कहा था कि बड़े सपने देखो, छोटे सपने देखना अपराध है । किसी पद के लिए मैं योग्य हूँ या नहीं हूँ यह सोचना मेरा काम नहीं है । सोचना एक तरह से पतंग उड़ाने जैसा काम है । दूसरे की काटोगे तभी अपनी उड़ा पाओगे । जिसके पास जितनी डोर हो वह उतना ऊँचा उड़ सकता है । और डोर जो है फैमिली बैगराउंड के हिसाब से मिलती है । जो लोग इस अंतर को समझ लेंगे वे मेरा मजाक नहीं उड़ा पाएंगे ।
जोशी पंडीजी एक नए नए वरिष्ठ नेता हैं , समझाइश देने लगे कि तुम्हारे लिए प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना पाप के समान है । तुम लेखक हो, लिखो और परिश्रमिक का सपना देखो मजे में । तुम्हारे व्यक्तित्व को सूट भी यही करता है । तुम तो समझदार भी हो फिर क्यों किसी के फटे सपने में अपनी आँख घुसेडते हो !! अगर सपने देखने का एग्जीमा हो ही गया हो तो पद्मश्री का देख लो । पचास हजार लोगों ने आवेदन किया है पद्म-प्रसाद के लिए, एक तुम भी कर दोगे तो सरकार पर कोई वित्तीय संकट नहीं आ जाएगा ।  बिल्लियों के भाग्य से छीके आज भी टूटा करते हैं । तुम्हारी फील्ड का यही बड़ा सपना है ।
मैंने आपत्ति ली कि आप मेरी हिम्मत पस्त कर रहे हैं । लोकतन्त्र में सबको अपनी पसंद के सपने देखने का अधिकार है । आप भी चाहें तो मुझे अपना कीमती वोट देने का सपना देख सकते हैं ।
“गलत बात मत बोलो । लोकतन्त्र में जनता को वही सपने देखने का अधिकार है जो सरकार दिखाती है । पूरा हो न हो विकास का सपना देखो । इसके अलावा दूसरे सपने देखना राष्ट्रद्रोह है । और इस बात का भी विशेष ध्यान रखें कि मौब कानून कि तरह अंधा-बहरा नहीं होता है । मौब कि अदालत में न वकील होता है न तारीखें मिलती हैं । ये तो बहुत अच्छा है कि तुम किसी राष्ट्रीय पार्टी के टोलाध्यक्ष नहीं हो वरना अब तक तुम्हारी इस हरकत को बेतुकी और बचकानी करार दिया गया होता । “  जोशी पंडीजी ने हिदायतों के पानी-पताशे पेश किए ।
जोशी पंडीजी कि यह बात मुझे पसंद नहीं आई । मैं संवेदनशील लेखक हूँ और गरीबों, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों की आवाज बनना चाहता हूँ । मैं जो उल्टा सीधा लिखता हूँ वो अंततः इन्हीं के हक में होता है । और शिष्ट इतना हूँ कि किसी चौकीदार को चोर नहीं कहता हूँ । फिर ऐसी क्या दिक्कत है कि मैं प्रधान मंत्री नहीं बन सकता !?  माना कि मेरे पास कोई नीति या दृष्टिकोण नहीं है, लेकिन इससे क्या ? राजनीति में ये चीजें अब किसके पास हैं !!
"देखो भईया, ऐसा है कि सिर्फ सपने देखने से कुछ नहीं होने वाला है । खामख़याल आप कंपेटीशन बढ़ा कर टीआरपी खराब करोगे और कुछ नहीं । प्रधानमंत्री का सपना वही देख सकता है जिसकी पीठ पर छाप हो । ये सपनों का आम रास्ता नहीं है कि कोई भी ऐरा गैरा मुंह ऊँचा किए इधर से गुजरने की हिमकर करे ।"
"मैं ऐरा गैरा नहीं हूँ जोशी जी , बनारस के पंडों  से पूछ लो मेरे पूरे वंश का नाम दर्ज मिलेगा उनके खातों में । और मैं मातारानी से प्रार्थना कर रहा हूँ, इसमें आपको क्या ?"
"मांगों, मुझे क्या ! भूरे कद्दू की तरह चौराहे पर पड़े मिलोगे नौमी के दिन ।"
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बुधवार, 19 सितंबर 2018

बच्चे एक्सपोर्ट क्वालिटी के होना !



“ देखिये भाई साहब ऐसा है, हिन्दी अपनी जगह है और बच्चों का भविष्य अपनी जगह । हिन्दी की  नहीं अपने बच्चों की ज़िम्मेदारी तो हम पर ही है ! एक तो जब से टीवी आया है हिन्दी के चेनल्स इतने हो गए हैं कि पूछो मत ! डेंगू के मच्छरों की तरह दिन भर हिन्दी में इतना काटते रहते हैं कि रात होते होते हिन्दी का बुखार इतना तेज चढ़ जाता है कमबख्त । एक घंटा अँग्रेजी की ट्यूशन ले कर आया आदमी दो सीरियल में वापस हिन्दी हो जाता है । इंगलिश का अखबार लगाया लेकिन मोहल्ले भर में हिन्दी के दो दो तीन तीन अखबार ले रहे लोग ! जैसे खाना नहीं खाया है हिन्दी की कसम खा ली हो लांच डिनर में ! पढे लिखों से भी बात करो तो हिन्दी ही सुनने को मिलती है । ये कोई विकास है !!  बाज़ार के हाल ये कि विज्ञापन देखो सारे हिन्दी में !! सच्ची बात तो ये है कि हिन्दी को बाज़ार ने अंडर कवर एजेंट बना लिया है ग्राहक फाँसने के लिए ! लोग अगर अँग्रेजी सीखना चाहें तो सीखें कैसे ! …. देखो भैया ऐसा है कि अपने बच्चों का तो सोचना ही पड़ेगा । देश में हर दिन पचास हजार बच्चे पैदा हो रहे हैं उनसे हमें कोई मतलब नहीं है । उन्हें तो हिन्दी पढ़ना ही चाहिए, आखिर आगे चल कर उन्हें प्रजा ही होना है । बड़े लोगों ने कहा है कि आदमी को लक्ष्य ऊंचे रखना चाहिए । इसका मतलब है सबसे पहले अँग्रेजी और उसके बाद सीधे अमेरिका । देश के नेता दुनिया भर में घूम घूम कर डंका पीट रहे हैं तो बच्चे भी एक्सपोर्ट क्वालिटी के होना कि नहीं होना ? ईश्वर की कृपा से अब बच्चे भी गोरे पैदा होने लगे हैं । प्रोडक्ट मार्केट के हिसाब से परफेक्ट दिखाई देता है । आप खुद ही सोचिए, गोरे बच्चे हिन्दी बोलते किसको अच्छे लगते हैं । मजबूरी नहीं होती तो मात्र भाषा के लिए लाख रुपये साल की फीस दे कर इंगलिश मीडियम में पढ़ना कोई मजे की बात नहीं है । सरकार से उम्मीद थी लेकिन अब तो वही ऊपर से नीचे तक हिन्दी हो गयी है । वो तो अच्छा है कि अधिकारी वर्ग अँग्रेजी दाँ है वरना सरकारी कागज पत्तर भी हिन्दी में ही देखना पड़ते । आप मानो न मानो पर अधिकारी तो अँग्रेजी वाला ही ओरिजनल लगता है बाकी तो फोटोकापी हैं । आगे की सोचते है इसलिए बेटा बहु अपने बच्चे को दादा दादी के पास इसलिए नहीं फटकने देते कि कहीं वे हिन्दी न सीख लें लाड़ लाड़ में । प्लीज बात को समझो भाई, हिन्दी की वकालत अपनी जगह है और बच्चों का भविष्य अपनी जगह । “
बात हिन्दी के व्याख्याता डीडी अनोखे जी से हो रही है जो फिलहाल सरकार से हिन्दी नहीं पढ़ाने का छ्ठा वेतनमान ले रहे हैं । उनका कहना है कि जिस दिन सातवाँ उनके खाते में आ जाएगा उस दिन पढ़ा देंगे । वैसे उनका मानना है कि हिन्दी भी कोई पढ़ाने की चीज है ! जो गरीब गुरबों, नंग धड़ंग बच्चों तक को आती है उसे क्या पढ़ाना ! और क्यों पढ़ना !? दुध की जगह दूध लिख देने से दूधवाला शुद्ध दूध दे देगा क्या ? पढ़ाने की चीज तो अँग्रेजी है । कितना भी पढ़ो पढ़ाओ नहीं आती है । खुद अनोखे जी ने शुरू शुरू में बहुत ट्राई किया था । उस जमाने में अँग्रेजी भी हिन्दी मीडियम में पढ़ाई जाती थी जो उनके पास अंत में हिन्दी बन के रह गयी । विश्वविध्यालय ने भी उन्हें हिन्दी की डिग्री दे कर पिण्ड छुड़ा लिया । अनोखे जी ने भी सोचा भागते भूत की लंगोटी भली । सो तभी से हिन्दी की डिग्री उनके लिए लंगोटी है । इज्जत बच गयी, वरना पहनने के नाम पर कोई टोपी बच रहती और किसी पार्टी के युवा हृदय सम्राट को जन्मदिन की लख लख बधाइयाँ दे रहे होते । खैर ।  
“ तो अनोखे जी इस बार हिन्दी दिवस पर क्या कुछ करने वाले हैं ?
“ उसकी छोड़ो, ये बताओ सरकार सातवाँ दे रही है या नहीं, क्या खबर है ?”
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रविवार, 19 अगस्त 2018

बेटा इसको केहते हैं विकास


दुनिया जिस ते़जी से बदल रही है उसे देखते हुए मानना पडेगा कि विकास हमारी मज़बूरी है. कोई चार लोगों के बीच बैठा हो तो उसे वही करना पड़ता है जो सब कर रहे हों. लेकिन जब वह करने लगता है तो मजा, मर्जी और जिम्मेदारी उसकी है. पड़ौसी के यहाँ बड़ा फ्रिज आया तो हमारे फ्रिज में जगह कम पड़ने लगती है. फ्रिज की इस सम्वेदनशीलता को आप क्या कहेंगे !? यह नयी तकनीक है, इसे आप उपकरणों का समाजवाद भी कह सकते हैं. पक्का है कि आप मानेंगे नहीं, लेकिन यह तकनीकी विकास है. जिन घरों में आज भी स्कूटर रखने की जगह नहीं है उनकी दो तीन कारें सड़क पर खड़ीं हैं. भले ही यह बैंकों की तालठोक लोन नीति का परिणाम हो,  पर यह विकास है. मोहल्लों में अब लोग कम कर्जदार कारें ज्यादा रहती हैं. लगता है बैंकों ने कारों के खेत बो दिये हैं. कृषि को उध्योग कहने के पीछे बड़े अर्थ छुपे हैं. किसी जमाने में लड़का लड़की से शादी करता था, अब असल में दहेज़ के सामान से करता है. नयी जिंदगी की बुनियाद में मुफ्त की उच्च जीवनशैली को प्राथमिकता देना हमारे शैक्षिक विकास का प्रमाण है. लेकिन जो नागरिक भाई अशिक्षित, जहिल और जान-वर किस्म के हैं  उनका ध्यान बलात्कार पर केंद्रित है, जिसके मध्यम से लगातार आँकड़े बढ़ाते हुए वे अपने राज्य को नंबर वन बना कर विकास की नयी परिभाषा लिख रहे हैं. आदरणीय अपराधी बंधु भी निर्भय हो कर पूरी गंभीरता से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं. पूछने पर पता चलेगा कि दो मर्डर, तीन दंगे, पच्चीस केस और पाँच करोड़ की प्रापर्टी. बेटा इसको केहते हैं विकास.
इनदिनों शाम को समाचारों के लिये टीवी खोल के बैठो तो पोलिटीकल मास्किटो जिन्हें कुछ लोग राजनीति के मच्छर भी कहते हैं, बहस करते दिखाई देते हैं. हर मच्छर दूसरे को डेंगू का मच्छर सिद्ध करने पर आमादा रहता है. हाल ये होते हैं कि बहस सुनते सुनते आदमी को ठंड दे कर बुखार चढ़ने लगता है. कोई और जगह होती तो कुनैन या पैरासेटामोल गटकने की जरुरत पड़़ जाती, लेकिन इधर टीवी बंद करते ही बुखार उतर जाता है. ये चमत्कारी  विकास है.  विकास को लेकर बहुत बातें हो रही हैं. लेकिन विकास किसी एक पार्टी का मुद्दा नहीं है. चुनाव के समय हर पार्टी का अधिकार है कि वह ठोक के  विकास की बात करे. झूठ अक्सर प्रिय लगता है, जनता को प्रिय लग जाये तो  वोट भी मिल जाते  हैं. जैसे यह सुनना कि मतदाता बहुत समझदार है, मतदाता जागरूक है, मतदाता सब जनता है, मतदाता देश का असली मालिक है, वगैरह. लोकतंत्र बड़ी चीज है, उसकी रक्षा के लिये एक दिन क्या, पूरे पाँच साल भी झूठ बोलना पड़े तो बोला जाना चाहिये. इसमें कोई हर्ज नहीं है.  लोकतन्त्र  को जिंदा रखने के लिये झूठ की एक आदर्श परंपरा रही है और उसमें लगातार विकास हो रहा है. आपको बता दें अंदर के लोग इसी को विकास की राजनीति कहते हैं.
आपको याद होगा देश जब आजाद हुआ था तब की बात है. हमारे पुरखे मात्र छत्तीस करोड़ थे. सत्तर साल में हम एक सौ छत्तीस करोड़ हैं. मतलब पूरे सौ करोड़ का शुद्ध इजाफा हुआ. देखिये आजादी के मामले में जनता बहुत सेंसिटिव है. कमाई पर भले ही जीएसटी लगा दो, पेट्रोल डीजल के भाव और बढ़ा दो, लेकिन आजादी के बीच में बोलने का नई.  इस आजादी पर जिस सरकार ने निगाह डाली वो समझो गई. चीन ने कहा बड़ी जनसंख्या हमारी ताकत है. भारतीयों ने दिल पे ले लिया. अब चीन के प्राण सूख रहे हैं, क्योंकि  पच्चीस साल में हमारी जनसंख्या उससे आगे निकल जायगी.  हो दम तो लगा ले बेटा रेस. तब देखना दुनिया भर के वैज्ञानिक हमारी ग़रीबी में छुपी ताकत पर कितना शोध करेंगे. चीन जैसे बड़े देश से आगे निकल जाना ठोस विकास नहीं तो क्या है.
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लेखन के लोह पुरुष


जब वे कुछ नहीं लिखते थे तब भी बहुत कुछ थे. जब कुछ लिखने लगे तो माना कि वे बहुत कुछ से बहुत ऊपर हो गए हैं. अपने यहाँ लेखन में सेल्फ असेसमेंट ऐसा ही है, कई बार तो पहली कविता लिखते ही आदमी अपने को महाकवि मान लेता है. आप कहेंगे कि खुद के मानने से क्या होता है ! दुनिया माने तो कुछ बात है. तो भाई साब दूसरी सारी फील्ड में ऐसा होता होगा, इधर लेखन में आदमी सबसे पहले अपना लोहा खुद मानता है. इसको कान्फिडेंस भी कहते हैं. कान्फिडेंस का ऐसा है कि वो हर किसी को नहीं आता है. राजनीति को ही लीजिये,  कोई जबरदस्ती राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है पर जरुरी नहीं कि उसमें कान्फिडेंस भी आ जाये. लेकिन लेखन में ऐसा होता है, कई बार तो कहानी बाद में खत्म होती है कान्फिडेंस लपक के पहले आ जाता है. यही वजह है कि हर लेखक अपने को दूसरे से बड़ा मानता है.
अब बात उनकी,  शुरू से वे छोटी कहानियां लिखते रहे थे. लेकिन उन्हें लगा कि छोटी कहानियां लिखने वाले छोटे होते हैं. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे उपन्यास लिखेंगे और उपन्यास के आलावा कुछ नहीं लिखेंगे. रोज अंडा दे कर आमलेट बनवाना उन्हें पसंद नहीं हैं. अगर अंडे ही देना हैं तो डायनोसार के दें. डायनोसार का अंडा एक दर्जन मुर्गियों से भी बड़ा होता है और सही हाथों में पड़ जाये तो इतिहास में दर्ज हो जाता है.  फटाफट उनका एक उपन्यास मैदान में है. कुछ प्रतियों के साथ आज वे मित्रों के बीच मौजूद हैं. इस समय वे बहुत ऊँचाई पर हैं. कोई उनके बराबर नहीं है. लिहाजा प्रोटोकोल की मज़बूरी कहिये कि वे ही कार्यक्रम के अध्यक्ष हैं, वे ही मुख्य अतिथि और वे ही संचालक. संयोजक तो खैर दूसरा कैसे हो सकता था. संचालन करते हुए उन्होंने पहले अपने बारे में तबियत से बताया. फिर उपन्यास के बारे में कि यह सचमुच में महान  कृति है। मानवीय रिश्तों को लेकर विस्तार इतना है कि महाभारत से आगे का मामला है. अगर इसे आलोचक पढ़ लेंगे तो उनके पास कुछ कहने लिखने की समस्या हो जाएगी. कुछ नामी आलोचकों से बातचीत हुई है, लेकिन उन्होंने पढ़ने से पहले ही हथियार डाल दिए हैं. यह उपन्यास की सफलता है. साहित्य के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब आलोचक किताब देख कर ही नर्वस हो गए हैं. हिम्मत तो छापने वालों की भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब उन्हें भरपूर हौंसला दिया तो वे तैयार हुए. साहित्य के लिए लेखक को ही तन मन धन से आगे आना होता है. लेखक की निजी जिंदगी भी लेखन प्रक्रिया में होम हो जाती है. सबसे पहले पत्नी को पढ़वाया तो चौथाई उपन्यास पढ़ते वह बीमार हो गयी. ईलाज में बहुत पैसा लग रहा था, लेकिन उसका त्याग देखिये, बोली पैसा बर्बाद मत करो मुझे तो भगवान ठीक कर देंगे, तुम पहले अपना उपन्यास छपवा लो. किसी लेखक की पत्नी का इससे बड़ा त्याग क्या हो सकता है !! मित्रों, लेखक बनना बहुत कठिन है. कबीर वैधानिक चेतावनी दे गए थे कि “जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ”, लेकिन भईया हम तो फूंक बैठे, हमको तो कीड़ा काटा था, पर आप लोग ये गलती मत करना. जो आनंद पाठक बनने में है वो लेखक बनने में नहीं है. किताब खरीदो और टाइम पास करो मजे में, जो ज्ञान मिले उसको झाड़ो चार लोगों के बीच. इस बात पर विचार करो कि लेखक की बर्बादी के ढेर पर बैठ कर पाठक कितना ऊँचा उठ जाता है.
अंत में उन्होंने निराशा व्यक्त की कि कोई मित्र फूल माला ले कर नहीं आया. अगर उन्हें पता होता तो वे खुद लेते आते. आजकल तो जनसंपर्क के लिए जाते हैं तो बड़े बड़े नेता भी फूल माला का अपना इंतजाम करके निकलते हैं. इसमें शर्म कैसी ! जहाँ इतना खर्च किया वहां दस बीस रुपये और सही. हालाँकि कार्यक्रम को गरिमा प्रदान करना लेखक के मित्रों का काम है. लेकिन कोई बात नहीं महंगाई बहुत है, मुझे बुरा नहीं लगा है, आप लोग भी बुरा मत मानिये. लेखक को कई बार अपमान के घूंट पीना पड़ते हैं. यह एक तरह की अंगार- साधना है, अपने को जलाना पड़ता है.
तभी संकोच करता एक श्रोता उठा, बोला - “सर, मैं एक फूल माला लाया हूँ छोटी सी. यहाँ कोई नहीं लाया तो संकोचवश मैंने सोचा ……”
“अरे इतनी देर से क्यों छुपाये बैठे थे भाई !! आप तो सच्चे साहित्य प्रेमी निकले. लाओ मुझे दो, मैं ही पहन लेता हूँ. आपने इतना कष्ट किया, अब आपको और कष्ट देना  ठीक नहीं है.” कहते हुए उन्होंने फूल माला अपने गले में डाल ली. गदगद हो उन्होंने कहा किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लें, उपन्यास के बारे में.
समझदार श्रोताओं ने कहा - हम क्या पूछें, आप ही बताये तो बेहतर है.
जवाब में वे बोले- बहुत कठिन काम है लिखना. जान का खतरा होता है इसमें. आजकल लोग बर्दाश्त नहीं करते हैं, इसलिए बड़ा सोच सोच कर लिखाना पड़ता है. एक दिन में ढाई सौ शब्द लिखता हूँ. इस उपन्यास में चालीस हजार दो सौ पचास शब्द हैं और कीमत देखिये तीन सौ रुपये मात्र. एक रुपये में लगभग एक सौ पैंतीस शब्द !! आप लोग लिख कर बताइए एक सौ पैंतीस शब्द, भगवान याद आ जायेंगे. इससे सस्ता कुछ नहीं है आज की डेट में. मैं आप लोगों की सेवा के लिए लिख रहा हूँ. अभी मेरे पास लाईन लगी है उपन्यासों की. एक प्रकाशक के यहाँ पड़ा है, दूसरे की पाण्डुलिपि तैयार है, तीसरा लगभग पूरा हो चुका है, चौथे की रुपरेखा तैयार है और पांचवा दिमाग में आकर ले रहा है.
कक्ष में मरघटी सन्नाटा पसर गया. कुछ देर वे खामोश रहे, कोई नहीं बोला तो उन्होंने ही ताली बजा दी. लोग जैसे होश में आये और सबने उनकी तालियों में अपनी तालियाँ मिला दीं.
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